Book Title: Jain Agam me Darshan
Author(s): Mangalpragyashreeji Samni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आमा में दर्शन याविषयीयविलासवी यतरजिलकन्दतावपलमका स्याऊोषियसुखचलातरखितःबुडपारावारेषसपनाकारताधारशीर्थकरदेवनीसभिकरवानानविन सूयगडो द्वितीयलण्ड रसुण्य ऋतिपदेव शिवभारत यतिनिट सचिनुतनिक निमित्तामा अंगसत्ताणि उवंगसुत्ताणि मालाम्पअदार्थानीय एकमेवनीपरंपराते साम्पादिगुणावति दलोनी किरदेवादिन समनुमकेरनोवा किनपते काख জীফাকাফি জানান। जगारदारना" संवत्पश्पत्पदनुदित निचरचयपत्री सपनाजारीररुपलेपरनेटमा टाकावालकाय बिन्तिसतिस्वखसुश्मा सासनतिदनले ती किरदेवी समतापलेटनजना यातकालय हिदात २७ कदाचिन्नात लावलीखानापकंगतिनलिम्पनजसगनामा निवत्यतातिकगति संग ओवाइयं रायपसेणियं जीवाजीवाभिगमे RBSIR सरसपना गणाधिपति तुलसी श्ये:पुष्यति सायकरान-मकरानमनमानसाकायनमामालियाना मानीत यस्लेवदताकजाखिङगातासादनिजावेदात यस्ता समणी मंगलप्रज्ञा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रस्तुत आगम भगवान महावीर के दर्शन या तत्त्वविद्या का प्रतिनिधि सूत्र है। इसमें महावीर का व्यक्तित्व जितना प्रस्फुटित है, उतना अन्यत्र नहीं है। वाल्टर शुबिंग के अनुसार भगवती के अतिरिक्त और कोई भी दूसरा ग्रंथ नहीं है जिसमें महावीर का जीवन-चरीत्र, क्रियाकलाप इतनी प्रखरता से प्रकट हुआ हो। मोरिस विंटरनित्ज (Maurice Winternitz) का अभिमत भी इसी प्रकार का है। उनके अनुसार भगवान महावीर के जीवन, कार्य, उनका अपने शिष्यों के साथ एवं अपने सम्पर्क में आने वालों के साथ सम्बन्ध तथा महावीर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का जैसा वर्णन भगवती में है वैसा अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है। प्रस्तुत आगम की विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक एवं महत्वपूर्ण है।' ___ 'प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में आगम-साहित्य में प्रतिपादित तथ्यों का समीचीन विश्लेषण हुआ है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर यह प्रगति का नियम है। इसलिए सूक्ष्म तत्त्व की शोध में उसकी चेतना का विकास होता रहे। आचार्य महाप्रज्ञ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन समणी मंगलप्रज्ञा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ©जैन विश्व भारती प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं-341306 अर्थ सौजन्य : स्व. श्रीमती सोहनी देवी की पावन स्मृति में पुष्पराज संकलेचा, मातुल्य फेब्रिक्स, इचलकरंजी (महाराष्ट्र) प्रथम संस्करण : जून 2005 मूल्य : 125/- रुपये मुद्रक कस : कला भारती शाहदरा, दिल्ली - 110032 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सादर समर्पित प्राच्य विद्या के उन्नायक गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी के यशस्वी उत्तराधिकारी भारतीय विद्या के शीर्षस्थ विचारक एवं द्रष्टापुरुष आचार्य श्री महाप्रज्ञ को। Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशीर्वचन] जैन आगमों का एक विशाल भाग है - द्रव्यानुयोग। उसमें द्रव्यों की सूक्ष्मतम मीमांसा उपलब्ध है। अतीन्द्रिय चेतना द्वारा उपलब्ध द्रव्यों का ज्ञान इन्द्रिय चेतना वाले मनुष्यों के लिए सरल नहीं होता, यही कारण है कि कभी द्रव्य का एक पर्याय सम्बोध में आता है और कभी उसका दूसरा पर्याय। कालावधि के साथ-साथ पर्याय बदलते रहते हैं इसलिए शोध का द्वार सदा जुला रहता है, वह कभी बंद नहीं होता। इसी आधार पर "अप्पणा सच्चमेसेज्जा'" इस सूक्त की सार्थकता है। समणी मंगलप्रज्ञा ने जैन आगमों के कुछ बिन्दुओं पर अपना शोध-कार्य किया है। उसके कुछ उद्धरण पठनीय हैं - ‘प्रस्तुत आगम भगवान महावीर के दर्शन या तत्त्वविद्या का प्रतिनिधि सूत्र है। इसमें महावीर का व्यक्तित्व जितना प्रस्फुटित है, उतना अन्यत्र नहीं है। वाल्टर शुबिंग के अनुसार भगवती के अतिरिक्त और कोई भी दूसरा ग्रन्थ नहीं है जिसमें महावीर का जीवन-चरित्र, क्रियाकलाप इतनी प्रखरता से प्रकट हुआ हो । मोरिस विंटरनित्ज (Maurice Winternitz.) का अभिमत भी इसी प्रकार का है। उनके अनुसार भगवान महावीर के जीवन, कार्य, उनका अपने शिष्यों के साथ एवं अपने सम्पर्क में आने वालों के साथ सम्बन्ध तथा महावीर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का जैसा वर्णन भगवती में है वैसा अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है। प्रस्तुत आगम की विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक एवं महत्त्वपूर्ण है।' समणी मंगलप्रज्ञा की आगम और दर्शन के क्षेत्र में गति है। इसीलिए प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में आगम-साहित्य में प्रतिपादित तथ्यों का समीचीन विश्लेषण हुआ है। स्थूल से सूक्ष्म की ओर यह प्रगति का नियम है। इसलिए सूक्ष्म तत्त्व की शोध में उसकी चेतना का विकास होता रं। आचार्य महाप्रज्ञ 2 8 अप्रैल, 2 (105 अणुविभा केन्द्र, जयपुर। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नान्दीवाक् जैनागम-साहित्य न केवल भगवान वर्धमान महावीर के आध्यात्मिक सदुपदेशों का प्रामाणिक संग्रह है प्रत्युत एक विस्तृत कालखण्डकी जनचेतनाओंएवं सामाजिक गतिविधियों काजीवन्त दस्तावेज भी है। इस दृष्टि से हम जैनागमों को विविध सूचनाओं का एक विश्वकोष भी कह सकते हैं। भगवान महावीर के यथावसर प्रकटित उपदेश चिरकाल तक श्रुति-परम्परा से सुरक्षित रहे, परन्तु कालान्तर में प्रतिभा सम्पन्न आचार्यों द्वारा संयोजित वाचनाओं में उन्हें अक्षरबद्ध किया गया । वलभी में सम्पन्न वाचना में सम्पूर्ण जैनागम साहित्य अपने अन्तिम रूप को प्राप्त कर सका, जो उसी रूप में अब तक प्रायः अक्षुण्ण है। मौलिक आगमों पर भाष्य, चूर्णि टीकादि लिखने की परम्परा 1 7वीं शती ई. तक प्रवर्तित रही। फलतः आज उपलब्ध होने वाला जैनागम साहित्य एक विशाल महासागर प्रतीत होता है जिसमें प्रतिष्ठित रत्नराशियों का अनुमान करना भी कठिन है। धर्म-दर्शन एवं उपासना विषयक अनुष्ठान के अतिरिक्त जैनागम साहित्य में सामुद्रिक, स्थापत्य, काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र, कला, शिल्प, ज्योतिश्शास्त्र, व्याकरण, भूगोल, खगोल, भुवनसंक्षेप, गणित, क्रीड़ा-मनोविनोद एवं लोकपरम्पराओं - संस्कारों आदि का हृदयग्राही निरूपण उपलब्ध होता है। जैनागमों पर दृष्टि केन्द्रित होते ही सर्वप्रथम उसकी जो विशेषता दृष्टिगोचर होती है वह है उसकी लोकोन्मुखता। जैनागम लोकोन्मुखी है। उसकी प्रत्येक देशना जनता के उपयोगार्थ है। फलतः इन आगमों की प्रतिपाद्य-सामग्री साधु-साध्वियों की तरह ही साधारण समाज अर्थात् आगारिक उपासक-उपासिकाओं के ऐहलौकिक-पारलौकिक कल्याण पर केन्द्रित भी दीखती है। चूँकि समन्वित दृष्टि से जैनागमों का विपुल साहित्य, ई.पू. पाँचवीं शती से ईसा की पाँचवीं शती तक अर्थात् पूरी एक सहस्राब्दी में व्याप्त रहा है फलतः इसके गर्भ में एक हजार वर्षों की विविध अनुभूतियाँ सुरक्षित हैं, जो संकलनकार आचार्यों के माध्यम से आई हैं। यही कारण है कि जैनागम-साहित्य में सार्वदेशिकता, सार्वकालिकता एवं सार्वजनिकता के दर्शन होते हैं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन विश्वभारती लाडनूँ की प्रखरमति विदुषी समणी मंगलप्रज्ञाजी का ग्रंथरत्न "जैन आगम में दर्शन" एक ऐसी मानक शोधकृति है जिसके परिशीलन से आगम-प्रतिपाद्य का एक पक्ष पूर्णतः विशद एवं अवदात हो उठता है। इस ग्रंथ में तत्त्वमीमांसा, आत्ममीमांसा, कर्ममीमांसा, आचारमीमांसा तथा आगमोपलब्ध जैनेतर दर्शन शीर्षकों द्वारा आगमों की दार्शनिक प्रस्तुति का सम्यक् बोध कराया गया है। लेखिका होना स्वयमेव एक महान् उपलब्धि है, परन्तु लेखिका यदि नैष्ठिक व्रतावलम्बिनी समणी भी हो तो क्या कहना? समणी मंगलप्रज्ञा जी जैन-वाडमय के साथ ही साथ समस्त भारतीय वाङ्मय की अधीती है। उनके व्यक्तित्व में विद्या के चारों ही चरणअधीति, बोध, आचरण एवं प्रचारण-साकल्येन प्रतिष्ठित हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि ऐसी प्रतिभावदात तपस्विनी लेखिका का सारस्वतोपायनभूत यह सद्ग्रंथ जैनागम-साहित्य के प्रत्यक्ष एवं आनुषंगिक- दोनों ही प्रकार के पाठकों का ज्ञानवर्धन करेगा तथा जैन दर्शन को आत्मसात करने में सहायक सिद्ध होगा। समण्या रचितं प्रीत्या विमलं मङ्गलाख्यया। कल्याणाय सता भूयाद् ग्रन्थरत्नमिदं भुवि ।। 18 फरवरी, 2003 अभिराज राजेन्द्र मिश्र कुलपति सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी (उत्तर प्रदेश) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्ररोचना जैन धर्म और दर्शन का मूल आधार अर्धमागधी आगम हैं। वही इसका सबसे पुरातन स्रोत है और उसे ही प्रमाण स्तर की मान्यता प्राप्त है क्योंकि उसमें भगवान महावीर के वचन संकलित हैं। महावीर की वाणी आप्तवचन है, इसलिए वह स्वतः प्रमाण है। महावीर की वाणी का जो संकलन आगम के रूप में हुआ वह उनके जीवन काल में नहीं हुआ, अपितु लम्बे समय तक श्रुत परम्परा के रूप में चलते रहने के बाद हुआ, इसलिए संकलन कर्ताओं ने परम्परा से जैसा सुना था वैसा कहने के लिए सम्बद्ध प्रसंग और परिवेश को भी बताया। परिणामतः आगम अपने आप में बहुत विस्तृत हो गया, उसका स्वरूप एक विश्वकोश जैसा बन गया। उसमें विविध प्रकार के विषय समाहित हो गए। माना जाता है कि आगम की संख्या जितनी थी, उसमें कुछ लुप्त भी हो गए, फिर भी जितनी आज उपलब्ध है उसकी भी संख्या कोई कम नहीं, बत्तीस है और उसका विस्तार भी इतना है कि उसके एक छोर से दूसरे छोर तक पार हो जाना अथवा समग्र का अवगाहन कर लेना कोई आसान कार्य नहीं है। उस काल में दर्शन को दर्शन मानकर और उसकी अभिव्यक्ति के लिए जैसी एक विशेष प्रकार की सुव्यवस्थित प्रणाली बाद में विकसित हुई वैसी नहीं थी, क्योंकि तब न यह उद्देश्य था और न इसका कोई प्रयोजन ही था। अपने अनुभव, विचार और प्राप्त सत्य को सहज रूप में कह देना भर था। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वहाँ कोई दर्शन नहीं था। कोई भी सत्य विचारों के माध्यम से प्रकट होता है तो उसके पीछे एक दर्शन तो होता ही है, उसकी अभिव्यक्ति में भी दर्शन के तत्त्व अनायास ही आ जाते हैं। चूँकि दार्शनिक शैली और दार्शनिक शब्दावली में कुछ भी कहा हुआ नहीं होता, इसलिए उन्हें पकड़ पाना दुष्कर होता है। आगम का विशाल साहित्य है। वहाँ विविध प्रसंगों, सन्दर्भो और आख्यानों का समावेश है। उनमें से दर्शन के तत्त्वों को पहचान लेना और दार्शनिक चिन्तन के धरातल पर अभिव्यक्त करना अपने आपमें एक कठिन कार्य है। बाद के दार्शनिकों ने अपनी अपेक्षा के अनुसार कुछ तत्त्वों को लिया, उसका विवेचन किया और उसका विस्तार किया, पर ऐसा कभी नहीं हो सका कि आगम के समग्र दार्शनिक चिन्तन उनमें समाहित हो सके। मध्ययुग में एक प्रयोजन से - किसी को उत्तर देने के लिए अथवा किसी एक पक्ष पर उठाए गए प्रश्नों के लिए- विवेचन की अपेक्षा थी। इसलिए आगम के सभी दार्शनिक पहलुओं पर ध्यान देने की उनके समक्ष अपेक्षा ही उपस्थित नहीं हुई। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी भी आगम को दार्शनिक ग्रन्थ नहीं कहा जा सकता किन्तु जैन दर्शन का स्रोत वही है। आगम के विशाल साहित्य में दार्शनिक चिन्तन किस रूप में मिलता है, उसका वैशिष्ट्य क्या है, किन पहलुओं पर विचार किया गया है, यह जानने की जिज्ञासा होना भी स्वाभाविक है। बीसवीं शताब्दी में कतिपय विदेशी विद्वानों और कतिपय इस देश के विद्वानों ने प्रयास किया कि आगम में दार्शनिक चिन्तन के बिखरे सूत्रों की परख की जाए। प्रयास सराहनीय था, किन्तु यह संभव न था कि समग्रता में उसकी पहचान की जा सके और गम्भीरता से उसका अध्ययन भी प्रस्तुत किया जा सके । जितना किया जा सका, आरम्भ की दृष्टि से वह महत्त्वपूर्ण है। समणी मंगलप्रज्ञा जी ने इसे शोध का विषय बनाकर अपनी पुस्तक “जैन आगम में दर्शन' में इस दृष्टि से और इस दिशा में सर्वथा महत्त्वपूर्ण और स्तुत्य प्रयास किया है। यह संभवन था कि सभी आगमों को एक प्रबन्ध में समेटा जा सके, इसलिए इन्होंने आगम साहित्य के पाँच अंगों-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग और भगवती - को अपने अध्ययन का विषय बनाया। अध्ययन की गम्भीरता की दृष्टि से ऐसा करना आवश्यक था। इस कार्य में समणी मंगलप्रज्ञाजी ने सफलता प्राप्त की है। अपने गम्भीर अध्ययन और कौशल से आगमों के दार्शनिक चिन्तन और वैशिष्ट्य को परखा है तथा बिखरे और प्रच्छन्न दार्शनिक तत्त्वों का विवेचन किया है जो सामान्यतः दृष्टिपथ में नही आ पाते। __ इस पुस्तक में सात अध्याय हैं-विषय-प्रवेश, आगम साहित्य की रूपरेखा, तत्त्व मीमांसा, आत्म-मीमांसा, आचार-मीमांसा और आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शनजो दार्शनिक दृष्टि से दर्शन की अपेक्षाओं को पूरा करते हैं। इस पुस्तक में समणी मंगलप्रज्ञाजी ने गम्भीर अध्ययन, दार्शनिक विवेचन की क्षमता और सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है जो गुरुदेव तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के सान्निध्य तथा शिक्षण का प्रतिफल है, साथ ही समणी जी की अपनी प्रतिभा का भी परिचायक है। इस कार्य से न केवल उन पाँच आगमों के दार्शनिक स्वरूप पर प्रकाश पड़ा है बल्कि इससे अन्य आगमों का इस दृष्टि से अध्ययन का मार्ग भी प्रशस्त हुआ है। इस कार्य के लिए समणी जी को जितना भी साधुवाद अर्पित किया जाए, कम ही पड़ेगा। __ भविष्य में जिस प्रकार के तुलनात्मक विवेचन की अपेक्षा है उसके लिए इन्होंने कतिपय संकेत भी दिए हैं। इससे इनकी सृजनात्मक दृष्टि सुस्पष्ट होती है। मैं स्वयं भी इससे काफी लाभान्वित हुआ हूँ, इसलिए समणी मंगलप्रज्ञा जी के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। 19 फरवरी, 2003 राय अश्विनी कुमार प्रोफेसर एवं पूर्व संकायाध्यक्ष संस्कृत विभाग मगध विश्वविद्यालय, बोधगया (बिहार) (iv) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतज्ञता-ज्ञापन भगवान महावीर द्वारा अर्थ रूप में एवं गणधरों द्वारा सूत्र रूप में ग्रथित तथा उत्तरवर्ती जैनाचार्यों द्वारा संरक्षित जैन आगम रूपी बहुमूल्य धरोहर वर्तमान में हमें प्राप्त हुई है। इस प्राप्ति के लिए सम्पूर्ण पूर्ववर्ती परम्परा के प्रति हार्दिक विनम्र प्रणति। इस अनुपमेय ज्ञानराशिसे परिचय एवं इसके प्रति श्रद्धा-संवेग उत्पन्न करने वाले मेरे दीक्षा-शिक्षा गुरु आचार्यश्री तुलसी जिनकी दिव्य-सन्निधि अध्यात्म जगत में बढ़ने की मुझे सतत प्रेरणा देती रहती है, उस दिव्यात्मा के प्रति श्रद्धा समर्पित करते हुए यह आकांक्षा करती हूँ कि वह सतत मेरे लिए प्रकाश स्तम्भ बनी रहे। आचार्य तुलसी केसक्षम उत्तराधिकारी श्रुत-सागर, आगम-अर्णव आचार्यश्रीमहाप्रज्ञ जी, जिनके पादारविन्दों में बैठकर श्रुत-पराग को बटोरने का स्वर्णिम अवसर मुझे प्राप्त हुआ। जिनकी अन्तश्चेतना स्फुरित प्रज्ञा ने निबिड अज्ञान अंधकार में मेरे ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया है। उन पूजार्ह पूज्यप्रवर के चरणों में श्रद्धा-संपूरित विनीत श्रद्धा-सुमन समर्पित करते हुए मुझे आन्तरिक आनन्द की अनुभूति हो रही है। यद्यपि आपश्री का हर क्षेत्र में हमें मार्गदर्शन उपलब्ध है तथापि इस प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध की संयोजना में आपश्री का साक्षात् दिशानिर्देश भी प्राप्त हुआ, तब ही मैं यह दुरूह कार्य सम्पन्न कर सकी हूँ। करुणा एवं कोमलता युक्त आपका कुशल नेतृत्व भविष्य में भी मुझे प्रगति पथ अग्रसर करता रहे, यही अपने प्रति मंगलकामना करती हूँ। तेरापंथ धर्मसंघ के नवोदित तेजस्वी भानु श्रद्धेय युवाचार्यश्री महाश्रमणजी का अध्यात्म-अभिमण्डित आभावलय मेरे भीतर अध्यात्म-स्फुरणा उत्पन्न करता रहे। संघ महानिदेशिका महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाश्री जी, जिनकी कुशल अनुशासना में साध्वी समाज निरन्तर विकास के पथ पर गतिशील है। जिनके प्रेरणा-प्रदीप ने मेरे पुरुषार्थ के दीप को स्नेह-दान दिया है। उनके प्रति मैं अपनी हार्दिक श्रद्धा प्रणति प्रस्तुत करती हूँ। साध्वी अणिमाश्रीजी का वात्सल्यपूर्ण आशीर्वाद एवं साध्वी सुधाप्रभाजी की मंगलकामना भी मेरी श्रुत साधना की प्रगति में निमित्त बनती रही है। नियोजिकाजी आदि सभी समणीजी के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ जिनका Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष एवं परोक्ष सहयोग मेरी सृजनधर्मिता में सहयोगी बना है। समणी शीलप्रज्ञा, ऋतुप्रज्ञा, आरोग्यप्रज्ञा एवं मैत्रीप्रज्ञा का प्रूफ निरीक्षण में स्मरणीय सहयोग प्राप्त हुआ। जैन विश्वभारती संस्थान के भूतपूर्व कुलपति प्रो. भोपालचन्द्र लोढ़ा का आग्रह भरा सुझाव इस शोधकार्य के प्रारम्भ का हेतुबना है। संस्थान की वर्तमान कुलपति श्रीमती सुधामही रघुनाथन तथा कुलसचिव डॉ. जगतराम भट्टाचार्य का भी यथेष्ट सहयोग उपलब्ध होता रहा। वेद-विज्ञान एवं जैन-विद्या के विश्रुत विद्वान् प्रो. दयानन्द भार्गव के गम्भीर ज्ञान एवं अनुभवों का भरपूर लाभ मुझे इस कृति के प्रणयन में प्राप्त हुआ। उनके श्रम एवं प्रेरणा कौशल से ही प्रस्तुत प्रबन्ध इस रूप में प्रस्तुत हो सका है। प्रो. अभिराजराजेन्द्र मिश्र, कुलपति सम्पूर्णानन्द विश्वविद्यालय एवं प्रो. राय अश्विनी कुमार ने प्रस्तुत ग्रन्थ का आदि वाक्य लिखकर अपने विद्या प्रेम का परिचय दिया है। डॉ. हरिशंकर पाण्डेय का भी समय-समय पर स्मरणीय सहयोग प्राप्त होता रहा। इस शोधप्रबन्ध की संरचना में मैंने अनेक विद्वानों की कृतियों का उपयोग किया है। उनके श्रम-सीकरों से यह शोध-प्रबन्ध अनुप्राणित हुआ है। 'मोहन कम्प्यूटर सेंटर' ने इस शोध-प्रबन्ध के टंकण कार्य को सजगता से संपादित किया तथा श्री दीपाराम खोजा ने इसे पुस्तकाकार सेटिंग करने में विशेष श्रम किया है। इन सभी के प्रति मंगलकामना । “जैन आगमों के दार्शनिक चिन्तन का वैशिष्ट्य" नामक पी-एच.डी. की उपाधि के लिए जैन विश्व भारती संस्थान को प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध "जैन आगम में दर्शन" नाम से पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत है। यह ग्रन्थ जिज्ञासु के ज्ञान का निमित्त बने और मेरी श्रुत-साधना निरन्तर गतिशील बनी रहे, इसी शुभकामना के साथ 27 अप्रैल, 2005 समणीमंगलप्रज्ञा निदेशक, महादेवलालसरावगी अनेकान्त शोधपीठ जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं - 341 306 (राज.) भारत (vi) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम पृ. संख्या प्रथम अध्याय : विषय प्रवेश 1-22 द्वितीय अध्याय : आगम साहित्य की रूपरेखा 23-80 आगम की परिभाषा ( 2 3 - 2 4); जैन आगमों का उद्भव ( 2 4 - 2 5); आगम वाचना (2 6 - 29); आगम-विच्छेद क्रम ( 3 0 - 3 1 ); आगमों का वर्गीकरण ( 3 1 - 3 2); पूर्व साहित्य (32-33); अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य (33-61); मूल एवं छेदसूत्र (6263); आगमों की संख्या (63); दस प्रकीर्णक (64) आगम के कर्ता (64-65); आगम स्वीकृति का मानदण्ड (65); आगम का प्रामाण्य (65-66); आगमों का अनुयोग में विभक्तिकरण (66); आगमों की भाषा (66 - 6 8 ); आगमों का व्याख्या साहित्य (68-71); दिगम्बर आम्नाय मान्य आगम (71-74); जैन आगमों का आधुनिक सम्पादन, अनुवाद एवं भाष्य (75); पाश्चात्य विद्वान् (75-77); भारतीय विद्वान् (77-80) तृतीय अध्याय : तत्त्व-मीमांसा 81-140 त्रिपदी में अन्तर्निहित अनेकान्त (82); अनेकान्त के अभाव में आचार की अनुपपन्नता (82); अनेकान्त का आधार अनुभव का प्रामाण्य (82); प्रमाण-मीमांसा की आधारभृमि नयवाद (83); पञ्चविध ज्ञान विचारणा (83) द्रव्यमीमांसा-अनेकान्त और वस्तुवाद (84); जैन दर्शन का द्वैतवाद (84-86); जगत का मूल कारण (86-87); वेदों में जगत् के मूलकारण की खोज(87); उपनिषद् में विश्वकारणता (87-89); यूनानी दार्शनिकों का मन्तव्य (89) जैन आगमों में विश्व (89-90); जैन दर्शन में लोक-अलोक का आकार (90-93); लोक की अवस्थिति (93-94); विश्व-व्यवस्था के सार्वभौम नियम (94-95); लोक के घटक तत्त्व (95-96); भगवान महावीर की मौलिक अवधारणा (9 6 - 97); प्रदेश और परमाणु (97-98); अस्तिकाय प्रदेशात्मक (98); अस्तिकाय (vii) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द विमर्श (98-99); अस्तिकाय का स्वरूप (100); भगवती में अस्तिकाय की अवधारणा (100-101); अस्तिकाय का लोक व्यापित्व (101-02) अस्तिकाय की विविधता (102-10 3); धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय (103); धर्म-अधर्म की उपयोगिता (104): चार अस्तिकाय के अष्ट मध्यप्रदेश (105-106); जीवपुद्गल की गति लोक में ही क्यों ? (106 - 108); धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय की तुलना (10 8 -109); पर्यायवाची अभिवचन (109 - 110): धर्मास्तिकाय आदि के प्रदेशों का स्वभाव बंध (110); आकाशास्तिकाय (111) पुद्गलास्तिकाय (111 - 1 1 2 ); पुद्गल की द्विरूपता (1 1 2 - 1 1 3 ); परमाणु की सप्रदेशता-अप्रदेशता (1 1 4 - 115); स्कन्ध की सप्रदेशता-अप्रदेशता (115); परमाणु-पुद्गल की शाश्वतता-अशाश्वतता (115); पुद्गल के परिवर्तन का नियम (115-116); पुद्गल के गुणधर्म में परिवर्तन के नियम (116) परमाणु का विखण्डन (116); परमाणुः सूक्ष्म एवं व्यावहारिक (117); पदार्थ की द्विरूपताः भारमुक्त या भारयुक्त (117-118); पुद्गल का परिणमन (118-120); पुद्गल की ग्राह्यता-अग्राह्यता (120); पुद्गल परिणति के प्रकार (121-122); प्रयोग परिणत पुद्गल (122); जीवकृत सृष्टि (1 2 3 - 1 2 4); प्रयोग एवं विस्रसा बंध (124); बंधन प्रत्ययिक बंध (1 2 5- 1 2 7); भाजन-प्रत्ययिक बंध (127); परिणाम प्रत्ययिक बंध (128); परमाणु की गति ( 1 2 8 ) मन एवं भाषा पौदगलिक (129); शब्द श्रवण की प्रक्रिया (129-131); जीव और पुद्गल की अनुश्रेणी गति (131-132); परिभोग्य-परिभोक्ता (1 3 3 -134); तमस्काय एवं कृष्णराजी (134); तमस्काय का प्रारम्भ एवं अन्त बिन्दु (134); कृष्णराजी की संख्या एवं स्थिति (1 3 4-1 3 5) कालद्रव्य (1 3 5 - 1 3 6); काल परमाणु (137); काल का ऊर्ध्वप्रचय (137 - 138); काल के विभाग (138-139); निश्चय एवं व्यवहार काल (139-140) चतुर्थ अध्याय : आत्ममीमांसा 141-178 आत्मा का स्वरूप (141-142); आत्मा के प्रकार (142); शुद्धात्मा (142 - 1 4 3); भाषा का प्रयोग क्षेत्र (143); आत्मविचार : आचारांग एवं उपनिषद् (144); आत्म व्याख्या में नेतिवाद (144-145); आत्मा की कालिकता (145); आत्मा एक है (146); आचारांग में आत्माद्वैत (146-147); आत्मविमर्श : आचारांग और समयसार (147); आत्म विश्लेषण : व्यवहार एवं निश्चयनय (14 8-149); समयसार में आचारांग के नेतिवाद का विस्तार (149): आत्मा : बंध एवं मोक्ष (149-50) (viii) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षड्जीवनिकाय (151): षड्जीवनिकाय : जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा (151 - 152); पृथ्वीकाय (152); पृथ्वीकाय में श्वास (152 - 154); पृथ्वीकाय की अवगाहना (1 5 4); पृथ्वीकाय में आश्रव (154): पृथ्वीकाय में उन्माद (155); पृथ्वीकाय में ज्ञान (155); पृथ्वीकाय में आहार की अभिलाषा (155-156); पृवीकाय में क्रोध (156); पृथ्वीकाय में लेश्या (156); पृथ्वीकाय में वेदना (156); तीन दृष्टान्तों से वेदना निरूपण (156 - 157); अप्काय (157- 1 5 8); अप्कायिक जीवों के जीवत्व सिद्धि में हेतु का प्रयोग (158); अप्काय के शस्त्र (159); तेजस्काय (159); तेजस्कायिक जीवों के जीवत्व सिद्धि में हेतु का प्रयोग (160); अग्निकाय के शस्त्र (160); वायुकाय (161); वायुकाय के शस्त्र (161); वनस्पतिकाय (161-16 2); वनस्पति की सचेतनता (162); वनस्पतिकाय के शस्त्र (163); पांच स्थावर परिणत एवं अपरिणत (163); वायु : सचित्त एवं अचित्त (1 6 3 - 164): जल : सचित्त एवं अचित्त (1 64-166) त्रस प्राणी (166); त्रस की परिभाषा ( 1 6 6 - 167); त्रस और स्थावर (167); षड्जीवनिकाय : त्रस एवं स्थावर (16 7-168); त्रस-स्थावर के विभाग की आगमकालीन अवधारणा (169); आगम व्याख्या साहित्य में त्रस एवं स्थावर (169); गति एवं लब्धि त्रस (169-170); एकेन्द्रिय-स्थावर अन्य-वस (170) शरीर रचना और ज्ञान का सम्बन्ध (170171); जीव स्वरूप, अभिज्ञान एवं लक्षण (171 - 172); जीव के व्यावहारिक लक्षण (172-173); आत्मा के अवयव (173-174); जीवास्तिकाय और जीव (174-175): जीव की देह परिमितता (175); जैनेतर दर्शन की अवधारणा (175); जैन दर्शन की स्वीकृति (176 - 1 78) पंचम अध्याय : कर्ममीमांसा 179-242 आस्तिक नास्तिक का शब्दार्थ : कर्मसिद्धान्त का महत्त्व (179); कर्मसिद्धान्त का आधार : आगम प्रामाण्य (179-180); विविधता का मूल कर्म (180-181); जैन दर्शन में विविधता का हेतु (181); विविधता के पांच हेतु (181-182) जीव एवं कर्म का सम्बन्ध (182 - 183); ब्रह्मवाद (183); भूतवाद (18 3); द्वैतवाद (183); सांख्यमत (1 8 3 - 184); नैयायिक मत (184); जैनमत (184); सम्बन्ध : भौतिक या अभौतिक (184-18 5); नद का उदाहरण (185); जीव और पुद्गल का सादृश्य (185 - 186); आत्मा एवं शरीर का भेदाभेद (186 - 187); जीव परिभोक्ता एवं पुद्गल परिभोग्य (187); सम्बन्ध का स्वरूप (187188); आत्मा पर कर्म का आवेष्टन-परिवेष्टन (188); कर्म का बंध कब से? (189) (ix) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म का कर्ता (189); सांख्य : प्रकृति कर्म की कर्ता ( 1 8 9-190); नियति : कर्म की कर्ता (190); कर्म चैतन्यकृत (1 9 0-191): निश्चय एवं व्यवहार नय से कर्म का कर्ता (191); कर्मोपचय प्रयत्नकृत (191 - 19 2); दु:ख का स्पर्श किसको? (192) कर्म बंध का हेतु (192); कर्मबंध का कारण : प्रमाद एवं योग (1 92 - 193); प्रमाद के प्रकार (1 9 3); योग का अर्थ (1 9 3 - 1 9 4); कर्मबन्ध का कारण : राग और द्वेष (1 9 4); प्रज्ञापना की अवधारणा (194-95); आगमोत्तर साहित्य : कर्मबंध के हेतु (195); कर्मबंध के आभ्यन्तर एवं बाह्य हेतु (195 - 196); स्वप्न एवं जागरण में कर्म का बंध (196); कर्मबंध का हेतु अविरति (196 - 197): बन्ध की प्रक्रिया (197) कर्मफलभोग (1 97-198); जीव में कर्मफल भोग की शक्ति (198); कर्मफलदान शक्ति का निर्धारण (198); कालोदायी अनगार की जिज्ञासा (199); कर्मफलदान के नियम (199); कर्मफल में असंविभाग (199-200); सुख का संविभाग भी अमान्य (200 - 201) आश्रव : कर्म आकर्षण का हेतु (201); बंध : आश्रव एवं निर्जरा का मध्यवर्ती (201); बंध के प्रकार (201-202); मोदक का उदाहरण (202); प्रकृति बंध के भेद ( 2 0 2); अन्तराय कर्म के दो भेद ( 20 2 - 203); कर्म की अवस्था (2 0 3 - 2 0 4); कर्म का परिवर्तन (204); असंवृत्त-संवृत्त अनगार का उदाहरण (2 0 4-205); कर्मवाद का सामान्य नियम (205); कर्मवाद और पुरुषार्थ ( 2 0 5 - 2 0 6) उदीरणा (2 0 6 - 207); महावीर-गौतम का संवाद (207) नोकर्म की निर्जरा (207- 2 0 8); चलित-अचलित कर्म (208); स्वप्रदेशावगाही पुद्गलों का ग्रहण (208 - 209); कर्मबंध की समानता या विषमता (2 09-210); कर्मबंध : अध्यवसाय की तीव्रता-मंदता (210-21 1); कांक्षा मोहनीय विमर्श (2 11- 2 1 2); कांक्षा मोहनीय : स्वरूप भिन्नता (2 1 2 ); कर्म का वेदन : व्यक्त एवं अव्यक्त ( 2 1 2 - 2 1 3); मोहनीय कर्म के बावन नाम (213); मोह के तीन प्रकार (2 1 4-2 1 5); आयुष्य का बंध कब और कैसे ? ( 2 1 5); आयुष्यकर्म के सहयायी बंध ( 2 1 5 - 2 1 6); आयुष्यकर्म एवं आकर्ष की व्यवस्था ( 2 1 6); एक साथ कितने कर्मों का बंध (216); कर्मबंध एवं गुणस्थान (21 6-217); आठ कर्मों के बंध के निमित्त ( 2 17 - 2 1 8); कर्म का अबाधाकाल (2 1 8 - 219); कर्म उदय के निमित्त (219); कर्म पर अंकुश ( 2 19-220) कर्म उदय के निमित्तों की विविधता (220) ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया ( 2 2 0 - 221); ऐर्यापथिकी क्रिया का स्वरूप Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 2 1 ): ऐयापथिकी क्रिया के प्रकार ( 2 2 2 ); साम्परायिकी क्रिया के प्रकार ( 2 2 2 ); ऐपिथिकी क्रिया में होने वाला कर्मबंध (222-224) कर्मवेदन की सापेक्षता ( 2 2 4 - 2 2 5); वेदना एवं निर्जरा ( 2 2 5 - 2 2 6); वेदना एवं निर्जरा के उदाहरण ( 2 2 6); कर्मबन्ध एवं मोक्ष की कारणभूत क्रिया ( 2 2 7); कर्म का पौद्गलिकत्व (227- 2 2 8) कर्म एवं पुनर्जन्म ( 2 2 8 - 2 2 9); विभिन्न दर्शनों में पुनर्जन्म ( 2 2 9 - 2 3 0) पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि में पुनर्जन्म (2 3 1) विज्ञान जगत में पुनर्जन्म की अवधारणा (2 3 1 - 232) पुनर्जन्म का आधार ( 2 3 2 ); उद्गम की जिज्ञासा (2 3 3); पूर्वजन्म की ज्ञप्ति के हेतु ( 2 3 3); पूर्वजन्म स्मृति के हेतु ( 2 3 3 - 2 3 4); जाति स्मृति की उभयरूपता (2 3 5); पुनर्जन्म के हेतु (235); पूर्वजन्म की स्मृति से आत्मा से सम्बंधित संदेह का निवारण (236); जाति-स्मृति सबको क्यों नहीं होती? (236); जाति-स्मृति के लाभ ( 2 3 6 - 2 3 7); मृत्यु के पश्चात् किसी भी योनि में जन्म ( 2 3 7); ज्ञान-दर्शन का भवान्तर गमन (2 3 7 - 2 3 8); चारित्र एवं तप के भवान्तर गमन का निषेध ( 2 3 9); पुनर्जन्म एवं आयुष्यकर्म (2 3 9 - 2 4 1), पुनर्जन्म : स्वत: चालित व्यवस्था (241) मुक्तजीव की गति ( 2 41); मुक्तजीव की गति के चार हेतु ( 2 4 2) षष्ठ अध्याय : आचार-मीमांसा ___243-280 आचार की परिभाषा (243); आचार का स्वरूप (2 4 3 - 244); आचरण की देशकालानुसारिता (244-245); ज्ञान एवं आचरण (2 45 - 247); आचार का आधार : आत्मज्ञान (247-249); रत्नत्रय: मोक्षमार्ग (2 49-51); त्रिरत्न एवं अष्टांग मार्ग ( 2 5 0 - 2 5 1 ); आचार के भेद (251); ज्ञानाचार (25 1 - 2 5 2); ज्ञान के अतिचार (252-253); दर्शनाचार (253-256); चारित्राचार (256-257); तप आचार (257-259); तप का उद्देश्य (259); वीर्याचार (259-260) धुत की साधना ( 2 6 0 - 261); कर्म विधूनन की प्रधानता (2 6 1 - 2 6 2 ); आहार संयम की साधना (26 2 - 2 6 3); ब्रह्मचर्य की साधना (2 6 3 - 264); आसन की साधना (265); प्रतिमा की साधना (2 6 6-2 6 7); एकलविहार प्रतिमा (2 6 726 8); विशुद्धि मुक्ति का द्वार ( 2 6 8 - 269); असोच्चा केवली (270); असोच्चा केवली की साधना (270) क्रियावाद (270 - 2 71); प्रवृत्ति एवं निवृत्ति (271-272); आचार में तटस्थता (272 - 274); हिंसा के प्रमुख कारण (274-275); शस्त्र विमर्श (275) (xi) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार का प्रमुख अंग अपरिग्रह (276-277); अहिंसा का सामाजिक आधार अपरिग्रह (277-278); जैन आचार की विशेषता (2 78 - 279); ज्ञान का फलित अहिंसा (279); आत्माद्वैत की स्वीकृति (2 79 - 280) सप्तम अध्याय : आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 281-308 दार्शनिक विचारधारा के संदर्भ में समवसरण की अवधारणा (282); क्रियावाद (28 2 - 2 84); अक्रियावाद (284-28 6); अज्ञानवाद (287); विनयवाद (287); दानामा और प्राणामा प्रव्रज्या (288); विनय का अर्थ (288 - 289); नव तत्त्व का आधार (290); भगवती में वर्णित समवसरण (291); सम्यक्दृष्टि एवं क्रियावाद (291-292); महावीर युग के विभिन्न मतवाद (292 - 29 3); पंचभूतवाद (293 - 295); तज्जीवतच्छरीरवाद (295 - 296); एकात्मवाद (296 - 297); अकारकवाद (297); आत्मषष्ठवाद (297-298); क्षणिकवाद (298 - 299); जैन मान्य आत्मअवधारणा (299 - 3 0 2); नियतिवाद ( 3 0 2 - 3 0 3); कर्मोपचय (3 0 3 - 3 0 4) सृष्टि की समस्या (304); अण्डकृत सृष्टि ( 3 0 4 - 3 0 5); देव एवं ब्रह्माकृत सृष्टि ( 3 0 5 - 306); ईश्वरकृत सृष्टि (306); प्रधानकृत सृष्टि (306 - 307); विभिन्न वादों का नयवाद में समाहार (308) ग्रंथसूची 309-329 000 (xii) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश जैन आगमों में दर्शन की ऐसी बहुमूल्य अवधारणाएं उपलब्ध हैं जिनका अपना वैशिष्ट्य है। उन अवधारणाओं का केवल मध्ययुगीन जैन तार्किक साहित्य के स्वाध्याय से समीचीन मूल्यांकन नहीं हो सकता। यह सच है कि आगम में विषय प्रतिपादन की क्रमबद्धता परिलक्षित नहीं है। वहां सत्य के प्रयोगों से प्राप्त परिणामों का अपनी ही शैली में गुम्फन है जबकि तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थ आगमों में प्राप्त विषयों को क्रमबद्धता प्रदान करने पर मुख्य रूप से ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं किन्तु इस व्यवस्था क्रम में आगम की अनेक अवधारणाओं का समावेश उन ग्रन्थों में नहीं हो सका। यह स्वाभाविक भी था। आगम सत्य अन्वेषण में अनुभव को प्रधानता दे रहे हैं वही दार्शनिकग्रन्थों में अन्वेषित सत्य को तर्क के द्वारा स्थापित करने का प्रयत्न हो रहा है। अवश्य ही तत्त्वार्थसूत्र, समयसार, सन्मतितर्कप्रकरण, तत्त्वार्थ-भाष्यानुसारिणी, विशेषावश्यकभाष्य, तत्त्वार्थराजवार्तिक जैसे दार्शनिक ग्रन्थ आगम के मूल से जुड़े रहे हैं और इन ग्रन्थों के माध्यम से जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण जानकारियां हमें हस्तगत होती हैं। इन ग्रन्थों ने आगम में प्राप्त सत्यों/तथ्यों को क्रमबद्ध रूप में रखकर जैन दर्शन को एक नया आयाम प्रदान किया है। तथापि जैसे शांकरवेदान्त पढ़ लेने पर भी उपनिषदों का महत्त्व बना ही रहता है उसी प्रकार इन ग्रन्थों को पढ़ लेने पर भी आगमों का दार्शनिक वैशिष्ट्य गतार्थ नहीं हो जाता। जैनदर्शन के मूल स्रोत आगम हैं। परम्परा के अनुसार भगवान् महावीर ने अपने प्रलम्ब साधना के अभ्यास से जिन सूक्ष्म सत्यों का साक्षात्कार किया उनका प्रतिपादन आगमों में है। उदाहरणत:* पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीवन के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए जीवों का षड्जीवनिकाय के रूप में वर्गीकरण। * धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय, लोक-अलोकवाद, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि के पृथक्-पृथक्परमाणुओं के स्थान पर एकरस, एक गंध, एकवर्णएवं द्विस्पर्शयुक्त एक ही प्रकार के परमाणुओं से सब प्रकार के भौतिक स्कन्धों के निर्माण की स्वीकृति। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन * जीव के स्वरूपभूत पांच भाव, प्रयोग एवं विस्रसा सृष्टि की अवधारणा इत्यादि अनेक विषय आगम युग में प्रतिपादित हुए हैं, जिनके माध्यम से जैन दर्शन की मौलिकता एवं वैशिष्ट्य प्रस्तुत होता है। आगमयुगोत्तरवर्ती दर्शनयुग में ज्ञान की विविध शाखाओं का पृथक-पृथक् विकास हुआ। इनमें दो शाखाएं मुख्य थीं-प्रमाण और प्रमेय। इन दोनों में भी विशेष बल प्रमाण पर दे दिया गया और प्रमेय का विवेचन गौण हो गया, स्वाभाविक था कि आगम युग में जो विवेचन हुआ था उसके अनेक महत्त्वपूर्ण पक्ष या तो सर्वथा छूट गए या नगण्य हो गए । मध्ययुगीन जैन तार्किकों ने अपने समकालीन होने वाली प्रमाण, तर्क आदि की चर्चा को अपने विमर्श का मुख्य विषय बनाया तथा प्रमाण आदि के लाक्षणिक ग्रन्थों में अन्य दार्शनिकों के विचारों पर ऊहापोह किया। इस प्रक्रिया में उनका सम्बन्ध आगमों से विरल अथवा विच्छिन्नप्राय: हो गया फलत: मध्ययुगीन जैन चिंतकों ने जहां एक ओर जैन परम्परा की प्रमाण मीमांसा को तो समृद्ध बनाया वहां दूसरी ओर आगमिक युग के अनेक दार्शनिक तत्त्वों की उपेक्षा भी हो गई। जैन आगमों के अधुनातन भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रस्तुत संदर्भ में अपनी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त करते हुए लिखा है कि कुछ पश्चिमी विचारकों ने लिखा है, जैन दर्शन अन्यान्य दर्शन के विचारों का संग्रह मात्र है, उसका स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। उनकी इस स्थापना को हम सर्वथा निराधार नहीं मानते, इसका एक आधार भी है। मध्ययुग के आचार्यों ने न्याय या तर्कशास्त्र के जिन ग्रन्थों की रचना की उनमें बौद्ध और नैयायिक आदि दर्शनों के विचारों का संग्रह किया गया है। उन ग्रन्थों को पढकर जैन दर्शन के बारे में उक्त धारणा होना अस्वाभाविक नहीं है। जैन दर्शन का वास्तविक स्वरूप आगम सूत्रों में निहित है। मध्यकालीन ग्रन्थ खण्डन-मण्डन के ग्रन्थ हैं। हमारी दृष्टि में वे जैन दर्शन के प्रतिनिधि ग्रन्थ नहीं हैं। पहली भ्रांति यह है कि तार्किक ग्रन्थों को दार्शनिक ग्रन्थ माना जा रहा है। दूसरी भ्रांति इसी मान्यता के आधार पर पल रही है कि जैनदर्शन दूसरे दर्शनों के विचारों का संग्रह मात्र है। पहली भ्रांति टूटे बिना दूसरी भ्रांति नहीं टूट सकती। जैन दर्शन के आधारभूत और मौलिक ग्रन्थ आगम ग्रन्थ हैं। ये दर्शन का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका गम्भीर अध्येता नहीं कह सकता कि जैनदर्शन दूसरे विचारों का संग्रह मात्र है। आचार्य महाप्रज्ञ के इस वक्तव्य ने मुझे प्रस्तुत विषय में कार्य करने के लिए प्रेरित किया । वैसे भी यह तो स्पष्ट है कि ऐतिहासिक दृष्टि से जैनदर्शन का प्राचीनतम स्वरूप आगम में उपलब्ध है अत: आगमोत्तरकालीन दार्शनिक विवेचन को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने के लिए आगमकालीन दार्शनिक विवेचन को देखना आवश्यक है। 1. भगवई (खण्ड-1) भूमिका, पृ. 