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[ सत्यादि भाषा-मूत्र (१४४ ). तिरं च दुटुं परिवज्जए सया, सयाण मज्झे लहह पसंसणं ।
- द०, ७, ५५ . टीका-वचन शुद्धि और वचन महत्ता को जानने वाला हमेशा - के लिये दुप्ट-वाणी को-हलकी, तुच्छ, घातक, मर्म-भेदक और अपमानजनक वाणी को त्याग देता है। इससे वह सज्जनो के बीच में प्रगसा एव यग. कीति को प्राप्त करता है । वह दोनो लोक मे सुखी होता है। पुण्य का उपार्जन करता है , इसलिये सदैव संयम-मय, विवेक युक्त भाषा बोलनी चाहिये।
(४५) जहा रिह मभिगिज्झ, बालविज्ज लविज्ज वा।
द०, ७, २० __ टीका-किसी से भी वातचित करते समय यथा-योग्य-शब्दो से, जैसा चाहिये उसी रीति से व्यवहार करना चाहिये। शब्दो में हलकापन, तुच्छता, घातकता, मर्म-भेदकता, अथवा अपमानजनकत्व नही होना चाहिये। क्योकि यह हीन लक्षण है। हीन-लक्षण अकुलीनता का द्योतक है । वह नीचता का सूचक है। .
(४६) चत्तारि भाराओ भासित्तए, जायणी, पुच्छणी, अणुन्नवणी, पुट्ठस्स वागरणी।
ठाणा, ४, था, ठा, उ, १, ४ । टीका-चार प्रकार की भाषा कही गई है :-१ याचनिका २ पृच्छनिका ३.अवग्राहिका और ४ पृष्ट व्याकरणिका ।