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ब्दानुलक्षी अनुवाद]
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__ . ३४५--इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय है, उनमें कभी भी चित्तं को संलग्न ! मत करो। । ३४६-~जो यहाँ पर "आरंभ" में ही सलग्न हो गये है; वे अपनी आत्मा
के लिये दड सग्रह कर रहे हैं। ३४७-जो यहाँ पर माया में डूब जाता है, वह अनन्त वार गर्भ में आने
वाला है। , ३४८-जो एक को जानता है, वही सभी को जानता है, और जो सभी
को जानता है, वही एक को भी जानता है। ३४९—जिसने एक (माहेनीय का.) क्षय कर दिया है, उसने वहत . (कर्मों) का क्षय कर दिया है, और जिसने वहत का क्षय कर
दिया है; उसने एक का भी क्षय कर दिया है। , ३५०-जो किसी में भी मूच्छित नही होता है, वही भिक्षु है।
३५१–जो क्रोध करने वाला है, वह मान करने वाला भी है। . ३५२-जो (क्रियाएँ) निंदनीय है और (जो क्रियाएँ) नियाणा पूर्वक की
- जाती हैं, उनकान्सुधीर धर्म वाले आचरण नहीं करते है। .३५३--जो अभिमान करता है और अपने यश की इच्छा करता है, वह
बार बार विपरीत सयोगो को प्राप्त करता है। ३५४-जो गुण याने विषय वासना है, वही आवतं याने ससार है, और । ८ जो आवर्त्त है, वही गुण (विषय वासना) है। । ३५५-जा गुण (विषय-वासना) है, वही मूल स्थान (कषाय) है। है और जो मूल स्थान हैं, वहीं गुण है।
. - : ३५६-जिसके आधार से ज्ञान होता है, वही आत्मा है। ___ ३५७-जो पाप कर्मों से निवृत्त हो गये हैं, वे ही 'अनिया'" वाले
कहे गये है। - ३५८-जो शब्द आदि इन्द्रियों के विषय है। उन विषयो में -जो नहीं
प्रविष्ट हुए है, वे ही विख्यात समाधि को जानते हैं। . ३५९-जो धर्म श्रेष्ठ हैं, ऐसे हितकारी उत्तम धर्म को ग्रहण करो।