16 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश जैन आगम साहित्य का अधिकांश भाग विलुप्त हो गया है, यह जैन परम्परा की मान्यता है किन्तु जो उपलब्ध है वह भी परिमाण की दृष्टि से विशाल है। एक शोध-प्रबन्ध में इस सम्पूर्ण उपलब्ध साहित्य का आलोडन करना संभव नहीं था अत: इस शोध-प्रबन्ध में अंगसाहित्य के प्रथम पांच अंगों -- आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांगएवं भगवती - में निहित जैन दर्शन की मौलिक अवधारणाओं का यथाशक्य उल्लेख हो सका है। यद्यपि प्रसंगानुकूल अन्य आगमों तथा दार्शनिक ग्रन्थों का उपयोग भी यथावसर किया गया है। मुझे अपने प्रस्तुत शोधकार्य के दौरान यह स्पष्ट अवभासित होता रहा कि जैन आगमों में दर्शन की बहुमूल्य अवधारणाएं उपलब्ध हैं। उन अवधारणाओं का ज्ञान केवल मध्ययुगीन जैन तार्किक ग्रन्थों के अनुशीलन से नहीं हो सकता। इस दृष्टि से जैन आगमों के दार्शनिक प्रतिपादन का अपना वैशिष्ट्य है। उदाहरणतः दार्शनिक युग में जैन दर्शन का प्रारम्भ मोक्ष मार्ग की जिज्ञासा से होता है किन्तु आचारांग का प्रारम्भ साधक अपने मूल उद्गम को जानने की इच्छा से करता है। अपने मूल उद्गम की जिज्ञासा मोक्ष मार्ग की जिज्ञासा की अपेक्षा अधिक मौलिक है। यदि जन्म ही मेरा प्रारम्भ है और मृत्यु ही मेरा अन्त है तो ऐसी स्थिति में मोक्ष का प्रश्न ही नहीं उठता और तब चार्वाक् दर्शन फलित हो जाएगा मरणमेवापवर्गः । यदि मैं जन्म के पहले भी था तो मृत्यु के बाद भी रहूंगा , इस मान्यता से ही मोक्ष का लक्ष्य निर्धारित होता है। दार्शनिक जगत् में तत्त्वार्थसूत्र के समय तक पुनर्जन्म एक स्थापित सिद्धान्त बन चुका था इसलिए दार्शनिकों ने मोक्ष मार्ग के उपायों से शास्त्र का प्रारम्भ किया है। पांचवी शताब्दी ई. पू. में पुनर्जन्म का सिद्धान्त जन्म तो ले चुका था किन्तु अभी तक यह सिद्धान्त स्वतः सिद्ध मान्यता का रूप नहीं ले पाया था। भगवान् महावीर के पश्चात्वर्ती दार्शनिकों ने पुनर्जन्म कोतर्क के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न किया किन्तु भगवान् महावीर नेतर्क की अपेक्षा जाति-स्मृति के अनुभव द्वारा पुनर्जन्म को सिद्ध करने की प्रक्रिया को अधिक सुरक्षित माना क्योंकि यह प्रक्रिया प्रत्यक्ष पर आधारित थी, अनुमान पर नहीं। इसी प्रक्रिया में से गुजरने की उन्होंने साधक को प्रेरणा दी है। आगम अपनी सारी शक्ति प्रत्यक्षानुभूति पर केन्द्रित करता है। जबकि दर्शन युग में उसका स्थान तार्किक विचारणा ग्रहण कर लेती है। आगम युग में आत्म-साक्षात्कार कर्ता ऋषि उपस्थित थे, जबकि दर्शन युग में उनका अभाव होने से यह युग तर्क प्रधान बन गया। उपर्युक्त विवरण से दो बातें फलित होती हैं— प्रथम तो आगम, दर्शन की अपेक्षा अधिक मूलस्पर्शी दृष्टिकोण को लेकर चलता है, मोक्ष की जिज्ञासा उत्पन्न होने से पूर्व पुनर्जन्म में आस्था होना आवश्यक है। दूसरे में दर्शन वैचारिक धरातल पर विश्लेषण करता है। आगम के लिए वैचारिक विश्लेषण गौण हैं, मुख्य है साधना द्वारा अपरोक्षानुभूति । आगमयुग का दर्शनयुग से यह वैशिष्ट्य अनेक स्थलों पर परिलक्षित है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन यह ग्रन्थ सात अध्यायों में विभक्त है : 1. विषय-प्रवेश 2. आगम साहित्य की रूपरेखा 3. तत्त्व-मीमांसा, 4. आत्म-मीमांसा, 5. कर्म-मीमांसा, 6. आचार-मीमांसा एवं 7. आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन प्रथम अध्याय विषय प्रवेश में हम इन छहों प्रतिपाद्यों की संक्षिप्त रूपरेखा अध्याय क्रम से इस दृष्टि से दे रहे हैं कि हमारे सम्पूर्ण शोध-प्रबन्ध के विषय में पाठक का प्रवेश हो सके। इसीलिए भूमिका को विषय प्रवेश कहा गया है। आगम साहित्य की रूपरेखा प्रथम अध्याय में आगम साहित्य पर विशद विचार किया गया है। वर्तमान में उपलब्ध जैनागम भगवान् महावीर की वाणी का संकलन है, जो तीर्थंकर महावीर द्वारा अर्थ रूप में कथित एवं उनके विशिष्ट ऋद्धि-बुद्धि सम्पन्न गणधरों द्वारा सूत्र रूप में ग्रथित है । यद्यपि जैन परम्परा में विशिष्ट अर्हता सम्पन्न पुरुष को आगम माना गया है। आगम पुरुष की अनुपस्थिति में उनके वचन, प्रवचन को आगम कहा जाता है। आगमों के उद्भव की अवधारणा की प्रस्तुति के क्रम में हमने इस प्राचीन अवधारणा को रेखांकित किया है। भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर थे। यद्यपि वर्तमान में सुधर्मा स्वामी कृत द्वादशांगी के अंश ही उपलब्ध हैं। सुधर्मा जम्बू को सम्बोधित करते हुए कहते हैं – “आयुष्मन्! मैंने सुना है, भगवान् ने यह कहा - 'सुयं मे आउसं! तेणं भगवया एवमक्खायं' आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम का प्रारम्भ भी इस वाक्य से हुआ है। आगमों की वाचना, संख्या, भाषा, कर्ता, प्रामाण्य, वर्गीकरण, विच्छेदक्रम आदि विभिन्न विषयों की प्रस्तुति के साथ ही प्रथम पांच अंग आगम, जो हमारे शोध प्रबन्ध के मुख्य आधार हैं, उनका विस्तृत परिचय प्रस्तुत किया गया है। उनमें प्रतिपादित दार्शनिक एवं सामयिक विचारों का वर्णन भी संक्षेप में किया गया है, जिससे पाठक का उस आगम ग्रन्थ की आत्मा से परिचय भी हो सकेगा। श्वेताम्बर आगम एवं उनके व्याख्या साहित्य के परिचय के साथ ही दिगम्बर परम्परा मान्य आगमों का भी परिचय प्रस्तुत अध्याय में है। इसके साथ ही आधुनिक युग में किए जा रहे आगमों के सम्पादन, अनुवाद आदि के सम्बन्ध में जानकारी भी इस अध्याय में दी गई है। श्वेताम्बर परम्परा का मानना है कि ग्यारह अंग विकल रूप से सुरक्षित हैं तथा दृष्टिवाद नाम का बारहवां अंग सर्वथा लुप्त हो गया है। इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा का यह अभिमत है कि बारहवें अंग दृष्टिवाद के कुछ अंशों को छोड़कर अवशिष्ट सारे ही अंगप्रविष्ट Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश एवं अंगबाह्य आगमों का उच्छेद हो गया है। इन दोनों अवधारणाओं का समन्वय करके जब हम देखते हैं तो जैन परम्परा में बारह ही अंगों के कुछ अंश तो आज भी सुरक्षित है, ऐसा कहा जा सकता है। तत्त्वमीमांसा इस प्रबन्ध का तृतीय अध्याय तत्त्व-मीमांसा के नाम से प्रणीत हुआ है। तत्त्व-मीमांसा दर्शन का एक प्रमुख अंग है। जैन दर्शन के अनुसार तत्त्व-मीमांसा के आधार पर ही आचार का निर्धारण भी होता है और आचार धर्म का प्रधान तत्त्व है। जैन आचार तत्त्व-मीमांसा से निर्धारित एवं प्रभावित हुआ है। यद्यपि तत्त्व-मीमांसा का क्षेत्र बहुत व्यापक है, फिर भी उसे स्थूल रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है - 1. ज्ञान मीमांसा 2. अस्तित्व (प्रमेय) मीमांसा ज्ञान और ज्ञेय का, प्रमाण और प्रमेय का परस्पर प्रतिपाद्य-प्रतिपादक भाव सम्बन्ध है। ज्ञान प्रतिपादक है तथा ज्ञेय प्रतिपाद्य । 'प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि' प्रमाण के अभाव में प्रमेय का अवबोध ही नहीं हो सकता। प्रमेय का अस्तित्व स्वतंत्र है किन्तु उसकी सिद्धि प्रमाण के अधीन है। जब तक प्रमाण का निर्णय नहीं होता तब तक प्रमेय की स्थापना नहीं की जा सकती। प्रमाण स्वीकृति की विभिन्नता प्रमेय स्वीकृति में भी भेद ला देती है। उदाहरणत: चार्वाक मात्र इन्द्रिय प्रत्यक्ष को स्वीकार करता है तो उसका प्रमेय भी इन्द्रिय ग्राह्य भौतिक पदार्थ ही है। वह अपनी प्रमाण मीमांसा के आधार पर ही आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक आदि अतीन्द्रिय पदार्थों का निषेध करता है। आगम ग्रन्थों में भी पहले ज्ञान का फिर ज्ञेय का निर्देश मिलता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में ज्ञानखण्ड के पश्चात् ज्ञेयखण्ड का प्रतिपादन किया है। इसी प्रकार हमने भी प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के द्वितीय अध्याय में तत्त्व-मीमांसा के अन्तर्गत पहले ज्ञान की चर्चा एवं तत्पश्चात् द्रव्य की विवेचना की है। जैन दर्शन वस्तुवादी दर्शन है। वह दृश्य जगत् को प्रत्ययवादियों की तरह अयथार्थ नहीं मानता है। उसके अनुसार इन्द्रियग्राह्य एवं अतीन्द्रिय पदार्थ के अस्तित्व में कोई भेद नहीं है। दोनों की वास्तविक सत्ता है। जैन दर्शन मूलत: द्वैतवादी है। वह विश्व के मूल तत्त्व के रूप में चेतन एवं अचेतन तत्त्वों की स्वतंत्र एवं अनादि सत्ता स्वीकार करता है। उनका अस्तित्व निरपेक्ष है। उनमें परस्पर जन्य-जनक सम्बन्ध नहीं है। यद्यपि ये दोनों तत्त्व परस्पर विरोधी स्वभाव वाले हैं तथापि संसारी अवस्था में इनका सम्बन्ध होता है। उसके माध्यम से जीव का संसार में संसरण होता है। जैन दर्शन की यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्वीकृति है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप में विरोधी धर्मों का समवाय होता है। चेतन और अचेतन विरोधी है, यह स्वीकृति तो सर्वत्र है Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन किंतु चेतन एवं अचेतन – विश्व के सभी पदार्थों में नित्यता- अनित्यता आदि विरोधी धर्म युगपद्, एकत्र अवस्थित होते हैं। यह जैन दर्शन की विशिष्ट स्वीकृति है। जैनदर्शन का अनेकान्त-सिद्धान्त इन विरोधी युगलों की अवधारणा पर ही अवस्थित है। जैन दर्शन की 'उप्पनेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' की प्रसिद्ध त्रिपदी जैन मान्य वस्तु स्वरूप की आधारभूमि है। जैन तत्त्व मीमांसा में इन विषयों पर विस्तार से विवेचन होता है। जैसा कि हमने ऊपर इंगित किया कि जैन चेतन एवं अचेतन इन दो तत्त्वों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है – 'जदत्थि णं लोए तं सव्वं दुपओययारं' चेतन एवं अचेतन इन दो तत्त्वों का ही विस्तार पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य एवं नवतत्त्व हैं। इसमें ज्ञान-मीमांसा के अनन्तर ही द्रव्य-मीमांसा का भी विवेचन तथा साथ ही तत्त्व-मीमांसा और आचार-मीमांसा का पारस्परिक सम्बन्ध भी इंगित कर दिया है। ध्यातव्य है कि जैन आगमों को ही आधार बनाकर ज्ञान मीमांसा पर पृथक् महत्त्वपूर्ण शोधकार्य हो चुके हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय ये चार अस्तिकाय एवं काल - ये पांच द्रव्य अचेतन हैं। एकजीवास्तिकाय चेतन है। पांच अस्तिकाय में पुद्गलास्तिकाय को छोड़कर चार अस्तिकाय-स्कन्ध रूप हैं तथा पुद्गलास्तिकाय परमाणु रूप भी है और स्कन्ध रूप भी है। अन्य अस्तिकायों के परमाणु विभक्त नहीं हो सकते इसलिए वे प्रदेश कहलाते हैं। पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश विभक्त भी हो सकते हैं अत: उन विभक्त अंशों को परमाणु कहा जाता है। काल के न परमाणु होते हैं और न ही उसका स्कन्ध होता है अत: काल को श्वेताम्बर परम्परा में औपचारिक द्रव्य माना गया है। दिगम्बर परम्परा काल के भी अणु मानती है किन्तु उन अणुओं का स्कन्ध नहीं बनता, अत: दोनों ही परम्पराओं में काल को अस्तिकाय नहीं माना गया है। जीव एवं पुद्गल की गति एवं स्थिति में सहायता करने वाले द्रव्यों को क्रमश: धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय कहा जाता है। धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की स्वीकृति जैनदर्शन की मौलिक अवधारणा है। आकाशास्तिकाय सम्पूर्ण द्रव्यों को अवगाह देता है, आश्रय देना ही उसका लक्षण है। पुद्गल में मिलने एवं विभक्त होने की शक्ति होती है, अत: इसे पुद्गल कहा जाता है। पूरणगलनधर्मत्वात् पुद्गल:। जीव चेतनायुक्त होता है। उपयोग उसका लक्षण है। चेतना ज्ञानदर्शनात्मिका है। ज्ञान एवं दर्शन रूप चेतना का व्यापार (प्रवृत्ति) उपयोग कहलाता है। काल वर्तनालक्षण वाला है। प्रतिद्रव्य में जो अपनी स्वसत्ता की अनुभूति है, वह वर्तना है। विश्व व्यवस्था के संदर्भ में इन षड्द्रव्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन अपनी सम्पूर्ण विश्व-व्यवस्था इन षड् द्रव्यों के आधार पर ही करता है। उसके अनुसार जगत् का नियामक कोई ईश्वर नहीं है। विश्व-व्यवस्था (लोक-स्थिति) स्वत: संचालित नियमों के आधार पर सम्यक् रूप से चलती रहती है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश विस्रसा, (स्वभाव) प्रयोग एवं मिश्र परिणाम के माध्यम से जीवकृत एवं अजीव निष्पन्न सृष्टि संचालित होती रहती है। इस अवधारणा का तृतीय अध्याय में विस्तार से वर्णन हुआ है। जैन दर्शन का परमाणु नैयायिक-वैशेषिक की तरह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि के भेद से चार प्रकार का नहीं है। परमाणु का एक ही प्रकार है। वे संख्या में अनन्त हैं। उनके विभिन्न प्रकार के सम्मिश्रण से विभिन्न प्रकार के पदार्थों की उत्पत्ति होती है। विविध पदार्थों की उत्पत्ति के लिए विविध प्रकार के परमाणु मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह जैन दर्शन का अभ्युपगम है। आत्म-मीमांसा तृतीय अध्याय में अचेतन द्रव्यों का विवेचन किया गया है। आत्म-मीमांसा नामक चतुर्थ अध्याय में चेतन द्रव्य अर्थात् आत्मा पर विचार किया गया है। आत्मा न केवल जैन दर्शन का अपितु सम्पूर्ण भारतीय दर्शनों का आधारभूत तत्त्व है। दार्शनिक जगत् में दृश्य और मूर्त पदार्थ की भांति अदृश्य तथा अमूर्त पदार्थ की खोज निरन्तर चालू रही है। मानव का मन सिर्फ दृश्य जगत् को देखने से ही सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसने क्षितिज के उस पार भी झांकने/देखने का प्रयत्न भी किया। इस प्रयत्न की फलश्रुति है अदृश्य एवं अमूर्त पदार्थों का अभ्युपगम । आत्म-तत्त्व की अन्वेषणा भी इसी दृष्टिवालों ने की। दृश्य जगत् के पार देखने वालों ने आत्मा को स्वीकार किया। जिनकी दृष्टि इन्द्रिय और मन पर ही टिकी रही, उनकी दृष्टि इस दृश्य जगत् से बाहर के तत्त्वों को नहीं खोज सकी, फलस्वरूप आत्मा के अस्तित्व एवं नास्तित्व का अभ्युपगम हजारों वर्षों से चला आ रहा है। आत्मा के अस्तित्व को नकारने में सबसे अधिक प्रसिद्धि बृहस्पति अर्थात् चार्वाक मत को मिली। सूत्रकृतांग सूत्र से ज्ञात होता है कि भगवान् महावीर के समय भी अनेक भूतवादी सम्प्रदाय थे जो भूतों से भिन्न आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। आगमयुग में अजितकेशकम्बल आदि चिंतक आत्मा का निषेध करने वालों में अग्रणी थे। उनका मन्तव्य था कि भूतों से अतिरिक्त किसी अन्य स्वतंत्र आत्म-तत्त्व का अस्तित्व नहीं है - "इह कायाकारपरिणतानि चेतनाकारणभूतानि भूतान्येवोपलभ्यन्ते,नपुनस्तेभ्योव्यतिरिक्तोभवान्तरयायीयथोक्तलक्षण:कश्चनाप्यात्मा, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात्।" इन भूतवादियों के अतिरिक्त उपनिषद्, सांख्य, न्याय वैशेषिक, मीमांसक तथा जैन ये सारे दर्शन आत्मवादी हैं । यद्यपि बौद्ध दर्शन अपने आपको अनात्मवादी ,कहता है तथापि वह आत्मवादियों के समान ही पुनर्जन्म, कर्म और कर्मफल के अस्तित्व को स्वीकार करता है। जैसा कि हमने ऊपर कहा भूतवादी दार्शनिकों के अतिरिक्त अन्य भारतीय दर्शन एक स्वर से आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं किंतु उसके स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन परस्पर मतभेद हैं। सांख्य आत्मा को अनेक, अपरिणामी एवं व्यापक मानता है। न्यायवैशेषिक का भी यही मन्तव्य है। यद्यपि न्याय-वैशेषिक सांख्य के समान आत्मा को स्वरूपत: चेतन नहीं मानता। ज्ञान को आत्मा का आगन्तुक धर्म मानता है। मीमांसा-दर्शन आत्मा में परिणमन स्वीकार करता है। श्लोकवार्तिक में स्वर्ण की अवस्थाओं में भेद की तरह पुरुष की अवस्थाओं में भी भेद माना गया है - तस्मादुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मकः । पुरुषोऽभ्युपगन्तव्य: कुण्डलादिषु स्वर्णवत्।। अन्य वैदिक दर्शनों में आत्मा को कूटस्थ नित्य माना गया है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा ब्रह्म ही है। आत्मा अनेक नहीं है। वह एक ही है। सोपाधिक अवस्था में आत्मा भिन्नभिन्न प्रतीत होती है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा असंख्य प्रदेशात्मक, चैतन्य स्वरूप, ज्ञानवान है। वे अनंत हैं। उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। संसारावस्था की तरह ही मुक्तावस्था में भी उनका स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। वे परिणामी नित्य एवं देह परिमाण हैं। व्यापक नहीं हैं। संसारावस्था में आत्मा एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करती रहती है। संसार-भ्रमण का मूल हेतु कर्म है। कर्ममुक्त होने के बाद आत्मा अपने ऊर्ध्वगमन के स्वभाव के कारण लोकान्त तक पहुंच जाती है, लोक के बाहर धर्मास्तिकाय न होने से वह अलोक में नहीं जा सकती । संसारी अवस्था में आत्मा शरीरयुक्त होती है। मुक्त होते समय वह यहां शरीर का त्याग कर लोकान्त में सिद्ध हो जाती है। 'इह बोंदिं चइत्ताणं तत्थ गन्तूण सिज्झई' इस प्रकार आत्मा के सम्बन्ध में जैनों की जैनेतर दर्शन से भिन्न अपनी मौलिक अवधारणा है। जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है । वह सांख्य की तरह प्रकृति का धर्म तथा न्याय-वैशेषिक की तरह आत्मा का आगन्तुक धर्म नहीं है। आत्मा ज्ञाता है - जे आया से विण्णाया। जे विण्णाया से आया। आत्मा ज्ञान से ज्ञेय को जानती है। ज्ञान उसका गुण है। आत्मा और ज्ञान में परस्पर गुणी-गुण भाव सम्बन्ध है। गुण गुणी से सर्वथा न भिन्न होता है न अभिन्न होता है अत: उसका गुणी के साथ भेदाभेद सम्बन्ध है। सुख-दु:ख का कर्तृत्व आत्मा का स्वयं का है तथा उसकी फल-भोक्ता भी आत्मा ही है। कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व जैन के अनुसार आत्मा के ही धर्म हैं। वे औपचारिक नहीं हैं। अप्पा कत्ता विकत्ता य। दुहाण य सुहाण य॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश जैन दर्शन में सिद्ध और संसारी के भेद से जीव के दो भेद किए गए हैं। संसारी आत्मा कर्मयुक्त है अत: वह पुनर्जन्म करने वाली होती है। वह नानाविध शरीरों को धारण करती है और नानाविध योनियों में अनुसंचरण करती है। संसारी आत्माओं के अनेक भेद हो जाते हैं। मुख्य रूप से उनका विभाजन षड्जीवनिकाय के रूप में जैन दर्शन में प्राप्त है, जो जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा है। इस अध्याय में आत्मतत्त्व पर विभिन्न दृष्टिकोण से विमर्श किया गया है। आत्मा के संसारी स्वरूप की व्याख्या व्यवहारनय से एवं शुद्ध स्वरूप की व्याख्या निश्चय नय से की जा सकती है। जैन आचार-मीमांसा के संदर्भ में आत्माद्वैत की अवधारणा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। संग्रहनय की वक्तव्यता के अनुसार आत्म-एकत्व का भी आगमों में प्रतिपादन है - 'तुमंसि नाम सच्चेवजं हंतव्वं ति मन्नसि'। "जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे आज्ञा में रहने को बाध्य करता है, वह तू ही है' इत्यादि। आचारांग की यह उद्घोषणा आत्माद्वैत की सहज स्वीकृति है। तेरी और मेरी आत्मा में स्वरूपगत कोई भेद नहीं है। यह स्वरूपगत आत्माद्वैत का सिद्धान्त जैन आचार का महत्त्वपूर्ण आयाम है। सम्पूर्ण जीवों को आत्मवत् मानने का तात्पर्य यही है कि सभी जीव समान है। उनमें स्वरूपगत ऐक्य है, अत: जैन दर्शन नानात्मवादी होने पर भी अनेकान्त दृष्टि से वह किसी अपेक्षा से आत्माद्वैतवादी भी है। षड्जीवनिकाय की व्याख्या इस अध्याय में विस्तार से की गई है। बस-स्थावर की अवधारणा, जीवास्तिकाय का वर्णन, जीवस्वरूप आदि का विमर्श आत्मा के संदर्भ में एक नई दृष्टि प्रदान करने वाला है। आत्म-विचारणा का तात्पर्य है अपने अस्तित्व की विचारणा। जब व्यक्ति अपने स्वाभाविक अस्तित्व के प्रति जागरूक बनता है तब अनेक अकरणीय कृत्यों से स्वयं विमुख बन जाता है। आत्म-स्वीकृति का सिद्धान्त दार्शनिक मान्यताओं के संदर्भ की तरह ही व्यावहारिक परिप्रेक्ष्य में भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। कर्म-मीमांसा भारतीयदार्शनिकों ने अनेक विषयों पर चिन्तन किया है। आत्मा, बन्ध,मोक्ष, पुनर्जन्म, कर्म आदि विषय उनकी विचारणा के बिन्दु रहे हैं। यह दृश्यमान चराचर जगत् हमारे सामने हैं, किन्तु यह क्यों है? इसमें विविधता क्यों है? इन प्रश्नों का समाधायक तत्त्व हमारे सामने नहीं है। जो कारण प्रत्यक्ष नहीं होता उसके बारे में जिज्ञासा होनी भी स्वाभाविक है। जगत् रूप कार्य हम सबके प्रत्यक्ष का विषय है किन्तु इसका कारण प्रत्यक्ष नहीं है। इसके कारण की खोज में दार्शनिक जगत् में नए-नए प्रस्थानों का आविर्भाव हुआ। कर्म सिद्धांत का प्रादुर्भाव सृष्टि-वैचित्र्य, वैयक्तिक भिन्नता एवं व्यक्ति की सुखदु:खात्मक अनुभूतियों के कारण की व्याख्या के प्रयत्नों के मध्य ही हुआ है। वस्तुत: जगत् Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 जैन आगम में दर्शन वैविध्य एवं वैयक्तिक भिन्नताओं की तार्किक व्याख्या ही कर्म सिद्धांत के उद्भव का हेतु बनी है। भारतीय चिन्तकों ने जगत् के कारण की मीमांसा के संदर्भ में काल, स्वभाव, नियति आदि विभिन्नवाद उपस्थित किए हैं। जैन दर्शन ने स्पष्ट रूप से जगत् के वैविध्य का प्रमुख कारण कर्म को ही स्वीकार किया है। कर्म का सामान्य अर्थ क्रिया अर्थात् प्रवृत्ति है । मन, वचन एवं शरीर के द्वारा की जाने वाली सम्पूर्ण क्रिया को कर्म कहा जा सकता है। मीमांसक परम्परा में यज्ञ-यागादि, नित्यनैमित्तिक क्रियाओं को कर्म की संज्ञा दी गई है। गीता में कायिक प्रवृत्तियों को कर्म कहा है। योग एवं वेदान्त दर्शन को भी कर्म के विशिष्ट अर्थ के साथ उसका क्रियात्मक अर्थ भी मान्य है। बौद्ध दर्शन में भी मन, वचन एवं काया की क्रिया के अर्थ में कर्म शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीव की प्रत्येक क्रिया तथा उस क्रिया के प्रेरक तत्त्व भी कर्म कहलाते हैं। जैन परिभाषा में इनको भावकर्म कहा जाता है । इसी भावकर्म के द्वारा जो पुद्गल आकर आत्मा के चिपक जाते हैं उनको जैन दर्शन में द्रव्यकर्म कहा जाता है - 'आत्मप्रवृत्त्याकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गला: कर्म' आत्मा की शुभाशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट तथा कर्म रूप में परिणत होने के योग्य पुद्गलों को कर्म कहते हैं। जैन दर्शन में आठ वर्गणाएं स्वीकृत हैं। उनमें एक है कार्मण वर्गणा । कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों से ही कर्म का निर्माण हो सकता है। वे पुद्गल स्कन्ध चतु:स्पर्शी होते हैं। अनन्त प्रदेशी कार्मण वर्गणा के पुद्गलों से ही द्रव्य कर्म का निर्माण हो सकता है। इससे भिन्न पुद्गलों में कर्म रूप में परिणत होने की योग्यता नहीं है। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य कर्म पौद्गलिक होते हैं, भौतिक होते हैं | कर्म को पौद्गलिक मानने की अवधारणा जैन दर्शन की मौलिक स्वीकृति है। अन्य दर्शनों में कर्म को मात्र चैतसिक माना गया है। जैन के अनुसार कर्म चैतसिक तो हैं ही किन्तु भौतिक भी हैं। जैन परम्परा में जिस अर्थ में कर्म शब्द प्रयुक्त हुआ है, उससे मिलते-जुलते अर्थ में अन्य भारतीय दर्शनों में माया, अविद्या, प्रकृति, अपूर्व, आशय, अदृष्ट आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदान्त दर्शन में माया एवं अविद्या, मीमांसा में अपूर्व, न्याय-वैशेषिक में अदृष्ट, योग में आशय, बौद्ध दर्शन में वासना और अविज्ञप्ति शब्दों का प्रयोग कर्म अर्थ में हुआ है। यद्यपि चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी भारतीय दर्शनों में कर्म पर विचार हुआ है किन्तु कर्म-सिद्धान्त के विभिन्न पक्षों का - कर्म का स्वरूप, कर्म-बन्धन, कर्म-फल, कर्म-स्थिति आदि विषयों का जितना सूक्ष्म एवं सर्वांगीण विवेचन जैन दर्शन में मिलता है, उतना अन्य दर्शनों में उपलब्ध नहीं है। प्रस्तुत प्रबन्ध के कर्म-मीमांसा नामक अध्याय में हमने जैन कर्म सिद्धांत सम्बन्धी मुख्य अवधारणाओं पर विमर्श किया है। जैन दर्शन के अनुसार कर्म के दो प्रकार हैं .... द्रव्यकर्म और भावकर्म । भावकर्म आत्मा की प्रवृत्ति है एवं द्रव्यकर्म उस प्रवृत्ति के द्वारा Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश आकृष्ट होकर चिपकने वाले कर्म-पुद्गल हैं । कर्मों का आत्मा के साथ जो सम्बन्ध होता है उसे बन्ध कहते हैं। बन्ध के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश-ये चार भेद हैं। प्रकृति बंध के ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार हैं। जैन परम्परा में ये ही अष्ट कर्म के रूप में प्रसिद्ध हैं। कर्म की मूल आठ प्रकृतियां हैं। उनके भेद-प्रभेद अनेक हैं। जैन दर्शन के अनुसार कृत कर्मों का फल-भोग किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्राप्त होता है। कडाण कम्माण णत्थि मोक्खो। जो कर्म किए हैं उनका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं मिल सकता। जैन मान्यता के अनुसार कुछ कर्म नियत विपाकी होते हैं, कुछ अनियतविपाकी होते हैं। जो कर्म नियतविपाकी हैं, उनमें कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता | जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार उन्हें निकाचित कर्म कहा जाता है। अनियत-विपाकी कर्म उन्हें कहा जाता है, जिनके स्वभाव, समय, रस आदि में परिवर्तन किया जा सकता है। जैन दर्शन में कर्म की दस अवस्थाओं का उल्लेख है। उनमें से उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा, संक्रमण, उपशमन की अवस्थाएं कर्मों के अनियत विपाक की ओर संकेत करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि जैन दर्शन के अनुसार कर्म सर्व शक्तिमान नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि के माध्यम से उसकी शक्तियां ससीम बनती हैं। कर्म में परिवर्तन के सिद्धांत को मान्य कर जैन दर्शन ने पुरुषार्थ की अवधारणा को वरीयता प्रदान की है। जैन आगम साहित्य में कर्म को चैतन्यकृत माना गया है - चेयकडा कम्मा। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद के प्रवक्ता थे। उनके दर्शन के अनुसार जीव अपने प्रयत्न से ही कर्म का बन्ध करता है। कर्मबन्ध, नियति आदि तत्त्वों से जुड़ा हुआ नहीं है। कर्मबन्ध के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है। भगवान् महावीर ने जीव के पारिणामिक भाव को कर्म से मुक्त बतलाया है। उससे जीव को निरन्तर कर्म मुक्त होने की शक्ति प्राप्त होती है और जीव का पुरुषार्थ कर्म के परिवर्तन में भी सक्षम बना रहता है। आधुनिक विज्ञान जगत् में आज नवीन-नवीन प्रयोग हो रहे हैं। लिंग परिवर्तन की घटनाएं यदा-कदा सुनने में आती रहती हैं। जैन कर्म सिद्धांत की भाषा में वह नामकर्म की प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण है। इसी प्रकार क्लोनिंग, टेस्ट-ट्यूब बेबी आदि से सम्बन्धित प्रश्नों का समाधान जैन कर्मवाद के आलोक में खोजा जा सकता है। कर्म मीमांसा नामक प्रस्तुत अध्याय में हमने कर्म की दार्शनिक अवधारणाओं तक ही अपने आपको सीमित रखा है। इस अध्याय में जीव-कर्म सम्बन्ध. कर्म का कर्ता, चलित अचलित कर्म, अनुदीर्ण एवं उदीरणा योग्य कर्म, दु:ख का स्पर्श किसको, नोकर्म की निर्जरा आदि कर्म-संबंधित विभिन्न विषयों पर विचार किया गया है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 जैन आगम में दर्शन अध्यात्म के क्षेत्र में आरोहण करने के लिए कर्म-सिद्धांत का मनन एवं उसके निर्देशों की अनुपालना आवश्यक है। अध्यात्म की व्याख्या कर्म सिद्धांत के बिना नहीं की जा सकती। जो अध्यात्म के आनन्द का आस्वाद चाहता है उसको कर्म सिद्धांत की अतल गहराइयों में डुबकी लगाना आवश्यक है। आचार-मीमांसा . तृतीय अध्याय में तत्त्वमीमांसा, चतुर्थ अध्याय में आत्म-मीमांसा तथा पञ्चम अध्याय में कर्म-मीमांसा करने के अनन्तर षष्ठ अध्याय में आचार-मीमांसा की गई है। जैन सिद्धांत है कि ‘पढमं नाणं तओ दया' अर्थात् ज्ञान के अनन्तर चारित्र आता है। अभिप्राय यह है कि चारित्र की पृष्ठभूमि तत्त्वज्ञान है। तत्त्व-मीमांसा में जड़-चेतन के निरूपण के अनन्तर कर्मवाद के अन्तर्गत उनके परस्पर बन्धन का हेतु समझ में आता है और तब ही उस बन्धन से मुक्ति की जिज्ञासा उदित होती है। जिसका उपाय चारित्र है। मोक्ष मार्ग का प्रतिपादन करते समय तत्त्वार्थ सूत्र ने चारित्र को दर्शन तथा ज्ञान के अनन्तर रखा है। क्योंकि चारित्र ही मुक्ति का साक्षात् हेतु है। हमने भी इसी क्रम का अनुसरण किया है। जैन परम्परा में चारित्र के दो आयाम हैं - निश्चय और व्यवहार। निश्चय आचार आत्माश्रित है, व्यवहार आचार पराश्रित है। आत्माश्रितो निश्चय: पराश्रितो व्यवहारः। आधुनिक भाषा में निश्चय को व्यष्टिगत तथा व्यवहार को समष्टिगत कह सकते हैं। अनेकान्त की दृष्टि में ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। इनमें कोई भी उपेक्षणीय नहीं है। एक दूसरी दृष्टि से चारित्र के दो आयाम हैं - निवृत्ति तथा प्रवृत्ति । मन, वचन, काय की निवृत्ति त्रिगुप्ति है तथा सर्वविध प्रवृत्ति में प्रमाद का अभावपंचसमिति है। त्रिगुप्तितथापंचसमिति मिलकर अष्ट प्रवचन मातृका कहलाती हैं अर्थात् इसमें समस्त जैन आचार समाहित है। संयत प्रवृत्ति निर्जरा के साथ पुण्य के आश्रव का कारण भी है तथा निवृत्ति संवर का कारण है। पुण्य का आश्रव भी अन्ततोगत्वा बन्धन ही है, अत: आश्रव एषणीय नहीं है, एषणीय तो संवर ही है - आश्रवो भवहेतुः स्यात्संवरो मोक्षकारणम्। इतीयमाहतीदृष्टिरन्यदस्या: प्रपञ्चनम् ॥ तथापि साधना की अन्तिम स्थिति प्राप्त होने तक प्रवृत्ति बनी ही रहती है। इस वास्तविकता को स्वीकार करके जैनागमों में आचार मीमांसा के अन्तर्गत प्रवृत्ति में सावधानी बरतने की बात पर बहुत बल दिया गया है। विशेषकर श्रावक तो सांसारिक जीवन जीते हुए सभी प्रकार की प्रवृत्ति करता है इसलिए उसे हर प्रकार की प्रवृत्ति में विवेक रखने की बात श्रावकाचार के अन्तर्गत बताई गई है। साधु की प्रवृत्ति सीमित है तथापि उसके लिए भी पूरी सावधानी रखने की बात की गई है। उदाहरणत: भिक्षाचर्या में पूर्ण विवेक रखने की बात जैनागमों में बहुत विस्तार से है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैनाचार मीमांसा पूर्णत: व्यावहारिक है। सिन्द्रांतत: Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश 13 इस आचार-मीमांसा का आधार आत्मौपम्य अर्थात् जीव-मात्र को अपने समान मानना है। इस सिद्धांत ने जैन परम्परा में अहिंसा को इतनी प्रधानता दे दी कि अहिंसा और जैनाचार पर्यायवाची से हो गए। अहिंसा के संदर्भ में जैनागम जितनी सूक्ष्मता में गए, शायद ही कोई दूसरा साहित्य उतनी सूक्ष्मता में गया हो । ज्ञान की निष्पत्ति यही मानी गई कि किसी की भी हिंसा न की जाए - एवं खुणाणिणो सारं जंण हिंसइ कंचणं। अहिंसा समयं चेव एयावंतं वियाणिया। हिंसा की जड़ में प्राय: परिग्रह का भाव रहता है। सुख-सुविधा की इच्छा से प्रेरित होकर संग्रह करने की प्रवृत्ति परिग्रह है। यह प्रवृत्ति जितनी बलवती होती है मनुष्य उतना ही उचितानुचित का विवेक खो देता है और यह विवेकहीनता ही आचारहीनता का मूल कारण है। परिग्रह से मुक्ति का अर्थ है - आत्मविश्वास जनित स्वावलम्बन का भाव । मुनि जीवन अपरिग्रह की ही चरम परिणति है जहां साधक देह के प्रति भी आसक्ति से मुक्त हो जाता है। जैन आचार मीमांसा के अधिकांश प्रावधान इस देहासक्ति से मुक्ति की भावना से ही प्रेरित है। यदि जैन आगमों में वर्णित धुत की चर्या अथवा जिनकल्पी की चर्या अथवा प्रतिमाधारी की चर्या को देखें तो उसमें अहिंसा तथा अपरिग्रह की युक्ति का ही चरमोत्कर्ष दिखाई देगा। विचारों के प्रति अनासक्ति यदि अनेकान्त है तोपदार्थों के प्रति अनासक्ति अपरिग्रह है। आसक्ति न हो तो हिंसा का कारण ही समाप्त हो जाता है। सम्प्रदाय के प्रति आसक्ति भी एक बन्धन ही है। जैनागमों ने मुक्ति के द्वार को जैन जैनेतर सबके लिए खोलकर साम्प्रदायिक अभिनिवेश से भी मुक्ति का समर्थन किया। केवल जैन परम्परा का साधु ही नहीं, अन्य परम्परा का साधु भी तथा गृहस्थ भी मुक्ति का अधिकारी होता है, शर्त केवल वीतरागता की है। आज विश्वशांति का अथवा आतंकवाद के विरोध का जो स्वर उठ रहा है, वह विशेष प्रभावशाली नहीं हो पा रहा है क्योंकि हम हिंसा की जड़-विलासप्रियता पर प्रहार करने में हिचकिचाते हैं। असीम संग्रह की इच्छा और अस्वस्थ स्पर्धा व्यक्ति को व्यक्ति से ही नहीं, राष्ट्र को राष्ट्र से टकरा देती है। प्राकृतिक साधनों का अनियंत्रित उपभोग पर्यावरण के लिए भारी संकट उत्पन्न कर रहा है। ऐसे में जैनागमों का इच्छा परिमाण तथा अनासक्ति का संदेश मानव जाति को संकट से बचाने का एकमात्र अमोघ उपाय दिखाई दे रहा है। जैनागमों का अधिकांश भाग आचार-मीमांसा परक ही है। हमने अपने शोध-प्रबन्ध 1. * Deo. S.B., History of Jain Monachism, Poona, 1956 * Sogani, K.C. Ethical Doctrines in Jainism, Solapur, 1967 * Bhargva. D.V.. Jaina Ethics, Delhi. 1968 * Jaini, P.S., The Path of Purification, Delhi, 1990 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 जैन आगम में दर्शन में उसका कुछ अंश ही स्थालीपुलाक न्याय से विवेचित किया है। विस्तार के लिए हमारे पूर्ववर्ती वे विवेचन देखे जा सकते हैं जो केन्द्र में जैनाचार को ही लेकर चलते हैं।' जहां तक प्रस्तुत अध्याय का सम्बन्ध है, हमने इसमें जैनागमों के प्रमाण से आचार के लक्षण, स्वरूप, मानदण्ड तथा आधार भेद आदि पर ऊहापोह पूर्वक विचार करते हुए जैन रत्नत्रय की बौद्ध अष्टांग मार्ग से तुलना की है। आचार का पालन सम्यग्दर्शन पूर्वक ही होता है। वस्तुत: आगम दर्शनाचार, ज्ञानाचार, तप-आचार, वीर्याचार का भी विवेचन चारित्राचार के ही समान करते हैं। यह आचार का व्यापक स्वरूप है। हमने इसी व्यापक अर्थ में आचार. मीमांसा की है। धर्म के लक्षण में अहिंसा और संयम के साथ तप को भी अलग से परिगणित करना तप के महत्त्व को प्रकट करता है - धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो। अत: तप का वर्णन आचार के अन्तर्गत सहज ही आ गया है। प्रवृत्ति का वलय तो अन्तिम स्थिति में ही टूटता है। तब तक क्रिया रहती है। आचार के संदर्भ में क्रिया की अवधारणा महत्त्वपूर्ण है, अत: क्रिया पर हमने पृथक् से प्रकाश डाला है। यह चर्चा आगमोत्तर काल में प्राय: छूट गई लगती है। आगम के आधार पर की गई यह चर्चा शायद दार्शनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो। जैनागमों की आचार-मीमांसा में अहिंसा और अपरिग्रह की विशेष चर्चा आना स्वाभाविक है। यद्यपि सत्य, अस्तेय और ब्रह्मचर्य का भी समावेश पांच व्रतों में है तथापि जैन आचार-मीमांसा के व्यावर्तक धर्म तो अहिंसा और अपरिग्रह ही हैं। उनका शास्त्रीय अध्ययन प्रस्तुत करते समय हमने उनकी प्रासंगिकता की ओर भी इंगित किया है। परवर्ती साहित्य में आचार-मीमांसा का क्रमबद्ध वर्णन श्रावकाचार तथा मुनिधर्म के अन्तर्गत है किंतु फिर भी आगमों की आचार-मीमांसा का अपना वैशिष्ट्य है। आगमकालिक आचार-मीमांसा को देखने पर जैन आचार-मीमांसा का विकास क्रम ख्याल में आ जाता है। उदाहरणत: आचारांग में पांच व्रतों का एक साथ उल्लेख नहीं है किन्तु चार कषायों का उल्लेख है। जब कषाय-मुक्ति का व्यावहारिक रूप प्रकट हुआ तो पांच व्रत फलित हुए। उन व्रतों के अतिचारों के वर्णन ने व्रतों को और भी अधिक व्यावहारिक रूप दे दिया। जैन आगमों में जैनेतर दर्शन मध्ययुग के आचार्य स्वमत के समर्थन में पूर्वपक्ष तथा उत्तरपक्ष की प्रणाली अपनाते रहे जिसमें परमत को पूर्वपक्ष के रूप में रखकर उसका खण्डन किया जाता था। यह परम्परा जैन, बौद्ध तथा वैदिक सभी दार्शनिकों ने अपनाई। किंतु प्राचीनकाल के आर्ष साहित्यउपनिषद्, जैनागम तथा पालि त्रिपिटक तक अपने मत का प्रतिपादन ही मुख्य रहा, परमत Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश 15 केखण्डन पर विशेष बल नहीं दिया गया, फिर भी परमत का उल्लेख इस प्राचीन आर्ष साहित्य में भी है जिसका अपना ऐतिहासिक महत्त्व है। जैनागमों में जैनेतर 3 6 3 मतों का उल्लेख है। जहां तक 3 6 3 की संख्या का सम्बन्ध है, यह संख्या अनेक मतों को बतलाने के लिए प्रतीक के रूप में भी प्रयुक्त की गई हो सकती है। परवर्ती जैन आचार्यों ने इस संख्या को गणितीय आधार पर भी सिद्ध किया है। इतना तो स्पष्ट है कि भारत में आज भी अनेकानेक सम्प्रदाय प्रचलित हैं जिनकी संख्या सैकड़ों में ही है। भगवान् महावीर का काल दार्शनिक उथल-पुथल का समय था । पुरानी मान्यताओं को चुनौती दी जा रही थी। ऐसे में अनेकानेक विचारक अपनी-अपनी बात कह रहे थे। अजितकेश कम्बली, पूरणकाश्यप, मक्खलिगोशाल, सञ्जयवेलट्ठिपुत्त आदि अनेक ऐसे विचारकों का उल्लेख बौद्ध परम्परा में भी है। इतनी बात इन सभी विचारकों की समान थी कि ये स्वयं मौलिक होने का दावा कर रहे थे, ये किसी प्राचीन परम्परा के अनुयायी नहीं थे। इस रूप में ये स्वयं ही किसी न किसी मत के संस्थापक बन रहे थे। इनमें से जैन और बौद्ध परम्परा तो चिरजीवी बनी और आजीवक मत की परम्परा भी पर्याप्त समय तक चली। शेष परम्पराएं . अल्पजीवी ही सिद्ध हुईं। जैन परम्परा इस वाद-विवाद में अपने को मध्यस्थ रखने का प्रयत्न करती रही। अपने मत की प्रशंसा तथा दूसरों के मत की निन्दा उसे अभिप्रेत नहीं थी - सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया॥ वस्तुत: अनेकान्तवाद में किसी मत का एकान्तत: खण्डन उचित भी नहीं है। सभी मतों में आंशिक सत्य तो रहता ही है - परसमयाणं वयणं मिच्छं खलु सव्वहा वयणा। जेणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वयणादो॥ इस दृष्टि से जैनागमों में जो जैनेतर मान्यताओं का उल्लेख है उसे परिशिष्ट रूप में हमने छठे अध्याय में दे दिया है। इन मतों की मान्यताओं का अधिक विस्तार जैनागमों में नहीं मिलता। तात्कालिक बौद्ध आदि साहित्य के अनुशीलन से इन मतों पर कुछ अधिक प्रकाश पड़ने की संभावना है। किन्तु जितना विवरण हमने यहां दिया है, वह यह सिद्ध करने के लिए तो पर्याप्त है कि जैनागमों का काल गहन दार्शनिक ऊहापोह का काल था और अनेक मतवादों के बीच में से जैन परम्परा निकली तो उसका रूप निश्चित ही निखरा। अनेकान्तवादी दृष्टि के कारण इन अनेकानेक मतों का जैन दृष्टि से समन्वय भी हुआ। संभव है पंचसमवाय की Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 जैन आगम में दर्शन अवधारणा ऐसे ही समन्वय के प्रयत्न का परिणाम हो। जैन आगमों पर किए गए समीक्षात्मक अनुशीलनों का सर्वेक्षण जैन आगमों पर दो प्रकार के कार्य हुए हैं - संपादन, अनुवाद और टिप्पण, जिनका विवरण ग्रन्थ के प्रथम अध्याय के अन्त में दिया गया है। आगमों के इस प्रकार के कार्य के अतिरिक्त भी आधुनिक देशी-विदेशी विद्वानों द्वारा आगमों पर समीक्षात्मक कार्य हुआ है जिसका संक्षिप्त सर्वेक्षण प्रस्तुत किया जा रहा है। पाश्चात्य विद्वान् पश्चिमी जगत को जैन विद्या का परिचय लगभग दो शताब्दी पूर्व हुआ, जब सन् 1807 में मेजर कोलिन मेकन्जी (Major Colin Macknzie) ने 'एशियेटिक रिसर्चेज' में 'जैनों का विवरण' शीर्षक में तीन किश्तों में एक लेख प्रकाशित किया। इसके अनन्तर एच.