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________________ शब्दानुलमी अनुवाद] ८३३--सदैव समता का आचरण करो। -८३४-जो-सुख दुख सहने मे समभाव रखता है, वही भिक्षु है । ८३५ --जो श्रमण, समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है । ८३६. सम्यक् दृष्टि आत्मा के लिये सत्य और असत्य सभी सत्य रूप से हो परिणित हो जाया करता है । ८३६-विवेकपूर्वक देखने वाले के लिये, ज्ञान आदि गुणो मे प्रवृत्ति; करने वाले के लिये, आश्रव रहित के लिये, आर व्रतवारी के लिये, ( संसार में घूमने का और अधिक ) मार्ग नहीं रह जाता है। ८३८-निन्दा और प्रंशसा मे तथा मान और अपमान में समभाव - वाला होओ। ८३९--मदा सत्य से सपन्न होते हुए प्राणियो के साथ मैत्रा भाव रक्सो । ८४०-अपनी अपनी ही प्रशसा करने वाले और दूसरे के वचनो का निन्दा करनेवाले, ऐसे वे मूर्ख ससार मे डूबे हुए ही होते है। __-वे मिथ्या पक्षपाती ही है। . . ,८४१ - गरीर तो नाव कही गई है और जीव "नाविक' कहा गया है। ८४२- ये काम-भोग गल्य के समान है, विप के समान है और विष __वाले मर्प के समान है। ८४३-जो सभी प्रकार ने अप्रमत्त है, उसके लिये भय नहा है । ८४४--प्रमादी के लिये सभी ओर से भय है। .. ८४५ सभी तरह से सव्रतशील होता हुआ, स्यमी आदान समिति का भलीभाति आचरण करे। '' ८४६-सर्वत्र ई-मत्सर भाव को हटा दो। - ८४७-सर्वत्र विरति करो। ८४८-सब जगह विरति ( सवर-निर्जरा ) का आचरण करो।
SR No.010343
Book TitleJainagam Sukti Sudha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanrushi Maharaj, Ratanlal Sanghvi
PublisherKalyanrushi Maharaj Ratanlal Sanghvi
Publication Year1950
Total Pages537
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size13 MB
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