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शब्दानुलक्षी अनुकाद]
[ ३५३ ___४८४-भिक्षु धर्म रूपी वाटिका में ही वित्ररे । ४८५-धर्म में स्थित होते हुए सभी जीवो पर अनुकमा करने वाले
होओ। '४८६-धर्म रूपी तालाब में ब्रह्मचर्य रूप तीर्य (घाट हैं)।
४८५--ससार ममुद्र मे धर्म ही द्वीप है। '४८८- धर्म ही उत्कृष्ट मगल है। ४८९-धर्म की विना आराधना किये ही जो परलोक को जाता है, - , , वह दुःखी होता है 1 . ४९०-धर्म करने वाले के दिन रात सफलं ही होते है। . ४९१-"आचरण में कठिनाई वाला और फल में अच्छाई वाला"
ऐसे धर्म का तू आचरण कर। ४९२ -जो धर्म' का आचरण करके ' पर भव को जाता है, वह सुबी
होता है। . ४९३-चर्य शाली पुरुप विकारो से विमुक्त होता हुआ अपने लिये
- पूजा की इच्छा नहीं करे । यश-कीर्ति की इच्छा वाला भी न हो, . तथा संयम शील होता हुआ विचरे। . ४९४-धैर्य शाली बन्धन से उन्मुक्त होते है। ४९५-धैर्य जील क्षण मात्र का भी प्रमाद नही करे। - ४९६ सयम का आचरण करो। - - - -
. ४९७-तप प्रधान जीवन वाले, शील को अग्न गण्य रखने वाले, धर्म
घुरघर धीर पुरुप ही भिक्षा चर्या का अनुसरण करते हैं।
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