टी.एच.कोलब्रूक (H.Th. Colebrooke)नेजैनधर्मकेसम्बन्ध में कुछ विचार अभिव्यक्त किए। सन् । 8 2 7 में एच.एच. विल्सन (H. H. Wilson) ने कोलक के निबन्ध पर विमर्श प्रस्तुत किया तथा इसी वर्ष फ्रेंकलिन (Francklin) ने जैन और बौद्ध सिद्धांत पर अनुसंधानात्मक लेख प्रकाशित किया। एच. एच. विल्सन ने अनेक जैन पाण्डुलिपियों का विवरण दिया । इन प्रारम्भिक प्रयत्नों के पश्चात् गंभीर अनुसंधान की दृष्टि से वेबर का जर्मन भाषा में भगवती पर अध्ययन उल्लेखनीय है। वेबर पश्चिमी जगत कोजैनसाहित्यकापरिचय करवाने में Allbrecht Weber (18 2 5 - 1901) का महत्त्वपूर्ण योगदान है। श्री वेबर ने जैन साहित्य पर विशेष कार्य किया। उनका एकप्रसिद्ध प्रबन्धUeberdieheiligenschriftender Jaina ("ontheHolyscriptures ofthe Jains")है। इन्होंने इसमें श्वेताम्बर जैन आगमोंपर विमर्श किया है। "Catalogue of the manuscripts of the Royal Prussian Library" के पांचवें वोल्यूम में वेबर ने हस्तलिखित प्रतियों का विस्तार से वर्णन किया है। वेबर ने भगवती सूत्र पर भी एक विस्तृत प्रबन्धप्रकाशित किया ।जिसकानाम Ueberein Fragment derBhagavati,einBeitrag Zurkenntnis derheiligen sprache und Literatur der Jaina("On a fragmentofthe Bhagavati, a contribution to the Knowledge ofthe holy language and literature ofthe Jains".)है। ई. ल्यूमन ल्यूमन ने जैन आगमों में प्राप्त कतिपय कथानकों का भाषा शास्त्रीय दृष्टिकोण से Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश 17 तुलनात्मक अध्ययन भी किया। इनका अभिमत था कि जैन कथानक भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के लिए भी बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने Buddha und Mahavira नामक ग्रन्थ की रचना 19 2 2 में की। शुब्रींग __ जैन विद्या के उपबृंहण में Walter Schubring (1 8 8 1 - 1 9 6 9) का महत्त्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने DasKalpasutra,diealte "SammlungJinistischerMoenchsvor schriyten" (The Kalpasutra the Ancient collection of Rules for Jain Monks)#146. शोधप्रबन्ध से अपनी पी.एच्.डी. की उपाधि प्राप्त की। जिसका प्रकाशन Indica, Leipzig से 1905 में हुआ। इसका अंग्रेजी अनुवाद श्री Burgess ने किया है। उन्होंने मूलपाठ का अनुवादनहीं किया। उस अनुवादित ग्रन्थ का प्रकाशन Indian Antiguaryसे 1910 में हुआ। शुब्रींगद्वारा लिखित WorteMahaviras,KritischeUebersetzungen, aus dem Kanon der Jaina (Words of Mahavira, critical Translation from the Jaina canon) 192 6 मेंGoettingenमें प्रकाशित हुई। इसमें कुछमहत्त्वपूर्ण आगम-ग्रन्थों के विशिष्ट उद्धरणों का समायोजन है। श्रीशुश्रींगने Die Lehreder Jainas nachalten Quellen dargestelltनाम का एकविशद प्रबन्ध (Monograph)जैन सिद्धांत पर लिखाजोउनके विशिष्ट ज्ञान का परिचायक है।'EncyclopediaofIndo-AryanResearch'में 1 9 3 4 में Leipzigसेजिसका प्रकाशन हुआ। इस विशिष्ट ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद श्री W. Beurlen ने किया, जिसका प्रकाशन 'The Doctrine of the Jainas' नाम से 1 9 6 2 में दिल्ली में हुआ। विश्व धर्मों का अध्ययन करने वाली 'Die Religionen der voelker' नामक एक सिरीज 36 volume में Stusttgart से प्रकाशित हुई थी। इस सीरिज के 13वें volume में श्री शुब्रींग द्वारा लिखित Jainism नाम का दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रबन्ध प्रकाशित हुआ। श्री A. Sen ने इसका अनुवाद अंग्रेजी में किया। वह ग्रन्थ Calcutta SanskritCollageResearch Series No. LII में प्रकाशित हुआ। श्री शुब्रींग ने साहित्य के माध्यम से जैनदर्शन की अपूर्व सेवा की है। डेल्यू जोजेफडेल्यू (Jozef Deleu) ने भगवती सूत्र पर कार्य किया है जिसका प्रकाशन सन् 1970 में "De Tempelhof 37, Brugge (Belgie)से हुआ है। पश्चिमीजगत् में भगवती पर सबसे पहले कार्य वेबर ने किया था। उनके पश्चात् शुब्रींग ने भगवती पर कुछ कार्य किया था किंतु स्वतंत्र रूप से भगवती पर वेबर के पश्चात् जोजेफ डेल्यू ने ही कार्य किया है। विद्वान् Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 जैन आगम में दर्शन लेखक ने इस पुस्तक में भगवती के कई महत्त्वपूर्ण अंशों पर समालोचनात्मक विमर्श किया है। भगवती की रचना के सम्बन्ध में उन्होंने विस्तार से विचार किया है जैसा कि प्राक्कथन में उन्होंनेस्वयंलिखाहैकि"Thepresentworkintendstogiveafairlycompleteanalysis oftheviyahpannatti; moreover, in the introduction I have tried to answerat least some of the rather complicated questions regarding its composition." विद्वान लेखक ने ग्रन्थ के अन्त में कई परिशिष्ट दिए हैं जिससे ग्रन्थ का मूल्य और अधिक बढ़ गया है। जर्मन विद्वानों से सम्बन्धित तथ्यों के लिए 'German Indologists' पुस्तक प्रस्तुत विमर्श का मुख्य आधार रही है। भारतीय विद्वान पण्डित दलसुख मालवणियाने 1 9 4 9 में न्यायावतारवार्तिक वृत्ति का संपादन किया। जिसकी 151 पृ. की विस्तृत प्रस्तावना में आगम युग के जैनदर्शन पर प्रकाश डाला। सन् 19 6 6 में यह प्रस्तावना परिवर्धित रूप में 'आगम युग का जैन दर्शन' नाम से स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रकाशित हुई। जिसका द्वितीय संस्करण 1990 में प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर से प्रकाशित हुआ। विद्वान् लेखक ने इस ग्रन्थ के माध्यम से जैन विद्या की अभूतपूर्व सेवा की है। इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद, नयवाद, सप्तभंगी, प्रमाण, उनके भेद-प्रभेद आदि का उल्लेख है। इस ग्रन्थ का पूर्व भाग आगम साहित्य पर आधारित है तथा उत्तर भाग आगमोत्तर साहित्य के आधार पर लिखित है। इसमें मुख्य रूप से प्रमाण एवं प्रमेय सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध है। इस ग्रन्थ का प्रयोजन यह प्रदर्शित करना था कि आगमोत्तर जैन साहित्य में जो दार्शनिक चर्चा प्राप्त है, उसका मूल आगम में है। लेखक का एक अन्य लघुकाय ग्रन्थ "जैन दर्शन का आदिकाल" नाम से "लालभाई दलपत भाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद' से 1 9 80 में प्रकाशित हुआ। उसमें लेखकनेजैनदर्शनकेप्रारम्भिकस्वरूप का आगम के आधार पर निरूपण किया है। ग्रन्थ लघुकाय होने पर भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। डॉ. नथमल टाटिया द्वारा लिखित 'Studies in Jaina Philosophy" एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह ग्रंथ पांच अध्यायों में विभक्त है । जिनमें मुख्य रूप से जैन का अनेकान्तिक दृष्टिकोण, ज्ञानमीमांसा, अविद्या, कर्म एवं जैनयोग पर क्रमश: विस्तृत विचार किया गया है। विश्रुत विद्वान् डॉ. टाटियां ने इस ग्रंथ में आगमों का प्रयोग मुख्य रूप से अपने ज्ञानमीमांसा वाले अध्याय में प्रचुरता से किया है। जिसमें जैन ज्ञानमीमांसा की महत्त्वपूर्ण समस्याओं पर विचार हुआ है। इस ग्रंथ का प्रथम संस्करण सन् 1951 में जैन कल्चरल सोसायटी, बनारस से Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश 19 प्रकाशित हुआ। डॉ. जोगेन्द्र चन्द्र सिकदर द्वारा लिखित Studies in the Bhagawati-Sutraनामक ग्रन्थ Research Institute of Prakrit, Jainalogy&Ahimsa, Muzaffarpur,Biharसे 1964 में प्रकाशित हुआ है। अंग्रेजी भाषा में लिखित इस ग्रन्थ में 11 अध्याय हैं। लेखक ने प्रथम अध्याय में अर्धमागधी आगम साहित्य में भगवती का स्थान, उसका अन्य ग्रन्थों से सम्बन्ध आदि के बारे में चर्चा की है तथा भगवती को श्रमण-निर्ग्रन्थ धर्म का आकर ग्रन्थ बतलाया है। दूसरे अध्याय में भगवती के लेखक, भाषा, शैली आदि के बारे में विचार है। अन्य अध्यायों में क्रमश: राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, अन्य सम्प्रदायों के नेता एवं उनके सिद्धान्त, भगवान् महावीर का जीवन, राजा आदि का वर्णन, सृष्टि विज्ञान, सृष्टि संरचना विज्ञान, भूगोल, तत्त्वमीमांसा आदि जैन दार्शनिक विचार तथा साहित्य की दृष्टि से भगवती का मूल्यांकन किया है। लेखक ने परिश्रमपूर्वक भगवती के विभिन्न पक्षों का विद्वतापूर्ण प्रकाशन किया है। श्री सिकद्दर का ही एक अन्य ग्रन्थ Conceptof Matter inJaina Philosophyनाम से उपलब्ध है। जो दस अध्यायों में विभक्त है । इस ग्रन्थ में लेखक ने जैन पुद्गल की अवधारणा का विशद विवेचन प्रस्तुत करते हुए उसकी तुलना अन्य जैनेतर दर्शनों के साथ की है। इस ग्रन्थ का यह वैशिष्टय है कि इसमें आगमों का भी यथाशक्य महत्त्वपूर्ण उपयोग हुआ है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन PVRI वाराणसी से 1987 में हुआ। “जैन दर्शन मनन और मीमांसा' आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रणीत 701 पृष्ठ वाला जैनधर्म-दर्शन का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। यह ग्रन्थ 5 मुख्य खंडों एवं उनके अन्तर्गत अनेक उपखण्डों में विभाजित है। इसमें इतिहास, साहित्य, संघ-व्यवस्था, तत्त्व-मीमांसा, आचार मीमांसा, ज्ञानमीमांसा, प्रमाण मीमांसा आदि विभिन्न विषयों का समावेश है। लेखक ने स्थानस्थान पर मनोविज्ञान, आधुनिक भौतिकी विज्ञान को भी अपने विषय निरूपण की पुष्टि में प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ की यह विशेषता है कि विद्वान् लेखक ने इसमें आगमिक संदर्भो का भी भरपूर उपयोग किया है। जो पाठक को एक नवीन दृष्टि प्रदान करते हैं। डॉ. हरीन्द्रभूषण जैन ने “जैनागम के अनुसार मानव व्यक्तित्व का विकास' विषय पर अपना शोधकार्य किया है। इस शोधग्रन्थ में आठ अध्याय हैं । लेखक ने इस ग्रन्थ में श्रमण धर्म एवं श्रावक धर्म के आधार पर मानव-व्यक्तित्व विकास की अवधारणा को सम्पुष्ट किया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन 1974 में सन्मति ज्ञानपीठ लोहामण्डी आगरा से हुआ है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 जैन आगम में दर्शन स्वर्गीय डॉ. इन्द्रचन्द्र शास्त्री (1912 - 1 9 6 6) का जैन-ज्ञान मीमांसा पर महत्त्वपूर्ण कार्य उपलब्ध है। उन्होंने जैन आगमों के आधार पर जैन ज्ञान मीमांसा का विशद विवेचन किया है। इनके ग्रन्थ का नाम "Epistimologyofthe Jaina Agamas" है। अंग्रेजी भाषामें लिखित यह ग्रन्थ सात अध्यायों में विभक्त है। इस ग्रन्थ में शास्त्रीजी ने आगम साहित्य से लेकर उपाध्याय यशोविजयजी तक प्राप्त ज्ञान-मीमांसा पर विशद ऊहापोह किया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन 1990 में P.V.R.I. वाराणसी से हुआ है। नंदीसूत्र का मुख्य आधार लेकर लिखा गया ज्ञानमीमांसा नामक ग्रंथ साध्वी श्रुतयशाजी का Ph.D. काशोध प्रबन्ध है। इसमें सात अध्याय हैं। लेखिका ने मुख्य रूप से आगम एवं उसके व्याख्या साहित्य को आधार बनाकर जैन ज्ञानमीमांसा का विशद विवेचन किया है। यह ग्रंथ सन् 1999 में जैन विश्वभारती लाडनूँ से प्रकाशित हुआ है। ऐसे ही कुछ अन्य शोधकार्य आगम एवं उसके व्याख्या साहित्य पर हुए हैं जिसका हम नामोल्लेख मात्र कर रहे हैं। S.N. Work Writer J. Stevenson A. Weber Berlin The Kalpa Sutra and Navatatva Ubercin Tragment der Bhagavati Uber diesuryaprajnapti The Kalapasutra of Bhadrabahu A. Weber H.Jacobi S.J. Warren G. Thibaut P. Steinthal A. Weber Niryavaliyasuttam, cenupangerder Jaina's On the Suryaprajnapti Specimen der Nayardhammkaha Ueberdie heiligen Schrilten der Jaina The Uvasagdasao Originali indiceni detta novella Ariasteanel Dasavaikalika-sutra and Niryukti Ueber die Avacyaka The Uvasagadasao R.Hoernle F.L. Pulle E.Leumann E.Leumann P.L. Vaidya 14. Jaina Sutra H.Jacobi Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-प्रवेश उपर्युक्त ग्रन्थों में आगम सम्बन्धी विभिन्न विषयों का विश्लेषण हुआ है। इस शोध प्रबन्ध में हमारा लक्ष्य यह है कि आगमकालीन दार्शनिक चिंतन का आगमोत्तरकालीन दार्शनिक चिंतन की अपेक्षा से जो वैशिष्टय है, उसको प्रदर्शित किया जाए तथा आगमों में प्राप्त तथ्य, जो उत्तरकालीन साहित्य में अल्प चर्चित रहे हैं उनका प्रस्तुतीकरण किया जाए। आगम साहित्य के यत्किंचित् अध्ययनसे हमें जो मूल्यवान् सामग्री मिली है वह विद्वानों को आगमों के अग्रेतर अध्ययन के लिए भी प्रेरणा देगी, ऐसी आशा है। कतिपय कारणों से जैनधर्म बहुत समय पूर्व ही दो मुख्य सम्प्रदायों में विभक्त हो गया था । वह विभाजन आज भी यथावत् है। इस विभाजन का एक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि पूरा जैन वाङ्मय भी दो भागों में विभक्त हो गया। परिणाम यह हुआ कि एक सम्प्रदाय के अनुयायी का दूसरे सम्प्रदाय के वाङ्मय से सम्बन्ध प्राय: विच्छिन्न हो गया। यह भगवान् महावीर की मूल्यवान् धरोहर के लिए शुभ नहीं था। सौभाग्य से अब यह साम्प्रदायिक सीमा रेखा शनै: शनै: क्षीण हो रही है। श्वेताम्बर तेरापंथ के वर्तमान आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने दिगम्बर साहित्य का अपने लेखन में पूरे सम्मानपूर्वक विपुल उपयोग किया है। इससे उनके लेखन की व्यापकता समृद्र ही हुई है। जिनजैन आगमों पर प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध आधृत है उनका सम्बन्ध आज श्वेताम्बर संप्रदाय से जुड़ा हुआ माना जा रहा है। हमने अपने शोध-प्रबन्ध में पाया कि इन जैन आगमों के दार्शनिक प्रतिपाद्य का वैशिष्ट्य श्वेताम्बर - दिगम्बर सम्प्रदायातीत है। श्वेताम्बर-दिगम्बर विभाजन में मतभेद का आधार मुख्यत: आचार-विषयक है। जैन आगमों में द्रव्य, आत्मा, कर्म इत्यादि आचारेतर विषयों पर जो मूल्यवान् सामग्री उपलब्ध होती है उसके सम्बन्ध में मतभेद की शायद ही कहीं कोई गुंजाइश हो । ऐसी स्थिति में इन आगमों का अनुशीलन जैन दर्शन पर काम करने वाले सभी विद्वानों तथा छात्रों के लिए समान रूपसे उपयोगी होगा- ऐसी हमारी विनम्र सम्मति है। __ तत्त्वार्थ सूत्र सभी जैन सम्प्रदायों को मान्य है। तत्त्वार्थसूत्रकार जैन आगमों के प्रतिपाद्य को सूत्रबद्ध कर रहे थे। प्रत्येक सूत्रकार की अपनी दृष्टि रहती है। वह किस विषय पर कितना बल दे अथवा किस विषय को सर्वथा छोड़ दे। इसके लिए वह स्वतंत्र है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रतिपाद्य के साथ-साथ आगमकालीन उन अवधारणाओं पर भी विचार-विमर्श करना कितना मूल्यवान् और महत्त्वपूर्ण हो सकता है, यह विद्वानों के लिए विमर्शनीय है। जहां तक हमारा सम्बन्ध है, हम समझते हैं कि उन विषयों की उपेक्षा करना जैन परम्परा को उस विचार वैभव से वञ्चित कर देना होगा. जिस विचार वैभव की वह सहज ही उत्तराधिकारिणी है। जैन आगम महासमुद्र है। कोई एक विनम्र शोध छात्र उसकी सम्पूर्ण गरिमा को उजागर कर सके, यह आशा नहीं करनी चाहिए। किन्तु यदि प्रस्तुत शोधप्रबन्ध से जैन आगमों के वैशिष्ट्य की एक हल्की-सी झांकी भी विद्वानों को मिल पाई तो मैं अपने परिश्रम को सार्थक मानूंगी। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 जैन आगम में दर्शन मेरी सारी शिक्षा-दीक्षा आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ की देखरेख में हुई। इस आचार्यद्वयी ने पिछले अर्धशतक में अपना अधिकांश श्रम जैन आगमों के संपादन /विवेचन में लगाया। उस श्रम का मधुरफल अपने गुरुकुल की सहज विरासत में मुझे प्राप्त हुआ। इसलिए अपने शोध प्रबन्ध में यदि मैं कोई विवेचन ठीक कर पाई हूँतो वह उस आचार्यद्वयी के आशीर्वाद का परिणाम है। जहां कहीं स्खलना है वह मेरा दृष्टिदोष है। विद्वान अध्येताओं के सुझाव इस सन्दर्भ में सादर आमंत्रित हैं। 000 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलस्रोत आगम साहित्य की रूपरेखा जैन धर्म-दर्शन का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आगम का महत्त्व स्वत: सिद्ध है। ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म-दर्शन का प्राचीनतम रूप आगमों में ही उपलब्ध होता है। प्रामाणिकता की दृष्टि से ग्यारह अंग आगम ही स्वत: प्रमाण है, शेष आचार्यों की वाणी उससे सम्बादी होने पर ही प्रमाण मानी जाती है। आगम की परिभाषा 1. 'आङ्' उपसर्गपूर्वक भ्वादिगणीय 'गम्लु-गतौ' धातु से 'अच्' प्रत्यय करने पर अथवा 2. इसी धातु से करण अर्थ में 'घ' प्रत्यय करने पर आगम शब्द निष्पन्न होता है।' जैन-परम्परा आगम शब्द की व्याख्या मुख्यत: तीन प्रकार से करती है1. स्वयं आप्त-पुरुष ही आगम है।' 2. अर्थ-ज्ञान जिससे हो वह आगम है' अथवा आप्त का वचन आगम है।' 3. आप्त-पुरुष की वाणी से जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह आगम है।' 1. (क) शब्दकल्पद्रुम (संपा. राजा राधाकान्तदेव, वाराणसी, 1967) प्रथम भाग, पृ. 1 6 5 (ख) वाचस्पत्यम (संपा. श्री तारानाथ. वाराणसी, 1969) प्रथम भाग, पृ. 614 2. व्यवहारभाष्य (संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा, लाडनूं, 1996) गाथा 318 3. अपि च-अनुयोगद्वारटीका (ले. मलधारी हेमचन्द्र, पाटण, 1939) पृ. 202, आ-समन्तात् गम्यते ज्ञायते जीवादय: पदार्था अनेनेति वा आगमः। आवश्यकचूर्णि (ले. जिनदासगणिमहत्तर, रतलाम, 1928) पृ. 16 णज्जति अत्था जेण सो आगमो 4. अनुयोगद्वारचूर्णि (ले. जिनदासगणिमहत्तर, रतलाम, 1928) पृष्ठ 16, अत्तस्स वा वयणं आगमो। उपर्युक्त दोनों लक्षणों में आसवचन को द्रव्यश्रुत तथा अर्थज्ञान को भावश्रुत मानना चाहिए। द्रष्टव्य-भिक्षुन्यायकर्णिका (ले. आचार्य तुलसी, चूरू, 1970) 4/2 आप्तवचनम्-आगम: तत्तु उपचारात्। वस्तुवृत्त्या वर्णपदवाक्यात्मकं वचनं पौद्गलिकत्वाद् द्रव्यश्रुतं अर्थज्ञानात्मकस्य भावश्रुतस्य साधनं भवति। 5. प्रमाणनयतत्त्वालोक (ले. वादिदेवसूरि, उज्जैन, वि.सं. 1989) 4/| आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागम: Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 जैन आगम में दर्शन प्रथम व्याख्या के अनुसार आप्त-पुरुष आगम है किंतु वर्तमान में आप्त-पुरुषों की अनुपस्थिति में उनका वचन तथा उस वचन से उत्पन्न होने वाले अर्थ ज्ञान को भी आगम मान लिया गया है। __ जहां तक आप्ल-पुरुष की वाणी का सम्बन्ध है, परम्परा ने तीर्थंकर, गणधर, चतुर्दशपूर्वधारी, दशपूर्वधारी तथा प्रत्येक बुद्ध की वाणी को आगम माना है।' नियमसार के अनुसार आगम के वचन पूर्वापर दोष रहित होते हैं। स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार आप्त वे हैं जिनके राग-द्वेष तथा मोह का ऐकान्तिक एवं आत्यन्तिक क्षय हो चुका है। जैन परम्परा वर्तमान में जिन्हें 'आगम' कहती है प्राचीन काल में उन्हें श्रुत या सम्यक् श्रुत कहा जाता था। इसी आधार पर 'श्रुतकेवली' शब्द प्रचलित हुआ। 'आगम-केवली' या 'सूत्र-केवली' ऐसा प्रयोग उपलब्ध नहीं होता है। आचार्य उमास्वाति ने श्रुत के पर्यायवाची शब्द के रूप में आगम शब्द का प्रयोग किया है। उन्होंने आप्तवचन, आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन और जिनवचन को श्रुत के पर्यायवाची शब्द के रूप में स्वीकार किया है।' वस्तुत: यहां श्रुत शब्द अत्यन्त व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैन आगमों का उद्भव जिनभद्र गणी के अनुसार तप, नियम एवं ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ होकर तीर्थंकर भव्य जीवों को संबोध प्रदान करने के लिए ज्ञानवृष्टि करते हैं । उस ज्ञानवृष्टि को बीज आदि बुद्धि से सम्पन्न गणधर ग्रहण करके उन विभिन्न प्रकार के ज्ञान कुसुमों से माला की रचना करते हैं, जिससे तीर्थंकर के वचनों को श्रोतासुखपूर्वक ग्रहण कर सके।' तीर्थंकर प्रज्ञा-सम्पन्न गणधरों की प्रज्ञा की अपेक्षा से संक्षेप में बोलते हैं, सर्वसाधारण भोग्य भाषा में नहीं बोलते हैं।' तीर्थंकर उत्पाद-व्यय एवं ध्रौव्य रूप तीन मातृकापद का सम्भाषण करते हैं, द्वादशांग को 1. (76) nafareffiti (Kapadia, H.R., A History of the canonical literature of the Jains, Surat, 1941 P. 14 पर उधृत) पृ. 3.a, अर्थतस्तीर्थंकरप्रणीतं सूत्रतो गणधरनिबद्धं चतुर्दशपूर्वधरोपनिबद्धं दशपूर्वधरोपनिबद्धं प्रत्येक-बुद्धोपनिबद्धं च। (ख) मूलाचार (ले. वट्टकेर, दिल्ली , 1992) गाथा 5/277 सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च । सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपुव्वकथिदं च ॥ 2. नियमसार (ले. आचार्य कुन्दकुन्द, जयपुर 1984) गाथा 8, तस्स मुहम्गदवयणं पुव्वापरदोसविरहियं सुद्धं। आगमिदि परिकहियं तेण दुकहिया हवं तच्चत्था ।। 3. स्याद्वादमञ्जरी (ले. आचार्य मल्लिषेण, अगास, 1979) पृ. 7, आप्तिर्हि रागद्वेषमोहानामैकान्तिक आत्यन्तिकश्च क्षयः सा येषामस्ति ते खल्वाप्ताः। 4. नंदी (संपा. आचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1977) सूत्र 65 5. अभिधानचिंतामणि, (ले. हेमचन्द्राचार्य, वाराणसी, 1996) 1/3 4 ........श्रुतकेवलिनो हि षट् । 6. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, (ले. आचार्य उमास्वाति, अगास, 1 9 3 2) 1/20, श्रुतमाप्तवचनं आगम: उपदेश ऐतिहमाम्नाय: प्रवचनं जिनवचनमित्यनर्थान्तरम्।। 7. विशेषावश्यकभाष्य I, (ले. जिनभद्रगणी, मुंबई, वि.सं. 2039) गाथा 1094, 1||1, 11 1 3 8. वही, गाथा 1118 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 25 नहीं कहते हैं।' गणधर उस मातृकापद से द्वादशांगी की रचना करते हैं। अर्थ के कर्ता तीर्थंकर एवं सूत्र के कर्ता गणधर होते हैं। इसका तात्पर्य हुआ अर्थागम के कर्ता तीर्थंकर एवं सूत्रागम के कर्ता गणधर हैं। अर्थागम के उपदेष्टा होने से तीर्थंकर आगमों के आदिस्रोत हैं, उनके द्वारा प्रवाहित ज्ञान-गंगा गणधरों के माध्यम से आचार्य परम्परा के द्वारा प्रवर्तित होती हुई हमारे पास पहुंची है।' जैन परम्परा के अनुसार सभी काल में होने वाले तीर्थकर द्वादशांगी का उपदेश देते हैं अत: प्रवाह रूप से द्वादशांगी अनादि हैं। कोई भी ऐसा समय नहीं था जिस समय द्वादशांगी नहीं थी। यह जैन परम्परा की मान्यता है। जैन दर्शन के अनुसार शब्द अनित्य है। द्वादशांगी शब्द निबद्ध है, अत: द्वादशांगी नित्य कैसे हो सकती है ? कोई भी भाषा नित्य नहीं होती, अत: भाषा में लिखा हुआ कोई भी ग्रन्थ नित्य नहीं हो सकता। द्वादशांगी नित्य है, इसका तात्पर्य है कि द्वादशांगी में प्रतिपादित तत्त्व नित्य है। उसका भाषात्मक स्वरूप नित्य नहीं है। यथापंचास्तिकाय नित्य है। आत्म-तत्त्व नित्य है। उसके लिए आत्मा, चैतन्य, चेतना आदि प्रयुक्त होने वाले शब्द नित्य नहीं हैं।' वर्तमान में भगवान महावीर का शासन चल रहा है। उनके ग्यारह गणधर थे। इन्द्रभूति गौतमने तीन निषद्या में चौदह पूर्वो को ग्रहण कर लिया था। शेषगणधरों की निषद्या अनियत थी।' आवश्कचूर्णि में यह भी उल्लेख है कि पन्द्रह निषद्या में गणधरों ने द्वादशांगी का ग्रहण किया था। एक निषद्या से ग्यारह अंग एवं चौदह निषद्या से चौदह पूर्वो का प्रणयन किया। किंतु किसी गणधर विशेष का नाम उल्लिखित नहीं है। गणधर गौतम ने तीन निषद्या में चौदह पूर्वो का ग्रहण किया था। किंतु ग्यारह अंगों के लिए उन्होंने भगवान् से प्रश्न पूछे थे या नहीं? अथवा उन तीन निषद्या के आधार पर ही सम्पूर्ण द्वादशांगी का निर्माण कर लिया था? यह वर्णन प्राप्त नहीं है। 1. विशेषावश्यकभाष्य,गाथा (वृत्ति),1122,पृ. 2 54:गणधरलक्षणपुरुषापेक्षयासतीर्थंकर "उप्पज्नेइवा विगमेइ वा, धुवेइ वा" इति मातृकापदत्रयमात्ररूपं स्तोकमेव भाषते, न तु द्वादशांगानि। 2. वही, गाथा ।। 19, अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। 3. वही, गाथा 1081 4. नंदी, सूत्र 1 26, इच्चेइयंदुवालसंगंगणिपिङगंन कयाइनासी,न कयाइ न भवइ, न कयाइन भविस्सइ। भुविंच, भवइ य, भविस्सइच। 5. वही, 12 6 वें सूत्र पर प्रदत्त टिप्पण 6. आवश्यकनियुक्ति, (ले. हरिभद्रसूरि, बम्बई, वि.सं. 20 3 8) गाथा वृत्ति 135, पृ. 85 : तत्र गौतमस्वामिना निषद्यात्रयेण चतुर्दश पूर्वाणि गृहीतानि। प्रणिपत्य पृच्छा निषद्योच्यते। भगवांश्चाचष्टे-उप्पण्णेइ वा विगमेइ वा धुवेइवा । एता एव तिस्त्रो निषद्या:, आसामेव सकाशाद्गणभृताम् 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इति प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा सताऽयोगात्। ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशांगमुपरचयन्ति । 7. आवश्यकचूर्णि, पृ. 370, सेसाणं अणियता णिसेज्जा। 8. वहीं, पृ. 337. जदा य गणहरा सव्वे पव्वजिता ताहे किर एगनिसेज्जाए एगारस अंगाणि चोद्दसहिं चोद्दसपुव्वाणि एवं ता भगवता अत्थो कहितो, ताहे भगवंतो एगपासे सुत्तं करेति,तं अखरेहिं पदेहिं वंजणेहिंसमं। 9. वही, पृ. 370.तंकहंगहितंगोयमसामिणा?तिविहं (तीहिं) निसेज्जाहिं चोद्दस पुव्वाणि उप्पादिताणि । निसेज्जाणाम पणिवतिउणजापुच्छा। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 जैन आगम में दर्शन आगम वाचना भगवान् महावीर द्वारा उपदिष्ट श्रुत को गणधरों ने आगम रूप में गुम्फित किया। काल के प्रवाह में प्राकृतिक आपदाओं के कारण जैन परम्परा में श्रुत की धारा अविच्छिन्न नहीं रह सकी। वह अव्यवस्थित हो गईं। भगवान् महावीर के उपदेशों को व्यवस्थित करने के लिए जैनाचार्यों की संगीतियां हुई। उस आगम-व्यवस्था की प्रक्रिया को वाचना कहा गया है। वीर निर्वाण के 9 8 0 या 99 3 वर्ष के मध्य तक आगम के संकलन की पांच प्रमुख वाचनाएं हुईं। प्रथम पाटलीपुत्र वाचना __ भगवान् महावीर के निर्वाण केलगभग 160 वर्ष पश्चात् पाटलीपुत्र में बारह वर्ष का भीषण दुष्काल पड़ा। उस समय श्रमण संघ छिन्न-भिन्न हो गया। दुर्भिक्ष समाप्ति पर पुनः पाटलीपुत्र में मुनि संघ एकत्रित हुआ। ग्यारह अंग एकत्रित किए। भद्रबाहु स्वामी के अतिरिक्त सभी को बारहवां अंग विस्मृत हो चुका था। आचार्य भद्रबाहु उस समय महापाण ध्यान की साधना के लिए नेपाल गए हुए थे। संघ के विशेष निवेदन पर उन्होंने बारहवें अंग की वाचना देना स्वीकार किया। अनेक साधु उस वाचना को लेने गए थे किंतु उनमें से एकमात्र स्थूलभद्र ही उस ज्ञान को ग्रहण करने में सक्षम हुए। मुनि स्थूलभद्र दस पूर्वो का अध्ययन समास कर चुके थे। ग्यारहवें पूर्व की वाचना चल रही थी। मुनि स्थूलभद्र के द्वारा प्रमाद हुआ। बहिनों के आगमन पर अपनी श्रुत-ऋद्धि को दिखाने के लिए स्वयं ने सिंह का रूप धारण कर लिया। आचार्य भद्रबाहु को जब यह घटना ज्ञात हुई तब उन्होंने मुनि स्थूलभद्र को वाचना देना बंद कर दिया। मुनि स्थूलभद्र ने बहुत अनुनय-विनय किया तब अन्तिम चार पूर्वो की वाचना तो दी किंतु उनका अर्थ नहीं बताया। अर्थ की दृष्टि से अन्तिम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु स्वामी ही थे। आचार्य स्थूलभद्र सूत्रत: चतुर्दशपूर्वी एवं अर्थत: दशपूर्वी ही थे।' पूर्वो के विच्छेद का क्रम भद्रबाहु स्वामी के साथ ही प्रारम्भ हो गया, जो क्रमश: लुप्त होते-होते सर्वथा विलुप्त हो गया। प्रथम वाचना के द्वारा श्रमण संघ को चारपूर्वन्यून द्वादशांगी प्राप्त हुई। यद्यपि स्थूलभद्र सूत्रत: चतुर्दशपूर्वी थे किंतु उन्हें चारपूर्व की वाचना दूसरों को देने का अधिकार नहीं था। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीर निर्वाण के 170 वर्ष बाद भद्रबाहु स्वामी के महाप्रयाण के साथ ही श्रुतकेवली का लोप हो गया। दिगम्बरों ने 1 6 2 वर्ष बाद श्रुतकेवली का लोप माना है। आवश्यकचूर्णि, पृ. 187, बारसवरिसोदुक्कालोउवट्ठितो, संजता इतोइतोयसमुद्दतीरे अच्छित्तापुणरविपाडलिपुत्ते मिलिता, तेसिं अण्णस्स उद्देसओ अण्णस्स खंडं, एवं संघाडितेहिं एक्कारस अंगाणि संघातिताणि, दिद्विवादो नत्थि, नेपालवत्तणीए य भद्दबाहुस्सामी अच्छंति चोद्दसपुव्वी .......पेसेह मेहावी सत्त पाडिपुच्छगाणि देमि, ........थूलभद्दसामी ठितो.........उवरिल्लाणि चत्तारि पुव्वाणि पढाहि, मा अण्णस्स देज्जासि, से चत्तारि तत्तो वोच्छिणा, दसमस्स य दो पच्छिमाणि वत्थूणि वोच्छिण्णाणि। 2. वही, पृ. 187,उवरिल्लाणि चत्तारि पुव्वाणि पदाहिमा अण्णस्स देन्नासि,से चत्तारि तत्तो वोच्छिणा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 27 श्वेताम्बर मत के अनुसार प्रथम वाचना के समय में भी भगवान् महावीर की सम्पूर्ण ज्ञान राशि सुरक्षित नहीं रह सकी। उसके ह्रास का क्रम उसी समय से प्रारम्भ हो गया। प्रथम वाचना आचार्य स्थूलभद्र की अध्यक्षता में हुई। द्वितीय वाचना आगम संकलन का दूसरा प्रयास 'चक्रवर्ती सम्राट् खारवेल' ने किया। उनके सुप्रसिद्ध हाथी गुम्फा अभिलेख से यह जानकारी मिली है कि ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के मध्य में उड़ीसा के कुमारीपर्वत पर उन्होंने जैन श्रमणों को बुलाया और मौर्यकाल में उच्छिन्न हुए अंगों को उपस्थित किया। तृतीय माथुरी वाचना आगम-संकलन का तीसरा प्रयत्न वीर निर्वाण 827 और 840 के मध्यकाल में हुआ । नन्दीसूत्र की चूर्णि में उल्लेख है कि द्वादशवर्षीय दुष्काल के कारण ग्रहण, गुणन एवं अनुप्रेक्षा के अभाव में सूत्र नष्ट हो गया। उस दुर्भिक्ष में भिक्षा मिलनी अत्यन्त दुष्कर हो गई। साधु छिन्न-भिन्न हो गए। अनेक बहुश्रुत और आगमधर मुनि दिवंगत हो गए। उस समय अतिशायी श्रुत का नाश हुआ। अंग-उपांग का बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया। उनके अर्थ का भी ह्रास हुआ। बारह वर्ष के इस दुष्काल के बाद साराश्रमण-संघस्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में एकत्रित हुआ। उस समय जिन-जिन श्रमणों को जितनी-जितनी श्रुतराशि स्मृति में थी, उसका संकलन किया गया । इस वाचना में कालिक सूत्र एवं पूर्वगत के कुछ अंशों का संकलन हुआ । मथुरा में होने के कारण उसे 'माथुरी वाचना' कहा गया। युगप्रधान आचार्य स्कन्दिल ने उस संकलित श्रुत के अर्थ की वाचना दी, अत: वह अनुयोग उनका ही कहलाया । माथुरी वाचना को 'स्कन्दिली वाचना' भी कहा गया है। इस संदर्भ में एक यह भी अभिमत है कि दुर्भिक्ष के कारण श्रुत नष्ट तो नहीं हुआ था। सारा श्रुत उस समय विद्यमान था किन्तु आचार्य स्कन्दिल के अतिरिक्त अन्य सारे अनुयोगधर मुनि काल कवलित हो गए थे। मात्र स्कंन्दिल ही उस समय अनुयोगधर थे। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर आचार्य स्कन्दिल ने मथुरा में पुन: अनुयोग प्रवर्तन किया इसलिए इसे 'माथुरी वाचना' भी कहा गया और वह सारा अनुयोग स्कन्दिल सम्बन्धी माना गया।' 1. (क) नंदी स्त्र, भूमिका पृ. 1 6 (ख) दशवैकालिक की भूमिका में उद्धृत-जर्नल ऑफ दी बिहार एण्ड ओडिसा रिसर्च सोसाइटी, भाग 1 3, पृ. 2 36 2. नंदीचूर्णि, (ले. जिनदासगणी, बनारस, 1966) पृ. 9 3. नंदी, गाथा 33, (मलयगिरिवृत्ति पत्र 51) (दशवैकालिक, भूमिका पृष्ठ 27 पर उद्धृत) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 जैन आगम में दर्शन विद्वानों का अभिमत है कि इस वाचना के फलस्वरूप आगम लिखे भी गए ।' चतुर्थ वाचना जब स्कन्दिलाचार्य ने मथुरा में वाचना की, उसी काल में वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में संघएकत्रित हुआ और आगमों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। "वाचक नागार्जुन और एकत्रित संघ को जो-जो आगम और उनके अनुयोगों के उपरांत प्रकरण ग्रन्थ याद थे, वे लिख लिए गए और विस्मृत स्थलों का पूर्वापर सम्बन्ध के अनुसार ठीक करके उसके अनुसार वाचना दी गई। इस वाचना के प्रमुख नागार्जुन थे, अत: इस वाचना को 'नागार्जुनीय वाचना' भी कहते हैं। पंचम वाचना देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वल्लभी में वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी (980 या 993) में पुन: श्रमण संघ एकत्रित हुआ और आगम संकलन का सुव्यस्थित रूप इस वाचना के फलस्वरूप प्राप्त हुआ। मथुरा एवं वल्लभी में संपादित वाचनाओं के आधार पर यह वाचना हुई। “वल्लभी नगर में देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में श्रमणसंघ इकट्ठा हुआ और पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं के समय लिखे गए सिद्धान्तों के उपरान्त जो-जो ग्रन्थ-प्रकरण मौजूद थे, उन सबको लिखाकर सुरक्षित करने का निश्चय किया। इस श्रमण समवसरण में दोनों वाचनाओं के सिद्धान्तों का परस्पर समन्वय किया गया और जहां हो सका भेदभाव मिटाकर उन्हें एकरूप कर दिया । जो महत्त्वपूर्ण भेद थे, उन्हें पाठान्तर के रूप में टीका-चूर्णियों में संगृहीत किया। कितनेक प्रकीर्णक ग्रन्थ जो केवल एक ही वाचना में थे, वैसे-के-वैसे प्रमाण माने गए। इस संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ का वक्तव्य है कि "स्मृति-दौर्बल्य, परावर्तन की न्यूनता, परम्परा की व्यवच्छित्ति आदि अनेक कारणों से श्रुत का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका था, इस वाचना में एकत्रित मुनियों को अवशिष्ट श्रुत की न्यून या अधिक, त्रुटित या अत्रुटित जो कुछ भी 1. (5) Jacobi, Hermann: Jain sutras (Delhi, 1980), XXIIP.XXXIO: Devardhi's position relative to the sacred literature of the Jains appears therefore to us in a different light from what is generally believed to have been. He probably arranged the already existing manuscripts in a canon taking down from the mouth of learned the logicians only such works of which manuscripts were not available. (0) Winternitz, Maurice, History of Indian literature, (Delhi 1993)P.417: Devarddhists labours consisted merely of compiling acanonofsacredwritings partlywiththehelpofoldmanuscripts, and partlyonthe basis oforal tradition. (ग) मालवणिया, दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, (जयपुर, 1990) पृ. 19 2. वीर निर्वाण (आगम युग का जैनदर्शन में उधत), पृ. 110 3. वीर निर्वाण, (आगम युग का जैन दर्शन में उधृत) पृ. ।। 2 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 29 स्मृति थी उसकी व्यवस्थित संकलना की गई। देवर्द्धिगणी ने अपनी बुद्धि से उसकी संयोजना करके उसे पुस्तकारूढ़ किया । माथुरी तथा वल्लभी वाचनाओं के कंठगत आगमों को एकत्रित कर उन्हें एकरूपता देने का प्रयास हुआ। जहां अत्यन्त मतभेद रहा वहां माथुरी को मूल मानकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया गया। यही कारण है कि आगम के व्याख्या ग्रन्थों में यत्र-तत्र “नागार्जुनीयास्तु पठन्ति” ऐसा उल्लेख हुआ है। विद्वानों का मानना है कि इस वाचना से सारे आगम व्यवस्थित रूप से संकलित हो गए तथा साथ ही भगवान् महावीर के पश्चात् एक हजार वर्षो में घटित मुख्य घटनाओं का समावेश भी यत्र-तत्र आगमों में किया गया। जहां-जहां समान आलापकों का बार-बार पुनरावर्तन होता था उन्हें संक्षिप्त कर एकदूसरे का पूर्ति-संकेत एक-दूसरे आगम में किया गया।' वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं वेदेवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण की वाचनाके हैं। उसकेपश्चात् उनमें संशोधन, परिवर्धन या परिवर्तन नहीं हुआ है यह विमर्शनीय है। यहां एक प्रश्न उठना . स्वाभाविक है कि यदि उपलब्ध आगम एक ही आचार्य की संकलना है तो अनेक स्थानों में विसंवाद क्यों? आचार्य महाप्रज्ञ ने विसंवाद के दो कारण माने हैं 1.जो श्रमण उस समय जीवितथेऔर जिन्हेंजो-जोआगमकण्ठस्थथे, उन्हीं के अनुसार आगम संकलित किए गए। यह जानते हुए भी कि एक ही बात को दो भिन्न आगमों में भिन्न प्रकार से कही गई है, देवर्द्धिगणी ने उनमें हस्तक्षेप करना अपना अधिकार नहीं समझा। 2. नौवीं शताब्दी में सम्पन्न हुई माथुरी तथा वल्लभी वाचना की परम्परा के अवशिष्ट श्रमणों कोजैसा और जितनास्मृति मेंथा उसे संकलित किया। वे श्रमण बीच-बीच में आलापक भूल भी गए हों-यह भी विसंवादों का मुख्य कारण हो सकता है। ज्योतिष्करण्ड की वृत्ति में कहा गया है कि वर्तमान में उपलब्ध अनुयोगद्वार सूत्र माथुरी वाचना का है और ज्योतिष्करण्ड के कर्ता वलभी वाचना की परम्परा के आचार्य थे। यही कारण है कि अनुयोगद्वार और ज्योतिष्करण्ड के संख्या स्थानों में अन्तर प्रतीत होता है।' इस प्रकार आगमों की सुरक्षा के लिए बौद्ध धर्म की तरह ही जैन धर्म में अनेक बार अनेक प्रकार के प्रयत्न होते रहे हैं। वर्तमान में भी आगमों के शोध/अनुसंधान के विभिन्न उपक्रम हो रहे हैं। अधिकांश विद्वानों ने चार वाचनाओं का उल्लेख किया है किंतु आचार्य महाप्रज्ञजी ने नंदी सूत्र की भूमिका में पांच वाचनाओं का उल्लेख किया है अत: हमने भी उन्हीं का अनुसरण किया है। 1. दसवेआलियं, (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, 1974) भूमिका पृ. 27 2.समाचारी शतक, आगम स्थापना अधिकार 38 वां (दसवेआलियं भूमिका, पृ. 28 पर उधृत) 3. गच्छाचार पत्र, 3-4 (दसवेआलियं की भूमिका पृ. 28 पर उधृत) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 जैन आगम में दर्शन आगम-विच्छेद-क्रम भगवान् महावीर की उपस्थिति में उनके अनेक शिष्य केवलज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी एवं सम्पूर्ण द्वादशांगी के धारक थे। पूर्वो का ज्ञान द्वादशांगी के अन्तर्गत ही था। