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अनित्यवाद-सूत्र
( १ ) जीवियं चेववि रूव च, विज्जु संपायचंचलं ।
उ०, १८, १३
टीका—यह जीवन और रूप-सौन्दर्य, भोग और पौद्गलिक सुख... ये सब विजली के प्रकाश के समान चचल है, क्षणिक है । इसलिये भोगो मे मूच्छित न वनो । वासना और विकार को छोड़ो । ( २ ) इमे सरीरं श्रणिच्चं, सुई असुर संभवं ।
उ०, १९, १३
टीका - यह शरीर अनित्य है । न मालूम किस क्षण नष्ट हो जाने वाला है । अशुचि से भरा हुआ है । मल-मूत्र, मांस, हड्डी, खून आदि घृणित पदार्थो से वना हुआ है । इसी प्रकार अशुचिमय कारणो से ही, घृणित और निंदनीय मैथुन से ही, अब्रह्मचर्यमय क्रिया से ही - इसकी उत्पत्ति हुई है ।
( ३ )
मससिया वासमियां. दुक्ख केसारा भावणं
०, १९, १३
टीका - जीव और शरीर का सम्वन्ध अगारवत् है, अस्थायी है, क्षणभगुर है, अचानक और शीघ्र टूट जाने वाला है । इसी प्रकार यह शरीर दुख और क्लेशो का, विपत्ति और रोगों का घर है ।