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सूक्ति-सुधा]
[ १११ ___टीका-कर्मो से पीड़ित जीवको, दु.ख से छुड़ाने मे कोई मो समर्थ नहीं है, ऐसा सोचकर सयम मे ही-इन्द्रिय-विजय करने में ही, मन पर नियन्त्रण करने में ही, और पर-हित करने मे ही अपना सारा समय व्यतीत करते रहना चाहिये।
... . ( २० ) कसाय पच्चक्खाणेगां, वीयराग भावंजणय।
उ०, २९, ३६ वा०,ग० • टीका-कषाय-भावको दूर करने से, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि का त्याग करने से, वीतराग भाव पदा होते है। समता, क्षमा, विनय, सरलता और सतोष आदि सात्विक और उच्च भावों की प्राप्ति होती है।
(२१) . नायएज्ज तणा मवि।
उ०, ६, ८ टीका--तृण मात्र को भी बिना मालिक की आज्ञा के नहीं लेना चाहिये । क्योकि स्वल्प चोरी की वृत्ति भी धीरे-धीरे दढ़कर महान् चोरी करने की वृत्ति के रूप में परिणित हो जाती है।'
(२२) इह संति गया दविया, __णावखंति जीविडं।
आ०, १,५८, उ, ७ . . टीका--जो आत्माऐ प्रशम, सवेग, निवेद, अनुकंपा, आस्तिकता, आदि गुणो द्वारा शात प्रकृति वाली हो गई है, जो राग-द्वेष से मुक्त हो गई है, ऐसी आत्माएँ अव आगे ससार में परिभ्रमण नहीं करेंगी। अथवा वे परिभ्रमण नही करती है क्योकि ससार मे विशेष रहने का उनके लिये कोई कारण शेष नहीं रह जाता है । .