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् श्रुत की इस धारा में क्रमश: अवरोध उत्पन्न होने लगा। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आगमों का विच्छेद एवं ह्रास हुआ किंतु आगम साहित्य सर्वथा विलुस नहीं हुआ है, उसका कुछ अंश वर्तमान में भी उपलब्ध है। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार आगम का विच्छेद एवं ह्रास क्रम इस प्रकार है केवली-1. सुधर्मा और 2. जम्बू चौदह पूर्वी- 1. प्रभव 2. शय्यंभव 3. यशोभद्र 4. सम्भूतविजय 5. भद्रबाहु 6. स्थूलभद्र। ये (स्थूलभद्र) सूत्रत: चौदहपूर्वी एवं अर्थत: दशपूर्वी थे भद्रबाहु के पश्चात् चौदह पूर्वो का अर्थत: जो ज्ञान था वह लुप्त हो गया तथा स्थूलभद्र के पश्चात् अर्थत: एवं सूत्रत: दोनों ही रूपों में चौदह पूर्वो का ज्ञान लुप्त हो गया। जैन परम्परा में महागिरि, सुहस्ति से लेकर वज्रस्वामी तक दस आचार्य दशपूर्वी हुए हैं।' इनके बाद दशपूर्वो का भी अखण्ड ज्ञान नहीं रहा। "तोसलिपुत्र आचार्य के शिष्य श्री आर्यरक्षित नौ पूर्व तथा दसवें पूर्व के चौबीस यविक के ज्ञाता थे। आर्यरक्षित के वंशज आर्यनंदिल भी साढे नौ पूर्वी थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। आर्यरक्षित के शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र नौ पूर्वी थे। दस पूर्वी या 9-10 पूर्वी के बाद देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण का एकपूर्वी के रूप में उल्लेख हुआ है। बीच के पूर्वो के धारक कितने और कौन थे इस बारे में इतिहास मौन है। आर्यरक्षित, नन्दिलक्ष्मण, नागहस्ति, रेवतिनक्षत्र, सिंहसूरि-ये सारे नौ और उससे अल्प-अल्प पूर्व के ज्ञान वाले थे। स्कन्दिलाचार्य, श्री हिमवन्त क्षमाश्रमण, नागार्जुन सूरिये सभी समकालीन पूर्ववित् थे। श्री गोविन्दवाचक, संयमविष्णु, भूतदिन्न, लोहित्यसूरि, दुष्यगणि और देववाचक-ये ग्यारह अंग तथा एक पूर्व से अधिक के ज्ञाता थे। यह भी माना जाता है कि देवगिणी के उत्तरवर्ती आचार्यों में पूर्व-ज्ञान का कुछ अंश अवश्य था। इसकी पुष्टि स्थान-स्थान पर उल्लिखित पूर्वो की पंक्तियों तथा विषय निरूपण से होती है। वज्रस्वामी के बाद तथा शीलांकसूरि से पूर्व आचारांग के 'महापरिज्ञा' अध्ययन का ह्रास हुआ। 1. अभिधान चिन्तामणि, 1/33-34 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा स्थानांग में वर्णित प्रश्न- व्याकरण का स्वरूप उपलब्ध प्रश्न-व्याकरण से अत्यन्त भिन्न है। उस मूल स्वरूप का कब, कैसे ह्रास हुआ, यह अज्ञात है। इसी प्रकार ज्ञाताधर्मकथा की अनेक उपाख्यायिकाओं का सर्वथा लोप हुआ है । " श्वेताम्बर परम्परा में ग्यारह अंग आज भी उपलब्ध है। बारहवां दृष्टिवाद अंग इस परम्परा में सर्वथा लुप्त माना जाता है । भद्रबाहु से लेकर देवर्द्धिगणी तक क्रमशः पूर्वों का लोप होतेहोते वे सर्वथा लुप्त हो गए। भगवान् महावीर के निर्वाण के 980 वर्षों के बाद वलभी वाचना में दृष्टिवाद को लुप्त मान लिया गया । 31 दिगम्बर परम्परा के अनुसार आज कोई भी आगम उपलब्ध नहीं है। वीर निर्वाण से 68 3 वर्ष के पश्चात् अंग साहित्य लुप्त हो गया। दिगम्बर परम्परा का अभिमत है कि अंगगत अर्धमागधी भाषा का मूल साहित्य प्राय: सर्वथा लुप्त हो गया । दृष्टिवाद अंग के पूर्वगत ग्रन्थ का कुछ अंश ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दी में श्रीधरसेनाचार्य को ज्ञात था । उन्होंने देखा यदि वह शेषांश भी लिपिबद्ध नहीं किया जाएगा तो जिनवाणी का सर्वथा अभाव हो जाएगा, अतः उन्होंने श्री पुष्पदंत और श्री भूतबलि सदृश मेधावी शिष्यों को बुलाकर गिरनार की चन्द्रगुफा में उसे लिपिबद्ध करा दिया। उन दोनों ऋषिवरों ने उस लिपिबद्ध श्रुतज्ञान को ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन सर्व संघ के समक्ष उपस्थित किया था। वह पवित्र दिन 'श्रुत पंचमी' पर्व के नाम से प्रसिद्ध है और साहित्योद्धार का प्रेरक कारण बन गया है। 2 श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ग्यारह अंग आंशिक रूप में उपलब्ध हैं । बारहवां अंग दृष्टिवाद सर्वथा लुप्त हो गया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार ग्यारह अंग सर्वथा लुप्त हो गए, बारहवें दृष्टिवाद का कुछ अंश बचा है, दोनों परम्पराओं का आगम उपलब्धि की दृष्टि से समन्वय करके देखे तो प्राप्त होता है कि बारह ही अंगों का कुछ-न-कुछ भाग वर्तमान में भी उपलब्ध है । यह जैन परम्परा के लिए गौरव की बात है । आगमों का वर्गीकरण जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग आगम है। समवायांग में आगम के दो रूप प्राप्त होते हैं- 1. द्वादशांग गणिपिटक ' और 2. चतुर्दश पूर्व । ' नंदी में श्रुत - ज्ञान के दो विभाग प्राप्त होते हैं- 1. अंग-प्रविष्ट और 2. अंग बाह्य । ' समवायांग और अनुयोगद्वार में अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य का विभाग नहीं है। यह विभाग सर्वप्रथम नंदी में मिलता है। नंदी की रचना से पूर्व अनेक अंगबाह्य ग्रन्थ रचे जा चुके थे और वे 1. दशवैकालिक, भूमिका पृ. 21-22 2. षट् खण्डागम: (धवला टीका) भाग । (संपा. डॉ. हीरालाल जैन, सोलापुर, 2000), पृ. 11-18 3. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूँ, 1984) सूत्र 88, दुवालसंगे गणिपिडगे पण्णत्ते । 4. वही, 14 / 2, चउद्दस पुव्वा पण्णत्ता । 5. नंदी, सूत्र 73, अंगपविट्टं अंगबाहिरं च । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 जैन आगम में दर्शन चतुर्दशपूर्वी या दशपूर्वी स्थविरों द्वारा रचे गए थे। इसलिए उन्हें आगम की कोटि में रखा गया। उसके फलस्वरूप आगम के दो विभाग किए-1. अंग-प्रविष्ट और 2. अंग-बाह्य । आगमों का अंग-प्रविष्ट एवं अंग-बाह्य विभाग अनुयोगद्वार जो वीर निर्वाण छठी शताब्दी की रचना है, तक नहीं हुआ था। यह विभाग सर्वप्रथमनंदी में हुआ, जो वीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी की रचना है। नंदी की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जाते हैं- 1. पूर्व 2. अंग-प्रविष्ट और 3. अंग-बाह्य । वर्तमान में अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य ग्रन्थ तो उपलब्ध है किंतु पूर्व' साहित्य विलुप्त हो गया है।' नंदी के उत्तरकाल में जैन आगम को चार भागों में विभक्त किया गया-1. अंग 2. उपांग 3. मूल और 4.छेद । आगमों का यह वर्गीकरण अर्वाचीन है। विक्रम की 13 - 14वीं शताब्दी से पूर्व इस वर्गीकरण का उल्लेख प्राप्त नहीं है। आगमों का सबसे प्राचीन विभाग अंग और पूर्व है। अंग, उपांग, मूल और छेद यह विभाग अर्वाचीन है। पूर्व साहित्य जैन परम्परा में चौदह पूर्वो का सम्माननीय स्थान रहा है। ऐसा माना जाता है कि उनमें असीम श्रुतराशि समाहित थी। इनके नामकरण के सम्बन्ध में एकाधिक मत प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार 'पूर्व' द्वादशांगी से पहले रचे गए थे, इसलिए इनका नाम 'पूर्व' है।' दूसरी मान्यता के अनुसार भगवान् महावीर ने प्रारम्भ में पूर्वगत का अर्थ प्रतिपादित किया था और गौतम आदि गणधरों ने भी प्रारम्भ में पूर्वगत-श्रुत की रचना की तथा बाद में आचारांग आदि का प्रणयन किया। पूर्वगत दृष्टिवाद नामक बारहवें अंग का ही एक विभाग है इस वक्तव्य के आधार पर चौदह पूर्व द्वादशांगी में ही समाहित हो जाते हैं। उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं था। ऐसा कहा जाता है कि महावीर ने जो कहा वह पूर्व में निबद्ध किया गया एवं उसके आधार पर गणधरों ने ग्यारह अंगों का उपदेश दिया। पूर्व का यदि 'पूर्ववर्ती ग्रन्थ' यह अर्थलिया जाए तब तो यही कहा जाएगा कि अंगपूर्वो के आधार पर निर्मित हुए हैं। आवश्यकचूर्णि में भी यह उल्लेख प्राप्त होता है कि गौतम स्वामी ने तीन निषद्या के द्वारा चौदह पूर्वो की रचना की। द्वादशांगी की रचना का उल्लेख नहीं किया है इससे भी संभव लगता है कि पहले पूर्वो का निर्माण हुआ और बाद में उनके आधार पर अंगों की रचना की गई हो। 1. आचारांगभाष्यम्, (ले. आचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1994) भूमिका पृ. 13 2. स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रंच (समवायांगवृत्ति) (संपा. मुनि जम्बूविजयी, दिल्ली। 985) पृ. 72 : प्रथमं पूर्वं तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्वं क्रियमाणत्वात् । नंदीमलयगिरिवृत्ति, पत्र 240, अन्ये तु व्याचक्षते-पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थमर्हन भाषते, गणधरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्र विरचयन्ति, पश्चादाचारादिकम। 4. नंदीचूर्णि पृ. 75 आवश्यकचूर्णि,प्र.370 : तंकहंगहितं गोयमसामिणा? तिविहं (ताहि) निसेनाहिं चोद्दसपुवाणि उप्पादिताणि। निसेज्जाणाम पणिवतिउण जा पुच्छा। 5. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 33 जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के अनुसार भूतवाद (दृष्टिवाद) में समस्त वाङ्मय का अवतार हो जाता है फिर भी मंदमति पुरुषों एवं स्त्रियों के लिए ग्यारह अंगों की रचना की गई।' आगम विच्छेद के क्रम से भी यही फलित होता है कि ग्यारह अंग दृष्टिवाद या पूर्वो से सरल या भिन्न क्रम में रहे हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस चर्चा का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा __ "जब तक आचार आदि अंगों की रचना नहीं हुई थी, तब तक महावीर की श्रुत-राशि 'चौदह-पूर्व' या 'दृष्टिवाद' के नाम से अभिहित होती थी और जब आचार आदि ग्यारह अंगों की रचना हो गई, तब दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थापित किया गया। ......ग्यारह अंग पूर्वो से उद्धृत या संकलित हैं। इसलिए जो चतुर्दश-पूर्वी होता है, वह स्वाभाविक रूप से द्वादशांगवित् होता है। बारहवें अंग में चौदह पूर्व समाविष्ट हैं। इसलिए जो द्वादशांगवित् होता है, वह स्वभावत: ही चतुर्दशपूर्वी होता है। अत: हम निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आगम के प्राचीन वर्गीकरण दो ही हैं- 1. चौदह पूर्व और 2. ग्यारह अंग। द्वादशांगी का स्वतन्त्र स्थान नहीं है। यह पूर्वो और अंगों का संयुक्त नाम है। अंग-प्रविष्ट और अंगबाह्य भगवान महावीर के अस्तित्वकाल में गौतम आदि गणधरों ने पूर्वो और अंगों की रचना की थी, यह तथ्य सुस्पष्ट है। गणधरों के अतिरिक्त महावीर के अन्य शिष्यों ने ग्रन्थों का निर्माण किया या नहीं, यह प्रश्न उपस्थित है । भगवान् महावीर के चौदह हजार साधु शिष्य थे।' उनमें से अनेक केवली, मन:पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, वादी आदि विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न साधु थे, उन्होंने कोई ग्रन्थ नहीं लिखा हो यह सम्भव नहीं लगता। नंदी में उल्लेख प्राप्त है कि भगवान् महावीर के चौदह हजार प्रकीर्णक थे। ये पूर्वो और अंगों से अतिरिक्त थे। नंदी सूत्र में आगमों का अंग प्रविष्ट और अंग बाहय यह विभाग हो गया था। आगमों का अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य में भेद करने का मुख्य हेतु वक्ता का भेद है। भगवान् महावीर के मौलिक उपदेश का गणधरकृत संग्रह अंग एवं अन्य को अंगबाह्य कहा गया है। आगमों के ये दो भेद उनके वक्ता की अपेक्षा से ही हुए हैं। अपने स्वभाव के अनुसार प्रवचन की प्रतिष्ठा करना ही जिसका फल है, ऐसे परम शुभ तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तीर्थंकर ने जो कुछ कहा तथा उन वचनों को अतिशय-सम्पन्न, वचन ऋद्धि एवं बुद्धि-ऋद्धि से सम्पन्न तीर्थंकरों के गणधर शिष्यों ने धारण करके जिन ग्रन्थों की रचना की वे अंग-प्रविष्ट कहलाए तथा जिन आचार्यों का वचन सामर्थ्य एवं मतिज्ञान परम प्रकृष्ट था, आगम श्रुतज्ञान अत्यन्त विशुद्ध था, 1. विशेषावश्यकभाष्य I, गाथा 551: जइ वि य भूयावाए सव्वस्स वओमयस्स ओयारो। निज्जूहणा तहावि हुदुम्मेहे पप्पइत्थीय॥ 2. आचारांगभाष्य, पृ. 14 3. समवाओ, 14/4,समणस्सणंभगवओमहावीरस्सचउद्दससमणसाहस्सीओउक्कोसिआसमणसंपया होत्था। 4. नंदी, सूत्र 19, चोद्दस पइण्णगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स। 5. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, 1/20. वक्तविशेषाद द्वैविध्यम्। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 जैन आगम में दर्शन उन गणधरों के पश्चात्वर्ती आचार्यों के द्वारा काल, संहनन, आयु आदि दोषों से शक्ति अल्प हो गई है जिन शिष्यों की, उन पर अनुग्रह करने के लिए जिन आगमों की रचना की उनको अंग-बाह्य कहा गया है।' जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंग-प्रविष्ट और अंग-बाह्य के भेद के निरूपण में तीन हेतु . प्रस्तुत किए हैं अंग-प्रविष्ट आगम वह है1. जो गणधरकृत होता है। 2. जो गणधर द्वारा प्रश्न किए जाने पर तीर्थकर द्वारा प्रतिपादित होता है। 3. जो ध्रुव-शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होता है, सुदीर्घकालीन होता है। इसके विपरीत1. जो स्थविरकृत होता है, 2. जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वार प्रतिपादित होता है, 3. जो चल होता है-तात्कालिक या सामयिक होता है- उस श्रुत का नाम अंग बाह्य है। आचार्य अकलंक ने आरातीय आचार्यकृत आगम जो अंग आगमों में प्रतिपादित अर्थ से प्रतिबिम्बित होता है उसे अंगबाह्य कहा है।' आगम जैन दर्शन के मूल आधार हैं। उनका संक्षिप्त परिचय यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग एवं भगवती का परिचय अपेक्षाकृत विस्तार से किया जाएगा। जो इस शोधग्रन्थ के मुख्य आधार-ग्रन्थ हैं। अन्य का प्रसंगानुकूल संक्षिप्त परिचय दिया जाएगा। 2. 1. सभाष्यतत्त्वार्थाधिंगमसूत्र, 1/20 : यद् भगवद्भिः सर्वजैः सर्वदर्शिभि: परमर्षिभिरर्हद्भिस्तत्स्वाभाव्यात् परमशुभस्य च प्रवचनप्रतिष्ठापनफलस्य तीर्थकरनामकर्मणोनुभावादुक्तं भगवच्छिष्यैरतिशयवद्भिरुत्तमातिशयवाग्बुद्धि-सम्पन्नैर्गणधरैर्दृब्धं तदंगप्रविष्टम् । गणधरानन्तर्यादिभिस्त्व त्यन्त-विशुद्धागमैः परमप्रकृष्टवाङ्मतिबुद्धिशक्ति- भिराचार्यैः कालसंहननायुर्दोषादल्पशक्तीनां शिष्याणामनुग्रहाय यत् प्रोक्तं तदङ्गबाह्यमिति। उद्धृत, आचारांग भाष्य भूमिका पृ. 15 (क) विशेषावश्यकभाष्य I, गाथा 550, गणहरथेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा धुव-चल-विसेसओ वा अंगाणंगेसु नाणत्तं। (ख) वही, वृत्ति 550, गणधरकृतं, पदत्रयलक्षणतीर्थकरादेशनिष्पन्नं, ध्रुवं च यच्छूतं तदङ्गप्रविष्टमुच्यते, तच्च द्वादशांगीरूपमेव । यत्पुन: स्थविरकृतं, मुत्कलार्थाभिधानं,चलंचतदावश्यकप्रकीर्णादिश्रुतमङ्गबाह्यमिति। । तत्त्वार्थवातिक I, (ले. आचार्य अकलंक, दिल्ली, 1993) सूत्र 1/20, आरातीयाचार्यकृताङ्गार्थ प्रत्यासन्नरूपमङ्गबाह्यम् । . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 35 आचारांग जैनागम में बारह अंगों का प्रमुख स्थान हैं। उन बारह अंगों में पहला अंग आचारांग है।' कुछ आचार्यों ने आचारांग को स्थापना की दृष्टि से प्रथम एवं रचना की अपेक्षा बारहवां अंग माना है तथा कुछ आचार्यों ने इसे रचना तथा स्थापना दोनों ही दृष्टियों से प्रथम अंग के रूप में मान्यता दी है। आचारांग नियुक्ति के वक्तव्य के अनुसार तीर्थंकर तीर्थ प्रवर्तन के समय सर्वप्रथम आचार का तथा फिर आनुपूर्वी से शेष ग्यारह अंगों का प्रतिपादन करते हैं। गणधर भी इसी अनुक्रम से बारह अंगों की सूत्र रचना करते हैं। आचारांग में मोक्ष के उपायभूत आचार का वर्णन है अतः इसका बारह अंगों में प्रथम स्थान है। आचार्य महाप्रज्ञ ने आचारांग को स्थापना की दृष्टि से प्रथम अंग माना है। अपने अभिमत को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है- "अंग पूर्वो से निर्मूढ हैं, इस अभिमत के आलोक में देखा जाए तो यही धारा संगत लगती है कि आचारांग स्थापना की दृष्टि से पहला अंग है, किन्तुरचना-क्रम की दृष्टि से नहीं ।' आगमों के व्याख्या साहित्य की दृष्टि से नियुक्ति का प्रथम स्थान है। नियुक्ति में उल्लिखित अवधारणाओं की प्राचीनता असंदिग्ध है। अन्य टीकाओं में भी दोनों मान्यताओं का उल्लेख हुआ है। इससे प्रतीत होता है कि आचारांग रचना एवं स्थापना दोनों ही दृष्टियों से प्रथम अंग है। आधुनिक विद्वान् अंग और पूर्व को एक-दूसरे पर आधारित नहीं मानते किंतु उनके अनुसार वे एक-दूसरे के समानान्तर चलते हैं। इस मन्तव्य से अंगों का पूर्वो से नि!हण हुआ है यह मान्यता विमर्शनीय हो जाती है। आकार एवं विषय-वस्तु आचारांग अंग की दृष्टि से पहला अंग है। इसके दो श्रुतस्कन्ध, पच्चीस अध्ययन, पचासी उद्देशन-काल, पचासी समुद्देशन काल, पद परिमाण से अठारह हजार पद, संख्येय, अक्षर, अनन्त गम और अनन्त पर्यव हैं।' 1. समवाओ, प्रकीर्णक समवाय, सूत्र 89,सेणं अंगठ्ठया ए.. पदमे अंगे। 2. (क) नंदीमलयगिरिवृत्ति, पत्र 211, स्थापनामधिकृत्य प्रथममंगम्। (ख) स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रंच (समवायांग वृत्ति) पत्र 72, प्रथममंगं स्थापनामधिकृत्य, रचनापेक्षया तु द्वादशमंगम्। 3. (क) वही, पत्र 240 : गणधरा: पुन: सूत्ररचनां विदधत: आचारादिक्रमेण विदधति स्थापयन्ति वा। (ख) वही, पत्र 121, गणधरा: पुन: श्रुतरचनां विदधाना आचारादिक्रमेण रचयन्ति स्थापयन्ति च। 4. आचारांगनियुक्ति, (ले. आचार्यभद्रबाह, बम्बई, 1928) गाथा 8,सव्वेसिंआयारो, तित्थस्सपवत्तणेपढमयाए। सेसाई अंगाई. एक्कारस आणुपुल्वीए॥ 5. वही, गाथा 8 वृत्ति, गणधरा अप्यनयैवानपूर्व्या सूत्रतया ग्रन्थन्ति। 6. वही, गाथा 9, आयारो अंगाणं, पढमं अंगंदुवालसण्हं पि। इत्थ य मोक्खोवाओ, एसय सारोपवयणस्स। 7. आचारांगभाष्य, भूमिका पृष्ठ 16 8. Schubring, Walther, The Doctrine of the Jains (Delhi, 1978)P.74 Hence it follows that the two series were parallel to, not dependent on, each other. 9. प्रकीर्णक समवाय सू. 89 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 36 इसमें श्रमण निर्गन्थों के सुप्रशस्त आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चंक्रमण, प्रमाण, योग-योजन, भाषा, समिति, गुप्ति, शय्या, उपधि, भक्तपान, उद्गमविशुद्धि, उत्पादन- विशुद्धि, एषणा विशुद्ध, शुद्धाशुद्धग्रहण का विवेक, व्रत, नियम, तपउपधान का निरूपण किया गया है । ' नंदी के अनुसार आचारांग में श्रमण निर्गन्थ के आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, शिक्षा, भाषा, अभाषा, चरण, करण, यात्रा, मात्रा - -वृत्ति का आख्यान किया गया है। 2 समवायांग एवं नंदी में वर्णित आचारांग की विषय-वस्तु प्रायः सदृशं है किन्तु कथंचित वैशिष्ट्य भी है । यथा आचारांग में भाषा का उल्लेख है वहीं नंदी में शिक्षा, भाषा एवं अभाषा का कथन है। नंदी ने चरण-करण शब्द का प्रयोग किया है जबकि समवायांग में चरण-करण के विषय का विस्तार किया गया है। इस प्रकार दोनों आगमों में आगत आचारांग की विषयवस्तु में परस्पर पूरकता परिलक्षित है। समवायांग में आचारांग के दो श्रुतस्कन्ध बतलाए गए हैं। इससे यह प्रमाणित होता है कि समवायांग में प्राप्त द्वादशांगी का विवरण भी ‘आयारचूला' की रचना का उत्तरवर्ती है । प्रारम्भ में आचारांग के दो श्रुतस्कन्ध नहीं थे । आचार्य भद्रबाहु ने आयारचूला की रचना की, उसके पश्चात् दो स्कन्धों की व्यवस्था की गई। मूलभूत प्रथम अंग का नाम आचारांग अथवा ब्रह्मचर्याध्ययन है। समवायांग में इसके अध्ययनों को 'नव ब्रह्मचर्य' कहा गया है । आचारांग नियुक्ति में इसे 'नव ब्रह्मचर्याध्ययनात्मक' कहा गया । द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दो नाम हैं- आचाराग्र और आचार- चूला ।' प्रथम श्रुतस्कन्ध ही प्राचीन है तथा वही आचारांग नाम का प्रथम अंग है। जैन आगम में दर्शन आचारांग के अध्ययन समवायांग में आचारांग के पच्चीस अध्ययनों का उल्लेख है।' यह आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्ध के सम्मिलित अध्ययनों की संख्या है। प्रथम श्रुतस्कन्ध आचारांग एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध आचार चूला के नाम से विश्रुत है । हमारे अध्ययन का आधार प्रथम श्रुतस्कन्ध है। इसके नौ अध्ययन हैं' आचारांग को ब्रह्मचर्याध्ययन भी कहा जाता है। समवायांग में नव ब्रह्मचर्य का उल्लेख है।' ये ही प्रथम अंग के नौ अध्ययन हैं। वर्तमान में आचारांग के आठ अध्ययन उपलब्ध हैं । जिनके ये नाम हैं - सत्थपरिण्णा, लोगविजय, सीओसणिज्ज, सम्मत्त, लोगसार, धुय, विमोक्ख एवं उवहाणसुयं । - 1. प्रकीर्णक समवाय सू. 89 2. नंदी सूत्र 80 3. आचारांग भाष्यम्, भूमिका पृ. 17 4. प्रकीर्णक समवाय सूत्र 89 5. समवायांग वृत्ति, पत्र 101 6. समवाओ 9 / 3 णव बंभचेरा पण्णत्ता पणवीसं अज्झयणा... । तन्नवब्रह्मचर्याध्ययनत्मकस्य प्रथम श्रुतस्कन्धस्य प्रमाणम् । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 37 विलुप्त महापरिक्षा अध्ययन __ समवायांग एवं आचारांग नियुक्ति में इन आठ अध्ययनों के साथ ही महापरिण्णा नामक अध्ययन का भी उल्लेख हुआ है। किन्तु वर्तमान में वह अनुपलब्ध है। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने तथ्यपूर्वक उसके विच्छेद का वर्णन करते हुए कहा है कि- आचारांग का महापरिज्ञा अध्ययन विच्छिन्न हो चुका है - यह श्वेताम्बर आचार्यों का अभिमत है। उस अध्ययन का विच्छेद वज्रस्वामी के पश्चात् तथा शीलांकसूरि से पूर्व हुआ है। नियुक्तिकार ने महापरिज्ञा अध्ययन का उल्लेख किया है तथा उसकी नियुक्ति भी की है।... इससे लगता है कि चर्चित अध्ययन उनके सामने था। चूर्णिकार के सामने भी महापरिज्ञा अध्ययन रहा है। उन्होंने शीलांकसूरि की तरह इसके विच्छेद होने का उल्लेख नहीं किया है किंतु इस अध्ययन के असमनुज्ञात होने का उल्लेख किया है।... महापरिज्ञा अध्ययन में अनेक मंत्र और विद्याओं का वर्णन था। उसे पढ़ाने का परिणाम अच्छा नहीं आया अत: तत्कालिक आचार्यों ने उसे असमनुज्ञात घोषित कर दिया-उसका पढ़ना, पढ़ाना निषिद्ध कर दिया। इस अध्ययन का पढ़ना, पढ़ाना जब निषिद्ध हो गया तब इसका विच्छेद हो गया हो, यह सम्भावित लगता है। आचारांग में प्रतिपादित दार्शनिक तथ्य तत्त्वदर्शन की दृष्टि से आचारांग महत्त्वपूर्ण आगम है। जैनदर्शन में तत्त्वदर्शन का मूल आधार आत्मा है। आचारांग का प्रारम्भ आत्म-विवेचन से हुआ है। आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद दार्शनिक चिंतन के महत्त्वपूर्ण आयाम हैं। इनका उल्लेख भी प्रस्तुत आगम में हुआ है। आत्म-कर्तृत्व का सिद्धान्त दर्शन जगत् में बहुचर्चित रहा है। जैन दर्शन आत्म-कर्तृत्व के सिद्धान्त का परिपोषक है। आचारांग में आत्मकर्तृत्व का घोष पदे पदे मुखर है। 'पुरिसा तुममेव तुमं मित्तं' 5 'तुमं चेव तं सल्लमाहट्ट पुरुष तू ही तेरा मित्र है, यह शल्य तूने ही किया है' -ये वाक्य आत्मा-कर्तृत्व के संगायक सूत्र हैं। आत्माएं अनन्त हैं। उन सबका अस्तित्वपृथक्-पृथक् है। वे किसी एक ईश्वर की अंशभूत नहीं हैं और किसी ब्रह्म की प्रपंचभूत भी नहीं हैं। सुख और दु:ख व्यक्ति का अपना-अपना होता है।' आचारांग का यह घोष आत्मा की स्वतंत्रता की उद्घोषणा करता है। "जिसे तू हननयोग्य मानता है, वह तू ही है।'' आचारांग का यह आत्माद्वैत अहिंसा के आचार की पराकाष्ठा है। 'जे एगंजाणइसे सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगंजाणइ', जो एक को जानता है वह सबको जानता है, जो सबको जानता है वह एक को जानता है। यह सूत्र अनेकान्त का आदिस्रोत 1. आचारांग नियुक्ति, गाथा 31-32 6.वही, 2/87 2. आचारांगभाष्यम, भूमिका पृ. 19 7. वहीं, 2/22 3. आयारो (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, वि.सं. 2031) 1/2 8. वही, 5/104 4. वही, 1/4 5. वही, 3/62 9. वही, 3/74 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 जैन आगम में दर्शन है। संग्रह एवं व्यवहार नय की सापेक्षता को अभिव्यंजित कर रहा है। साधना की दृष्टि से भी इस सूत्र का महत्त्व है। आचारांग पुनर्जन्म की स्वीकृति के साथ आत्म-अन्वेषण की प्रक्रिया में साधकों को संयोजित करता है। जैन धर्म दर्शन की षड्जीवनिकाय की अवधारणा सर्वथा मौलिक है। जिसका निर्देश प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन शस्त्र परिज्ञा में हुआ है। आचारांग में साधना के महत्त्वपूर्ण सूत्रों का प्रतिपादन तो हुआ ही है किंतु इसका छट्ठा धुताध्ययनसाधना की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। 'अवधूत' परम्परा के साथ इसका साम्य खोजा जा सकता है। ___ नवें अध्ययन में महावीर के जीवन-दर्शन का वास्तविक चित्रण हुआ है। कहीं भी महावीर के जीवन में अति प्राकृतिक तत्त्वों का उल्लेख नहीं हुआ है। आचारांग का यह वर्णन महावीर के यथार्थ जीवन पर आधारित है। महावीर का मानवी रूप ही इससे प्रस्तुत होता है। आचारांग का महत्त्व आचार की आराधना से जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की प्राप्ति होती है। आचार, धर्म का आधारभूत तत्त्व है। आचारांग में आचार का निरूपण है अतः उसका महत्त्व स्वतःस्फुट है। आचार प्ररूपणा के कारण ही उसे अंगों का सार कहा गया है।' __ आचारांग में मोक्ष का उपाय बताया गया है, इसलिए यह समूचे प्रवचन का सार है। आचारांग मुनि जीवन का आधारभूत आगम है, इसलिए इसका अध्ययन सर्वप्रथम किया जाता है। नौ ब्रह्मचर्य अध्ययनों का वाचन किए बिना आगे के आगमों का वाचन करने पर चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। आचारांग पढ़ने के बाद ही धर्मानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग पढ़े जाते थे। नवदीक्षित मुनि की उपस्थापना आचारांग के शस्त्र परिज्ञा अध्ययन द्वारा की जाती थी। मुनि भिक्षा लाने योग्य भी आचारांग के अध्ययन से होता था। आचारांग की प्रासंगिकता आचारांग में सम-सामयिक समस्याओं के समाधान भी उपलब्ध हैं। पर्यावरण व प्रदूषण आज की गम्भीर समस्या है। उसके समाधान के लिए अनेक वैज्ञानिक, अनेक सरकारी एवं गैर सरकारी संस्थान संलग्न हैं। आचारांग में प्रदत्त षड्जीवनिकाय के संयम का सूत्र यदि आज व्यवहार के धरातल पर अवतरित हो जाए तो इस समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है। आज से ढाई हजार वर्ष पहले प्रदूषण की कोई समस्या नहीं थी किंतु उस समय में अन्य संदर्भ में 1. आचारांग नियुक्ति गाथा 1 6, अंगाणं कि सारो? आयारो। 2. आचारांग भाष्यम्, भूमिका पृ. 22 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 39 प्रदत्त सूत्र वार्तमानिक समस्या को समाहित करने में सक्षम हैं। हिंसा एवं आतंक की समस्या का समाधान आचारांग में आगत अहिंसा के उच्च सिद्धान्त में सन्निहित है। रचना शैली सूत्रकृतांगचूर्णि में प्रथम आचारांग को गद्य की कोटि में रखा है, किंतु दशवैकालिक चूर्णि में ब्रह्मचर्याध्ययन (आचारांग) को चौर्ण पद माना है। आचार्य हरिभद्र का भी यही अभिमत है। आचारांग की रचना गद्यशैली की नहीं है, इसलिए दशवकालिक चूर्णि का अभिमत संगत लगता है। नियुक्तिकार ने चौर्णपद की व्याख्या इस प्रकार की है- “जो अर्थ-बहुल, महार्थ, हेतु, निपात और उपसर्ग से गंभीर, बहुपाद, अव्यवच्छिन्न, गम और नय से विशुद्ध होता है। चौर्ण की परिभाषा में आया हुआ बहुपाद शब्द महत्त्वपूर्ण है। जिस रचना में कोई पाद नहीं होता वह गद्य और जिसमें गद्य भाग के साथ-साथ बहुत पाद होते हैं, वह चौर्ण पद है। आचारांग में सैकड़ों पाद हैं, इसलिए वह चौर्ण शैली की रचना है। आचारांग के 8वें अध्ययन के 7वें उद्देशक तक की रचना चौर्ण शैली में है और 8वां उद्देशक तथा 9वां अध्ययन पद्यात्मक है। आचारचूला के 15 अध्ययन मुख्यतया गद्यात्मक हैं, कहीं-कहीं पद्य या संग्रह गाथाएं प्राप्त हैं। 16वां अध्ययन पद्यात्मक है। आचारांग में गद्यभाग के साथ-साथ विपुल मात्रा में पद्य भाग है- इस रहस्य के उद्घाटन का श्रेय डॉ. शुबिंग को है। उन्होंने स्व-संपादित आचारांग के पद्य भाग का पृथक् अंकन किया है।' रचनाकार और रचना काल जैन परम्परा के अनुसार अर्थागम के कर्तातीर्थंकर एवं सूत्रागमकेकर्तागणधर हैं। वर्तमान में उपलब्ध एकादश अंग गणधर सुधर्माप्रणीत माने जाते हैं अतः आचारांग सुधर्मा स्वामी की रचना है। परम्परा से यह जाना जाता है कि आचारांग की रचना गणधर सुधर्मा स्वामी ने तीर्थप्रवर्तन के समय में ही की। विद्वानों ने आचारांग, सूत्रकृतांग एवं उत्तराध्ययन को भाषाशास्त्रीय दृष्टिकोण एवं साहित्यिक दृष्टिकोण से प्राचीनतम माना है। डॉ. हर्मन जेकोबी इसकी तुलना ब्राह्मण सूत्रों की शैली से करते है। आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध दूसरे श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा निश्चित रूप से प्राचीन है। यह विंटरनित्ज आदि विद्वानों का मन्तव्य है।' 1. आचारांग भाष्यम, भूमिका पृ. 2 3 दशवैकालिकनियुक्ति, (ले. आचार्य भद्रबाहु, अहमदाबाद, 1973) गाथा 174,अत्थबहुलं महत्थं, हेउनिवाओवसग्गगंभीरं। बहुपायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं च चुण्णपयं ।। 2. Jain Jagdish chandra, Life in Ancient India Depicted in Jaina Canon and Commentaries, (Delhi, 1984) P. 43 : The first book of the Ayarang and that of the Suyagdainga and Uttarajjhayana contain the oldest part of the canon from linguistic and literary point of view. 3. Jacobi, Herman, The Sacred Books of the East, (Delhi, 1980) Vol. XXII, Introduction, Page 48 4. Winternitz, Maurice, History of Indian literature, P.419 : The first section, which makes a very archaic impression, is most decidedly earlier than the second..... Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 जैन आगम में दर्शन आचारांग आचार-प्ररूपणा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें आचार की प्ररूपणा मुख्य होते हुए भी उसके परिपार्श्व में अनेक वैचारिक वीचियां तरंगित होती हुई परिलक्षित हैं। सूत्रकृतांग द्वादशांगी के अन्तर्गत द्वितीय अंग का नाम सूयगडो है। द्वादशांगी के विषय का वर्णन करने वाले समावायांग आदि में इसका यही नाम प्राप्त है।' सूत्रकृतांग नियुक्ति में इसके सूतगड, सुत्तकड एवं सूयगड ये तीन नाम उपलब्ध होते हैं।' आचार्य महाप्रज्ञ जी ने सूत्रकृतांग की भूमिका में इसके नाम के संदर्भ में निम्न विमर्श किया है 1. "सूतगड (सूतकृत)-प्रस्तुत आगम मौलिक दृष्टि से भगवान् महावीर से सूत । अर्थात् उत्पन्न है तथा ग्रन्थ रूप में गणधर के द्वारा कृत है इसलिए इसका नाम 'सूतकृत' है। 2. सुत्तगड (सूत्रकृत)- इसमें सूत्र के अनुसार तत्त्वबोध किया जाता है, इसलिए इसका नाम सूत्रकृत है। 3. सूयगड (सूचाकृत)-इसमें स्व और पर समय की सूचना कृत है, इसलिए इसका नाम सूचाकृत है। वस्तुत: सूत, सुत्त और सूय-ये तीनों सूत्र के ही प्राकृत रूप हैं। आकारभेद होने से तीन गुणात्मक नामों की परिकल्पना की गई है। सभी अंग मौलिक रूप में भगवान् महावीर द्वारा प्रस्तुत और गणधर द्वारा ग्रन्थ रूप में प्रणीत हैं, फिर केवल प्रस्तुत आगम का ही 'सूतकृत' नाम क्यों? इसी प्रकार दूसरा नाम भी सभी अंगों के लिए सामान्य है। प्रस्तुत आगम के नाम का अर्थस्पर्शी आधार तीसरा है, क्योंकि प्रस्तुत आगम में स्व समय और पर समय की तुलनात्मक सूचना के संदर्भ में आचार की प्रस्थापना की गई है। इसलिए इसका सम्बन्ध सूचना से है। समवाय और नंदी में यह स्पष्टतया उल्लिखित है __ 'सूयगडे णं ससमया सूइज्जति, पर समया सूइज्जति, ससमय-पर समया सूइज्जति। जो सूचक होता है उसे सूत्र कहा जाता है। प्रस्तुत आगम की पृष्ठभूमि में सूचनात्मक तत्त्व की प्रधानता है, इसलिए इसका नाम सूत्रकृत है। दृष्टिवाद का एक प्रकार है-सूत्र । आचार्य वीरसेन के अनुसार सूत्र में अन्य दार्शनिकों 1. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सूत्र 88 (ख) नंदी, सूत्र 80 (ग) अणुओगदाराई, (संपा. आचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1996) सूत्र 50 2. नियुक्तिपञ्चक (सूत्रकृतांगनियुक्ति) (संपा.समणी कुसुमप्रज्ञा, लाडनूं, 1999) गाथा 2, सतगडंसुत्तकडं, सूयगडं चेव गोण्णाणि। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा का वर्णन है । प्रस्तुत आगम की रचना उसी के आधार पर की गई है, इसलिए इसका नाम 'सूत्रकृत' रखा गया । सूत्रकृत शब्द के अन्य व्युत्पत्तिक अर्थों की अपेक्षा यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है । "" सूत्रकृतांग और अनुयोग जैन परम्परा के अनुसार द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग एवं धर्मकथानुयोग में सम्पूर्ण शास्त्रों का समवतार हो जाता है। आगमों का विभक्तिकरण भी अनुयोगों में हुआ है। चूर्णि एवं टीका साहित्य में यह अवधारणा स्पष्ट रूप से उपलब्ध है । यद्यपि एक ही आगम के संदर्भ में भी चूर्णि और टीका में मतवैविध्य भी है। यथा सूत्रकृतांग को चूर्णिकार चरणानुयोग मानते हैं? जबकि टीकाकार ने इसका परिगणन द्रव्यानुयोग में किया है' चूर्णिकार के अनुसार कालिक सूत्रों का चरणकरणानुयोग में तथा दृष्टिवाद का समावेश द्रव्यानुयोग में होता है । ' आचार्य महाप्रज्ञ जी ने इन दोनों की सापेक्ष दृष्टि से मीमांसा करते हुए कहा है कि — द्वादशांगी मुख्यत: द्रव्यशास्त्र दृष्टिवाद है। शेष अंगों में द्रव्य का प्रतिपादन गौण है । द्रव्यशास्त्र में भी गौणरूप से आचार का प्रतिपादन हुआ है। चूर्णिकार ने मुख्यता की दृष्टि से प्रस्तुत आगम को में चार शास्त्र माना है तथा वृत्तिकार ने इसमें प्राप्त द्रव्य विषयक प्रतिपादन को मुख्य मानकर इसे द्रव्यशास्त्र कहा है । इन दोनों वर्गीकरणों में सापेक्ष दृष्टिभेद है । ' 4 1 अंगों को पूर्वों से निर्यूढ़ माना गया है। पूर्व दृष्टिवाद के अन्तर्गत है, चूर्णिकार ने दृष्टिवाद को द्रव्यानुयोग कहा है फिर द्रव्यानुयोग से चरणकरणानुयोग कैसे प्रस्तुत हो सकता है? अतः द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग यह सापेक्ष वर्गीकरण ही है । वक्ता की दृष्टि में आचार विषयक वर्णन को प्रधानता दी जाती है तब इसका अन्तर्भाव चरणकरणानुयोग में हो जाता है, यदि प्रतिपादित विषय में तत्त्व / द्रव्य मीमांसा को प्रमुखता दी जाती है तो इसको द्रव्यानुयोग कह दिया जाता है। संभव ऐसा लगता है कि प्रयोक्ता की दृष्टि के आधार पर ही इसका विभिन्न अनुयोगों में समावेश हुआ है। सूत्रकृतांग : आकार एवं विषय वस्तु सूत्रकृतांग के भी आचारांग की तरह दो श्रुतस्कन्ध हैं।' प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा की दृष्टि से प्राचीन है तथा द्वितीय अर्वाचीन है। संभव ऐसा लगता है, उत्तरवर्ती किसी आचार्य ने दूसरे 1. सूयगडो 1 भूमिका पृ. 17 2. सूयगडंगसुतं (सूत्रकृतांगचूर्णि) (संपा. मुनिपुण्यविजय, अहमदाबाद, 1975), पृ. 4 : इह चरणाणुयोगेण अधिकारो । 3. आचारांगसूत्रं सूत्रकृतांगसूत्रंच (सूत्रकृतांगवृत्ति) (संपा. मुनि जम्बूविजय, दिल्ली, 1978), पत्र 1: तत्राचारांग चरणकरणप्राधान्येन व्याख्यातम्, अधुना अवसरायातं द्रव्यप्राधान्येन सूत्रकृताख्यं द्वितीयमंगं व्याख्यातुमारभते । 4. सूयगडंगसुत्तं, (सूत्रकृतांगचूर्णि ) पृ. 3 : कालियसुयं चरणकरणाणुयोगो... .....दिट्ठिवातो दव्वाणुजोगो त्ति । 5. सूयगडो । भूमिका पृ. 18 6. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सूत्र 90 (ख) नंदी, सूत्र 82 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन श्रुतस्कन्ध की सूत्रकृतांग के साथ बाद में संयोजना की है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन हैं। इसकी पद संख्या 36 हजार बतलाई गई है। धवला में भी इसकी पद संख्या यही निर्दिष्ट है, किंतु वर्तमान में उपलब्ध सूत्रकृतांग का पद परिमाण इतना नहीं है। आचारांग की तरह ही कालक्रम में इसका विच्छेद होता रहा है किंतु प्रस्तुत आगम सर्वथा विच्छिन्न नहीं हुआ है। यह वक्तव्य असंदिग्ध है। धवला और जय धवला में भी इसके दो श्रुतस्कन्ध होने का उल्लेख नहीं है और अध्ययनों की संख्या का भी उल्लेख नहीं है ।' धवला एवं जय धवला के उल्लेख से भी प्रतीत होता है कि प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध होने की परम्परा अर्वाचीन है। 4 2 इस आगम में मुख्य रूप से स्व-समय एवं पर समय का सूचन है । पर समय के संदर्भ में स्व-समय के अभ्यास से पाठक की दृष्टि परिमार्जित होती है। नवदीक्षित शिष्यों के दृष्टि परिमार्जन हेतु इस आगम में पर समय के विवेक साथ स्व- समय का निरूपण किया है।' नंदी में स्व- समय की स्थापना का उल्लेख है । " अंग-सहित्य में आचार - निरूपण विभिन्न संदर्भों में किया गया है। आचारांग प्रथम अंग है। उसमें वह अध्यात्म के संदर्भ में किया गया है। प्रस्तुत आगम में वह दार्शनिक मीमांसा के संदर्भ में किया गया है। सूत्रकृतांग में प्रतिपादित दार्शनिक तथ्य जैसा कि इस ग्रन्थ की नाम विवेचना के प्रसंग में उल्लेख किया गया है कि इसमें स्वसमय एवं पर- समय की सूचना दी जाएगी। इसी वक्तव्य के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत आगम में विभिन्न मतवादों का वर्णन है। क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद एवं विनयवाद इन चार वादों का वर्णन है तथा पंचभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, नियतिवाद आदि तत्कालीन अनेक दार्शनिक अवधारणाओं का पूर्वपक्ष के रूप में उल्लेख प्रस्तुत आगम में है । ' इन अवधारणाओं के आलोक में जैन मन्तव्य को भी स्पष्टता से समझा जा सकता है। प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन के प्रथम श्लोक में ही ज्ञान एवं आचार दोनों का समन्वय हुआ है। 'बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा' इस श्लोकांश में यही सत्य प्रतिपादित है। जैन दर्शन को ज्ञानवादी भी नहीं है और कोरा आचारवादी भी नहीं है। वह बंधन मुक्ति के लिए ज्ञान एवं आचार दोनों को अनिवार्य मानता है । यह तथ्य प्रस्तुत आगम में प्रतिपादित है । प्रस्तुत श्लोक में मोक्षमार्ग का प्रतिपादन हो गया है । " 1. (क) षट्खण्डागम, धवला, भाग 1, पृ. 