________________
१५०]
। श्रमण-भिक्षु-सूत्र टीका-भोग-उपभोग की वस्तुएं प्राप्त होने पर भी जो वैराग्य पूर्वक उन्हे छोड़ देता है, वही वास्तविक त्यागी कहलाता है ।
(१६) गुणेहिं साहू अगुणेहिं असाहू ।
द०, ९, ११ तृ, उ, टीका-गुणो से ही-सेवा, त्याग, कर्मण्यता और इन्द्रिय विजया से ही साधारण पुरुप भी साधु पुरुप या सत्पुरुष वन जाता है। इसी प्रकार दुर्गुणो से ही--स्वार्थ, आलस्य, इन्द्रिय-भोगो मे आसक्ति, दुष्ट विचिंतन और विकथा आदि से पुरुष असावु, नीच या राक्षस वन जाता है।
(१७) अहो जिहिं असावज्जा, : . वित्ती साहूणं देसिया।
द., ५, ९२, उ, प्र टीका-रागद्वेप को पूर्ण रीति से जीतने वाले अरिहतो ने साधुओ के लिये जीवन-व्यवहार की वृत्ति निर्दोप यानी अन्य किसी को भी किसी भी प्रकार से कप्ट नही पहुँचाने वाली वतलाई है । तथा जो सर्व हितकारी हो ऐसी उपादेय और परम प्रसन्नता कारक वृत्ति का ही उन्होने उपदेश दिया है।
(१८) असंभत्तो अमुच्छिनो, भत्त पाण गवेसिए ।
द०, ५, १, उ, प्र टीका-चित्त की व्याकुलता, अव्यवस्थितता, पदार्थो के प्रति यासक्ति आदि मानसिक विकारो का सर्वयां परित्याग कर साधू निर्दोप आहार-पानी की गोचरी करे, मधुकरी करे।