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________________ २०२] [कर्मवाद-सू भोगते है । पाप का फल अवश्य भोगना पडता है, यह प्रकृति का अटल नियम है । ( २५ ) सम्मुणा विपारेयासुवेह | सू०, ७, ११ - टीका -- जीव अपने कर्म के बल से ही सुख के लिये इच्छा करता हुआ भी दुख ही पाता है । कर्म-गति बलीयसी, बड़े २ तीर्थंकर, चक्रवर्ती, गणघर, आचार्य आदि सभी कर्म के आगे क्या कर सकते है ? ( २६ ) चविहे बंधे, पगइ बंधे, ठिइबंधे, बंधे । अणुभाव बंधे, पपस ठाणां०, ४ था, ठा, उ, २, २७ टीका - आत्मा के साथ बन्धने वाले कर्मो का बन्ध चार प्रकार का कहा गया है – १ प्रकृति बन्ध, २ स्थिति बन्ध, ३ अनुभाव बन्ध और ४ प्रदेश बन्ध । ( २७ ) श्रयाणिज्जं परिन्नाय परियाएण विचिs | आ०, ६, १८१, उ, २ टीका--कर्म- सिद्धान्त के अनुसार कर्मों के प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग आदि भेद-प्रभेद को और इनके स्वरूप को जान कर ज्ञानी सयम-धर्म के द्वारा पूर्व सचित कर्मों का क्षय करे । इस रीति से कर्मो की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त करे । ( २८ ) देह दुक्खं महाफलं । द०, ८, २७
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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