99 (ख) कसायपाहुड, जयधवला, भाग । पृ. 1 2 2 2. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सूत्र 90 3. नंदी, सूत्र 82 4. सूयगडो, (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूँ, 1984) 1/1/7-71, 1 / 12 वां अध्ययन 5. वही, 1/1/1 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 43 आत्मा कर्मों के कारण संसार में परिभ्रमण करती है। संसार परिभ्रमण का हेतु कर्म है तथा कर्मबंध के मुरत्र्य हेतु आरम्भ और परिग्रह है। परिग्रह के लिए आरम्भ किया जाता है। हिंसा परिणाम है, कार्य है। परिग्रह कारण है। इस तथ्य का प्रतिपादन भी प्रस्तुत आगम में है। __ भगवान् महावीर की स्तुति में प्रयुक्त विशेषणों से जैन दर्शनमान्य 'सर्वज्ञता' की अवधारणा की प्रस्तुति भी इस आगम में हुई है। अणंतणाणी, अणंतचक्खु आदि विशेषण इस स्वीकृति की ओर इंगित करते हैं।' अन्य जैन दार्शनिक मान्यताओं का भी इसमें उल्लेख है, जिनका उल्लेख आगे प्रबन्ध में विस्तार से किया जाएगा। सूत्रकृतांग की सामयिकता प्रस्तुत सूत्र में शाश्वत सत्यों का प्रतिपादन हुआ है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार समस्याओं के आकार-प्रकार में अन्तर आ जाता है किन्तु मूलभूत कारण वे ही रहते हैं। आज के मनोवैज्ञानिक मनुष्य की मनोवृत्ति में ही समस्याओं के बीजों का अवस्थान मानते हैं। मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति सदैव एक जैसी रहती है। उसके प्रकटीकरण के प्रकारों में भेद हो जाता है। साम्प्रदायिक अभिनिवेश पारस्परिक वैमनस्य को वृद्धिंगत करता है। वर्तमान में साम्प्रदायिक अभिनिवेश सम्पूर्ण विश्व के सामने एक भयावह चुनौती है। इसके कारण भय, हिंसा, आतंक का माहौल बना हुआ है। सूत्रकृतांग के काल में भी इस भाव के दर्शन होते हैं। जिस पर सूत्रकृतांग प्रहार कर रहा है। सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं। जे उतत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया।।' "अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निंदा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार को बढ़ाते हैं।" 'मेरा सिद्धान्त ही सही है, दूसरा सिद्धान्त सही नहीं है' -- इसी आग्रह ने संघर्ष को जन्म दिया है। अनेकान्तदृष्टि वाला दूसरों के सिद्धान्त के विरोध में या प्रतिपक्ष में खड़ा नहीं होता, किंतु सत्य को सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करता है। प्रस्तुत श्लोक को अनेकान्त दृष्टि की पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है। अनेकान्त परक चिंतन समस्याओं का समाधायक होता है। वार्तमानिक साम्प्रदायिक अभिनिवेश की समस्या का निराकरण भी इस दृष्टि के आलोक में किया जा सकता है। रचनाशैली सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध पद्यशैली में लिखित है। सोलहवां गद्यशैली में लिखा हुआ प्रतीत होता है किंतु वह भी पद्यात्मक है। नियुक्तिकार ने गाथा शब्द की मीमांसा करते हुए 1. सूयगडो, (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1984), 1/6/3, 5, 25 आदि 2. वही, 1/1/50 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 जैन आगम में दर्शन कुछ विकल्प प्रस्तुत किए हैं। उनमें लिखा है कि प्रस्तुत अध्ययन गेय है, वह गाथाछंद या सामुद्रछंद में लिखित है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का 1 5वां यमकीय अध्ययन यमक अलंकार में निबद्ध है। यह आगम ग्रन्थों की काव्यात्मक शैली का विरल उदाहरण है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का बड़ा भाग गद्यशैली तथा विस्तृत शैली में लिखित है। इसमें रूपक और दृष्टान्तों का भी समीचीन प्रयोग हुआ है। प्रथम अध्ययन में पुण्डरीक का रूपक बहुत ही सुन्दर है। इसमें संवाद और प्रश्नोत्तरी शैली का भी प्रयोग है। संवादशैली का उदाहरण दूसरे अध्ययन में मिलता है। रचनाकार और रचनाकाल जैन परम्परा के अनुसार द्वादशांगी के रचनाकार गणधर माने जाते हैं। इस मान्यता के अनुसार सूत्रकृतांग गणधरों की रचना है । भगवान महावीर के निर्वाण के एक हजार वर्ष तक आगम श्रुति परम्परा से प्रचलित रहे। उसके बाद देवर्धिगणी ने इनको लिपिबद्ध किया अतः प्रस्तुत आगमों को एक अपेक्षा से देवर्धिगणी का कह सकते हैं। सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम का परिशिष्ट रूप है और बाद में जोड़ा गया है। इस ग्रन्थ का आचार-मीमांसा एवं तत्त्व-मीमांसा दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वूपर्ण स्थान है। स्थानांग अंग साहित्य के संख्या क्रम में तीसरे स्थान में आगत स्थानांग सूत्र जैनधर्म-दर्शन की अवधारणाओं का निरूपक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस आगम में तत्त्व का प्रतिपादन संख्या में हुआ है। इस ग्रन्थ का सम्पूर्ण प्रतिपाद्य एक से दस तक की संख्या में निबद्ध है। इस आगम के दस विभाग है, इनको स्थान कहा जाता है। टीकाकार ने इनको अध्ययन की अभिधा से भी अभिहित किया है। प्रथम विभाग में एक की संख्या से कथित विषयों का समावेश है, इसी प्रकार क्रमशः दस तक की संख्या में विभिन्न विषयों का गुम्फन हुआ है। बौद्धों के अंगुत्तरनिकाय सूत्र की तरह ही इसमें संख्या के आधार पर विषय का वर्णन हुआ है। अंग साहित्य मुख्य रूप से साधक के साधना मार्ग का निरूपण विधेयात्मक अथवा निषेधात्मकवचनों में करता है किंतुस्थानांगमें ऐसे वचनों का अभाव है।स्थानांगएवंसमवायांग के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ये संग्रहात्मक कोश के रूप में निर्मित किए गए हैं। अन्य अंगों की अपेक्षा इनके नाम एवं विषय भिन्न प्रकार के हैं। 1. सूयगडो-1 भूमिका पृ. 26 - 2 7 | 2. Winternitz, Maurice, History of Indian Literature P. 421, This Anga, 100, consists of two books, the second of which is probablyonlyan appendix, added later; to the old Anga which we have in the first book. 3. स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रं च (स्थानांगवृत्ति) पत्र 3 : तत्र च दशाध्ययनानि । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 45 स्थानांग की रचना का उद्देश्य स्थानांग में एक ही प्रमेय के संख्या के आधार पर अनेक विकल्प किए गए हैं। यथाप्रत्येक शरीर की दृष्टि से जीव एक है।' संसारी और मुक्त की अपेक्षा जीव दो प्रकार के हैं।' इस प्रकार अलग-अलग स्थानों में उनकी संख्या के अनुसार जीव तत्त्व का विवेचन कर दिया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में संख्यात्मक दृष्टिकोण से तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। इन अंगों की विषय निरूपण की शैली से ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि जब सारे अंगों का निर्माण हो गया, तब उनके स्मृति अथवा धारणा की सरलता की दृष्टि से या विषयों की खोज की सुगमता की दृष्टि से स्थानांग का इस प्रकार से निर्माण किया गया तथा इसे विशेष प्रतिष्ठा देने के लिए इसका समावेश अंग साहित्य में कर लिया, ऐसा पं. बेचरदास जी दोशी का अभिमत है।' स्थानांगः आकार एवं विषय वस्तु स्थानांग बृहद् आकार वाला ग्रन्थ है। इसके दस स्थान हैं। तथा दस अध्ययनों में दूसरा, तीसरा, चौथा एवं पांचवां ये चार अध्ययन उद्देशकों में भी विभक्त हैं। अन्य अध्ययन उद्देशकों में विभक्त नहीं हैं। दूसरे, तीसरे एवं चौथे के चार-चार एवं पांचवें के तीन उद्देशक हैं। ठाणं का एक श्रुतस्कन्ध, इक्कीस उद्देशनकाल, इक्कीस समुद्देशनकाल हैं। पदप्रमाण से इसके बहत्तर हजार पद हैं। वर्तमान में इस ग्रन्थ में 1 6 5 4 4 8 अक्षर हैं जिनका अनुष्टुप् श्लोक परिमाण 51 70 होता है। आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने इसकी विषय वस्तु के सन्दर्भ में लिखा है कि प्रस्तुत सूत्र में संख्या के आधार पर विषय संकलित है, अत: यह नाना विषय वाला है। इसमें एक विषय का सम्बन्ध दूसरे विषय से नहीं खोजा जा सकता। द्रव्य, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, आचार, ज्ञान, मनोविज्ञान, संगीत आदि अनेक विषय बिना किसी क्रम के इस ग्रन्थ में उपलब्ध हैं। अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का भी आकलन प्रस्तुत आगम में है। भगवान् महावीर के समय में श्रमणों के अनेक संघ विद्यमान थे। उनमें आजीवकों का संघ बहुत शक्तिशाली था। वर्तमान में उसकी परम्परा विच्छिन्न हो चुकी है। उसका साहित्य भी लुप्त हो गया है। जैन साहित्य में उस परम्परा के विषय में कुछ जानकारी मिलती है। प्रस्तुत सूत्र में भी आजीवकों की तपस्या के विषय में एक उल्लेख मिलता है। इस आगम में ज्ञान-मीमांसा का भी लम्बा प्रकरण उपलब्ध है। पुद्गल के सम्बन्ध में भी विस्तृत जानकारी इस ग्रन्थ में है। प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के समकालीन और उत्तरकालीन-दोनों प्रकार के तथ्य संकलित हैं।" 1. ठाणं (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, 1976) 1/17, एगे जीवे पाडिक्कएणं। 2. वही, 2/409, दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- सिद्धा चेव, असिद्धा चेव। 3. दोसी, बेचरदास, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, (वाराणसी, 1989) भाग ।, पृ. 213 4. नंदी, सूत्र 83 5. ठाणं 10 वां अध्ययन, पृ. 950 6. स्थानांग भूमिका पृ. 16-17 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 जैन आगम में दर्शन __ भगवान् महावीर की उपस्थिति में तथा उनकी उत्तरवर्ती परम्परा में भी वैचारिक भिन्नता प्रकट करने वाले कुछ व्यक्ति हुए हैं। उन्हें निह्नव कहा गया है। जमालि आदि सात निहवों का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में है।' गोदासगण आदि भगवान् महावीर के नौ गणों का उल्लेख भी इसमें है। ये गण महावीर के उत्तरकालीन हैं। रचनाकार एवं रचनाकाल स्थानांग भी गणधर विरचित एवं वर्तमान में देवर्धिगणी की वाचना में संकलित ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध है। वर्तमान में उपलब्ध इस ग्रन्थ की विषय वस्तु का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इसमें भगवान् महावीर के निर्वाण के 400-500 वर्षबाद घटित होने वाली घटनाओं का संकलन भी है। अत: इस तथ्य के आलोक में इसका रचनाकाल ईसा की चौथी शताब्दी माना जा सकता है। स्थानांग में जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ., अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल इन सात निह्नवों का उल्लेख है। इनमें से प्रथम दो के अतिरिक्त सब निह्नवों की उत्पत्ति भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद तीसरी शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी तक के समय में हुई है। गोदासगण आदि नौगणों का उल्लेख हैं। वे गण भी भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग दो सौ वर्ष बाद के हैं, उनमें से कुछ तो महावीर-निर्वाण के पांच सौ वर्ष बाद तक के भी हो सकते हैं। अतएव यह मानना अधिक उपयुक्त है कि इस सूत्र की अन्तिम योजना वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में होने वाले किसी गीतार्थ पुरुष ने अपने समय तक की घटनाओं को पूर्व परम्परा से चली आने वाली घटनाओं के साथ मिलाकर की है। यदि ऐसा न माना जाए तो यह मानना होगा कि भगवान् महावीर के बाद घटित होने वाली उक्त घटनाओं का समावेश प्रस्तुत सूत्र में किसी गीतार्थ स्थविर के द्वारा बाद में हुआ है। दार्शनिक तथ्यों का प्रतिपादन प्रस्तुत सूत्र में जैन दर्शन के अनेक दार्शनिक तथ्यों का प्रतिपादन हुआ है। जैन दर्शन द्वैतवादी है। इस अवधारणाकी सम्पुष्टि ठाणं में आगतजीवच्चेव अजीवच्चेव 2/1 सूत्र से हो जाती है। जैन दर्शन के अनुसार जीव और अजीव दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है। चेतन और अचेतन का परस्पर अत्यन्ताभाव है। इस दृष्टि से द्वैतवाद की अवधारणा समीचीन है। जैन तत्त्ववाद के अनुसार आत्मा अनन्त हैं। संग्रहनय अनंत का एकत्व में समाहार करता है, अत: संग्रह नय से आत्मा एक है। एगे आया '1/2' । जैन आगमों में आत्मा की एकता और अनेकता दोनों प्रतिपादित हैं। उपनिषद् के एकात्मवाद और सांख्य के अनेकात्मवाद दोनों की 1. ठाणं., 7/140 2. वही.9/29 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 47 सापेक्ष स्वीकृति जैन दर्शन में है। संग्रह नय के अनुसार आत्मा एक है और व्यवहारनय के अनुसार आत्मा अनन्त हैं। नंदी सूत्रगत स्थानांग के विवरण में बतलाया गया है कि स्थानांग में स्वसमय, परसमय और स्वसमय-परसमय की स्थापना की जाती है।' ठाणं में आगत ‘एगे आया' यह सूत्र उभयवक्तव्यताका है। अनुयोगद्वारचूर्णिमें इस सूत्रकीजैन और वेदान्तदोनों दृष्टियोंसेव्याख्या की गई है। जैन दृष्टि के अनुसार उपयोग सब आत्मा का सदृश लक्षण है, अत: उपयोग की दृष्टि से आत्मा एक है। ___'स्थानांग' सूत्र को जैन दर्शन से सम्बन्धित विषयों का कोश कहा जा सकता है। इसमें तत्त्व, आचार, ज्ञान, इतिहास आदि विभिन्न विषयों का संग्रहण है। समवायांग स्थानांग की तरह समवायांग भी प्रचुर विषय वाला ग्रन्थ है "जैन साहित्य में सर्वाधिक महत्त्व द्वादशांगी को प्राप्त है। प्रस्तुत सूत्र इसका चतुर्थ अंग है। इसका नाम समवाय है। इसमें विविध विषय समवेत हैं, इसलिए इसका यह सार्थक नाम है। इनके परिच्छेदों का नाम भी समवाय है। प्रथम समवाय में एक संख्या द्वारा संगृहीत विषय प्रतिपादित है। इसी प्रकार दूसरे में दो, तीसरे में तीन की संख्या द्वारा संगृहीत विषय प्रतिपादित है। सौ समवायों तक यह क्रम बराबर चलता है। उसके आगे डेढ़ सौ, दो सौ, ढाई सौ, तीन सौ- इस प्रकार संख्या बढती जाती है, अंत में वह एक कोटि-कोटि सागरोपम तक पहुंच जाती है। यहां संख्यापरक समवाय पूर्ण हो जाता है। समवाय का मूलभाग इतना ही है। इससे आगे द्वादशांगी का प्रकरण है। उसके पश्चात् अनेक प्रकीर्ण विषयों का संकलन है। प्रस्तुत सूत्र संग्रह कोटि का है। इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का संकलन हुआ है। इसकी रचना स्थानांग जैसी है। यह एक विशिष्ट प्रकार का संकलनात्मक ग्रन्थ है। विषय-वस्तु इसमें द्वादशांगी, पूर्व साहित्य, प्रकीर्णक साहित्य का वर्णन हुआ है। खगोल, भूगोल, ब्राह्मीलिपि, कला, शीर्षप्रहेलिका आदि गणित के विषय, कर्म, क्रिया आदि विभिन्न विषयों का समावेश प्रस्तुत आगम में है। प्रस्तुत सूत्र में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की सूचना मिलती है, जैसे-भगवान् महावीर ने एक दिन में एक निषद्या में चौवन प्रश्नों के उत्तर दिए थे। ऐसा ही एक और उल्लेख प्राप्त हैभगवान् महावीर अन्तिम रात्रि में कल्याण-फल विपाक वाले पचपन अध्ययन तथा पाप 1. नंदी, सूत्र 83, ससमए ठाविज्नई, परसमए ठाविज्नई, ससमयपरसमए ठाविज्जई। 2. अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. 8 6 3. समवाओ. भूमिका पृ. 17 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 जैन आगम में दर्शन फलविपाक वाले पचपन अध्ययन प्रतिपादित कर मुक्त हो गए।' ऐसे और भी अनेक तथ्य प्रस्तुत आगम में प्रतिपादित हैं। रचनाकार एवं रचनाकाल स्थानांग जैसा ही है अत: अलग से विमर्श की आवश्यकता नहीं है। स्थानांग एवं समवायांग का महत्त्व स्थानांग एवं समवायांग का विविध-विषय सूचकता की दृष्टि से बड़ा महत्त्व रहा है। ठाणं एवं समवायांग के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए व्यवहार सूत्र में कहा गया है कि स्थानांग एवं समवायांग सूत्र के धारक व्यक्ति ही आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि होने चाहिए।' व्याख्याप्रज्ञप्ति आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने भगवई खण्ड-1 की भूमिका में भगवती की विभिन्न सन्दर्भो में विस्तार से चर्चा की है। हमने उसमें से यथा प्रसंग कतिपय तथ्यों का संचयन इसमें किया है। द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम 'विआहपण्णत्ती' है। इसका संस्कृत रूपान्तरण 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' है। प्रश्नोत्तर की शैली में लिखा जाने वाला ग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति कहलाता है। व्याख्या का अर्थ है विवेचन करना और प्रज्ञप्ति का अर्थ है समझाना। जिसमें विवेचनपूर्वक तत्त्वसमझाया जाता है उसेव्याख्याप्रज्ञप्ति कहा जाता है।समवायांग और नंदी में व्याख्याप्रज्ञप्ति और व्याख्या-ये दोनों नाम मिलते हैं। व्याख्या, व्याख्याप्रज्ञप्ति का ही संक्षिप्त रूप है। प्रस्तुत आगम का दूसरा नाम 'भगवती' है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र की अपनी विशिष्टता थी, इसलिए भगवती इसका एक विशेषण था। समवायांग में वियाहपण्णत्ती के साथ भगवती विशेषण रूप में प्रयुक्त है। आगे चलकर यह विशेषण ही नाम बन गया। इस सहस्राब्दी में व्याख्याप्रज्ञप्ति की अपेक्षा 'भगवती' नाम अधिक प्रचलित है। 'कसायपाहुड' में परिकर्म के पांच अधिकार बतलाए हैं - चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। श्वेताम्बर साहित्य में व्याख्याप्रज्ञप्ति का उल्लेख केवल द्वादशांगी के पांचवें अंग के रूप में ही मिलता है। यदि द्वादशांगी के ग्यारह अंगों को बारहवें अंग दृष्टिवाद से उद्धृत माना जाए तो दिगम्बर साहित्य के आधार पर व्याख्याप्रज्ञप्ति को परिकर्म के पांचवें अधिकार 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' से उद्धृत माना जा सकता है। इन दोनों की विषय-वस्तु भी समान है। व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म रूपी अरूपी, जीव-अजीव, भव्य-अभव्य के प्रमाण और लक्षण, मुक्त जीवों तथा अन्य वस्तुओं का वर्णन करता है। तत्त्वार्थराजवार्तिक, नंदी और समवायांग में भी व्याख्याप्रज्ञप्ति के विषय का उल्लेख मिलता है, वह भी जीव-अजीव आदि द्रव्यों के वर्णन की सूचना देता है।' 1. समवाओ, भूमिका पृ. 18 2. व्यवहारसूत्र, उद्देशक 3/7...ठाण-समवायधरेकप्पइ आयरियत्ताएउवज्झायत्ताए, पवत्तिताएथेरसाफ,गणित्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए । 3. भगवई, (खण्ड ।) भूमिका, पृ. । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 49 व्याख्या प्रज्ञप्ति : आकार एवं विषय वस्तु “समवायांग एवं नंदीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत आगम के सौ से अधिक अध्ययन, दस हजार उद्देशक और दस हजार समुद्देशक हैं। इसका वर्तमान आकार उक्त विवरण से भिन्न है। वर्तमान में इसके एक सौ अड़तीस शत या शतक और उन्नीस सौ पच्चीस उद्देशक मिलते हैं। प्रथम बत्तीस शतक स्वतंत्र हैं। तैंतीस से उनचालीस तक के सात शतक बारह-बारह शतकों के समवाय हैं। चालीसवां शतक इक्कीस शतकों का समवाय है। इकतालीसवां शतक स्वतंत्र है। कुल मिलाकर एक सौ अड़तीस शतक होते हैं। उनमें इकतालीस मुख्य और शेष अवान्तर शतक हैं। प्रस्तुत आगम के अध्ययन को शत या शतक कहा गया है। समवायांग और नंदी में व्याख्याप्रज्ञप्ति के विवरण में अध्ययन शब्द का प्रयोग एवं मूल आगम में शत शब्द का प्रयोग है, इसलिए शत और अध्ययन को पर्यायवाची माना गया है। शत का अर्थ सौ होता है। जिसमें सौ श्लोक या प्रश्न हो उसे शतक कहा जाता है। भगवती के वर्तमान रूप में इस अर्थ की कोई सार्थकता दृष्ट नहीं है। प्रस्तुत आगम के दो संस्करण मिलते हैं। एक संक्षिप्त और दूसरा विस्तृत संस्करण। विस्तृत संस्करण का ग्रन्थमान सवा लाख श्लोक प्रमाण है, इसलिए उसे सवालक्खी भगवती कहा जाता है। इन दोनों संस्करणों में कोई मौलिक भेद नहीं है। लघु संस्करण में जो समर्पण सूत्र है-पूरा विवरण देखने के लिए किसी दूसरे आगम को देखने की सूचना दी गई है। विस्तृत संस्करण में उनको पूरा लिख दिया गया है।" प्रस्तुत ग्रन्थ एक आकर ग्रन्थ है। इसमें अनेक विषयों की चर्चा उपलब्ध है। गणित, इतिहास, भूगोल, खगोल, तत्त्वविद्या आदि अनेक विषयों का विस्तार से वर्णन इसमें है। "प्रस्तुत आगम के विषय के सम्बन्ध में अनेक सूचनाएं मिलती हैं। समवायांग में बताया गया है कि अनेक देवों, राजाओं और राजर्षियों ने भगवान् से विविध प्रकार के प्रश्न पूछे और भगवान् ने विस्तार से उनका उत्तर दिया। इसमें स्वसमय, परसमय, जीव, अजीव, लोक और अलोक व्याख्यात हैं। नंदी में भी यही विषय-वस्तु व्याख्यात है। किंतु उसमें समवायांग की भांति प्रश्नकर्ताओं का उल्लेख नहीं है।' भगवती के प्रतिपाद्य विषय का आकलन करना जटिल कार्य है। आचार्य महाप्रज्ञ प्रस्तुत आगम की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए इसके विषय आकलन की दुरूहता को प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं __ “वर्तमान ज्ञान की अनेक शाखाओं ने अनेक नये रहस्यों का उद्घाटन किया है। हम प्रस्तुत आगम की गहराइयों में जाते हैं तो हमें प्रतीत होता है कि इन रहस्यों का उद्घाटन अतीत में भी 1.भगवई, (खण्ड।) भूमिका, पृ. 21-23 2. वही, पृ. 16 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन हो चुका था । प्रस्तुत आगम तत्त्वविद्या का आकर ग्रन्थ है। इसमें चेतन और अचेतन --- इन दोनों तत्त्व की विशद जानकारी उपलब्ध है। संभवत: विश्व विद्या की कोई भी ऐसी शाखा नहीं होगी जिसकी इसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में चर्चा न हो। तत्त्वविद्या का इतना विशाल ग्रन्थ अभी तक ज्ञात नहीं है । इसके प्रतिपाद्य का आकलन करना एक जटिल कार्य है । "" 50 इस आगम के विषय अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है । इनमें विभिन्न विषयों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण तथ्यों का विश्लेषण उपलब्ध है । “ऐतिहासिक दृष्टि से आजीवक संघ के आचार्य मंखलिगोशाल, जमालि, शिवराजर्षि, स्कन्दक संन्यासी आदि प्रकरण बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। तत्त्वचर्चा की दृष्टि से जयन्ती, मद्दुक श्रमणोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, भगवान् पार्श्व के शिष्य कालासवेसियपुत्त, तुंगिया नगरी के श्रावक आदि प्रकरण पठनीय हैं। गणित की दृष्टि से पार्श्वापत्यीय अनगार के प्रश्नोत्तर बहुत मूल्यवान् हैं। 2'" भगवान् महावीर के युग में अनेक धर्म सम्प्रदाय थे । साम्प्रदायिक कट्टरता बहुत कम थी । एक धर्मसंघ के मुनि और परिव्राजक दूसरे धर्मसंघ के मुनि और परिव्राजकों के पास जाते, तत्त्वचर्चा करते और जो कुछ उपादेय लगता वह मुक्त भाव से स्वीकार करते । प्रस्तुत आगम में ऐसे अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं जिनमें उस समय की धार्मिक उदारता का यथार्थ परिचय मिलता है। इसमें गतिविज्ञान, भावितात्मा द्वारा नाना रूपों का निर्माण, भोजन और नाना रूपों निर्माण का सम्बन्ध, चतुर्दशपूर्वी के द्वारा एक वस्तु के हजारों प्रतिरूपों का निर्माण, भावितात्मा द्वारा आकाशगमन, पृथ्वी आदि जीवों का श्वास- उच्छ्वास, कृष्णराजि, तमस्काय, परमाणु की गति, दूरसंचार आदि अनेक महत्त्वपूर्ण प्रकरण हैं । ' प्रस्तुत आगम भगवान् महावीर के दर्शन या तत्त्वविद्या का प्रतिनिधि सूत्र है । इसमें महावीर का व्यक्तित्व जितना प्रस्फुटित है उतना अन्यत्र नहीं है । वाल्टर शुब्रिंग के अनुसार भगवती के अतिरिक्त और कोई भी दूसरा ग्रन्थ नहीं है जिसमें महावीर का जीवन चरित्र, क्रियाकलाप इतनी प्रखरता से प्रकट हुआ हो ।' मोरिस विंटरनित्ज ( Maurice Winternitz) का अभिमत इसी प्रकार का है। उनके अनुसार भगवान् महावीर के जीवन, कार्य, उनका अपने शिष्यों के साथ एवं अपने सम्पर्क में आने वालों के साथ सम्बन्ध तथा महावीर के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का जैसा वर्णन भगवती में है वैसा अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है । ' प्रस्तुत आगम की विषय-वस्तु अत्यन्त व्यापक एवं महत्त्वपूर्ण है । 1. भगवई, (खण्ड 1 ) भूमिका, पृ. 16 2. वही, पृ. 16 3. वही, पृ. 20-21 4. Schubring, Walther, The doctrine of the Jainas, P. 89: No other texts urnished a picture of Mahavira's character and activities as distinct as that of the Viy. in spite of the style being mostly conventional. 5. Winternitz, Maurice, A History of Indian literature P. 425: This work gives a more vivid picture than any other work, of the life and work of Mahavira, his relationship to his disciples and contemporaries, and whole personality. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 51 दार्शनिक तथ्य भगवती में अनेक महत्त्वपूर्ण दार्शनिक तथ्यों का प्रतिपादन हुआ है। इसमें जैन दर्शन की अनेक प्राचीन मौलिक अवधारणाओं का उल्लेख प्राप्त है। जिनमें कुछेक का वर्णन प्रस्तुत है। व्याख्याप्रज्ञप्ति की तत्त्व विवेचना का प्रारम्भ चलमाणे चलित से होता है। भगवान् महावीर के दर्शन का एक प्रमुख सिद्धान्त है-'चलमाणे चलिए' 'कडेमाणे कडं' चलमान चलित है, क्रियमाण कृत है। क्रियमाणकृत एवं चलमान चलित का सिद्धान्त प्रथमतया अवलोकन करने से विरोधी प्रतीत होता है किन्तु ज्योंहि अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग किया जाता है, विरोध विलीन हो जाता है। यथार्थ उभरकर सामने आ जाता है। अनेकान्त भगवान् महावीर की मुख्य दृष्टि रही है। तत्त्व प्रतिपादन में इस दृष्टि का महत्त्वपूर्ण उपयोग है। एकान्त दृष्टि से चलमान-चलित में विरोध परिलक्षित होता है। एकान्त दृष्टि से अवलोकन करने से ही जमालि इसके रहस्य को पकड़ नहीं सका और भगवान महावीर की शासना से विलग हो गया। अनेकान्त की दृष्टि सेचलमान और चलित-दोनों एकक्षण में होते हैं। 'चलमाणेचलिए' इस सिद्धान्त की व्याख्या ऋजुसूत्रनय से होती है। ऋजुसूत्रनय के अनुसार जो चलमान है वह चलित ही है, जो क्रियमाण है वह कृत ही है। इसके अनुसार उत्पत्तिकाल और निष्ठाकाल अलगअलग नहीं है।' जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण अवधारणा है--पंचास्तिकाय । विश्व-विद्या के क्षेत्र में अस्तिकाय की अवधारणा जैन दर्शन की मौलिक है। लोक स्वरूप की व्याख्या में प्रस्तुत सूत्र में कहा गया 'पंचत्थिकाया एस णं एवतिए लोए त्ति' लोक पंचास्तिकायमय है।' सृष्टिविद्या के आलोक में पुद्गल की विस्रसा परिणति, मिश्र परिणति एवं प्रयोग परिणति का उल्लेख महत्त्वपूर्ण है।' कर्मविद्या के संदर्भ में अल्पवेदना-महानिर्जरा, महावेदना-अल्पनिर्जरा, अल्पवेदनाअल्प निर्जरा, एवं महावेदना-महानिर्जरा के सिद्धान्त का प्रतिपादन प्रस्तुत सूत्र में है। जीव पर कर्मों का आवेष्टन एवं परिवेष्टन है। कर्म एवं जीव के सम्बन्ध में यह प्रयोग नई दृष्टि प्रदान करता है। जीव और अजीव दोनों में अपना-अपना 'स्नेह' होता है। उसके कारण इनका परस्पर सम्बन्ध होता है। 'अण्णमण्णसिणेह पडिबद्धा' का उल्लेख एक नई अवधारणा को प्रस्तुत करता है। 1. अंगसुत्ताणि 2. (भगवई) (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, वि.सं. 2031)1/11 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 13/55 3. वही, 8/1 4. वही, 6/15-16 5. वही, 8/484 6. वही, 1/312 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52 जैन आगम में दर्शन रचना शैली भगवती की रचना शैली भी विशिष्ट प्रकार की है। इसकी शैली पर विमर्श करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ जी ने लिखा है कि- "प्रस्तुत आगम में 3 6 हजार प्रश्नों का उल्लेख है। इससे पता चलता है कि इसकी रचना प्रश्नोत्तर की शैली में की गई थी। नंदी के चूर्णिकार ने बतलाया है कि गौतम आदि के द्वारा पूछे गए प्रश्नों तथा अपृष्ट प्रश्नों का भी भगवान् महावीर ने व्याकरण किया था। वर्तमान आकार में आज भी यह प्रश्नोत्तर शैली का आगम है। प्रश्न की भाषा संक्षिप्त है ओर उनके उत्तर की भाषा भी संक्षिप्त है। ‘से नूणं भंते'-इस भाषा में प्रश्न का और 'हंता गोयमा' इस भाषा में उत्तर का आरम्भ होता है से नूणं भंते! चलमाणे चलिए। "हंता गोयमा! चलमाणे चलिए॥ प्रश्न और उत्तर की भाषा सहज सरल है। कहीं-कहीं विषय की दृष्टि के अनुसार उत्तर बहुत विस्तार से दिए गए हैं। कहीं-कहीं प्रश्न विस्तृत है और उत्तर संक्षिप्त, इसलिए प्रतिप्रश्न भी मिलता है। ‘से केणढेणं'- इस भाषा में प्रतिप्रश्न प्रारम्भ होता है और विषय का निगमन 'से तेणढेणं'- इस भाषा में होता है। भगवती की रचना की यह विशेषता भी है कि शतक के प्रारम्भ में संग्रहणी गाथा होती है। उसमें उस शतक के सभी उद्देशकों की सूची मिल जाती है। गद्य के मध्य भी संग्रहणी गाथाएं प्रचुरता से मिलती हैं।' रचनाकार और रचनाकाल स्थानांग आदि की तरह ही भगवती भी गणधर सुधर्मा प्रणीत भगवान महावीर की वाणी का संकलन रूप द्वादशांगी का पांचवा अंग है। वर्तमान में उपलब्ध प्रस्तुत ग्रन्थ देवर्धिगणी क्षमाश्रमण की वाचना का है। विद्वानों का अभिमत है कि इसके बीस शतक प्राचीन हैं और अगले शतक परिवर्धित हैं। इस संदर्भ में और भी विमर्श अपेक्षित है। पाश्चात्य विद्वान् विंटरनित्ज़ के अनुसार भगवती का पन्द्रहवां शतक एक अलग प्रकरण के रूप में था बाद में इसको भगवती के साथ जोड़ दिया गया। उनके अनुसार सम्पूर्ण पांचवां अंग जिसमें धीरे-धीरे अनेक प्रकरण जोड़ दिए गए। भगवती पर कार्य करने वाले प्राय: सभी विद्वानों ने इसे एक काल की रचना स्वीकार नहीं किया है। कालक्रम से इसके साथ नवीन जुड़ता रहा है। भगवती के कालक्रम से कई स्तर बन सकते हैं ऐसी विद्वानों की अवधारणा है। इस संदर्भ में विशेष अन्वेषण की आवश्यकता है, जिससे कुछ नवीन तथ्य प्रकाश में आ सके। 1. भगवई खण्ड-1, भूमिका पृ. 22-23| 2. Winternitz, Maurice, History of Indian Literature, P.428, It would seem that this Book XV of the Bhagavati was orginally an independent text, and indeed the whole of the fifth Anga has the appearance of a mosaic, into which various texts were inserted little by little. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा ज्ञाताधर्मकथा प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का छठा अंग है। इसके दो श्रुतस्कन्ध हैं। प्रथम श्रुतस्कन्ध का नाम 'नाया' और दूसरे श्रुतस्कन्ध का नाम 'धम्मकहाओ' है। दोनों श्रुतस्कन्धों का एकीकरण करने पर प्रस्तुत आगम का नाम 'नायाधम्मकहाओ' बनता है। 'नाया' (ज्ञात) का अर्थ उदाहरण और 'धम्मकहाओ' का अर्थ धर्म-आख्यायिका है। प्रस्तुत आगम में चरित और कल्पित दोनों प्रकार के दृष्टान्त और कथाएं हैं। जयधवला में प्रस्तुत आगम का नाम 'नाहधम्मकहा' (नाथधम्मकथा) मिलता है। नाथ का अर्थ है स्वामी। नाथधर्मकथा अर्थात् तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित धर्मकथा। कुछ संस्कृत ग्रन्थों में प्रस्तुत आगम का नाम 'ज्ञातृधर्मकथा' उपलब्ध होता है। आचार्य मलयगिरि और अभयदेवसूरि ने उदाहरण प्रधान धर्मकथा को ज्ञाताधर्मकथा कहा है। उनके अनुसार प्रथम अध्ययन में 'ज्ञात' और दूसरे अध्ययन में 'धर्मकथाएं' है। दोनों ने ही ज्ञात पद के दीर्धीकरण का उल्लेख किया है। यदि ज्ञात को दीर्घ नहीं होता तो 'नाय' होता 'नाया' नहीं होता। आकार-प्रकार प्रस्तुत आगम में दो श्रुतस्कन्ध, उनतीस अध्ययन, उनतीस उद्देशनकाल, उनतीस समुद्देशनकाल तथा पदप्रमाण से संख्येय हजार पद हैं। वर्तमान में प्राप्त इस ग्रन्थ के दो श्रुतस्कन्धों में प्रथम में उन्नीस अध्ययन तथा दूसरे में दस वर्ग है इन दोनों की संख्या मिलाने से वे उनतीस हो जाते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में यह ध्यातव्य है कि इस ग्रन्थ के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के दस वर्गों के अलग-अलग अध्ययन दिए गए हैं, जैसे-प्रथम वर्ग के पांच, द्वितीय वर्ग के पांच, तृतीय वर्ग के चौवन, चतुर्थ वर्ग के चौवन, पंचम वर्ग के बत्तीस, षष्ठ के बत्तीस, सप्तम वर्ग के चार, अष्टम वर्ग के चार, नवम वर्ग के आठ एवं दशम वर्ग के भी आठ अध्ययनों का उल्लेख है। नंदी में अध्ययनों की संख्या उनतीसदी हैइस संख्या का मेल प्रथम श्रुतस्कन्ध के अध्ययन एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध के वर्ग मिलाने से ही बैठता है। पाश्चात्य विद्वान् विंटरनित्ज़ ने इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध के इक्कीस अध्ययन बतलाये हैं। किंतु उनकी यह सूचना प्रस्तुत आगम के संदर्भ में समीचीन नहीं है क्योंकि इस श्रुतस्कन्ध के उन्नीस अध्ययन ही उपलब्ध हैं, इक्कीस नहीं हैं। 1. अंगसुत्ताणि-3 भूमिका पृ. 21 में उद्धृत - (समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सूत्र 94, तत्त्वार्थवार्तिक, 1/20, ज्ञातृधर्मकथा, नंदीवृत्ति (ले. आचार्य हरिभाद्र, बनारस, 1966) पत्र 2 30, 2 3 1 :ज्ञातानि-उदाहरणानितत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा:, अथवा ज्ञातानि-ज्ञाताध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कन्धे, धर्मकथा द्वितीय- श्रुतस्कन्धे यासु ग्रन्थपद्धतिष (ता ज्ञाताधर्मकथा: पुषोदरादित्वात्पूर्वपदस्य दीर्घान्तता।) . 2. नंदी, सूत्र 86 . Book 3. Winternitz., Maurice, History of Indian literature P. 428-429: The sixth Anga............. lofthis Anga consists of 21 chapters. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 जैन आगम में दर्शन विषय-वस्तु नंदी सूत्र के अनुसार ज्ञाताधर्मकथा में ज्ञातों (दृष्टांतभूत व्यक्तियों) के नगर, उद्यान, चैत्य, वनषंड, समवसरण, राजा, माता-पिता, धर्माचार्य, धर्मकथा, इहलोक-परलोक की ऋद्धिविशेष, भोग-परित्याग, प्रव्रज्या, दीक्षा पर्याय का काल, श्रुतग्रहण, तप-उपधान, संलेखना, भक्त-प्रत्याख्यान, प्रायोपगमन अनशन, देवलोकगमन, सुकुल में पुनरागमन, पुन: बोधिलाभ और अन्तक्रिया का आख्यान किया गया है। धर्मकथा के दस वर्ग हैं। प्रत्येक धर्मकथा में पांच-पांच सौ आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक आख्यायिका में पांच-पांच सौ उप-आख्यायिकाएं हैं। प्रत्येक उप-आख्यायिकाएं में पांचपांच सौ आख्यायिकाएं-उपाख्यायिकाएं हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर इसमें साढे तीन करोड़ आख्यायिकाएं हैं।' वर्तमान में प्राप्त प्रस्तुत आगम में दृष्टान्तों और कथाओं के माध्यम से अहिंसा, अस्वाद, श्रद्धा, इन्द्रिय-विजय आदि आध्यात्मिक तत्त्वों का अत्यन्त सरस शैली में निरूपण किया गया है। कथावस्तु के साथ वर्णन की भी विशेषता है। मुख्य उदाहरणों के साथ कुछ अवान्तर कथाएं भी उपलब्ध है। इस प्रकार नाना कथाओं, अवान्तर कथाओं, वर्णनों, प्रसंगों और शब्द प्रयोगों की दृष्टि से प्रस्तुत आगम बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। इसका विश्व के विभिन्न कथा-ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर कुछ नए तथ्य उपलब्ध हो सकते हैं।' उपासकदशा श्रावकों की धर्माराधना का वर्णन करने वाला यह महत्त्तवपूर्ण आगम है। "प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का सातवां अंग है। इसमें दस उपासकों का जीवन वर्णित है। इसलिए इसका नाम 'उवासगदसाओ' है। श्रमण परम्परा में श्रमणों की उपासना करने वाले गृहस्थों को श्रमणोपासक या उपासक कहा गया है। भगवान् महावीर के अनेक उपासक थे। उनमें से दस मुख्य उपासकों का वर्णन करने वाले दस अध्ययन इसमें संकलित हैं। 'दशा' शब्द दस संख्या एवं अवस्था दोनों का सूचक है। उपासकदशा में उपासकों की कथाएं दस ही है अत: दस संख्यावाचक अर्थ उपयुक्त है। इसी प्रकार उपासकों की अवस्था का वर्णन करने के कारण अवस्थावाची अर्थ भी हो सकता है। उपासकदशा : आकार एवं विषय वस्तु नंदी में प्रस्तुत आगम को एक श्रुतस्कन्ध वाला बताया है। इसके दस अध्ययन, दस उद्देशनकाल, दस समुद्देशनकाल तथा पदप्रमाण से संख्येय हजार पद है। वर्तमान में भी यह ग्रन्थ एक श्रुतस्कन्ध वाला है तथा इसके दस अध्ययन हैं। उद्देशक, समुद्देशक का उल्लेख उपलब्ध नहीं है। 1. नंदी, सूत्र 86 2. अंगसुत्ताणि - 3, भूमिका पृ. 2 2 3. वही, पृ. 23 4. नंदी, सूत्र 87 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 55 भगवान् महावीर ने मुनिधर्म और उपासकधर्म-इस द्विविध धर्म का उपदेश दिया था। मुनि के लिए पांच महाव्रत और उपासक के लिए बारह व्रतों का विधान किया। प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन में उन बारह व्रतों का विशद वर्णन प्राप्त है। व्रतों की यह सूची धार्मिक या नैतिक जीवन की प्रशस्त आचार-संहिता है। श्रमणोपासक आनन्द भगवान् महावीर के पास इन व्रतों की दीक्षा लेता है। __ मुनि का आचार-धर्म अनेक आगमों में मिलता है, किंतु गृहस्थ का आचार-धर्म मुख्यत: इसी आगम में प्राप्त है। इसलिए आचार-शास्त्र में इसका मुख्य स्थान है। इसकी रचना का मुख्य प्रयोजन गृहस्थ के आचार का वर्णन करना है। प्रसंगवश इसमें नियतिवाद के पक्षविपक्ष की चर्चा हुई है। उपासकों की धार्मिक कसौटी की घटनाएं भी मिलती हैं। जयधवला के अनुसार प्रस्तुत आगम में उपासकों के दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रकार के धर्म का वर्णन है। आनन्द आदि श्रावकों ने उक्त ग्यारह प्रतिमाओं का आचरण किया था। व्रत और प्रतिमा- ये दो पद्धतियां हैं। समवायांग और नंदीसूत्र में व्रत और प्रतिमा दोनों का उल्लेख मिलता है। जयधवला में केवल प्रतिमाओं का उल्लेख है।' अंतकृतदशा अंतकृतदशा द्वादशांगी का आठवां अंग है। इसका संस्कृत रूप अंतकृतदशा अथवा अंतकृत्दशा है। इस आगम में संसार का अन्त अर्थात् भव-भ्रमण को समाप्त करने वाले व्यक्तियों के जीवन का निरूपण है तथा इसके दस अध्ययन है, अतः इसे अन्तकृतदशा कहा गया है। समवायांग में इसके दस अध्ययन एवं सात वर्गों का उल्लेख है। नंदी में इसके आठ वर्गों का उल्लेख है। नंदीचूर्णि ने प्रथम वर्ग में दस अध्ययन एवं सात वर्ग बताए हैं तथा दस की संख्या के आधार पर इसे अन्तकृतदशा कहा है। वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृतदशा में समवाओ उल्लिखित दस अध्ययन एवंसात वर्ग उपलब्ध नहीं है। नन्दी वर्णित आठ वर्गात्मक ही उसका वर्तमान स्वरूप है। अन्तकृतदशा में आगत दशशब्द संख्या के अतिरिक्त अवस्था अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है।' तत्त्वार्थवार्तिक के वर्णन के अनुसार प्रत्येक तीर्थंकर के समय होने वाले दस-दस अंतकृत केवलियों का वर्णन इस आगम में है। जयधवला में भी यह तथ्य प्रतिपादित है।' 