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[श्रमण-भिक्षु-सूत्र (८) धम्मपझाणरए जे स भिक्खू ।
.... द०, १०, १९ टीका-भिक्षु को चाहिये कि वह अपने समय को धर्म-ध्यान, पठन-पाठन, आत्म-चिन्तन, .ईश्वर-आराधन ऑदि सत्कार्यो में ही लगाये रक्खे । यानी जो पुरुष धर्म-ध्यान मे ही स्त रहता है, वही वास्तव मे भिक्षु है।
अझप्परए सुसमाहि अप्पा जे स भिवख्नु ।
'. द०, १०, १५ . - - टीका-जो रात और दिन आध्यात्मिक विचारों में ही, दार्शनिक विचारो में ही, आत्मा और परमात्मा के अनुसधान मे ही लगा रहता है तथा अपनी आत्मा को समाधि-युक्त, स्थितप्रज्ञ या निष्काम भावना वाली बनाये रखता है वही भिक्षु है । वही ससार समुद्र के लिये धर्म-जहाज है। ..."
(१०) सब्व संगावगए जे स भिवखू
द०, १०, १६ टीका--जो संव प्रकार के सग से परिग्रह से दूर है, जो निर्ग्रन्थ है, जो असक्ति से दूर है, जिसमें कोई भी कामना शेष नही है, वही भिक्षु है, वही साधु है । वही पुरुष-पुगव है।
(११). प्रणाइले या अफसाद भिक्खू ।'
। सू०, १४, २१ टीका-- साधु सदैव निर्मल रहे, चित्त को सयमी रक्खे, चित्त की चचलता पर काबू रक्खे और लोभ आदि सभी कषायो से दूर रहे ।