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[श्रमण-भिक्षु-सूत्र
रहित हो, यानी विनय शील हो, ऐसे गुणो से युक्त होकर जिनेन्द्रभगवान द्वारा कथित धर्म मे शाति पूर्वक जीवन व्यतीत करता रहे।
( ४५ ) चिच्चाण यंतगं सोयं, निरवेक्खो परिवए।
सू०, ९, ७ टीका-आतरिक शोक को, ताप को, आसक्ति को त्याग कर निरपेक्ष होकर, तृष्णा रहित होकर, मुमुक्षु या परमार्थी पुरुष अपना जीवन-काल व्यतीत करता रहे । सेवा की साधना मे सलग्न रहे ।
(४६ ) जो धोवती लुसयती व वत्थं, अहाहु से णाग णियस्स दूरे। .
सू०, ७, २१ टीका-जो मुनि होकर, त्यागी होकर, श्रृंगार- भावना से चस्त्र को घोता है, अथवा शोभा की दृष्टि से बड़े वस्त्र को छोटा करता है, या छोटे को बड़ा करता है तो वह सयम से दूर है, ऐसा तीर्थंकरो ने तथा गणधरो ने कहा है।
(४७) अभयंकरे भिक्खु प्रणाविलप्पा । ।
सू०, ७, २८ टीका-मुनि का यही धर्म है कि वह प्राणियों को अभय देने चाला हो, तथा विषय-कषाय से रहित हो। स्वस्थ चित्त वाला होकर अच्छी रीति से सयम की परिपालना करे।
(४८) . भारस्स जाता मुणि भुजपज्जा।
सू०, ७, २९