1. अंगसुत्ताणि (3) भूमिका पृ. 23 2. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सूत्र 9 6 : दस अज्झयणा सत्तवग्गा। 3. नंदी, सूत्र 88.........अट्ठवग्गा। 4. (क) नंदी, सूत्र, चूर्णि सहित, पृ. 68 : पढमवग्गे दस अज्झयणा सत्त वग्गा तस्सक्खत्तो अंतकडदस त्ति। (ख) नंदी, सूत्र, वृत्ति सहित, पृ. 8 3 : प्रथमवर्गे दशाध्ययनानि इति तत्संख्यया अन्तकृद्दशा इति। 5. नंदी सूत्र, चूर्णिसहित, पृ. 68 : दस त्ति-अवत्था । 6. तत्त्वार्थवार्तिक, 1/20 1. कसायपाहुड, भाग 1, पृ. 130 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 जैन आगम में दर्शन विषय-वस्तु वासुदेव कृष्ण और उनके परिवार के सम्बन्ध में इस आगम में विशद जानकारी मिलती है। वासुदेव कृष्ण के छोटे भाई गजसुकुमाल की दीक्षा और उनकी साधना का वर्णन बहुत ही रोमांचकारी है।' __ छठे वर्ग में अर्जुनमालाकार की घटना का उल्लेख है। बाह्य परिस्थिति से किस प्रकार व्यक्ति के आन्तरिक भावों में परिवर्तन आ जाता है, यह इस घटनाक्रम से स्पष्ट होता है। अर्जुनमालाकार बाह्य निमित्त से हत्यारा बन जाता है तथा बाह्य निमित्त को प्राप्त कर ही साधु बन जाता है। उपादान के साथ निमित्त काभी महत्त्व है। प्रस्तुत घटनाक्रम में यह सत्य अभिव्यक्त हुआ है। इस आगम में अतिमुक्तक आदि साधकों के उल्लेख तथा बाह्य तपस्या का विशद वर्णन हुआ है। अनुत्तरोपपातिक दशा जैन-परम्परा में सौधर्म आदि बारह स्वर्ग, नव ग्रैवेयक एवं पांच अनुत्तर विमान- ये छब्बीस प्रकार के देवलोक माने गए हैं। विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध ये पांच अनुत्तर विमान हैं। इनसे श्रेष्ठ अन्य विमान नहीं है अतः इन्हें अनुत्तर विमान कहते हैं। जो व्यक्ति अपने तप साधना के द्वारा इन विमानों में उपपात अर्थात् जन्म प्राप्त करते हैं उन्हें अनुत्तरोपपातिक कहा जाात है। जिस आगम में इस स्वर्ग समूह में उत्पन्न होने वाले व्यक्तियों का वर्णन है उसे अनुतरोपपातिकदशा के नाम से अभिहित किया गया है। अनुत्तरोपपातिक दशा : आकार एवं विषय वस्तु यह अंगों में नवम अंग है। उसके एक श्रुत-स्कन्ध, तीन वर्ग, तीन उद्देश्य काल, तीन समुद्देशन-काल आदि हैं। स्थानांग में इसके दस अध्ययन एवं समवायांग में दस अध्ययन एवं तीन वर्ग दोनों का उल्लेख है। वर्तमान में इस आगम का स्वरूप तीन वर्गात्मक है। विषयवस्तु अनुत्तरोपपातिकदशा में अनुत्तरोपपातिक मनुष्यों के नगर, उद्यान, चैत्य, वनखण्ड, समवसरण, राजा, माता-पिता आदि तथा अनुत्तरविमान में देवों के रूप में उत्पत्ति, सुकुल में पुनरागमन, पुनर्बोधिलाभ और अन्त क्रिया आदि का वर्णन है।' 1. अंगसुत्ताणि, भाग 3, (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, वि.सं. 20 3 1) भूमिका पृ. 25 2. नंदी सूत्र, 891 3. ठाणं, 10/114 4. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, 97 : दस अज्झयणा तिण्णि वग्गा.... 5. नंदी सूत्र, 89 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 57 प्रश्नव्याकरण इस आगम का द्वादशांगी में दसवां स्थान है। पणहावागरणाइं' अथवा पण्हावागरणदसाओ ये दो नाम प्रस्तुत आगम के उपलब्ध होते हैं। विषयवस्तु इस आगम की विषय वस्तु के सम्बन्ध में समवायांग, नंदी आदि आगमों के वर्णन में भिन्नता है। समवायांग के अनुसार इसमें एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ आठ अप्रश्न, एक सौ आठ प्रश्न-अप्रश्न, विद्या के अतिशय तथा नाग और सुपर्ण देवों के साथ हुए दिव्य संवादों का उल्ले ख है।' तत्त्वार्थ के वर्णन के अनुसार इसमें अनेक आक्षेप-विक्षेप के द्वारा हेतु और नय आश्रित प्रश्नों के समाधान है तथा लौकिक एवं वैदिक अर्थों का भी निर्णय इसमें है।' उक्त ग्रन्थों में प्रस्तुत आगम का जो विषय वर्णित है वह आज उपलब्ध नहीं है। आज जो उपलब्ध है उसमें पांच आश्रवों तथा पांच संवरों का वर्णन है। इस संदर्भ में यह अनुमान भी किया जा सकता है कि प्रस्तुत आगम के प्राचीन स्वरूप के विच्छिन्न हो जाने पर किसी आचार्य द्वारा नए रूप से इसकी रचना की गई हो। नंदी में प्रस्तुत आगम की जिस वाचना का विवरण है, उसमें आश्रवों और संवरों का वर्णन नहीं है, किंतु नंदीचूर्णि में उनका उल्लेख मिलता है। यह संभव है कि चूर्णिकार ने उपलब्ध आकार के आधार पर उनका उल्लेख किया है।' विपाकसूत्र विपाकसूत्र का द्वादशांगी के क्रम में ग्यारहवां स्थान है। विवागसुयं एव कम्मविवागदसा' ये दो नाम प्रस्तुत आगम के उपलब्ध होते हैं। विषयवस्तु एवं आकार दुःख विपाक एवं सुख विपाक नामक दो विभागों में यह प्रस्तुत आगम विभक्त है। विपाकसूत्र के प्रारम्भ में ही सुधर्मा स्वामी एवं जम्बूस्वामी का विस्तृत परिचय उपलब्ध है। इस आगम के दो श्रुत स्कन्ध बताए गए हैं। दुःख विपाक एवं सुख विपाक- दोनों के ही दसदस अध्ययन हैं। 1. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, 98 (ख) नंदी सूत्र, 90 2. ठाणं, 10/110 3. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, 98 4. तत्त्वार्थवार्तिक, 1/20 5. अंगसुत्ताणि, भाग 3, भूमिका पृ. 28 6. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, 99 7. ठाणं, 10/110 8. अंगसुत्ताणि, भाग 3 (विपाकसूत्र)2/10/2:कापरिशेष-विवागसुयस्सदोसुयक्खंधा दुहविवागोसुहविवागो य। तत्थ दुहविवागे दस अज्झयणा...........एवं सहविवागे वि। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58 जैन आगम में दर्शन दृष्टिवाद __ यह द्वादशांगी का बारहवां अंग है किंतु वर्तमान में अनुपलब्ध है। दिट्ठिवाय के संस्कृत रूप दो किए गए हैं- 1. दृष्टिवाद 2. दृष्टिपात। प्रस्तुत अंग में विभिन्न दार्शनिकों की दृष्टियों का निरूपण है इसलिए इसकी संज्ञा दृष्टिवाद है। इसका दूसरा अर्थ है कि इसमें सब दृष्टियों का समपात है इसलिए इसका नाम दृष्टिपात है। स्थानांग में दृष्टिवाद के दस नाम बतलाए गए हैं-1. दृष्टिवाद 2. हेतुवाद 3. भूतवाद 4. तत्त्ववाद (तथ्यवाद) 5. सम्यक्वाद 6. धर्मवाद 7. भाषा विचय 8. पूर्वगत 9. अनुयोगगत 10. सर्वप्राणभूत-जीवसत्त्वसुखावह। दृष्टिवाद के पांच प्रकार अथवा पांच अर्थाधिकार बतलाए गए हैं- 1. परिकर्म 2. सूत्र 3. पूर्वगत 4. अनुयोग 5. चूलिका। परिकर्म का अर्थ योग्यता पैदा करना है। जैसे गणित के सोलह परिकर्म होते हैं उनके सूत्र और अर्थ का ग्रहण करने वाला शेष गणित के अध्ययन के योग्य बन जाता है। इसी प्रकार परिकर्म के सूत्र और अर्थ को ग्रहण करने वाले में सूत्र, पूर्वगत आदि के अध्ययन करने की योग्यता आ जाती है। परिकर्मकेमूलभेद और उत्तरभेद विच्छिन्न हैं। उनकी सूत्र और अर्थपरम्परादोनों उपलब्ध नहीं है। चूर्णिकार ने इतना संकेत किया है कि वे अपने-अपने सम्प्रदाय के अनुसार वक्तव्य है। सूत्र के बावीस प्रकार बतलाए गए हैं। चूर्णिकार के अनुसार इन सूत्रों से सर्वद्रव्य, सर्वपर्याय, सर्वनय और सर्वभंगों की विकल्पना जानी जाती है। ये पूर्वगत श्रुत और उसके अर्थ के सूचक हैं। इसलिए इन्हें सूत्र कहा गया है। ___पूर्वगत-पूर्वशब्द के अनेक तात्पर्यार्थ बतलाए गए हैं--1. तीर्थंकर तीर्थ प्रवर्तन के काल में सर्वप्रथम पूर्वगत के अर्थ का निरूपण करते हैं। उस अर्थ के आधार पर निर्मित ग्रन्थ पूर्व कहलाते हैं। पूर्वो की संख्या चौदह हैं- 1. उत्पाद 2. अग्रायणीय 3. वीर्य 4. अस्तिनास्तिप्रवाद 5. ज्ञानप्रवाद 6. सत्य प्रवाद 7. आत्मप्रवाद 8. कर्म प्रवाद 9. प्रत्याख्यान । 0. विद्यानुप्रवाद 11. अवन्ध्य 12. प्राणायु 1 3. क्रियाविशाल एवं 14. लोकबिन्दुसार।' अनुयोग के दो विभाग प्राप्त हैं1. मूलप्रथमानुयोग- इसमें अर्हत् का जीवन वर्णित है। 2. गण्डिकानुयोग (कण्डिकानुयोग)-इसमें कुलकर आदि अनेक व्यक्तियों के जीवन का वर्णन है। गण्डिकानुयोग केवल जीवन का वर्णन करने वाला ग्रन्थ नहीं है किंतु वह इतिहास ग्रन्थ । भी है। चूर्णिकार तथा मलयगिरि ने 'गण्डिका' का अर्थ खण्ड किया है। ईख के एक पर्व से दूसरे 1. नंदी पृ. 181-182 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 59 पर्व का मध्यवर्ती भाग गण्डिका कहलाता है वैसे ही जिस ग्रन्थ में एक व्यक्ति का अधिकार होता है उस ग्रन्थ की संज्ञा गण्डिका या कण्डिका है। चूलिका को आज की भाषा में परिशिष्ट कहा जा सकता है। चूर्णिकार ने बताया है कि परिकर्म, सूत्र, पूर्व और अनुयोग में जो नहीं बतलाया है वह चूलिका मे बतलाया गया है। हरिभद्रसूरि के अनुसार चूलिका में उक्त और अनुक्त दोनों का ही उल्लेख है।' द्वादशांगो का यह अंतिम अंग वर्तमान में अनुपलब्ध है। अंग बाह्य आगम __ जैन आगम साहित्य का प्राचीन वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य इन दो विभागों में उपलब्ध है। उपांग नाम का वर्गीकरण प्राचीनकाल में नहीं था। नंदीसूत्र में उपांग का उल्लेख नहीं है। नंदी से पहले के भी किसी आगम में उपांग की कोई चर्चा नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य में उपांग शब्द का प्रयोग मिलता है।' उपलब्ध प्रयोगों में सम्भवत: यह सर्वाधिक प्राचीन है किंतु यहां द्रष्टव्य है कि तत्त्वार्थभाष्य में श्रुतज्ञान के अंगबाह्य एवं अंगप्रविष्ट ये दो भेद किए हैं तथा संभव है वहां अंगबाह्य के लिए उपांग शब्द का प्रयोग हुआ हो किंतु अंगबाह्य के भेदरूप में जिन ग्रन्थों का नाम वहां उल्लिखित है उनमें से एक भी नाम वर्तमान में प्रचलित उपांगों का नहीं है अत: नाम साम्य के आधार पर हम उपांग व्यवस्था को तत्त्वार्थभाष्य जितनी प्राचीन नहीं मान सकते। भाष्यकार एक स्थान को छोड़कर सर्वत्र अंगबाह्य शब्द का ही प्रयोग करते हैं। अत: यह स्पष्ट है कि वर्तमान में प्रचलित आगम वर्गीकरण की व्यवस्था पर्याप्त अर्वाचीन है। वर्तमान में जिन उपांगों का उल्लेख है तथा उनका सम्बन्ध क्रमश: एक-एक अंग के साथ जोड़ा गया है इसकी चर्चा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति की वृत्ति तथा निरयावलिका के वृत्तिकार श्रीचन्द्रसूरि द्वारा रचित सुखबोधा समाचारी नामक ग्रन्थ में मिलती है। संभव है इन उत्तरवर्ती आचार्यों ने 'उपांग' शब्द का ग्रहण तत्त्वार्थभाष्य से कर लिया हो तथा वैदिक साहित्य में वेद में अंग, उपांगों का उल्लेख है, अत: वैसी ही किसी व्यवस्था को ध्यान में रखकर अंगों के साथ उपांगों की योजना की हो। वर्तमान में मान्य बारह उपांगों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है। 1.औपपातिक-प्रस्तुत आगम बारह उपांगों में प्रथम उपांग है। इसको आचारांग का उपांग माना जाता है। इसके समवसरण एवं औपपातिक नाम के दो प्रकरण हैं। मुख्य वर्ण्यविषय इसका पुनर्जन्म है। उपपात मुख्य प्रतिपाद्य होने से ही इसका नाम औपपातिक हुआ है। नंदी पृ. 185 सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र (संपा. पं. खूबचन्द्र, अगास, 1932) 1/20 : तस्य च महाविषयत्वात्तांस्तान नधिकृत्य प्रकरणसमाप्त्य-पेक्षमंगोपांगनानात्वम् । 3. सुखबोधा सामाचारी, पृ. 34 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 जैन आगम में दर्शन 2. राजप्रश्नीय-प्रस्तुत आगम का क्रम उपांग नम्बर दो पर है। यह सूत्रकृतांग के उपागं के रूप में स्वीकृत है। नंदी में इसको रायपसेणिय नाम से अभिहित किया है। राजा प्रदेशी द्वारा पृष्ट प्रश्न तथा केशीकुमार द्वारा प्रदत्त समाधानों का इसमें संग्रहण है इसलिए इसे राज प्रश्नीय कहा जाता है। इस आगम में सूरियाम एवं पएसि कहाणग नाम के दो प्रकरण हैं। प्रदेशी कथानक में जीव सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण विचार है। आत्मा के वजन सम्बन्धी विचार भी वहां पर है। 3.जीवाजीवाभिगम-प्रस्तुत आगम संख्या क्रम में तीसरा उपांग है। इसका सम्बन्ध स्थानांग से है। जीवाजीवाभिगम नाम से ही इसकी विषय वस्तु का स्पष्ट अवबोध हो जाता है। जीव एवं अजीव इनदोमूलभूत तत्वों का इसमें विशेष रूप से प्रतिपादन हुआ है। इस आगम के प्रारम्भ में प्राप्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह स्थविरों द्वारा कृत रचना है। 4. प्रज्ञापना-उपांग साहित्य के क्रम में प्रज्ञापना का चतुर्थ स्थान है। इसमें छत्तीस पद हैं। इसमें प्रश्नोत्तर शैली सेतत्त्व का प्रपिपादन किया गया है अतः इसका प्रज्ञापना नाम सार्थक है। इस ग्रन्थ के प्रथम पद का नाम भी प्रज्ञापना है। इस आदि पद के कारण भी संभवतः यह आगम प्रज्ञापनानामसे प्रसिद्ध होगया है। इसमें मुख्य रूपसेजीवएवं अजीव तत्त्वकी विमर्शना है। जीव-अजीवसे सम्बन्धित विषय जैसे जीव के विभाग, लेश्या, कर्म आदि पर गहन विचार हुआ है। यह जैन तत्त्वविद्या का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। प्रज्ञापना का वैशिष्ट्य इसी बात से ज्ञात हो जाता है कि आगम संकलनकार देवर्धिगणी ने प्रज्ञापना के अनेक विषयों का समाहार भगवती में किया है। प्रज्ञापना के कर्ता के रूप में आचार्य श्याम का नाम प्रसिद्ध है। विद्वान् इसका संभावित रचनाकाल वीर निर्वाण के 335 से 375 के मध्य मानते हैं। प्रज्ञापना को चालू परम्परा में समवायांग का उपांग माना जाता है, किन्तु इसकी विषय वस्तु आदि के अवलोकन के आधार पर आचार्य महाप्रज्ञजी ने अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहा कि "प्रज्ञापना को भगवती का उपांग माना जाता तो अधिक बुद्धिगम्य होता।'' 5. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति-अंगो की तरह उपांगों का भी क्रम निर्धारित है। प्रस्तुत आगम पांचवा उपागं है। इसको क्रम संख्या के अनुसार भगवती का उपांग माना जाता है। इसमें जम्बूद्वीप का विषय निरूपित हुआ है अतः इसका नाम जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति है। 1. नंदी, सूत्र, 77 2. (क) रायपसेणियवृत्ति, पृ. 1 : अथ कस्माद् इदमुपांगं राजप्रश्नीयाभिधानमिति? उच्यते, इह प्रदेशिनामा राजा भगवत: केशिकुमार-श्रमणस्य समीपे यान् जीवविषयान् प्रश्नानकार्षीत्, यानि च तस्मै केशिकुमारश्रमणो गणभृत् व्याकरणानि व्याकृतवान्। (ख)रायपसेणियवृत्ति, पृ. 2 : राजप्रश्नेषु भवं राजप्रश्नीयम् । 3. उवंगसुत्ताणि (खण्ड-4) (जीवाजीवाभिगमे) (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1987)1/। 4. वही, 4 (खण्ड - 2) भूमिका पृ. 30 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 61 6-7. चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति में चन्द्र विषयक विषय का निरूपण होने से इसे चन्द्रप्रज्ञप्ति कहा गया। यह छठा उपांग है। सूर्य सम्बन्धी विषय का वर्णन होने से सातवें उपांग का नाम सूर्यप्रज्ञप्ति है। वर्तमान में चंद्रप्रज्ञप्ति अनुपलब्ध है। मात्र उसका प्रारम्भिक थोड़ा-सा भाग उपलब्ध है। यद्यपि कुछ हस्तलिखित प्रतियां चन्द्रप्रज्ञप्ति के नाम से मिलती हैं। किन्तु प्रारम्भिक विवरण को छोड़कर अन्य सारा सूर्यप्रज्ञप्ति जैसा ही है। वर्तमान धारणा के अनुसार चन्द्रप्रज्ञप्ति अनुपलब्ध है, जो उपलब्ध है वह सूर्यप्रज्ञप्ति है। निरयावलिका (8-12) "प्रस्तुत आगम एक श्रुतस्कन्ध है। इसका प्राचीनतम नाम उपांग-प्रतीत होता है। जम्बूस्वामी के उपांग सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने उपांग के पांच वर्ग बतायेनिरयावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा । “निरयावलिका" का दूसरा नाम ‘कल्पिका' है। यह संभावना की जा सकती है कि 'उवंगा' के प्रथम वर्ग का नाम 'कल्पिका' था, किंतु नरक-परिणाम वाले कर्मों का वर्णन होने के कारण इसका दूसरा नाम 'निरयावलिका' रख दिया गया। इस प्रकार प्रथम वर्ग के दो नाम हो गए-निरयावलिका और कल्पिका। निरयावलिका श्रुतस्कन्ध का प्रतिपाद्य विषय है-शुभ-अशुभ आचरण, शुभअशुभ कर्म और उनका विपाक।। संभवत: निरयावलिका से वृष्णिदशा तक के पांच उपांग पहले एक ही ग्रन्थ के रूप में रहे हो। जब उपांगों के संदर्भ में बारह की संख्या योजित की तब उनका अलग से परिगणन होने लगा हो। यह विंटरनित्ज़ का अभिमत है।' 9. कल्पावंतसिका-इसमें पद्म, महापद्म नाम के दस अध्ययन हैं, उनमें से इन्हीं नाम वाले दस राजकुमारों का वर्णन है। 10. पुष्पिका में भी चन्द्र, सूर आदि दस अध्ययन हैं। 11. पुष्पचुला में भी सिरि, हिरि आदि दस अध्ययन हैं। 12. वृष्णेिदशा में निषढ, माअणि आदि बारह अध्ययन हैं। इन सभी उपांगों में पौराणिक कथानकों का वर्णन हुआ है। उन पात्रों के इहभव-परभव की स्थिति का उल्लेख प्रस्तुत ग्रंथों में है। 1. उवंगसुत्ताणि 4, (खण्ड- 2) भूमिका पृ. 3 5. 2. Winternitz, Maurice, History of Indian Literature P. 440: Upangas 8-12 are sometimes also comprised as five sections of one textentitle Nirayavali-Suttam. Probably, they originally formed one text, the tive sections of which were then counted as five different texts, in order to bring the number of Upanga up to twelve. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 जैन आगम में दर्शन मूलसूत्र 1. अंग 2. उपांग 3. मूल और 4. छेद - यह वर्गीकरण बहुत प्राचीन नहीं है। विक्रम की 1 3 - 1 4 वीं शताब्दी से पूर्व इस वर्गीकरण का उल्लेख प्राप्त नहीं होता। मूल सूत्रों की संख्या और नामों के संदर्भ में श्वेताम्बर सम्प्रदायों में एकरूपता नहीं है। जहां तक उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का प्रश्न है, इन्हें सभी श्वेताम्बर सम्प्रदायों एवं आचार्यों ने एकमत से मूलसूत्र माना है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी आवश्यक एवं पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। वे नंदी और अनुयोग द्वार को मूलसूत्र मानते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में कुछ आचार्यों ने पिण्डनियुक्ति के साथ-साथ ओघनियुक्ति को भी मूलसूत्र में माना है। ये ग्रन्थ मूलसूत्र क्यों कहे जाते हैं, इसका स्पष्टीकरण उपलब्ध नहीं है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार 'चूर्णिकालीन श्रुत-पुरुष की स्थापना के अनुसार मूल स्थानीय (चरण-स्थानीय) दोसूत्र हैं - 1.आचारांग और 2. सूत्रकृतांग । परन्तु जिस समयपैंतालीस आगमों की कल्पना स्थिर हुई, उस समय श्रुत-पुरुष की स्थापना में भी परिवर्तन हुआ और श्रुत-पुरुष की अर्वाचीन प्रतिकृतियों में दशवैकालिक और उत्तराध्ययन-ये दो सूत्र चरण स्थानीय माने जाने लगे।' उपर्युक्त अवधारणा से मूल का अर्थ हो जाता है-चरण । उत्तराध्ययन एवं दशवकालिक को चरण स्थानीय मानकर मूल कहा जा सकता है किन्तु मूलसूत्रों की कम-से-कम चार संख्या तो सबने मानी है, कुछ ने अधिक भी मानी है। उन अन्य ग्रन्थों का मूलसूत्र में समावेश करने की युक्ति अब भी अन्वेषणीय है। अंग और उपांग की संख्या सभी श्वेताम्बर जैनों ने एक जैसी मानी है किन्तु मूल, छेद आदि संख्या में उनमें मतैक्य नहीं है । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक के अनुसार मूलसूत्र- 1. उत्तराध्ययन 2. दशवैकालिक 3. आवश्यक 4. पिण्डनियुक्ति किसी ने ओघनियुक्ति को भी मूल माना है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी के अनुसार मूल सूत्र-1. उत्तराध्ययन 2. दशवैकालिक 3. अनुयोगद्वार एवं 4. नंदी है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा अनुयोगद्वार एवं नंदी को चूलिका सूत्र के अन्तर्गत मानती है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि सम्पूर्ण श्वेताम्बर परम्परा अनुयोगद्वार एवं नंदी को आगम श्रृंखला में स्वीकार करती है भले ही उनका समावेश भिन्न-भिन्न प्रकार से क्यों न किया गया हो। 1. उत्तरज्झयणाणि (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1993) भूमिका, पृ. 15 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 63 छेदसूत्र छेदसूत्रों में जैन साधुओं के आचार से सम्बन्धित विषय का पर्याप्त विवेचन किया गया है। इस विवेचन को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है-उत्सर्ग, अपवाद, दोष और प्रायश्चित्त । उत्सर्ग का अर्थ है किसी विषय का सामान्य विधान । अपवाद का अर्थ है परिस्थिति विशेष की दृष्टि से विशेष विधान अथवा छूट । दोष का अर्थ है उत्सर्ग अथवा अपवाद का भंग, प्रायश्चित्त का अर्थ है व्रतभंग के लिए समुचित दण्ड । किसी भी विधान अथवा व्यवस्था के लिए ये चार बातें आवश्यक होती हैं। छेदसूत्रों का जैनागमों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन संस्कृति का श्रमण-धर्म है। श्रमणधर्म की सिद्धि के लिए आचार-धर्म की साधना अनिवार्य है। आचार-धर्म के गूढ रहस्य एवं सूक्ष्मतम क्रियाकलाप को समझने के लिए छेद-सूत्रों का ज्ञान अनिवार्य है। छेदसूत्र के माध्यम से ही जैन आचार की सर्वांगीणता हृदयंगम हो सकती है। छेदसूत्रों की संख्या के सम्बंध में श्वेताम्बर परम्परा में एकरूपता नहीं है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा चार छेदसूत्र मानती हैं- 1. दशाश्रुतस्कन्ध 2. बृहत्कल्प 3. व्यवहार एवं 4. निशीथ । जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय महानिशीथ एवं जीतकल्प ये दो सूत्र मिलाकर छह छेद सूत्र मानती है। आगम-साहित्य की संख्या मूलत: आगम साहित्य अंग प्रविष्ट एवं अंगबाह्य इन दो भागों में विभक्त था । परवर्ती काल में अंगबाह्य आगम पांच भागों में विभक्त हो गया-1. उपांग 2. मूलसूत्र 3. छेदसूत्र 4. चूलिका सूत्र 5. प्रकीर्णक। आगमों की संख्या के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं। उनमें तीन मुख्य हैं- 1. चौरासी 2.पैंतालीस 3. बत्तीस। 11 अंग, 1 2 उपांग, 4 मूल, 6 छेद, 10 प्रकीर्णक, 2 चूलिकासूत्र-येपैंतालीस आगम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में मान्य हैं। स्थानकवासी एवं तेरापंथी इनमें से 10 प्रकीर्णक, जीतकल्प, महानिशीथ और पिण्डनियुक्ति इन तेरह ग्रंथों को कम करके बत्तीस आगम मान्य करते हैं। __ जो चौरासी आगम मान्य करते हैं वे दस प्रकीर्णकों के स्थान पर तीस प्रकीर्णक मानते हैं। इसके साथ दस नियुक्तियां, यतिजीतकल्प, श्राद्धजीतकल्प, पाक्षिकसूत्र, क्षमापना सूत्र, वन्दित्तु, तिथिप्रकरण, कवचप्रकरण, संशक्तनियुक्ति और विशेषावश्कभाष्य को भी आगमों में सम्मिलित करते हैं।' 1. जैन, सागरमल, सागर जैन विद्या भारती, भाग 2, (वाराणसी, 1995) पृ. 9 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 जैन आगम में दर्शन दस प्रकीर्णक प्रकीर्णक अर्थात् विविध । भगवान्महावीरकेचौदह हजार श्रमण शिष्यथे। नंदी में भगवान् । महावीर के चौदह हजार ही प्रकीर्णक माने गए हैं। वर्तमान में प्रकीर्णकों की संख्या मुख्यतया दस मानी जाती है। इन दस नामों में भी एकरूपता नहीं है। निम्नलिखित दस नाम विशेष रूप से मान्य हैं 1. चतु:शरण 2. आतुर - प्रत्याख्यान 3. महाप्रत्याख्यान 4. भक्तपरिज्ञा 5. तन्दुलवैचारिक 6. संस्तारक 1. गच्छाचार 8. गणिविद्या 9. देवेन्द्रस्तव 10. मरणसमाधि। ___ आगमों की बत्तीस संख्या मानने वाले प्रकीर्णक को आगम के अन्तर्गत नहीं मानते हैं। पैंतालीस संख्या मानने वाले दस प्रकीर्णक एवं चौरासी संख्या मानने वाले तीस प्रकीर्णक ग्रन्थ मानते हैं। आगम के कर्ता जैन परम्परा के अनुसार आगम पौरुषेय हैं। मीमांसक जिस प्रकार वेद को अपौरुषेय मानता है, जैन की मान्यता उससे सर्वथा भिन्न है। उसके अनुसार कोई ग्रन्थ अपौरुषेय हो ही नहीं सकता है तथा ऐसे किसी भी ग्रन्थ का प्रामाण्य भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। जितने भी ग्रन्थ हैं उनके कर्ता अवश्य हैं। जैन परम्परा में तीर्थंकर सर्वोत्कृष्ट प्रामाणिक पुरुष है। उनके द्वारा अभिव्यक्त प्रत्येक शब्द स्वत: प्रमाण है। वर्तमान में उपलब्ध सम्पूर्ण जैन आगम अर्थ की दृष्टि से तीर्थंकर से जुड़ा हुआ है। अर्थागम के कर्ता तीर्थंकर है एवं सूत्रागम के कर्ता गणधर एवं स्थविर हैं। __ अर्थ का प्रकटीकरण तीर्थंकरों द्वारा होता है। गणधर उसे शासन के हित के लिए सूत्र रूप में गुम्फित कर लेते हैं। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। वे गणधरकृत आगम से ही नि!हण करते हैं।' स्थविर दो प्रकार के होते हैं-1.चतुर्दशपूर्वी 2. दशपूर्वी । ये सदा निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके चलते हैं। एतदर्थ उनके द्वारा रचित ग्रंथों में द्वादशांगी से विरुद्ध तथ्यों की सम्भावना नहीं होती अत: इनको भी जैन परम्परा आगम के कर्ता के रूप में स्वीकार करती है। प्रत्येकबुद्ध रचित आगमों का प्रामाण्य 1. नंदी, सूत्र 79, चोद्दस पइण्णगसहस्साणि भगवओ वद्धमाणसामिस्स। 2. आवश्यकनियुक्ति,गाथा 92,अत्थंभासइ अरहा सुत्तं गंथंतिगणहरा निउणं सासणस्स हियट्ठाएतओ सुत्तं पवत्तइ । 3. बृहत्कल्पभाष्य (संपा. मुनि पुण्यविजय, भावनगर, 19 3 3) गाथा 144, गणहर-थेरकयं वा आदेसा मुक्कवागरणतो वा। धुव-चलविसेसतो वा, अंगा-णंगेसुणाणत्तं॥ 4. (क) बृहत्कल्पभाष्य वृत्ति गाथा 144 : यद् गणधरैः कृतं तदङ्गप्रविष्टम् । यत्पुनर्गणधरकतादेव स्थविरैर्निर्मूढम्.........अनङ्गप्रविष्टम्।। (ख) नंदीचूर्णि, पृ. 57 : गणहरकतमंगगतंजंकतं थेरेहिं बाहिरं तं च । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 65 भी जैन परम्परा में स्वीकृत है जिसकी चर्चा हम आगम प्रामाण्य के अन्तर्गत करेंगे। आवश्यकनियुक्ति में उल्लेख प्राप्त होता है कि "तप, नियम, ज्ञान रूप वृक्ष पर आरूढ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान् भव्य आत्माओं के बोध के लिए ज्ञान कुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपटल में उन सभी कुसुमों का अवतरण कर प्रवचन माला में गूंथते हैं।' इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आगमों के कर्ता तीर्थंकर, गणधर एवं स्थविर हैं। आगम स्वीकृति का मानदण्ड जैन ग्रन्थों की संख्या में जब विकास होने लगा, तब एक प्रश्न उपस्थित हुआ कि किन ग्रन्थों को आगम माना जाए। सभी को तो आगम माना नहीं जा सकता है। तब एक कसौटी का निर्धारण हुआ। अर्थ रूप से तीर्थंकर प्रणीत, सूत्र रूप से गणधर प्रणीत, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी एवं प्रत्येक बुद्ध द्वारा कथित वचन ही आगम कहे जा सकते हैं। जब दशपूर्वी नहीं रहे तब आगम की संख्या वृद्धि भी स्वत: स्थगित हो गई। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य कुछ प्रकीर्णक ऐसे भी हैं जो दशपूर्वो से कम ज्ञान वालों द्वारा रचित है फिर भी उनको आगम रूप में मान्यता प्राप्त है। ऐसा कुछ विशेष स्थिति में हुआ। आगम का प्रामाण्य वर्तमान में ग्यारह अंग उपलब्ध हैं। बारहवां अंग दृष्टिवाद विच्छिन्न है। रचना की दृष्टि से बारह अंग गणधरकृत हैं, इसलिए इनका प्रामाण्य असंदिग्ध है। अंग स्वत: प्रमाण है। सब स्थविरों की रचना का प्रामाण्य नहीं माना जाता। जिनकी रचना का प्रामाण्य माना जाता है, उनके लिए पूर्वज्ञान की सीमा निर्धारित है। अभिन्नदशपूर्व तक के धारक का सम्यक् श्रुत होता है, यह नंदी में वर्णित है। नंदी सूत्र में इस वक्तव्य के आधार पर सम्पूर्ण दशपूर्वी तक के वचनों का प्रामाण्य जयाचार्य ने भी स्वीकार किया है। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् अर्वाचीन आचार्यों ने ग्रन्थ रचे, तब संभव है उन्हें आगम की कोटि में रखने या न रखने की चर्चा चली और उनके प्रामाण्य और अप्रामाण्य का प्रश्न भी उठा । चर्चा के बाद चतुर्दश-पूर्वी और दस - 1. आवश्यकनियुक्ति,गाथा 89-90 2. (क) ओघनियुक्ति (A History of the canonical literature of the Jains, P. 14 पर उधृत) वृत्ति, पृष्ठ 3.a अर्थतस्तीर्थकरप्रणीतंसूत्रतोगणधरनिबद्धं चतुर्दशपूर्वधरोपनिबद्धंदशपूर्वधरोपनिबद्धं प्रत्येकबुद्धोपनिबद्धं (ख) मूलाचार, 5/277, सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणा कथिदं अभिण्णदसपुव्वकथिदं च ।। 3. (क) नंदी, सूत्र 6 6, इच्चेयं दुवालसंगं गणिपिडगं चोइससपुव्विस्स सम्मसुयं, अभिण्णदसपुव्विस्स सम्मसुयं, तेण परं भिण्णेसुभयणा। (ख) बृहत्कल्पभाष्य, गाथा 1 3 2, चोइस दस य अभिन्ने नियमा सम्मं तु सेसए भयणा। 4. प्रश्नोत्तर तत्त्वबोध (ले. जयाचार्य, लाडनूं, 1988) 19/12, 20/9, संपूरण दस पूर्वधर, चउदश पूरवधार। तास रचित आगम हुवै, वासन्याय विचार।। दश, चउदशपूरवधरा, आगमरचै उदार। ते पिण जिन नींसाख थी, विमल न्याय सुविचार॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 जैन आगम में दर्शन पूर्वी स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थों को आगम की कोटि में रखने का निर्णय हुआ। किंतु उन्हें स्वत: प्रमाण नहीं माना गया। उनका प्रामाण्य परत: था। वे द्वादशांगी से अविरुद्ध हैं, इस कसौटी से कसकर उन्हें आगम की संज्ञा दी गई। उनका परत: प्रामाण्य था, इसलिए उन्हें अंगप्रविष्ट की कोटि से भिन्न रखने की आवश्यकता प्रतीत हुई। इस स्थिति के संदर्भ में आगम की अंग-बाह्य कोटि का उद्भव हुआ।' आगमों का अनुयोग में विभक्तिकरण ___ आगमों की व्याख्या 'अपृथक्त्वानुयोग' एवं 'पृथक्त्वानुयोग' उभय प्रकार से की जा सकती है। आर्यरक्षित से पूर्व आगमों की व्याख्या 'अपृथक्त्वानुयोग' से प्रचलित थी, अर्थात् एक ही सूत्र की व्याख्या चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग एवं द्रव्यानुयोग इन चारों अनुयोग से करना ‘अपृथक्त्वानुयोग' है। यह व्याख्याक्रम बहुत जटिल और बुद्धिस्मृति सापेक्ष था। आर्यरक्षित ने देखा दुर्बलिका पुष्यमित्र जैसा मेधावी मुनि भी इस व्याख्याक्रम को याद रखने में श्रान्त-क्लांत हो रहा है तो अल्पमेधा वाले इसे कैसे याद रख पाएंगे? उन्होंने पृथक्त्वानुयोगका प्रवर्तन कर दिया अर्थात् अमुक सूत्र की व्याख्या अमुक अनुयोग से ही होगी। एक सूत्र की व्याख्या एक ही अनुयोग से होगी। यही पृथक्त्वानुयोग है। उन्होंने उपलब्ध आगमका पृथक्-पृथक् अनुयोगकेसाथसम्बन्ध स्थापित कर दिया। जैसे-चरणकरणानुयोग में कालिक श्रुत, ग्यारह अंग, महाकल्पश्रुत और छेदसूत्रों का समावेश किया। धर्मकथानुयोग में ऋषिभाषित, गणितानुयोग में सूर्यप्रज्ञप्ति और द्रव्यानुयोग में दृष्टिवाद का समावेश किया गया। आर्यरक्षित ने आगम अध्ययन की परम्परा में एक नया सूत्रपात किया। इसके फलस्वरूप अध्येताओं को तो सुविधा हुई किन्तु आगम का उत्तरोत्तर ह्रास भी होने लगा। आगमों की भाषा जैन आगमों की भाषा अर्धमागधी है। भगवान् महावीर अर्धमागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते थे।' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का ही एक रूप है। इस भाषा को देवभाषा कहा गया है अर्थात् देवता अर्धमागधी भाषा में बोलते हैं।' प्रज्ञापना में इस भाषा का प्रयोग करने वाले को भाषार्य कहा गया है। यह मगध के आधे भाग में बोली जाती थी तथा इसमें अठारह 1. आचारांगभाष्य, भूमिका पृ. 15 विशेषावश्यकभाष्य II (ले. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण, अहमदाबाद, वी.सं. 2489) गाथा 2286,2288, अपहुत्ते अणुओगोचत्तारिदुवार भासईएगो। पहुत्ताणुओगकरणेते अत्थातओउवोच्छिन्ना ।। देविंदवंदिएहिं महाणुभावेहिं रक्खियअज्जेहिं। जुममासज्ज वियत्तोअणुओगोतोकहो चउहा।। 3. वही, II, गाथा 2 2 8 4 - 2295 4. समवाओ, 34/22, भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। 5. अंगसुत्ताणि-2 (भगवई) भगवती, 5/93.देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति। 6. उवंगसुत्ताणि (खण्ड-4) (पण्णवणा) 1/93 : भासारिया जेणं अद्धमागहाए भासाए भासंति। 2. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 67 देशी भाषाओं के लक्षण मिश्रित हैं। इसमें मागधी शब्दों के साथ-साथ देश्य शब्दों की भी प्रचुरता है। इसलिए यह अर्धमागधी कहलाती है। भगवान् महावीर के शिष्य मगध, मिथिला, कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग और जाति के थे। इसलिए जैन साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दों की बहुलता है। मागधी और देश्य शब्दों का मिश्रण अर्धमागधी कहलाता है-यह चूर्णि का मत संभवत: सबसे प्राचीन है। इसे आर्ष भी कहा गया है।' ठाणं में संस्कृत और प्राकृत को ऋषिभाषित कहा गया है। षट् प्राभृत टीका के अनुसार जिसमें आधे शब्द मगध देश की भाषा के हों और आधे शब्द अन्य सब भाषाओं के हों, उसे अर्धमागधी कहा जाता है।' श्वेताम्बर जैन आगमों की भाषा को अर्धमागधी अथवा प्राचीन प्राकृत कहा जाता है। वस्तुत: प्राकृत भाषा की सामान्य प्रकृति सदा परिवर्तित होती रहती है। जैसे जैन आगमों की भाषा संस्कृत से भिन्न लोकभाषा प्राकृत कहलाई और जैसे-जैसे लोकभाषा में परिवर्तन हुए, वैसे ही जैन आगमों की भाषा भी परिवर्तित होती गई। जैन धर्म अपने मूल केन्द्र स्थल मगध से पश्चिम और दक्षिण की ओर फैलता गया, वैसे-वैसे उन-उन क्षेत्रों में प्रचलित भाषा के शब्दों और रूपों का प्राकृत में समावेश होता गया। यद्यपिजैन आगमों की भाषा प्राचीनकाल में अर्धमागधी थी, यह तथ्य स्वयं आगमों से ही समर्थित है किन्तु वर्तमान में उपलब्ध आगमसाहित्य में अर्धमागधी के लक्षण यथावत् विद्यमान नहीं है। जैन आगमसाहित्य के मर्मज्ञ विद्वान् स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी ने बृहत्कल्प की प्रस्तावना में लिखा है कि- "प्राचीनतम विविध प्रतियों को सामने रखने से उनमें भाषा और उसके प्रयोग विषयक विविधता देखने में आती है। नियुक्ति, भाष्य, महाभाष्य, चूर्णि आदि में प्रचुर मात्रा में पाठभेद और पाठविकार दिखाई देते हैं। नियुक्ति और भाष्य परस्पर मिश्रित हो गए हैं। ऐसी स्थिति में जैन आगमों की मौलिक भाषा अर्धमागधी का अन्वेषण करना कठिन हो गया है। मुनि पुण्यविजयजी ने ही नंदी और अणुओगदाराइं की प्रस्तावना में इस विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है- “श्वेताम्बर जैन आगमों की भाषा प्राचीनकाल में अर्धमागधी थी, यह बात स्वयं आगमों के उल्लेख से पता चलती है, पर आज वैयाकरण जिसे महाराष्ट्री प्राकृत कहते हैं। यह प्राकृत उस भाषा के नजदीक है, अत: आधुनिक विद्वान् इसे जैन महाराष्ट्री कहते हैं। आगमों में भाषा भेद के स्तर स्पष्ट रूप से विशेषज्ञों को ज्ञात है। उदारहण के लिए आचारांग के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध की भाषा में स्पष्ट रूप से कालभेद दिखाई देता है। इसी प्रकार सूत्रकृतांग और भगवती सूत्र के भाषा रूपों में 1. निशीथसूत्रम्, गाथा 3618 : मगहाऽद्धविसयभासाणिबद्धं अहवा अट्ठारसदेसीभासाणियतं अद्धमागधं । 2. प्राकृतव्याकरण 'हेम' (ले. आचार्य हेमचन्द्र, दिल्ली, 1974) 8/1/83 3. ठाणं 7/48/10, सक्तापागताचेव,दुहा भणितीओआहिया।सरमण्डलम्मिगिजते, पसत्था इसिभासिता॥ 4. षट्प्राभूतादिसंग्रह: (संपा. पं. पन्नालाल सोनी, बम्बई, वि.सं. 1977) प.99, सर्वार्धं मागधीया भासा भवति कोर्थ ? अर्ध भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मक, अर्धं च सर्वभाषात्मकम् । 5. बृहत्कल्पभाष्य, 6, प्रस्तावना पृ.57 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 जैन आगम में दर्शन पूर्वोत्तर भाव स्पष्ट है। भगवती के बाद की भाषा के स्थिर रूप ज्ञाताधर्मकथा आदि में देखने को आते हैं। बौद्धों के हीनयान सम्प्रदाय द्वारा स्वीकृत त्रिपिटकों की पाली तथा जैन आगमों की अर्धमागधी का उत्तरकालीन वैयाकरणों नेमागधी भाषा के रूप में उल्लेख किया है। वैयाकरणों ने अर्धमागधी के जिन लक्षणों का प्रतिपादन किया है उन लक्षणों की उपलब्धि वर्तमान में प्राप्त जैन आगमों में कहीं-कहीं ही है। सारे लक्षण इसमें घटित ही नहीं हो रहे हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने प्राकृत व्याकरण में स्पष्ट कहा है कि उनके व्याकरण के सब नियम आर्ष भाषा में लागू नहीं होते क्योंकि उसमें बहुत से अपवाद हैं। जैनों ने अर्धमागधी को अथवा वैयाकरणों ने आर्ष भाषा को मूल भाषा स्वीकार किया है जिससे अन्य भाषाओं और बोलियों का उद्गम हुआ। जैन परम्परा के अनुसार अर्धमागधी भाषा आर्य, अनार्य, पशु, पक्षी सबकी भाषा में परिणत हो जाती है। वर्तमान में उपलब्ध जैन आगमों की भाषा भगवान् महावीर के निर्वाण के 1000 वर्ष बाद की है। दीर्घकाल के इस व्यवधान में समय-समय पर जो आगमवाचनाएं हुई उनमें आगम ग्रंथों की भाषा में निश्चय ही काफी परिवर्तन हो गया होगा। आगम के टीकाकारों का ध्यान इस ओर गया भी है। "उनके ग्रंथों में विविध पाठांतरों का प्रास होना भाषा के परिवर्तित होने का प्रमाण है। टीकाकारों को सूत्रार्थ स्पष्ट करने के लिए आगमों की मूल भाषा में काफी परिवर्तन और संशोधन करना पड़ा है। उदाहरण के लिए, कल्पसूत्र की प्राचीन प्रतियों में कहीं पर 'य' श्रुति मिलती है तो कहीं नहीं भी मिलती है। कहीं 'य' श्रुति के स्थान पर 'इ' का प्रयोग देखने में आता है। कहीं ह्रस्व स्वर का प्रयोग और कहीं पर ह्रस्व के स्थान पर दीर्घ स्वर का प्रयोग देखा जाता है। जैन आगमों की भाषा के सम्बन्ध में हम इतना कह सकते हैं कि उनकी मूल भाषा अर्धमागधी थी किंतु काल के प्रलम्ब प्रवाह में उसमें अत्यधिक परिवर्तन आया है जिससे उसके मूल स्वरूप को प्रकट करना दुरूह हो गया है। आगमों का व्याख्या साहित्य भगवान् महावीर की वाणी के रूप में विश्रुत जैन-आगम साहित्य का जैन-धर्म-दर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसकी महत्ता का अवबोध उस पर लिखे गए विपुल साहित्य के अवलोकन से होता है। आगम साहित्य पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, अवचूरी, विवरणिका, दीपिका, टब्बा आदि विपुल मात्रा में व्याख्यात्मक साहित्य लिखा गया है। आगमों का व्याख्यात्मक 1. नंदिसुत्तं, अणुओगद्दाराइं (संपा. मुनि पुण्यविजय, बम्बई, 196 8) प्रस्तावना पृ. 