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शब्दानुलक्षी अनुकाद]
[ ३०९ । १५४-(आत्मस्थ कपायो से ही) युद्ध करो, तुम्हारे वाह्य युद्ध से क्या,
(लाभ है ? )। १५५ -यह मेरा है, और यह मेरा नहीं है, ऐसा कहते कहते ही मृत्यु
रूपी चोर आत्मा को चुरा ले जाते है, तो फिर प्रमादा बनकर
कैसे बैठे हो। १५६—यह शरीर अनित्य है, अशुद्ध है और अगुद्धि से ही उत्पन्न हुआ है। १५७-इस प्रकार ऋपियो में सर्व श्रेष्ठ श्री वर्धमान महावीर स्वामी है । १५८-इस मनुष्य-लोक में धर्माराधन के लिये मनुष्य ही (समर्थ) है । १५९--यहा पर शाति को प्राप्त हुई भव्य आत्माऐ-जीवन के लिये
(ससार परिभ्रमण के लिये) आकाक्षाएं नहीं रखती है । - १६०--यहा पर जो कर्म (फल दे रहे है) वे पहिले किये हुए है, पहिले
वांधे हुए है।
.१६१-~-(आत्महितपी) मान को, क्रोध को, माया को और लोभ का छोड़ दे। १६२-जो उग्र है, महाव्रत है, सुदुष्कर है, ऐसे ब्रह्मचर्य को धारण करना
चाहिये। १६३-उच्च आपत्तियो को लाने वाले, और महान् दुःखो को पैदा करने
वाले विपयो से जो अपनी रक्षा करता है, निस्सदेह वह भिक्षु है,
और उसने समाधि प्राप्त कर ली है। १६४.-निश्चय ही उत्तम धर्म का श्रवण दुर्लभ है। १६५-जैसे उदधि-समुद्र, नाना रत्नो से परिपूर्ण होता है, वैसे ही वहु
श्रुत भी (विविध ज्ञान से परिपूर्ण) होता है। १६६--यह जीवन विना प्रमाद के, विना ढील किये ही मृत्यु के पास चला .. - जा रहा है, अत महती दुर्गति के देन वाले कर्मों को तू मत कर। १६७-भोगो के भोगने पर ही, उपलेप याने कर्मों का लेप होता है,
किन्तु अभोगी कर्मों से उपलिप्त नहीं होता है ।