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- १२ -- मूर्ति
जा परमार्थी पुरुष अपनी इन्द्रियों और मन पर पूरा पूरा नियंत्रण रखता = हुआ, अहिंसा, सत्य. अचाय, ब्रह्मचर्य आर निष्परिग्रह धर्म का परिपूर्ण राति से पालन करता हा, वही " मुनि " हैं । ' ईश्वर प्राप्ति" नामक साधक महापुरुष ही मनि कहलाता है ।
सावना का
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[ व्याख्या कोष
१३ – मुमुक्षु
मोक्ष की इच्छा करन वाला और मक्ष-पथ का पथिक ही - कषाय - भावना से छुटकारा चाहने वाला "ममुक्ष" कहा जाता है ।
मुमुक्षु है ।
१४—मूढ
जो पुरुष मन ही मन में विषयो का चिन्तन करता रहता है, चित्त द्वारा - भोगो की प्राप्ति की इच्छा करना रहता है, वह मूढ है ।
१५-- मूर्च्छा
विपयो के प्रति अन्वा हो जाना, मोह में डूब जाना, यही "मूर्च्छा” का - लक्षण है ।
१६ --मोह
आत्मा में रहे हुए मुख्य और मूल गुणों को जो कपाय नष्ट कर देता है, वही "माह" है | सभी कपायो का और विषय विकारो का सम्मिलित नाम "मोह" ही है ।
१७ -- मोहनीय कर्म
जैसे मदिरा मनुष्य को वेभान कर देती है, स्थान भष्ट करके इधर - उबर लुढका देती है, वैसे ही यह कर्म भी हर आत्मा की विषयो में, विकारो = में और कपायों में जकड देता है । इस कर्म के कारण से आत्मा का चारित्र
और आत्मा की भावनाऐं पाप पूर्ण हो जाती हैं । इसके वलपर आत्मा भोगो -में फँस जाती है । इसके मुख्य दो भेद है – १ दर्शन माहनीय और २ चारित्र