13, 14 2. प्राकृतव्याकरण, 8/1/3 : आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते । 3. समवाओ, 34/23 : सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय चउप्पय-मिय-पसु-पक्खि-सिरी-सिवाणं अप्पणो हिय-सिव-सुहदाभासत्ताए परिणमइ। 4. जैन, जगदीशचन्द्र, प्राकृतसाहित्य का इतिहास, (वाराणसी, 1985) पृ. 53 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 69 साहित्य मुख्य रूप से चार भागों में विभक्त है-नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका । इन चारों के साथ मूल आगमों को जोड़ देने से जैन आगम साहित्य पंचांगी नाम से अभिहित होता है। प्रस्तुत प्रकरण में हम नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टीका का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करेंगे। नियुक्ति जैन आगमों की प्राचीनतमव्याख्या नियुक्ति को माना जाता है। आगम साहित्य की प्राकृत भाषा में निबद्ध पद्यात्मक व्याख्या ग्रन्थ नियुक्ति है। सूत्र में निश्चित किया हुआ अर्थ जिसमें निबद्ध हो, उसे नियुक्ति कहा जाता है।' नियुक्ति स्वतंत्र शास्त्र नहीं है, किंतु वह अपने सूत्र के अधीन है। नियुक्ति आगमों पर आर्या छन्द में प्राकृत गाथाओं में लिखा हुआ संक्षिप्त विवेचन है। उपलब्ध नियुक्तियों का अधिकांश भाग भद्रबाहु द्वितीय की रचना है। उनका समय विक्रम की पांचवीं याछठी शताब्दीमाना जाता है। आवश्यक, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, आचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार, सूर्यप्रज्ञप्सि और ऋषिभाषित इन दस ग्रन्थों पर नियुक्तियां लिखी गई हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति और ऋषिभाषित की नियुक्तियां अनुपलब्ध हैं। पिण्डनियुक्ति एवं ओघनियुक्ति का भी उल्लेख प्राप्त है तथा श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय इनका परिगणन मूलसूत्र के रूप में करता है। नियुक्तियां संक्षिप्त हैं फिर भी उनमें दार्शनिक एवं तात्त्विक चर्चा बहुत ही सुन्दर ढंग से हुई। अनेक ऐतिहासिक, पौराणिक तथ्य भी नियुक्तियों में उपलब्ध है। संक्षिप्स और पद्यबद्ध होने के कारण नियुक्तियों को आसानी से कंठस्थ किया जा सकता था और धर्मोपदेश के समय इसमें से कथा आदि के उद्धरण दिए जा सकते थे, इसलिए इनकी उपयोगिता स्वत: सिद्ध थी। भाष्य नियुक्ति साहित्य की तरह ही भाष्य साहित्य भी प्राकृत भाषा में संक्षिप्त शैली में गाथाओं में निबद्ध है। भाष्यकारों में प्रसिद्ध संघदासगणी और जिनभद्रगणी हैं। भाष्य-साहित्य में निशीथ-भाष्य, व्यवहार-भाष्य, बृहत्कल्प-भाष्य, विशेषावश्यक-भाष्य आदि भाष्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भाष्य साहित्य में जैन चिंतन का प्रस्फुटन प्रखरता से हुआ है। आगमों के गहन गम्भीर तथ्यों का युक्तिपुरस्सर कथन भाष्य साहित्य में दृष्टिगोचर होता है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण विरचित विशेषावश्यक भाष्य में दार्शनिक चिंतन का विवेचन बहुत यौक्तिक ढंग से हुआ। दर्शन के प्राय: सभी पहलुओं पर जिनभद्रगणी ने ध्यान आकृष्ट किया है। बृहत्कल्पभाष्य में संघदासगणी ने साधुओं के आहार, विहार आदि नियमों की विचारणा दार्शनिक तरीके से की है। लघु, मध्य एवं बृहत् तीनों ही आकार के भाष्य लिखे गए हैं। नियुक्ति 1. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 8 8 : णिज्जुत्ता ते अत्था जं बद्धा तेण होई णिज्जुत्ती। 2. पिण्डनियुक्ति वृत्ति पत्र 1 : निर्युक्तयोन स्वतन्त्रशास्त्ररूपा: किन्तु तत्तत्सूत्रपरतन्त्राः । 3. मालवणिया, दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, पृ. 33 4. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 84-85 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 एवं भाष्य की भाषा, उनमें पद्यात्मकता आदि समानता होने से कुछ भाष्य और नियुक्तियों का इतना मिश्रण हो गया है कि उनका पृथक्करण अशक्य जैसा हो गया है । चूर्णि जैन आगम में दर्शन आगमों के व्याख्या साहित्य में चूर्णि साहित्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है । चूर्णियां गद्य में लिखी गई हैं। इनकी भाषा संस्कृत - मिश्रित प्राकृत है, अत: इस साहित्य का क्षेत्र नियुक्ति एवं भाष्य की अपेक्षा अधिक व्यापक था । लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी की चूर्णियां उपलब्ध होती हैं। चूर्णिकारों में जिनदास महत्तर प्रसिद्ध है । चूर्णियों में मुख्यतः भाष्य के ही विषय को संक्षेप में गद्य रूप में लिखा गया है। आचारांग, सूत्रकृतांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति, कल्प, व्यवहार, निशीथ, पंचकल्प, दशाश्रुतस्कन्ध, जीतकल्प, जीवाभिगम, प्रज्ञापनाशरीरपद, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवैकालिक, नंदी और अनुयोगद्वार पर चूर्णियां उपलब्ध हैं। चूर्णियों में लौकिक, धार्मिक अनेक कथाएं दी हैं, प्राकृत भाषा में शब्दों की व्युत्पत्ति दी है तथा संस्कृत और प्राकृत के अनेक पद्य इनमें उद्धृत हैं। चूर्णि साहित्य का अध्ययन अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हो सकता है। टीका आगमों का व्याख्या साहित्य प्राकृत, संस्कृत एवं क्षेत्रीय भाषा में उपलब्ध है। नियुक्ति एवं भाष्य प्राकृत भाषा में लिखे गए। प्रारम्भ से ही जैन चिंतकों का यह लक्ष्य रहा कि उनका साहित्य जन सामान्य के लिए भी सहज ग्राह्य रहे। इसके लिए उन्होंने तत्काल प्रचलित भाषा का अवलम्बन अपने साहित्य निर्माण में लिया। चूर्णि साहित्य में भाषा के परिवर्तन की भूमिका बन जाती है । उसमें प्राकृत एवं संस्कृत भाषा का मिश्रण हो जाता है। कालप्रवाह में जैन साहित्यकारों का आकर्षण संस्कृत भाषा की तरफ हुआ और जैन आगमों पर संस्कृत व्याख्या लिखी जाने लगी। जिनको टीका कहा जाता है। जैन आगमों की उपलब्ध प्राचीन संस्कृत टीकाओं के कर्ता आचार्य हरिभद्र हैं। उन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक, नंदी, अनुयोगद्वार आदि पर टीकाएं लिखी हैं। इन टीकाओं में लेखक चूर्णयों के प्राय: कथा भाग को प्राकृत भाषा में ही उद्धृत किया है। इन्होंने जैन तत्त्व ज्ञान का गम्भीर विवेचन प्रस्तुत करने में अपने दार्शनिक ज्ञान का भरपूर उपयोग किया है। इनका समय ईस्वी सन् 705-775' माना जाता है। हरिभद्र के पश्चात् शीलांकसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग पर संस्कृत में महत्त्वपूर्ण टीकाओं की रचना की। शीलांक के उत्तरवर्ती शान्त्याचार्य ने उत्तराध्ययन पर बृहद्वृत्ति लिखी। इसके बाद प्रसिद्ध टीकाकार अभयदेवसूरि ने नौ अंगों पर टीकाओं की रचना करके जैन आगम साहित्य की महत्त्वपूर्ण सेवा की। ये नवांगी टीकाकार कहलाए। मल्लधारी हेमचन्द्र का नाम भीटीकाओं की रचना में उल्लेखनीय है । आगमों की संस्कृत में टीका करने वालों में सर्वश्रेष्ठ स्थान आचार्य मलयगिरि को प्राप्त है। प्रांजल भाषा में दार्शनिक चर्चा से युक्त गम्भीर तत्त्वों का Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 71 विवेचन उनकी टीका में प्राप्त है। जैन आगमों के कर्म, आचार, ज्ञान आदि प्राय: सभी विषयों पर उन्होंने विशदता से लिखा है। जैन आगमों का व्याख्यात्मक साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। जैन-तत्त्व-मीमांसा के अतिरिक्त सम-सामयिक परिस्थितियों का आकलन भी उस साहित्य के माध्यम से किया जा सकता है। दिगम्बर आम्नाय मान्य आगम दिगम्बर परम्परा के अनुसार आगम के दो भेद हैं-अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट । अंगबाह्य के सामायिक, चतुर्विंशति आदि चौदह भेद हैं तथा अंगप्रविष्ट के आचार, सूत्रकृत आदि वे ही बारह भेद हैं जो श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं, केवल ज्ञाताधर्मकथा नाम के स्थान पर नाथधर्मकथा नाम का उल्लेख है। दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र आदि पांच अधिकार हैं। परिकर्म के पांच भेद बतलाए गए हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागर प्रज्ञप्ति एवं व्याख्याप्रज्ञप्ति । सूत्र अधिकार में जीव तथा त्रैराशिकवाद, नियतिवाद, विज्ञानवाद, शब्दवाद, प्रधानवाद, द्रव्यवाद और पुरुषार्थवाद का वर्णन है। प्रथमानुयोग में पुराणों का उपदेश है। पूर्वगत अधिकार में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का कथन है, इनकी संख्या चौदह है। जलगता, स्थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता-ये पांच चूलिका के भेद हैं।' श्वेताम्बर परम्परा में मान्य परिकर्म, सूत्र आदि के भेदों, नामों एवं विषय-वस्तु की दृष्टि से इनकी पर्याप्त भिन्नता है। समवायांग में सिद्धश्रेणिका, मनुष्यश्रेणिका आदि सात प्रकार का परिकर्म माना है।' ऋजुक, परिणतापरिणति आदि के भेद से सूत्र को अट्ठासी प्रकार का माना है। दिगम्बर जिसको प्रथमानुयोग कहते हैं श्वेताम्बर परम्परा में उसका नाम अनुयोग हैं। मूलप्रथमानुयोग एवं कंडिकानुयोग ये दो उस अनुयोग के भेद हैं। पूर्वगत में चौदह पूर्वो का उल्लेख दोनोंपरम्पराओं में है। श्वेताम्बर परम्परामें ग्यारहवेंपूर्वका नाम 'अवंझ' है, दिगम्बर परम्परा में उसका ‘कल्याणवाद' नाम है। श्वेताम्बर परम्परा में चूलिका के संदर्भ में उल्लेख आता है कि प्रथम चार पूर्यों में चूलिकाएं हैं, शेष पूर्वो में चूलिकाएं नहीं हैं। चूलिकाओं का पूर्वो में समावेश हो जाता है जबकि दिगम्बरों के अनुसार चूलिका का पूर्वो से कोई सम्बन्ध नहीं है। दिगम्बर मान्य परिकर्म के प्रथम तीन भेद श्वेताम्बर मान्य उपांगों के अन्तर्गत है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का भी नंदी में आवश्यकव्यतिरिक्त के कालिकश्रुत के भेद के अन्तर्गत उल्लेख हुआ है।' दिगम्बर परम्परा में पांचवें अंग का नाम भी व्याख्याप्रज्ञप्ति है और परिकर्म के पांचवें भेद 1. तत्त्वार्थवार्तिक, 1/20/22 2. समवाओ, पइण्णगसमवाओ 101 3. वही, 110 4. वही, 127 5. वही, 123 6. वही, 130 7. नंदी, सूत्र 78 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 जैन आगम में दर्शन का नाम भी व्याख्याप्रज्ञप्ति है। श्वेताम्बर परम्परा में पांचवां अंग तो व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम से विश्रुत है किंतु इसके अतिरिक्त अन्य इस नाम वाले ग्रन्थ का श्वेताम्बरीय आगम साहित्य में उल्लेख नहीं है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार बारहवें अंग दृष्टिवाद के कुछ अंशों को छोड़कर अवशिष्ट सारे ही अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य आगमों का उच्छेद हो गया है। दृष्टिवाद के कुछ अंशषट्खंडागम एवं कषायप्राभृत के रूप में सुरक्षित हैं। दिगम्बर परम्परा ने मूल आगमों का उच्छेद मानकर भी कुछ ग्रन्थों को आगम जितना ही महत्त्व दिया है और उन्हें जैन वेद की संज्ञा देकर चार अनुयोगों में विभक्त किया है। उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है 1. प्रथमानुयोग-पद्मपुराण, हरिवंशपुराण, आदिपुराण, उत्तरपुराण । 2. करणानुयोग-सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, जयधवला। 3. द्रव्यानुयोग-प्रवचनसार, समयसार, नियमसार, पंचास्तिकाय, तत्त्वार्थाधि गमसूत्र, आप्तमीमांसा आदि। 4. चरणानुयोग- मूलाचार, त्रिवर्णाचार, रत्नकरण्डश्रावकाचार।' दिगम्बर परम्परा में षड्खण्डागम एवं कषायप्राभृत ये दो ग्रन्थ आगम रूप में मान्य हैं। षड्खण्डागम में तो आगमशब्द भी प्रयुक्त है। ये दोनोंग्रन्थ दृष्टिवाद के अंशभूत हैं, ऐसी दिगम्बर मान्यता है। इन ग्रन्थों का संक्षेप में यहां वर्णन प्रस्तुत किया जा रहा हैषट्खण्डागम भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् श्रुतज्ञान का क्रमश: ह्रास होते होते भगवान् के निर्वाण के 6 8 3 वर्ष बाद कोई भी अंगधर एवं पूर्वधर आचार्य नहीं रहे, यह दिगम्बर परम्परा की मान्यता है। आगम-विच्छेद क्रम के अन्त में सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चारों ही आचार्य सम्पूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंगों एवं पूर्वो के एकदेश के धारक थे। इसी क्रम में सभी अंगों एवं पूर्वो का एक देश आचार्य-परम्परा से आता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ।' सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा में स्थित अष्टांग महानिमित्त के पारगामी आचार्य धरसेन ने सोचा मेरे बाद श्रुत का सर्वथा लोप ही न हो जाए अत: दक्षिणापथ के आचार्यों को पत्र लिखा। वहां से भूतबलिएवंपुष्पदंतयेदोसाधु अध्ययन के लिए आए आचार्य ने उनको श्रुत का अध्ययन करवाया। इन्हीं दो मुनियों ने उस श्रुत के आधार पर षट्खण्डागम की रचना की।' - 1. Winternitz, Manrice, History of Indian Literature, P.455 2. षट्खंडागम (जीवस्थान-सत्प्ररूपणा, खण्ड-1, पुस्तक-I, भाग-1) पृ. 6 7-6 8 तदो सुभद्दो जसभद्दोजसबाहु ___ लोहज्जो त्ति एदे चत्तारि वि आइरिया आयारंगधरा सेसंग-पुव्वाणमेग-देसधरा य । तदो सव्येसिमंग-पुव्वाणमेग देसो आइरिय-परम्पराए आगच्छमाणो धरसेणाइरियं संपत्तो। 3. वही, पृष्ठ 72 : तदो एयं खंड-सिद्धंतं पड़च्च भूदबलि-पुप्फयंताइरिया वि कत्तारो उच्चंति। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 73 - पुष्पदंत एवं भूतबलि ने जिस ग्रन्थ का निर्माण किया, उन्होंने उसका क्या नाम रखा, यह उनके द्वारा रचित सूत्रों से ज्ञात नहीं होता किंतु धवलाकार ने उसको षट्-खण्ड-सिद्धांत के रूप में वर्णित किया है तथा उन्होंने सिद्धान्त और आगम को पर्यायवाची भी माना है।' गोम्मटसार के कर्ता ने इसे परमागम एवं श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दि ने इसे षट्खण्डागम कहा है। यह ग्रन्थ वर्तमान में 'षट्खण्डागम' नाम से ही प्रसिद्ध है। पुष्पदन्त और भूतबलिनेषट्खण्डागम कीरचना की । पुष्पदंतने 177सूत्रों में सत्प्ररूपणा और भूतबलि ने 6000 सूत्रों में शेष ग्रन्थ लिखा । दूसरे अग्रायणी पूर्व के महाकर्मप्रकृति नामक चतुर्थ पाहुड अधिकार के आधार पर षट्खण्डागम के बहुभाग का उद्धार किया गया।' षट्खण्डागम के छह खण्ड हैं जैसा कि इसके नाम से ही विदित है। पहले खण्ड का नाम जीवट्ठाण है। इसमें सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व ये आठ अनुयोगद्वार और प्रकृति-समुत्कीर्तना, स्थान-समुत्कीर्तना आदि नौ चूलिकाएं हैं। इनमें गुणस्थान और मार्गणाओं का वर्णन है। इस खण्ड का परिमाण धवलाकार ने अठारह हजार पद कहा है। दूसरे खण्ड का नाम खुद्दाबंध (क्षुल्लकबंध) है। इसमें स्वामित्व, काल, अन्तर आदि ग्यारह अर्थाधिकार है। इस खण्ड में कर्मबन्ध करने वाले जीव का कर्मबन्ध के भेदों सहित ग्यारह प्ररूपणाओं के द्वारा विवेचन किया गया है। तीसरे खण्ड का नाम बंधस्वामित्व विचय है। कर्म की प्रकृतियों का किसके बंध होता है? कितने गुणस्थान तक होता है? इत्यादि कर्म-सम्बन्धी विमर्श इसमें किया गया है। चौथे खण्ड का नाम वेदना है। इस खण्ड में कृति और वेदना ये दो अनुयोगद्वार हैं। इसमें वेदना के कथन की प्रधानता एवं उसका अधिक विस्तार से वर्णन होने के कारण इस खण्ड का नाम 'वेदना-खण्ड' ही रखा गया है। पांचवां खण्ड वर्गणा नाम से अभिहित है। इस खण्ड का प्रधान वर्णनीय विषय बंधनीय है, जिसमें तेईस प्रकार की वर्गणाओं का वर्णन और कर्मबन्ध के योग्य वर्गणाओं का विस्तार से वर्णन है। छठे खण्ड का नाम महाबन्ध है। इसमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेश बन्ध का विस्तार से वर्णन है। भूतबलि ने पांच खण्डों के पुष्पदंत विरचित सूत्रों सहित छह हजार सूत्र 1. कसायपाहुड, पृ. 75 : इदं पुण खंड-सिद्धंतं पडुच्च पुव्वाणुपुवीए ट्ठिदं छण्हं खंडाणं। 2. वही, पृ. 21 : आगमो सिद्धंतोपवयणमिदिएयट्ठो। 3. वही,जीवस्थान सत्प्ररूपणा । प्रस्तावना, पृ.56 4. वही, जीवस्थान सत्प्ररूपणा 1, पृ. 72 : महाकम्म-पयडि-पाहुडस्स वोच्छेदो होहिदि त्ति समुप्पण-बुद्धिणा पुणो दव्व- पमाणाणुगममादिकाउण गंथरचणा कदा। 5. वही, जीवस्थान सत्प्ररूपणा I, पृ. 61 : पदं पडुच्च अट्ठारह-पदसहस्सं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 जैन आगम में दर्शन रचने के पश्चात् महाबंध नाम के छठे खण्ड की तीस हजार श्लोक प्रमाण रचना की।' इस छठे खण्ड को ‘महाधवल' के नाम से भी जाना जाता है। __ वीरसेनाचार्य ने इन छह खण्डों पर 72 हजार श्लोक प्रमाण धवला टीका की रचना की। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने षड्खण्डागम के आधार पर गोम्मटसार लिखा। जिसके जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड से दो विभाग हैं। कषाय-प्राभृत प्रस्तुत ग्रन्थ की उत्पत्ति पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुड से हुई है। पेज्ज नाम प्रेयस्या राग का है और दोष नाम द्वेष का है। इस ग्रन्थ में क्रोध आदि चार कषायों और हास्य आदि नो कषायों का विभाजन राग और द्वेष के रूप में किया गया है, अत: प्रस्तुत ग्रन्थ का मूल नाम पेज्जदोसपाहुड है और उत्तरनाम कसायपाहुड है। कषायों की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करने वाले पदों से युक्त होने के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'कसायपाहुड रखा गया है, जिसका संस्कृत रूपान्तर कषाय-प्राभृत है। 'कषायप्राभृत' प्राकृत भाषा गाथा सूत्रों में निबद्ध है। ___ कषायप्राभृत की जयधवला टीका में तीसरे पेज्जपाहुड का परिमाण सोलह हजार पदप्रमाण बतलाया है। उस विशाल प्राभृत को आचार्य गुणधर ने मात्र एक सौ अस्सी गाथाओं में उपसंहृत किया है। कसायपाहुड में कुल 2 3 3 गाथाएं हैं। 1 8 0 गाथाओं के अतिरिक्त 5 3 गाथाएं और हैं। इनको 1 8 0 में जोड़ने से 2 3 3 गाथाएं हो जाती हैं। वीरसेन ने इन समस्त गाथाओं के कर्ता गुणधराचार्य को ही माना है। यद्यपि गुणधराचार्य ने स्वयं ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में 180 गाथाओं का निर्देश किया है। कसायपाहुड करणानुयोग के अन्तर्गत है। इसमें मुख्य चर्चा कर्म से सम्बन्धित ही है। ' आचार्य गुणधर ने इस ग्रन्थ में मोहनीय कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश के उल्लेख के साथ ही बन्ध सत्ता, उदीरणा का निर्देश मात्र करके संक्रमण का कुछ विस्तार से वर्णन किया है। 1. षट्खण्डागम, प्रस्तावना पृ. 59 में उद्धृत, इन्द्रश्रुतावतार,......षट्सहस्रग्रंथान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि, प्रविरच्य महाबंधाह्वयं तत: षष्ठकं खण्डम् । त्रिंशत् सहस्रसूत्रग्रंथं व्यरचयदसौ महात्मा। 2. कसायपाहुडसुत्त, गाथा 1, पुव्वम्मिपंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिसं। पेजत्तिपाहुडम्मिदुहवदि कसायाण पाहुडंणाम॥ 3. कसायपाहुड (प्रथमोऽधिकार: पेज्जदोसबिहत्ती) (संपा. पं. फूलचन्द्र, पं. महेन्द्रकुमार, पं. कैलाशचन्द्र, मथुरा, 1974) पृ. 9, तं तदियपाहुडं किण्णाममिदिवुत्ते पेज्जपाहुडं' त्ति तण्णामं भणिदं तत्थ एवं कसायपाहुडं होदि Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 75 जैन आगमों का आधुनिक सम्पादन, अनुवाद एवं भाष्य भारतीय परम्परा में प्रथम तो शास्त्रों को कण्ठस्थ करने की प्रथा रही है। दूसरे मुद्रण कला के आविष्कार के अनन्तर भी ग्रंथों को हस्तलिखित रूप में ही प्रयुक्त करने की प्रथा चालू रही। इस कारण जैनागम भी अधिक लोगों तक नहीं पहुंच पा रहे थे। सर्वप्रथम 1880 में राय धनपतिसिंह बहादुर ने जैनागों का प्रकाशन तो कर दिया किन्तु यह संस्करण वैज्ञानिक पद्धति से सम्पादित नहीं था। राय धनपतिसिंह बहादुर के इस प्रकाशनसेजैनागम सर्वसुलभ होगए। पश्चिमी विद्वानों का ध्यान जब इस ओर गया तो उन्होंने जिस वैज्ञानिक पद्धति से लैटिन, ग्रीक आदि के प्राचीन ग्रंथों का सम्पादन किया था उसी पद्धति का उपयोग करते हुए कतिपय जैनागमों का भी सम्पादन किया। पाश्चात्य विद्वान् जेकोबी पश्चिमी विद्वानों में सर्वप्रथम जेकोबी (Jacobi) ने सन् 1879 में कल्पसूत्र का एक आलोचनात्मक संस्करण प्रकाशित किया। जेकोबी की कल्पसूत्र की भूमिका ने भविष्य के अनुसंधानों को आधारभूमि प्रदान की। श्री जेकोबी ने आचारांग, सूत्रकृतांग, कल्पसूत्र एवं उत्तराध्ययन का अनुवाद भी किया। जिनका प्रकाशन :Sacred Books of East' नामक सिरीज में हुआ। ये ग्रंथ जर्मन भाषा में निबद्ध किए गए हैं। उनमें से कुछ का अंग्रेजी संस्करण भी उपलब्ध है। श्री जेकोबी ने आगमों के अतिरिक्त भी जैन साहित्य पर विपुल मात्रा में कार्य किया है। जेकोबी ने ही सर्वप्रथम यह सिद्ध किया कि जैनधर्म बौद्धधर्म से भी प्राचीन है। पश्चिम में जैन विद्या पर कार्य करने वालों में जेकोबी का नाम अग्रणी व्यक्तियों में है। इनके कार्यों द्वारा पाश्चात्य जगत् में जैन धर्म-दर्शन को एक विशिष्ट पहचान प्राप्त हुई है। ई. ल्यूमन ई.ल्यूमन (E. Leumann 1859-1931) का भी जैन विद्या के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान रहा है। इन्होंने जैन आगमों पर कार्य किया तथा अपनी पी.एच.डी. की उपाधि 'औपपातिकसूत्र' पर शोध कार्य करके प्राप्त की। ल्यूमन ने दशवैकालिक एवं उसकी नियुक्ति का संपादन 1 8 92 में किया। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 शुब्रींग श्री शुब्रींग ने अनेक जैन ग्रन्थों का संपादन किया है। इनके द्वारा संपादित Acarangsutra, erster srutaskandha का प्रकाशन सन् 1918 में Leipzig से Text, Analyse und glossar Abhandlungin yuer die Kunde des morgen landes नामक सिरीज में हुआ । 1918 में ही इन्होंने इसी सिरीज से 'व्यवहार और निशीथ' का प्रकाशन किया। इसके पश्चात् Studien zum Mahanisihasutta (महानिशीथ) नाम से दो ग्रन्थ क्रमश: 1951 और 1963 में प्रकाशित हुए । शुब्रींग द्वारा संपादित कुछ ग्रन्थों की हिन्दी प्रतिलिपि का प्रकाशन ‘जैन साहित्य संस्थान समिति' पूना से हुआ है। जैन आगम में दर्शन शुब्रींग ने दशवैकालिक सूत्र का भी अनुवाद किया था जो 1932 में अहमदाबाद से प्रकाशित हुआ । इस ग्रन्थ का संपादन शुब्रींग के गुरु E Leumann ने किया था। शुब्रींग के स्वर्गवास के पश्चात् उनके द्वारा संपादित दो ग्रन्थ एवं एक अनुवादित ग्रन्थ 1969 में प्रकाशित हुए। एक ग्रन्थ 'गणिविज्जा' Indo Iranian Journal XI-2 में प्रकाशित हुआ, जो शकुनविद्या से सम्बन्धित था। दूसरा 'तन्दुलवेयालिय' नामक ग्रन्थ था, जो Paramedical से सम्बन्धित था। एक अन्य कार्य जो Isibhasiyaim, Aussprueche der Weisen, Aus dem prakrit der Jaina Uebersetzt (Isibhasiyaim, Translated from the prakrit of the Jains) नाम से प्रकाश में आया जो 'इसिभासियं' का अनुवाद था । शार्पेन्टियर शार्पेन्टियर (Jarl Charpentier) ने 'उत्तराध्ययन' सूत्र के मूल पाठ का संशोधन किया है तथा उसके पाठान्तर भी दिए हैं। इस ग्रन्थ में उन्होंने Introduction में जैन आगमों के संक्षिप्त परिचय के साथ ही सामान्य रूप से उनकी विषय-वस्तु का वर्णन भी किया। जैन हस्तलिखित प्रतियों का, विशेषत: उत्तराध्ययन से सम्बन्धित प्रतियों के बारे में विशेष जानकारी है। उसका कचित् भाषा-शास्त्रीय आयाम भी लेखक ने प्रस्तुत किया है। इस ग्रन्थ में लेखक ने आवश्यक आलोचनात्मक टिप्पण भी दिए हैं तथा उत्तराध्ययन की एक टीका भी इसके साथ छपी है। इस ग्रन्थ का प्रथम भारतीय संस्करण 1980 में Ajay Book Service नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। अल्सडोर्फ अल्सडोर्फ (Ludwig Alsdorf 1904-1978) जैन विद्या के विशेषज्ञ थे । इन्होंने जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के आधार पर जैन सृष्टि का वर्णन (Cosmography) किया है। उत्तराध्ययन Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 77 के नमिप्रव्रज्या आदि कुछ अध्ययनों पर भी इन्होंने शोधकार्य किया है। निक्षेप पर इनका महत्त्वपूर्ण कार्य है। लुप्स दृष्टिवाद की विषयवस्तु के बारे में भी इन्होंने विमर्श किया है। जैन आगमों के अतिरिक्त अन्य जैन साहित्य पर इन्होंने विपुल मात्रा में कार्य किया है। जिसकी अवगति L. Alsodorf, Kleine Schriften पुस्तक से प्राप्त की जा सकती है। जर्मन विद्वानों से सम्बन्धित तथ्यों के लिए 'German Indologists' पुस्तक हमारा मुख्य आधार रही है। प्राकृत भाषा में निबद्ध आगम साहित्य, जैन साहित्य का प्राचीनतम भाग है। सम्पूर्ण जैन धर्म/दर्शन के मूल स्रोत जैन आगम ही हैं। प्राचीनकाल से ही आगमों की व्याख्या के लिए नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, टब्बा आदि ग्रन्थों का प्रणयन होता रहा है। प्राचीन जैनाचार्यों ने आगमों की व्याख्या में अपने मति-बल का प्रचुर नियोजन किया है। आधुनिक युगमेंभीभारतीय विद्वानों द्वारा आगमों पर कार्य हो रहे हैं। भारतीय विद्वान् सन् 1 9 1 5 में मेहसाना की आगमोदय समिति ने प्राय: सभी आगमों का प्रकाशन किया। सन् 1 9 20 में हैदराबाद से ऋषि अमोलक ने जैन सूत्र बत्तीसी प्रकाशित की । यद्यपि उसका सम्पादन आलोचनात्मक नहीं था। स्व. मुनिश्री पुण्यविजयजी एवंमुनिजम्बूविजयजीनेजैनआगमों केसम्पादन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। आगम प्रकाशन की श्रृंखला के प्रथम खंड में नंदी तथा अनुयोगद्वार तथा द्वितीय खंड में आचारांग विस्तृत पाठ भेदात्मक टिप्पणियों सहित तथा अन्य आगम भी श्री महावीर जैन विद्यालय (मुम्बई) से प्रकाशित हो चुके हैं। __ आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज, आचार्यश्री आत्मारामजी, मुनिश्री घासीलालजी, मुनिश्री कन्हैयालालजी 'कमल' तथा युवाचार्यश्री मधुकर मुनि ने भी आगम साहित्य पर कार्य किया है। सन् 1 9 5 5 में आचार्यश्री तुलसी के वाचना प्रमुखत्व में जैन आगमों के सम्पादन की बृहद् कार्य-योजना प्रारम्भ हुई। उसमें जैन आगमों के पाठ संशोधन एवं विस्तृत आलोचनात्मक एवं अनुसंधानात्मक टिप्पणों के साथ अनुवाद कार्यचल रहा है। यह योजना वर्तमान में आचार्यश्री महाप्रज्ञ के दिशा निर्देश में अबाधगति से सतत गतिशील है। इस वाचना में अनेक आगमों का कार्य सम्पन्न हो चुका है जिसकी अवगति निम्न तालिका से प्राप्त की जा सकती है मूलपाठ संशोधन बत्तीस ही आगमों का हो चुका है। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 जैन आगम में दर्शन 1. अंगसुत्ताणि, भाग 1 2. अंगसुत्ताणि, भाग 2 3. अंगसुत्ताणि, भाग 3 4. उवंगसुत्ताणि, भाग 4 5. नवसुत्ताणि, भाग 5 संस्कृत छाया सहित हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत टिप्पण1. आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध 2. सूत्रकृतांग प्रथम एवं द्वितीय श्रुतस्कन्ध 3. स्थानांग 4. समवायांग 5. भगवती के प्रथम सात शतक दो खण्डों में प्रकाशित हो चुके हैं तथा अन्य का कार्य वर्तमान में चालू है। 6. उत्तराध्ययन 7. दशवैकालिक 8. अनुयोगद्वार 9. नंदी सूत्र 10. ज्ञाताधर्मकथा मुद्रण में है 11. प्रश्नव्याकरण के अनुवाद एवं टिप्पण का कार्य चल रहा है। 12. आचारांग एवं आचारांग भाष्य का अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। 13. भगवई के प्रथम सात शतक का अंग्रेजी अनुवाद मुद्रण में है। कोश-निर्माण 1. आगम-शब्दकोश 2. देशी कोश 3. एकार्थक कोश Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 79 4. निरुक्त कोश 5. श्रीभिक्षुआगम विषयकोश, भाग 1 6. वनस्पतिकोश 7. नियुक्तिपंचक 8. आवश्यक नियुक्ति (प्रथम भाग) 9. श्रीभिक्षुआगम विषयकोश के भाग 2 का कार्य चालू है। 10. जैन पारिभाषिक शब्दकोश का कार्य भी चालू है। आचार्यश्रीमहाप्रज्ञजीकेगम्भीर अध्ययन-चिंतन एवं अन्वेषणशैलीनेआगम-विश्लेषण के क्षेत्र में एक नवीन कीर्तिमान स्थापित किया है। उपर्युक्त आगम साहित्य का अनुसंधान के क्षेत्र में प्रचुर उपयोग हो रहा है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि जैन परम्परा के सामने बौद्ध परम्परा की तरह ही आर्षवाणी को सुरक्षित रखने का प्रश्न उपस्थित हुआ था। जिस प्रकार बौद्धों ने इसके लिए संगीति आयोजित की, उसी प्रकार जैनों ने भी वाचनाएं आयोजित की किंतु इसके बावजूद भी भगवान् महावीर की वाणी का बहुत बड़ा अंश लुप्त हो गया। बहुत समय तक तो जैन परम्परा ने लिखने का ही निषेध किया। किन्तु बाद में यह देखकर कि स्मृति के द्वारा इतने विपुलकाय साहित्य को सुरक्षित रखना सम्भव नहीं है अत: लिखने की अनुमति दे दी गई। आगमों को सूत्र कहा जाता है। सूत्र सदा व्याख्या सापेक्ष होते हैं। इसलिए जैन आचार्यों ने प्राचीनकाल से ही आगमों की विस्तृत व्याख्या नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि तथा टीका के रूप में की। वस्तु स्थिति यह है कि प्राचीन परम्परा को जानने के लिए और आगमों के दुर्बोध अंश को समझने के लिए व्याख्या साहित्य ही हमारा एकमात्र अवलम्बन है। आगम के इस व्याख्या साहित्य में आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ की संयुक्त देखरेख में जो व्याख्यासाहित्य निर्मित हुआ है। वह अधुनातन तो है ही उसमें प्राचीन व्याख्या साहित्य का नवनीत भी समाहित है। आगमों की ठीक समझ के लिए यह व्याख्या साहित्य ही हमारा मुख्य आधार बना है। लुप्त होने से जो साहित्य बच गया वह भी अपने शुद्ध रूप में हम तक नहीं आ सका। इसलिए मुद्रणकला के आने के बाद जब आगमों के सम्पादित रूप में प्रकाशित करने की समस्या आई तब शुद्ध पाठ निर्धारण की समस्या अत्यन्त विकट सिद्ध हुई। भारतीय जलवायु में कोई भी पाण्डुलिपि अधिक से अधिक एक हजार वर्ष तक ही सुरक्षित रह सकती है अत: बहुत प्राचीन पाण्डुलिपि मिलने का प्रश्न नहीं था। जो पाण्डुलिपियां प्राप्त हुईं, वे प्राचीनतम पाण्डुलिपि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 जैन आगम में दर्शन की कौन-सी आवृत्ति है, यह कहना कठिन है किन्तु इतना निश्चित है कि जैसा पाठ निर्धारण अन्तिम वाचना में हुआ था, वैसा पाठ अविकल रूप में हमें प्राप्त नहीं है। मूल शुद्ध पाठ तक पहुंचने की पद्धति का विकास मूलत: पश्चिम के विद्वानों द्वारा किया गया।उसपद्धति के द्वारा उन्होंने अनेक आगमोंकासंपादन किया। तत्पश्चात्भारतीय विद्वानों ने भी मूल आगम और उसके व्याख्या साहित्य के संपादन में अपना पर्याप्त श्रम लगाया। इस सारे परिश्रम का ही फल है कि शोधार्थियों को आज आगम और आगम का व्याख्या साहित्य बहुत कुछ शुद्ध रूप में मिल जाता है। इसलिए हमने इस अध्याय के अन्त में कुछ मुख्य संपादन कार्यों का उल्लेख किया है। उस साहित्य के आधार पर जो विश्लेषणात्मक समीक्षा कार्य हुआ, उसका उल्लेख हम विषय-प्रवेश में कर चुके हैं। 000 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा तत्त्वमीमांसा का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। उसमें दर्शनशास्त्र के प्राय: सभी मुख्य घटकों का समावेश हो जाता है। ERE के अनुसार Metaphysics की कोई एक परिभाषा देना कठिन है। मुख्यत: उसमें ज्ञान और अस्तित्व की समस्या के बारे में विचार किया है। इस तथ्य को और अधिक बोधगम्य बनाने के लिए ERE ने इसे पुन: तीन भागों में विभक्त कर दिया है - 1. ज्ञान 2. अस्तित्व (प्रमेय) 3. तत्त्वमीमांसा का अन्य विषयों विशेष रूप से आचार और धर्म पर प्रभाव। It may suffice to state that the subjectofmetaphysicsis the most fundamental problems of the knowledge and reality. It will be convenient to divide the treatment of it into three parts:(1) the general nature ofknowledge (2) the conceptionofrealityanditschiefapplicationsand(3) thebearings of metaphysics on other subjects especially ethics and religion.' तत्त्वमीमांसा में इन सभी विषयों पर विचार किया जाता है। जैन दर्शन की ज्ञान-मीमांसा एवं प्रमेय-मीमांसा अर्थात् द्रव्यमीमांसा बहुत समृद्ध और व्यापक हैं। दृष्टिवाद में समस्त नयवाद के बीजभूत तीन मातृकापद थे- 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' । हरिभद्रसूरी के अनुसार ये तीन मातृका पद तीन निषद्या हैं अर्थात् गौतम स्वामी के द्वारा जिज्ञासा किए जाने पर भगवान् महावीर ने इन तीन निषद्याओं का उपदेश दिया। इन तीन निषद्याओं के आधार पर गौतम स्वामी ने चौदह पूर्वो को ग्रहण किया। जिसके आधार पर गणधरों को यह ज्ञान हुआ कि 'सत्' उत्पाद्-व्यय-ध्रौव्ययुक्त होता है। क्योंकि इसके बिना सत्ता नहीं रह सकती। इसी ज्ञान के आधार पर गणधरों ने द्वादश अंगों की रचना की।' 1. Encyclopeadia of Religion and Ethics, (Ed. Hastings James, New York, 1974)Vol. VIII P. 594. 2. दसकालियसुत्तं, नियुक्ति एवं चूर्णि सहित (संपा. मुनिपुण्यविजय, वाराणसी, 1973), पृ. 2, मातुयपदेक्कगं तं जहा-उप्पण्णेति वा भूते ति वा, विगते ति वा एते दिट्ठिवाते मातुयापदा....। 3. आवश्यकचूर्णि (हारिभद्रीया टीका),गाथा 735 पृ. 85, तत्र गौतमस्वामिना निषधात्रयेण चतुर्दशपूर्वाणिगृहीतानि। प्रणिपत्य पृच्छा निषद्योच्यते । भगवांश्चाचष्टे-उप्पण्णेइवा विगमेइवाधुवेइवा । एताएव तिस्रो निषद्या:, आसामेव सकाशाद् गणभृताम् उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् इति प्रतीतिरुपजायते, अन्यथा सताऽयोगात् । ततश्च ते पूर्वभवभावितमतयो द्वादशांगमुपरचयन्ति। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 जैन आगम में दर्शन 1 . आवश्यकचूर्णि के अनुसार भी इन तीन निषद्याओं से चौदह पूर्व गृहीत हुए हैं।' निष्कर्ष यह है कि परम्परा 'सत्' की 'उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता' का पूर्व साहित्य से सम्बन्ध मानती है। एक प्रकार से यह त्रिपदी पूर्व साहित्य और द्वादशांगी को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी है। इस दृष्टि से तत्त्व-मीमांसा के लिए इस त्रिपदी का महत्त्व स्वत: सिद्ध है। त्रिपदी में अन्तर्निहित अनेकान्त उपर्युक्त त्रिपदी में अनेकान्त का बीज स्पष्ट रूप में अन्तर्निहित है, क्योंकि उत्पादव्यय अर्थात् अनित्यता और ध्रौव्य अर्थात् नित्यता परस्पर विरोधी धर्म हैं और इस त्रिपदी के द्वारा इन परस्पर विरोधी धर्मों का सत् में सहावस्थान प्रतिपादित किया गया है। इससे यह निष्कर्षसहज ही निकालाजासकता है कि सत् में नित्य-अनित्य के समान ही, सान्त-अनन्त, शाश्वत-अशाश्वत, एक-अनेक, सामान्य-विशेष जैसे विरोधी धर्म युगपद् एक ही वस्तु में रह सकते हैं। यही अनेकान्त का मूल है और यही जैन द्रव्य-मीमांसा का निर्देशक तत्त्व है। अनेकान्त के अभाव में आचार की अनुपपन्नता जैन आचार्यों ने यह भी विस्तार से प्रतिपादित किया है कि वस्तु का स्वरूप अनेकान्तात्मक न मानने पर कर्म और कर्मफल की व्यवस्था भी नहीं बन पायेगी और सारी आचार-मीमांसा तथा धर्मका ढांचा ही ढह जाएगा। इस प्रकार जैनतत्त्व-मीमांसाका आचारमीमांसा से अविनाभाव सम्बन्ध है। अनेकान्त का आधार : अनुभव का प्रामाण्य अनेकान्त के अनुसार वस्तु के स्वरूप का निर्णय करते समय हमें किसी स्वत: सिद्ध तर्क (apriori logic) का आधार लेकर वस्तु के उसस्वरूप का अपलाप नहीं करना चाहिए जिसकी नित्यता और परिवर्तनशीलता सर्वजन प्रत्यक्ष है। अपितु अपने अनुभव को प्रमाण मानकर यह कहना चाहिए कि वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का सहावस्थान भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से सम्भव है। 1. आवश्यकचूर्णि, पृ. 370 तं कहं गहितं गोयमसामिणा ? तिविहं (तीहिं) निसेज्जाहिं चोद्दस पुळ्वाणि उप्पादिताणि। निसेज्जा णाम पणिवतिउण जापुच्छा। 2. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैनन्याय का विकास, (जयपुर, 1977) 9.36-49,यहां पर आचार्य महाप्रज्ञ का अधिकांश विवेचन आगम पर ही आधारित है। 3. आचार्य सम्मन्तभद्र एवं आचार्य हेमचन्द्र ने एकान्त अनित्यता के पक्ष में दोष दिखाते हुए यह स्पष्ट किया है कि किस प्रकार कृतप्रणाश तथा अकृत भोग इत्यादि दोष आने से सारी आचार-मीमांसा अस्त-व्यस्त हो जाएगी। अन्ययोगव्यवच्छेदिका, कारिका | 8, कृतप्रणाशाकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मतिभंगदोषान् उपेक्ष्य साक्षात्क्षणभंगमिच्छन्नहो महासाहसिकः परस्ते इसी प्रकार एकान्तवाद मानने पर कर्म सिद्धान्त द्वारा स्थापनीय सुख-दु:ख का भोग, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि की व्यवस्था नहीं हो पायेगी। वही, कारिका 27,नैकान्तवादे सुखदु:खभोगौ, न पुण्यपापेन च बंधमोक्षौ। दुर्नीतिवाद-व्यसनासिनैवं, परैर्विलुप्तं जगदप्यशेषम्॥ 4. (क) Mookerjee Satakari, (Delhi, 1978) The Jain Philosophy of Non-absolutism PP. 3-22 (ख) मंगलप्रज्ञा समणी, आर्हती-दृष्टि, (चूरू, 1998) पृ. 131-160 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 83 प्रमाणमीमांसा की आधार भूमि नयवाद इस सापेक्षता की दृष्टि के आधार पर ही जैन परम्परा की नयवाद की अवधारणा टिकी है। परवर्ती युग में जब जैन आचार्यों ने प्रमाण-मीमांसा पर अपनी लेखनी चलाई तो उसके मूल में यह सापेक्षता दृष्टिमूलक नयवाद ही रहा । ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमाण-विवेचन की अपेक्षा नय-विवेचन अधिक प्राचीन है और यही जैन प्रमाण-मीमांसा का मौलिक तत्त्व है। पंचविधज्ञान विचारणा प्रमाण-मीमांसा के क्षेत्र में आने से पहले जैन परम्परा ज्ञान-मीमांसा का सूक्ष्म विवेचन कर रही थी। यह विवेचन जैन परम्परा की अपनी विशेषता है और मूलत: आगमयुग की देन है। यही कारण है कि जैन आगमों पर काम करने वाले विद्वानों का ध्यान ज्ञान-मीमांसा की ओर विशेष रूप से गया। 1951 में ही डॉ. नथमल टाटिया ने अपने डी. लिट् के शोध प्रबन्ध के द्वितीय अध्याय में आगमों के आधार पर जैन ज्ञान-मीमांसा की पचास पृष्ठों में मर्मस्पर्शी विवेचना की।' तदनन्तर डॉ. इन्द्रचन्द्र शास्त्री ने अपना पी-एच. डी. का पूरा शोध-प्रबन्ध आगम आधारित जैन ज्ञान-मीमांसा पर ही लिखा। अभी साध्वी श्रुतयशा जी ने सन् 1999 में ज्ञान-मीमांसा पर शोध की जिसमें भी आगमों को ही मुख्यता दी गई। जिज्ञासुओं को ज्ञान-मीमांसा में आगमों का वैशिष्ट्य इन ग्रंथों में विस्तार से मिल जाता है। अत: हमने उसका पिष्टपेषण यहां नहीं किया है। मुख्य बात यह है कि जैन आगमों के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। ज्ञान बाहर से नहीं आता वह आत्मा में पहले से ही है किंतु ज्ञानावरणीय कर्म के कारण पूर्ण रूप से अभिव्यक्त नहीं हो पाता। ज्ञानावरणीय कर्मकेक्षयोपशम केतारतम्यसे ज्ञान का तारतम्य बनता है। