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व्याख्या कोष
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महावत के पालक “साधु-अथवा साध्वी" ही होते है । महाव्रत की साधनातीन करण और तीन योग ( मन, वचन, काया से पालना, पलवाना और ऐसी ही अनुमोदना करना) से की जाती है । महाव्रत 'सर्वविरति' रूप होता है । इसके पाच भेद है .-१ पूर्ण अहिंसा २ पूर्ण सत्य ३ पूर्ण-अचौर्य ४ पूर्ण ब्रह्मचर्य और ५ पूर्ण अनासक्त याने निप्परिग्रह । ८-माया
कपट, कपाय के चार भेदो में से तीसरा भेद अधिक व्याज लेना, अधिक मुनाफा खोरी 'माया' के ही अन्तर्गत है । माया से अक्सर तिर्यचगति की प्राप्ति हुआ करती है। ९-मिथ्यात्व
"आत्मा, ईश्वर, पुण्य, पाप" आदि मूलभूत सिद्धान्तो पर जिसका विश्वास विल्कुल ही न हो, जो इनको केवल ढकोसला समझता हो तथा जिसका ध्येय एक मात्र ससार-सुख को ही भोगना हो वह मिथ्यात्वी कहलाता । है और उसकी विचार-धारा मिथ्यात्व कही जाती है । १०--मिथ्या दृष्टि
जिस आत्माका दृष्टि कोण ऊपर लिखे गये "मिथ्यात्व की ओर सलग्न - हो वह 'मिथ्या दृष्टि" कहलाता है। ११-मुक्त
जो आत्मा आठो कर्मो से रहित हो गई हो, जिसमें परिपूर्ण रीति से आत्मा के सभी गुणो का पूरा पूरा विकास हो गया हो और जैन मान्यतानुसार जो स्वय ईश्वर रूप हो गई हो वह आत्मा "मुक्त" कही जाती है।
मुक्त आत्मामें अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त निर्मलता, निराकारता अनन्त आत्मिक सुख, अखड अमरत्व, सर्वोच्च विशेपता और निराबाय स्थिति - की उत्पत्ति हो जाती है यही ईश्वरत्व है । इस स्थिति को प्राप्त करना हर सांसारिक आत्मा का अतिम ध्येय-है।