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[शील-ब्रह्मचर्य-सूत्र
टीका-उग्र-महान्कठिन-सुदुष्कर-आचरण मे महान् कष्ट साध्य परन्तु परिणाम मे अत्यत सुन्दर फल वाला, ऐसा महाव्रत, __ तप श्रेष्ठ, तप-शिरोमणि, ब्रह्मचर्य व्रत धारण करना चाहिए।
. (८) कुसील वड्ढणं ठाणं । ' दूरओ परिवज्जए ।
ज०, ६, ५९. . टीका-जिस स्थान पर रहने से विषय, विकार, वढते हो; ऐसे स्थान को और ऐसी सगति को सदैव दूर ही रखना चाहिए। दूर से ही छोड देना चाहिए।
(९) न चरेज्ज वेस? : .. .''- .
द०, ५, ९, उप्र,
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टीका-ब्रह्मचारी वेश्याओ अथवा दुराचारिणी स्त्रियो के निवास-स्थानो के आस-पास न तो घूमे और न जावे ।
(१०) । - अरए पयासु। . . . . . .,
आ०, ३, ११५, उ, २ . टीका---प्रजाओ से-यानी स्त्रियों से तत्त्वदर्शी पुरुपों को सदैव दूर ही रहना चाहिये । क्यो कि स्त्री-भोग किंपाक फल के समान वाह्य रूप से सुन्दर, मधुर, आकर्पक और सरस प्रतीत होते हुए भी अन्तमें परिणाम मे घोर विप के समान है। शरीर में नाना व्याधियाँ पैदा करने वाले है। आत्म बल और चारित्र वल घटाने वाले है । एवं अनन्त जन्म मरण पैदा करने वाले है।