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सूक्ति सुधा]
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( १९) धम्माराम चरे भिक्ख।
उ०, १६, १५ टीका-भिक्षु सदैव धर्म रूपी बगीचे मे ही, स्व-पर कल्याण कारी मार्ग में ही विचरता रहे । दान, शील, तप और भावना के सुन्दर उद्यान मे ही स्वय विचरे और दूसरो को भी इसी ओर आकपित करता रहे।
(२०) दाण भत्ते सणा रया।
द०, १, ३ टीका -जो वास्तविक साधु है, वे निर्दोष आहार-पानी की हो गवेषणा करते है। गाय-वृत्ति के समान अथवा भ्रमर की वृत्ति के समार आहार-पानी की वृत्ति को जीवन मे स्थान देते है ।
(.२१ ) वालुया कवल चेव, निरस्साए उ संजमे।
उ०, १९, ३८ टीका-सयम पालना, नैतिक और आध्यात्मिक नियमो को पालना रेत के कणो के समान कठोर है, निस्वाद और नीरस है । किन्तु भविष्य मे इनका परिणाम हितावह है, और कल्याण कारी है,
(२२) णो निग्गंथेविभूसाणुवादी हविज्जा।
उ०, १६, ग०,९ टीका-जो निर्ग्रन्थ है, जो ब्रह्मचारी है, जो आत्मार्थी है, उसको शरीर की विभूपा, शरीर का श्रृंगार नहीं करना चाहिये ।