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय केवलज्ञानके अभिव्यक्त होने का हेतु है। यह ज्ञान-मीमांसा, द्रव्य-मीमांसा के अन्तर्गत आत्म-मीमांसा का आधार बनती है। द्रव्यमीमांसा हमने ऊपर ERE के प्रमाण के आधार पर तत्त्वमीमांसा के तीन घटक माने हैं। ज्ञानमीमांसा एवं तत्त्वमीमांसा का आचार मीमांसा पर प्रभाव संक्षेप में इंगित कर देने के अनन्तर अब तत्त्वमीमांसा के तृतीय घटक प्रमेय मीमांसा अथवा द्रव्यमीमांसा पक्ष पर विचार करना क्रमप्राप्त है। प्रमाण से प्रमेय की सिद्धि होती है-प्रमेयसिद्धिः प्रमाणाद्धि। 1. Tatia, Nathmal, Studies in Jain Philosophy, (Banaras, 1951) 2. Sastri, I.C., Jain Epistemology, ) Varanasi, 1990) 3. श्रुतयशा, साध्वी, ज्ञान-मीमांसा, (लाडनूं, 1999) Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 जैन आगम में दर्शन अनेकान्त और वस्तुवाद जैन प्रमाण मीमांसा में, जैसा कि हमने ऊपर कहा अनेकान्तवाद और नयवाद का विशेष स्थान है। जो दर्शन अनेकान्त और नयकीमूलभूत सापेक्षता को स्वीकार नहीं करते, वेदोनोंवेदान्त और बौद्ध-प्रत्ययवादी दर्शन हैं। शेष सभी वस्तुवादी दर्शन किसी-न-किसी रूप में पूर्णत: या अंशत: अनेकान्त को स्वीकार करते हैं। उदाहरणत: सांख्य वस्तुवादी है वह पुरुष को तो नित्य कूटस्थ मानता है किंतु प्रकृति को परिणामी नित्य मानने के कारण अंशत: प्रकारान्तर से अनेकान्त को स्वीकार कर लेता है।' पूर्वमीमांसा तो नामत: भी अनेकान्त को स्वीकृति प्रदान करता है। निष्कर्ष यह है कि अनेकान्त और वस्तुवाद का परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है। इसलिए अनेकान्तवादी जैनदर्शन वस्तुवादी भी है। इतना अवश्य है कि वस्तुवादी दर्शनों में भी जैनदर्शन ने अनेकान्त का जैसा सर्वांगीण एवं व्यवस्थित प्रयोग किया, वैसा दूसरे दर्शनों ने नहीं किया। जैन दर्शन का द्वैतवाद वस्तुवादी होने के साथ-साथ जैनदर्शन द्वैतवादी भी है। उसके अनुसार लोक में जो कुछ है वह सब द्विपदावतार है। विश्व के मूल में चेतन और अचेतन ये दो तत्त्व हैं, अन्य सभी प्रमेय इन दो तत्त्वों के ही अवान्तर भेद हैं। वे दो तत्त्व परस्पर विपरीत धर्मों से युक्त हैं। यथा1. सांख्यकारिका (ले. ईश्वरकृष्ण, वाराणसी, 1990), श्लोक ।। श्लोकवार्तिक (संपा. द्वारिकादास शास्त्री, वाराणसी, 1978), वनवाद, श्लोक 80 'हहानैकान्तिकं वस्त्वित्येवं ज्ञानं सुनिश्चितम्' मीमांसादर्शन स्पष्ट रूप से वस्तुको उत्पादव्यय ध्रौव्यात्मक स्वीकार करता है। उसकी सिद्धि में प्राय: वैसा ही उदाहरण भी प्रस्तुत करता है, जैसा जैन आचार्य प्रस्तुत करते हैं। श्लोकवार्तिक, वनवाद, श्लोक 21-22 वर्धमानकभंगेच रुचक: क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिन: शोक: प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ।। हेमार्थिनस्तु माध्यस्थं तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम्। नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम्॥ तुलनीय आप्तमीमांसा (ले. आचार्य सम्मन्तभद्र, वीर नि.सं. 2501, वाराणसी) श्लोक 59 घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्।। 3. ठाणं 2/1, जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं। 4. (क) वही, 2/1,जीवच्चेव अजीवच्चेव। (ख) TheNewEncyclopaedia BritannicaVol.6,P.473,Jainmetaphysicsisadualistic system dividing the Universe into two ultimate and independent categories soul or living substance (Jiva), which permeates natural forces such as wind and fire as well as plants, animals, and human beings, and nonsoul or inanimate substance (ajiva) which includes space, time and matter. 5. ठाणं, 2/1 2 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 85 जीव-अजीव, त्रस-स्थावर, सयोनिक-अयोनिक इत्यादि । स्थानांग में प्राप्त यह वर्गीकरण जैन दर्शन की इस अवधारणा को प्रस्तुत कर रहा है कि अस्तित्व सप्रतिपक्ष होता है। पक्षप्रतिपक्ष से रहित अस्तित्व की सत्ता ही नहीं है । जैन दर्शन का दृष्टिकोण अनेकान्तवादी है। इसलिए वह न सर्वथा चैतन्याद्वैतवादी है और न ही जड़ाद्वैतवादी । वह चेतन और अचेतन दोनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। __ प्रस्तुत अध्याय में हम अपने आपको अचेतन सत्ता के अन्तर्गत आने वाले पांच द्रव्यों की चर्चा तक ही सीमित रखेंगे। चेतन सत्ता अर्थात् आत्मा की चर्चा अगले तृतीय अध्याय में करेंगे ताकि प्रमेय की चर्चा के अन्तर्गत जैन सम्मत छहों द्रव्यों की चर्चा हो सके। जैन दर्शन के अनुसार यह लोक जीव और अजीव की समन्विति है।' जीव एवं अजीव अनन्त हैं तथा वे शाश्वत भी हैं। इसका तात्पर्य हुआ मूल तत्त्व का न कभी उत्पाद होगा और न ही सर्वथा विनाश होगा । मात्र परिवर्तन होता रहेगा। जिसे जैन दर्शन परिणामी नित्य कहता है। वस्तु में परिवर्तन होने पर भी उसका अस्तित्व बना रहेगा। संख्यात्मक दृष्टि से जीवअजीव के अनन्त होने के कारण लोक-व्यवस्था का सम्यक् संचालन होता रहेगा। अनन्त जीवों के मुक्त हो जाने पर भी जीव और पुद्गल की अन्त:क्रिया से होने वाली सृष्टि लोक में होती रहेगी। परिमितात्मवाद मानने वालों के सामने जो समस्या है वह जैन दर्शन के समक्ष नहीं है। जीव और अजीव का विस्तार ही पंचास्तिकाय, षड्द्रव्य अथवा नव तत्त्व है। स्थानांग में जीव और अजीव कोलोक कहा है। भगवती में पंचास्तिकाय को लोक कहा गया है। आगम में षड्द्रव्यों का उल्लेख तो है किन्तु उन्हें 'लोक' संज्ञा से अभिहित नहीं किया गया है। इससे फलित होता है कि लोक को 'षड्द्रव्यात्मक' मानने की अवधारणा उत्तरकालीन है। जीव और अजीव लोक के घटक द्रव्य हैं। ये परस्पर प्रतिपक्षी हैं तथा इन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। अनगार रोह के लोक- अलोक, जीव-अजीव आदि के परस्पर पौर्वापर्य सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर में भगवान् उनके पौर्वापर्य का निषेध करते हैं।' रोह के प्रश्न और महावीर के उत्तर 1. (क) ठाणं, 2, 147, के अयं लोगे ? जीवच्चेव, अजीवच्चेव । (ख) सूयगडो, 2/2/37..........दुहओ लोगं जाणेज्जा, तं जहा-जीवा चेव अजीवा चेव। 2. ठाणं, 2/418-19,के अणंता लोगे? जीवच्चेव, अजीवच्चेव, के सासयालोगे? जीवच्चेव अजीवच्चेव। 3. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/30, तद्भावाव्ययं नित्यम् । 4. ठाणं, 2/411 5. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई), 13, 53, पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोए त्ति पवुच्चइ । 6. वही, 13/61 7. वही, 1/290-297 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 जैन आगम में दर्शन के अध्ययन से अनादित्व का सिद्धांत फलित होता है। जीव-अजीव के पौर्वापर्य का अभाव सृष्टि-रचना के संदर्भ में एक नई अवधारणा प्रस्तुत करता है । सृष्टि-रचना के संदर्भ में दर्शन की धाराओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-अद्वैतवादी और द्वैतवादी। अद्वैतवादी दार्शनिक चेतन या अचेतन का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार जीव और अजीव में से किसी एक तत्त्व का वास्तविक अस्तित्व है। अद्वैतवाद की मुख्य दोशाखाएं हैं-1.जड़ाद्वैतवाद 2. चैतन्याद्वैतवाद | जड़ाद्वैतवाद और चैतन्याद्वैतवाद-- ये दोनों कारणानुरूप कार्योत्पत्ति के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करती हैं | जड़ाद्वैत के अनुसार पंचभूतों के सम्मिश्रण से ही चैतन्य उत्पन्न हो जाता है चैतन्य की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। चैतन्याद्वैत के अनुसार यह सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म/चेतना का विस्तार मात्र है। चेतन भिन्न जड़ का कोई अस्तित्व नहीं है। द्वैतवादी दर्शन जड़ और चैतन्य दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व मानते हैं। इनके अनुसार जड़ से चैतन्य या चैतन्य से जड़ उत्पन्न नहीं होता । कारण के अनुरूप ही कार्य का प्रादुर्भाव होता है। जैन दृष्टि के अनुसार विश्व एक शिल्पगृह है। उसकी व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के विविध जातीय संयोग से स्वत: निष्पन्न है।' जैन दर्शन में लोक एवं अलोक इन दो शब्दों का प्रयोग हुआ है। जैन अवधारणा के अनुसार अलोक का अर्थ है केवल आकाश और लोक का अर्थ है चेतन और अचेतन तत्त्व से संयुक्त आकाश ।' जैन दर्शन के अनुसार लोक और अलोक का विभाग नैसर्गिक है, अनादिकालीन है। वह किसी ईश्वरीय सत्ता द्वारा कृत नहीं है। लोक की स्वीकृति प्राय: सभी दर्शनों ने की है। जगत् या सृष्टि को सब मानते हैं किंतु अजगत् या असृष्टि को कोई दार्शनिक स्वीकार नहीं करता। यह भगवान् महावीर की मौलिक देन है। इससे पक्ष और प्रतिपक्ष तथा विरोधी युगल का सिद्धांत फलित हुआ है। इसकी व्याख्या का सिद्धान्त है- अनेकान्तवाद । जगत् विरोधी युगलात्मक है। अनेकान्त या सापेक्षवाद के बिना उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। जगत् का मूल कारण यह दृश्यमान चराचर जगत हमारे प्रत्यक्ष का विषय है। इसके प्रत्यक्षीकरण के साथ ही वैचारिक धरातल पर एक जिज्ञासा उद्भूत होती है कि इस जगत का मूल कारण क्या है ? 1. भगवई (खण्ड-1) पृ. 1 34-135 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 1/290 3. जैन सिद्धान्त दीपिका (ले. आचार्य तुलसी, चूरू, 1995) 1/8,13 4. भगवई (खण्ड-1) पृ. 1 34, (सूत्र 288-307) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 87 यह किस तत्त्व से निर्मित है ? मूल तत्त्व को जानने की आकांक्षा पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दोनों ही क्षेत्र के दार्शनिकों में समान रूप से चिन्ता का विषय रही है, उस चिंतना के फलस्वरूप सृष्टि के मूल तत्त्व के सम्बन्ध में नाना मतवाद प्रचलित एवं प्रतिपादित हुए हैं। वेदों में जगत् के मूल कारण की खोज ऋग्वेद का दीर्घतमा ऋषिजगत् के मूल कारण का अन्वेषण करता है। उसकी प्रारम्भिक अवस्था मात्र प्रश्नायित दृष्टि से युक्त है।' प्रश्न का समाधान उसे उपलब्ध नहीं होता है तो वह कहता है --मैं तो नहीं जानता। फिर भी वह अपनी अन्वेषण की वृत्ति का त्याग नहीं करता है और अन्त में कह देता है कि “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'। सत् तो एक ही है किन्तु प्रबुद्धजन उसका वर्णन अनेक प्रकार से करते हैं। पण्डित दलसुख मालवणिया ने दीर्घतमा के इस विचार की तुलना अनेकान्त से करते हुए कहा है कि “दीर्घतमा के इस उद्गार में ही मनुष्य- स्वभाव की उस विशेषता का हमें स्पष्ट दर्शन होता है, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं। इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीय रूप जैनदर्शन-सम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है। इसी प्रकार नासदीय सूक्त का ऋषि भी जगत् के उपादान कारण को खोज रहा है। ऋषि कह रहा है उस समय न असत् था न सत्। वह सत्-असत् दोनों का ही निषेध करता है किंतु प्रतीत होता है कि वह परम तत्त्व को अभिव्यक्त करने में शब्द-शक्ति को असमर्थ पाता है। सत्य के अनेकान्तात्मक स्वरूप को शब्द एक साथ प्रकट नहीं कर सकता है तब ऋषि निषेध की भाषा बोलता है। महावीर इस तथ्य को विधेयात्मक भाषा में प्रस्तुत कर सत्-असत् दोनों की ही आपेक्षिक सत्ता स्वीकार करते हैं। भगवान् महावीर के दर्शन के अनुसार अस्तित्व सप्रतिपक्ष होता है। केवल सत् अथवा केवल असत् नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। वस्तु का स्वरूप सदसदात्मक है। स्थानांग के वर्णन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।' उपनिषद् में विश्वकारणता विश्व के कारण की जिज्ञासा में से अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हुए, जिनका निर्देश उपनिषदों में हुआ है। विश्व का मूल कारण क्या है? वह सत् है या असत्? सत् है तो पुरुष है 1. ऋग्वेद, 1/16 4/4 (नई दिल्ली, 2000) 2. वही, 1/16 4 /37 3. वही, 1/16 4/46 4. मालवणिया दलसुन, आगम युग का जैन दर्शन पृ. 39 ऋग्वेद, 10/129, (दिल्ली, 2000) नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई)7/58,59 7. ठाणं, 2 1 म 6. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन या पुरुषतर-जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक? इन प्रश्नों का उत्तर उपनिषदों के ऋषियों ने अपनी-अपनी प्रतिभा शक्ति के अनुरूप दिया है।' उपनिषद् साहित्य ने विश्व कारणता के सम्बन्ध में नाना मतवादों की सृष्टि खड़ी कर दी है। उपनिषद् में जल, आकाश, सत्, असत आदि तत्त्वों से सृष्टि की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ है। तैत्तिरयोपनिषद् के अनुसार ब्रह्म ही इस जगत का कारण है। उससे ही समस्त वस्तुएं पैदा हुई हैं। उसके कारण ही उत्पन्न वस्तुएं स्थित रहती है और बाद में उसमें ही विलीन हो जाती है। एक ही उपनिषद् में सृष्टि सम्बन्धी मत वैविध्य भी उपलब्ध है। इसी उपनिषद् में असत् से सत् की उत्पत्ति भी स्वीकार की गई है। असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त बृहदारण्यक एवं छान्दोग्योपनिषद में भी प्रतिपादित है। छान्दोग्य में जहां एक ऋषि असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रस्थापित करता है, वहीं दूसरा उसका निराकरण करके सत् से सृष्टि की उत्पति स्वीकार करता है। बृहदारण्यक में जहां असत से सत् उत्पत्ति का सिद्धान्त वर्णित है, वहीं अन्यत्र एक ऋषि नेजल को जगत कामूलस्रोत माना है। छान्दोग्य उपनिषद् में एकत्र आकाश को मूल तत्त्व माना गया है। प्रवाहण जैवलि से जब सृष्टि के मूल तत्त्व सम्बन्धी जिज्ञासा की गई तो उन्होंने ने कहा समस्त वस्तु आकाश से ही प्रादुर्भूत होती हैं एवं अन्त में उसी में विलीन हो जाती है। उपर्युक्त अवधारणाओं से स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है कि एक उपनिषद् में भी अनेक ऋषियों के विचारों का संकलन है इसलिए ही उनमें एक ही सिद्धान्त के सन्दर्भ में विभिन्न दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी ने उपनिषद् में प्राप्त सृष्टि सम्बन्धी विचारों को चार भागों में निम्न प्रकार से विभक्त किया है - 1. रानाडे, रामचन्द्र दतात्रेय, उपनिषद् दर्शन का रचनात्मक सर्वेक्षण, (जयपुर, 1989) पृ. 54 - 73 2. तैत्तिरीय उपनिषद् (संपा. हरिकृष्ण गोयन्दका, गोरखपुर, वि.सं. 2014)3/1/1,तं होवाच । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्मेति। 3. वही. 2/7.असद्वा इदमग आसीत। ततो वै सदजायत। 4. (क) बृहदारण्यकोपनिषद् , 1/2/1, नैवेह किंचनाग्र आसीत् मृत्युनैवेदम् आवृतम् आसीत । (ख) छान्दोग्योपनिषद् , 3/19/1, असदेवेदमग्र आसीत् तत्सदासीत्। 5. वही, 6/2/2, कुतस्तु खलु सौम्येवं स्यादिति होवाच कथमसत: संजायेतेति सत्त्वेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्। 6. बृहदारण्यकोपनिषद्, 1/2/1, सोऽर्चन्नचरत् तस्यार्चत आपोऽजायन्त अर्चत वै मे कमभूदिति, तदेवार्कस्यार्कत्वम्......आपो वा अर्कः....सा पृथिव्य अभवत् । 7. छान्दोग्यउपनिषद्, 1/8/8,1/9/1, तं ह प्रवाहणो जैवलिरुवाच.......अस्य लोकस्य का गतिरित्याकाश इति होवाच सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त, आकाशं प्रत्यस्तम यन्न्याकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानाकाश: परायणम् । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 89 1.जगत का मूल तत्त्व है असत् । 2. जगत का मूल तत्त्व है सत् । 3. जगत का मूल तत्त्व है अचेतन । 4. जगत का मूल तत्त्व है चेतन या आत्मा।' यूनानी दार्शनिकों का मन्तव्य उपनिषदों की तरह ही यूनानी दार्शनिकों ने जगत् के मूल तत्त्व के संदर्भ में एक तत्त्व को ही मान्यता दी है। ग्रीक दार्शनिक थेलिज के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में केवल जल का ही अस्तित्व था। इसका यह सिद्धान्त बृहदारण्यक की अनुगूञ्ज हैं। बृहदारण्यक में भी जल को जगत का मूल कारण माना गया है। एनेक्जीमेण्डर के अनुसार असीम (boundless something) नामक पदार्थ विश्व का मूल तत्त्व था । जो पूरे आकाश में व्याप्त था । एनेक्जीमेंडर ने इस तत्त्व को God नाम से अभिहित किया है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि एनेक्जीमेंडर का God भौतिक पदार्थ ही है। ___ एनेक्जीमेनस के अनुसार सम्पूर्ण वस्तुओं का आदि और अन्त वायु है। पाइथागोरस के अनुसार जो कुछ अस्तित्व है वह संख्यात्मक रूप में रहता है। इन्होंने संख्या को मूल माना है। हेराक्लाइट्स ने प्रोसेस को सत् माना है और उस प्रोसेस के प्रतीक के रूप में अग्नि को स्वीकार किया है। ये सारे दार्शनिक जगत् कारणता के सम्बन्ध में एक तत्त्ववादी हैं। इनकी विचारधारा जड़ाद्वैतवाद के समकक्ष है। जैन आगमों में विश्व जैन आगम साहित्य में भी विश्व के कारण की जिज्ञासा परिलक्षित है। यह लोक (विश्व) क्या है? उत्तर दिया गया जीव और अजीव।' आगम प्रवक्ता के अनुसार असत् विश्व का कारण नहीं हो सकता। सत् ही विश्व का कारण है किंतु वह सत् एकात्मक नहीं है। द्विरूप है। चेतन और अचेतन स्वरूप है। जैन दर्शन सृष्टि के सम्बन्ध में द्वैतवादी है। चेतन और अचेतन की 1. भगवई (खण्ड - 1) पृ. 1 3 4 2. Gomperz Theodor, The Greek Thinkers, (1964) Vol. I, P.48 : Thales would have regarded water, the principle of all dampness as the primary element. 3. Masih, y, A Critical History of Western Philosophy, (Delhi, 1999) P. 5 : However for him primarymatter was'boundless something'........Anaximandercallshisinfinite boundlessmatter 'God'........This God no doubt is matter. 4. Gomperz, Theodar, The Greek Thinkers, Vol. I P.56 : He substituted air for water as the pri mary principle which engendered. 5. Masih, y, A Critical History of Western Philosophy P. 7: Pythagoras declared that whatever exists, exists in number. Ibid, P. 18: For Heraclitus, not water or air is primordial stuff. Process alone is reality and is best symbolised by fire. 7. ठाणं, 2/412 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 जैन आगम में दर्शन स्वतंत्र सत्ता है। ये एक-दूसरे से पैदा नहीं होते हैं। इन दो तत्त्वों का ही विस्तार करके लोक को पंचास्तिकायमय माना गया है।' अथवा षड्द्रव्यात्मक भी कहा गया है। वस्तुत: ये पांच अस्तिकाय या छह द्रव्य जीव और अजीव के ही विस्तार हैं। सृष्टि के सम्बन्ध में जैन दर्शन को द्वितत्त्ववादी अथवा बहुतत्त्ववादी कहा जा सकता है। जैन दर्शन में सृष्टि के पौर्वापर्य के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित किए गए हैं। भगवान् महावीर उनमें परस्पर अनानुपूर्वी बतलाकर इनमें पूर्व-पश्चात् क्रम का निषेध करते हैं। भगवान् महावीर के अनुसार सृष्टि चक्र पौर्वापर्य मुक्त अर्थात् अनादिकाल से चल रहा है। विश्व की व्यवस्था स्वयं उसी में समाविष्ट नियमों के द्वारा होती है। ये नियम जीव और अजीव के विविध जातीय संयोग से स्वत: निष्पन्न हैं। इसमें ईश्वर कर्तृत्व का अस्वीकार स्वत: स्फुट है। लोक का आकार __ जैन दर्शन के अनुसार लोक (विश्व) का आकार भी स्थायी एवं अनादि है। रोह के लोकान्त-अलोकान्त, लोकान्त-अवकाशान्तर आदि से सम्बन्धित पौर्वापर्य की जिज्ञासा के संदर्भ में प्रस्तुत भगवान् महावीर के उत्तर से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।' जैन दर्शन में लोक-अलोक का आकार भगवती सूत्र में द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक-इन चार प्रकार के लोक का कथन है। लोक के आकार का सम्बन्ध क्षेत्रलोक से है। अलोक के संस्थान को रेखांकित करते हुए कहा गया कि अलोक पोले गोले के समान है।' वह लोक के चारों ओर व्याप्त है। लोक उसमें समाया हुआ है। उपमा की भाषा में लोक को आगासथिग्गल आकाशरूपी वस्त्र की एक कारी या थिगली कहा जा सकता है। अलोक की सीमा से सटा हुआ सातवां अवकाशान्तर है। उसके ऊपर सातवां तनुवात, फिर क्रमश: सातवां घनवात, सातवां घनोदधि और सातवीं पृथ्वी है। अवकाशान्तर, तनुवात, घनवात, घनोदधि और पृथ्वी ये सभी सात-सात हैं।' अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 13/53,पंचत्थिकाया, एसणं एवतिए लोए त्ति पवुच्चइ। 2. जैन सिद्धान्त दीपिका, 1/8, षड्द्रव्यात्मको लोकः। 3. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 1/2 88 - 307 जैन सिद्धान्त दीपिका, 1/9,जीवपुद्गलयोर्विविधसंयोगै: स विविधरूपः। 5. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई), 1/296-298 _वही, 11/90, कतिविहे णं भंते! लोए पण्णत्ते? गोयमा! चउब्विहेलोए पण्णत्ते, तं जहा-दव्वलोए, खेत्तलोए, काललोए, भावलोए। वही, 11/90, अलोएणं भंते! किं संठिए पण्णते? गोयमा! झुसिरगोलसंठिए पण्णत्ते। 8. उवंगसुत्ताणि 4 (खण्ड-2) (पण्णवणा) (संपा.युवाचार्य महाप्रज्ञ,लाडनूं, 1989)15/153,आगासथिग्गले णंभंते! किणा फुडे? कइहिं वा काएहिं फुडे? 9. ठाणं,7/14-22 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 91 आचार्य महाप्रज्ञ ने इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करते हुए लिखा है कि "अवकाशान्तर -आकाश लोक और अलोक दोनों में विद्यमान है। लोक में सात अवकाशान्तर माने गए हैं। भगवती में आकाश के स्थान पर 'अवकाशान्तर' शब्द का प्रयोग मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में अवकाशान्तर के स्थान पर आकाश शब्द का प्रयोग मिलता है। प्रत्येक पदार्थ में अवकाश होता है। परमाणु भी अवकाशशून्य नहीं है। अवकाशान्तर का यह सिद्धान्त आधुनिक विज्ञान द्वारा समर्थित है। परमाणु के दो भाग हैं-इलेक्ट्रोन और प्रोट्रोन। इन दोनों के बीच एक अवकाश विद्यमान रहता है। दुनिया के समस्त पदार्थों में से यदि अवकाश को निकाल लिया जाए तो उसकी ठोसता आंवले के आकार से बृहत् नहीं होती।"। लोक सुप्रतिष्ठक आकार वाला है। तीन शरावों में से एक शराव ओंधा, दूसरा सीधा और तीसरा उसके ऊपर ओंधा रखने से जो आकार बनता है, उसे सुप्रतिष्ठक संस्थान या त्रिशरावसंपुट संस्थान कहा जाता है। लोक नीचे विस्तृत है, मध्य में संकरा और ऊपर विशाल है। क्षेत्रलोक तीन भागों में विभक्त है-ऊर्ध्व लोक, अधो लोक और मध्य लोक । भगवती में इन तीनों प्रकार के क्षेत्रलोक का विस्तार से वर्णन भी उपलब्ध है। जैसा कि हम पहले वर्णन कर चुके हैं कि लोक चार प्रकार का है-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक एवं भावलोक। द्रव्यलोक एक और सांत है। द्रव्यलोक पंचास्तिकायमय एक है, इसलिए सांत है।' लोक की परिधि असंख्य योजन कोडाकोड़ी की है, इसलिए क्षेत्रलोक भी सांत है। लोक पहले था, वर्तमान में है और भविष्य में सदा रहेगा, इसलिए काललोक अनन्त है।' लोक में वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान के पर्यव अनन्त हैं तथा बादर स्कन्धों की गुरु-लघु पर्यायें, सूक्ष्म स्कन्धों और अमूर्त द्रव्यों की अगुरु-लघु पर्यायें अनन्त हैं, इसलिए भाव-लोक अनन्त हैं।' 1. भगवई (खण्ड ।) पृ. 135 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 11/98,लोए णं भंते! किंसठिए पण्णत्ते? गोयमा! सुपइट्ठगसंठिए पण्णत्ते, तं जहा-हेट्ठा विच्छिण्णे, मज्झे संखित्तं. उप्पिं विसाले.......। 3. वही, 11/98 4. वही, 11/91,खेत्तलोएएभंते! कतिविहेपण्णत्ते ? गोयमा! तिविहेपण्णत्ते,तंजहा-अहेलोयखेत्तलोए, तिरियलोय खेत्तालोए, उड्डलोय खेत्तलोए। 5. वही, 11/92-97 6. वही, 2/45.दव्वओणं एगेलोए सअंते। महाप्रज्ञ. आचार्य, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, (चूरू,1995) पृ. 218 8. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/45, ............अत्थि पुण से अंते। 9. वही, 2/45 10. वही, 2/45 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 जैन आगम में दर्शन इन्द्रिय का विषय बनने की क्षमता मात्र पुद्गल में है। वही मूर्त्त द्रव्य है। वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्शये पुद्गल के धर्म हैं। ये पुद्गल द्रव्य के सहभावी धर्म हैं। इनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। उस परिवर्तन के आधार पर लोक विविध प्रकार का परिलक्षित होता है। लोक की दृश्यता पुद्गल के आधार पर ही है जो दिखाई देता है वह लोक है। जे लोक्कइ से लोए।' लोक के चार प्रकारों में भावलोक पर्याय रूप है अतः वह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है। नयचक्र में स्वभाव एवं विभाव इन दो प्रकार की पर्यायों का उल्लेख है। जीव एवं पुद्गल के दोनों प्रकार की पर्याय होती है तथा अन्य द्रव्यों के मात्र स्वभाव पर्याय होती है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये पुद्गल के स्वभाव पर्यव हैं। एक परमाणु या स्कन्ध एक गुण काले रंग वाला यावत् अनन्तगुण काले रंग वाला हो जाता है। इसी प्रकार गंध, रस और स्पर्श में भी स्वाभाविक परिणमन होता रहता है। गुरु-लघुपर्यव पुद्गल और पुद्गलयुक्त जीव में होता है। इसका सम्बन्ध स्पर्श से है। अगुरुलघु पर्यव एक विशेष गुण या शक्ति है। इस शक्ति से द्रव्य का द्रव्यत्व बना रहता है। चेतन अचेतन नहीं होता और अचेतन चेतन नहीं होता, इस नियम का आधार अगुरुलघुपर्यव ही है। इसी शक्ति के कारण द्रव्य के गुणों में प्रतिसमय षट्स्थानपतित हानि और वृद्धि होती रहती है। इस शक्ति को सूक्ष्म, वाणी से अगोचर, प्रतिक्षण वर्तमान और आगम प्रमाण से स्वीकरणीय बतलाया गया है।' द्रव्यानुयोगतर्कणा में द्रव्य के दस सामान्य धर्म बतलाए हैं उनमें एक अगुरुलघु है। उसको सूक्ष्म एवं वाणी का अगोचर माना गया है। पदार्थ दो प्रकार के होते हैं-भारयुक्त और भारहीन। भार का सम्बन्ध स्पर्श से है। वह पुद्गल द्रव्य का एक गुण है। शेष सब द्रव्य भारहीन अगुरुलघु होते हैं। पुद्गल द्रव्य भारयुक्त एवं भारहीन दोनों प्रकार का होता है। चतु:स्पर्शी तक के पुद्गल स्कन्ध भारहीन तथा अष्टस्पर्शी भारयुक्त होते हैं। जैन दार्शनिक साहित्य में अगुरुलघु पर्यव, अगुरुलघु सामान्य गुण - इनका उल्लेख है। शब्द एक जैसे होने पर भी तात्पर्य में विभेद परिलक्षित है। लोक एवं अलोक के परिमाण के संदर्भ में भी भगवती में विस्तार से वर्णन हुआ है।' 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई), 5/255 2. नयचक्र, (ले. माइल्लधवल, नई दिल्ली, 1971) गाथा 18, सब्भावं खु विहावं दव्वाणं पज्जयं जिणुद्दिटुं। सव्वेसिंच सहावं, विब्भावं जीवपोग्गलाणं च ॥ 3. भगवई (खण्ड।) पृ. 22 3-224 4. द्रव्यानुयोगतर्कणा (ले. कवि भोज, अगास, 1977) 11/4, अगुरुलघुता सूक्ष्मा वाग्गोचरविवर्जिता। 5. भगवई (खण्ड-1), पृष्ठ 174, (अगुरुलघु चउफासो अरूविदव्वा य होति नायव्वा । सेसा उ अट्ठफासा गुरुलहुया निच्छयणयस्स। गुरुलघुद्रव्यं रूपि, अगुरुलघुद्रव्यं त्वरूपि रूपि चेति।) 6. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई)11/109-110 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 93 । भगवान् महावीर ने भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा में प्रचलित आचार विषयक अवधारणाओं में संशोधन/परिवर्धन किया था।' किंतु तत्त्व-विवेचन पार्श्वनाथ की परम्परा जैसा ही था यह विद्वानों का अभिमत है। भगवती में प्राप्त लोक का विवेचन इसी अभिमत की पुष्टि कर रहा है। पार्श्वनाथ के शिष्य भगवान् महावीर के पास आकर लोक के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं। भगवान् महावीर लोक सम्बन्धी अवधारणा को भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित कहकर लोक सम्बन्धी उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हैं। इससेफलित होता है भगवान् पार्श्व एवं भगवान् महावीर की लोक सम्बन्धी अवधारणा समान थी। लोककी अवस्थिति यह दृश्यमान जगत् किस पर ठहरा हुआ है। पुराणों में शेषनाग, कच्छप आदि पर यह विश्व अवस्थित है ऐसी विभिन्न अवधारणाएं हैं। जैन दर्शन ने भी इस समस्या पर विचार किया है। जैन दर्शन के अनुसार लोक स्थिति के आठ प्रकार हैं 1. वायु आकाश पर स्थित है। 2. समुद्र वायु पर अवस्थित है। 3. पृथ्वी समुद्र पर स्थित है। 4. त्रस-स्थावर जीव पृथ्वी पर स्थित हैं। 5. अजीव जीव पर प्रतिष्ठित हैं। 6. जीव कर्म से प्रतिष्ठित हैं। 7. अजीव जीव के द्वारा संगृहीत हैं। 8. जीव कर्म के द्वारा संगृहीत हैं। लोक स्थिति के संदर्भ में एक प्रश्न उभरता है कि आकाश किस पर प्रतिष्ठित है? इसका समाधान दिया गया है कि आकाश स्वप्रतिष्ठित है। आकाश भी यदि अन्य तत्त्व पर प्रतिष्ठित होता तो फिर प्रश्न होता वह तत्त्व किस पर प्रतिष्ठित है, इस प्रकार अनवस्था दोष उपस्थित हो जाता अवगाह देना आकाश का स्वधर्म है, अतः उसकी प्रतिष्ठा में अन्य तत्त्व की स्वीकृति की आवश्यकता नहीं है। स्व के संदर्भ में आकाश अवगाहक एवं अवगाह्य दोनों बन जाता है। आकाश, वायु, जल और पृथ्वी-ये विश्व के आधारभूत अंग हैं। विश्व की व्यवस्था इन्हीं के आधार-आधेय भाव से बनी हुई है। संसारी जीव और अजीव (पुद्गल) में आधार-आधेय और संग्राह्य संग्राहक भाव ये दोनों हैं। जीव आधार है और शरीर उसका आधेय। कर्म संसारी जीव का आधार और संसारी जीव उसका आधेय है। 1. उत्तराध्ययन (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1993) 2 3 वां अध्ययन 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 5/2 5 5, .......पासेणं अरहया पुरिसादाणिएणं सासए लोए बुइए। 3. (क) वही, 1 / 310 (ख) ठाणं, 8/14 4. भगवई (खण्ड-1), पृ. 384, आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन जीव, अजीव (भाषा वर्गणा, मन वर्गणा और शरीर वर्गणा) का संग्राहक है । कर्म संसारी जीव का संग्राहक है । ........जीव और पुद्गल के सिवाय दूसरे द्रव्यों में आपस में संग्राह्यसंग्राहक भाव नहीं है। लोक-स्थिति में जीव और पुद्गल में संग्राह्य एवं संग्राहक भाव माना गया है । ' 94 जिनवचन नयविहीन नहीं होते हैं यह जैनदर्शन की स्वीकृति है। लोकस्थिति के संदर्भ में दिये गए वक्तव्य सापेक्ष ही है। सामान्य रूप से पृथ्वी समुद्र पर स्थित है किन्तु ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी को आकाश प्रतिष्ठित माना गया है।' जीवों का मुख्य आधार पृथ्वी है किन्तु वे भी कहीं-कहीं स्थान विशेष में आकाश, विमान, पर्वत प्रतिष्ठित भी होते हैं।' बहुलता की अपेक्षा से उदधि प्रतिष्ठित पृथ्वी एवं पृथ्वीप्रतिष्ठित त्रस स्थावर प्राणी यह वक्तव्य दिया गया है। भगवती टीकाकार ने अजीव का अर्थ शरीर आदि पुद्गल किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अजीव सृष्टि का जो नानात्व है, जितने दृश्य परिवर्तन और परिणमन है, वे जीव के द्वारा कृत हैं। जो कुछ दिखाई दे रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीव-मुक्त शरीर है। इस अपेक्षा से अजीव जीव पर प्रतिष्ठित है। जीव का जितना नानात्व है, उसके जितने परिवर्तन और विविध रूप हैं, वे सब कर्म के द्वारा निष्पन्न हैं । इस अपेक्षा से जीव को कर्म-प्रतिष्ठित कहा गया है। अजीव-जीव के द्वारा संगृहीत है, उनमें कथंचित् एकात्मक सम्बन्ध स्थापित होता है, इसलिए उनमें परिवर्तन घटित होता है। कर्म का जीव के साथ सम्बन्ध स्थापित होता है, इसलिए उनके द्वारा जीव में परिवर्तन घटित होता है । भगवती के टीकाकार ने 'प्रतिष्ठित ' की व्याख्या आधार - आधेय भाव के साथ तथा 'संगृहीत' की व्याख्या संग्राह्य-संग्राहक भाव के साथ की है । ' विश्व - व्यवस्था के सार्वभौम नियम ईश्वर कर्तृत्ववादियों के अनुसार जगत्-व्यवस्था का नियामक ईश्वर होता है। जैन दर्शन जगत्कर्ता के रूप में किसी भी ईश्वर या ईश्वरीय शक्ति को स्वीकार नहीं करता है । " 1. जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 219 2. भगवई (खण्ड-1), पृ. 384, बाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईषत्प्राग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव । 3. वही, पृ. 384, तथा पृथिवीप्रतिष्ठितास्त्रसस्थावरा: प्राणा: इदमपि प्रायिकमेव अन्यथाकाशपर्वतविमान प्रतिष्ठिता अपि ते सन्तीति । 4. वही, पृ. 137-138 (अथाजीवा जीवप्रतिष्ठितास्तथाऽजीवा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेदः ? उच्यतेपूर्वस्मिन् वाक्ये आधाराधेयभाव उक्तः, उत्तरे तु संग्राह्य संग्राहकभाव इति भेदः । यच्च यस्य संग्राह्यं तत्तस्याधेयमप्यर्थापत्तित: स्याद् यथाऽपूपस्य तैलमित्याधाराधेय भावोप्युत्तरवाक्ये दृश्य इति । तथा जीवाः कर्मसंगृहीता: संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्त्तित्वात्, ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः । यथा घटे रूपादय इत्येवमिहाप्याधाराधेयता दृश्येति ।) 5. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, (अमृत कलश II) (ले. हेमचन्द्राचार्य, चूरू, 1998) कारिका 6 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 95 4. उसके अनुसार इस विश्व के कुछ स्वत: संचालित सार्वभौम नियम हैं, उनके माध्यम से ही यह विश्व-व्यवस्था बनी हुई है। लोक-स्थिति उन सार्वभौम नियमों का ही निदर्शन है। स्थानांग सूत्र में ही विश्वव्यवस्था के संचालक दस नियमों का उल्लेख हुआ है 1. जीव बार-बार मरते हैं और पुन: पुन: वहीं उत्पन्न होते हैं। 2. जीवों (संसारी) के सदा, प्रतिक्षण पापकर्म का बंध होता है। 3. जीवों के सदा, प्रतिक्षण मोहनीय व पापकर्म का बंध होता है। जीव कभी भी अजीव न तो हुए हैं, न हैं और न होंगे। वैसे ही अजीव कभी भी जीव नहीं हो सकते। वस जीवों का कभी व्यवच्छेद नहीं होगा और सब जीव स्थावर हो जाएं अथवा स्थावर जीवों का व्यवच्छेद हो जाए और सब जीव त्रस हो जाएं, ऐसा भी कभी नहीं होगा। 6. लोक कभी भी अलोक नहीं होगा, अलोक लोक नहीं होगा। 7. लोक कभी भी अलोक में प्रविष्ट नहीं होगा और अलोक कभी लोक में प्रविष्ट नहीं होगा। 8. जहां लोक है वहां जीव है और जहां जीव है वहां लोक है। 9. जहांजीव और पुद्गलों का गतिपर्याय है वहां लोक है और जहां लोक है वहां जीव और पुद्गलों का गतिपर्याय है। 10. समस्त लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रुक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्धपार्श्वस्पृष्ट (अबद्ध और अस्पृष्ट) होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रुक्ष हो जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते।' स्थानांग संख्या सूचक ग्रन्थ है तथा उसमें एक से दस तक की संख्या वाले तथ्यों का ही संकलन हुआ है। जैन आगमों में जीव, कर्म, पुनर्जन्म आदि विषयों से सम्बन्धित विपुल मात्रा में सार्वभौम नियमों का उल्लेख है। उनके संग्रहण एवं व्याख्या का प्रयत्न एक नए शोध प्रबन्ध का विषय हो सकता है। हमने तो प्रसंगानुकूल उस तथ्य की ओर केवल ध्यान आकर्षित करने का ही प्रयत्न किया है। लोक के घटक तत्त्व __ जैन दर्शन में विश्व के लिए लोक शब्द व्यवहृत हुआ है। जैन चिन्तन के अनुसार इस जगत् में पांच अस्तिकाय अथवा काल सहित छ: द्रव्य मूल हैं। भगवती में पंचास्तिकाय को 1. ठाणं 10/1 2. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई) 13/53 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन लोक कहा गया है। "पंचत्थिकाया एस णं एवतिए लोए त्ति पच्चइ'। ये पांच अस्तिकाय ही लोक के घटक द्रव्य हैं। स्थानांग में पांच अस्तिकाय के वर्णन के समय धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय को 'लोकद्रव्य' कहा है तथा आकाशास्तिकाय को लोकालोकद्रव्य कहा है।' स्थानांग एवं भगवती की टीका के अनुसार लोक के अंशभूत होने के कारण इनकोलोकद्रव्य कहा गया है। इसकातात्पर्य हुआ अस्तिकाय ही लोक है इससे भिन्न लोक का अन्य स्वरूप नहीं है। आकाश का एक भाग तथा अन्य चार अस्तिकाय- इन पांच अस्तिकाय के संयुक्त रूप को ही लोक कहा जाता है। जैन दर्शन का जगत् विश्लेषण पांच अस्तिकाय अथवा षड्द्रव्य के रूप में उपलब्ध है। जैन आगम साहित्यका अवलोकन करते हैं तब वहां पर तत्त्व से सम्बन्धित चार प्रकार के वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं जिसका उल्लेख आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने इस प्रकार किया है - 1. द्रव्य-जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य। 2. पंचास्तिकाय-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्ति काय, पुद्गलास्तिकाय। 3. छह द्रव्य-धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव। 4. नवतत्त्व-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष । जैन दर्शन ने मूल तत्त्व दो ही माने हैं-जीव और अजीव। पंचास्तिकाय' षडद्रव्य एवं नवतत्त्व' इन दो का ही विस्तार है। विश्व-व्यवस्था, अस्तित्व की चर्चा में पंचास्तिकाय अथवा षड्द्रव्य का विवेचन होता है तथा साधना की दृष्टि से नवतत्त्व का विश्लेषण किया जाता है। भगवान् महावीर की मौलिक अवधारणा विश्व-व्यवस्था के संदर्भ में अस्तिकाय की प्रज्ञप्ति भगवान् महावीर की विशिष्ट अवधारणा है। जगत व्याख्या के संदर्भ में सांख्य ने प्रकृति (अजीव-पुद्गल) एव पुरुष (जीव) का, बौद्ध ने नाम एवं रूप का, वैशेषिक ने नौ द्रव्यों का उल्लेख किया है किन्तु अस्तिकाय का सिद्धान्त मात्र महावीर द्वारा ही प्रतिपादित हुआ है। अस्तिकाय शब्द का प्रयोग भी जैनेतर किसी भी दर्शन में उपलब्ध नहीं है। यद्यपि जैन ने द्रव्य शब्द का भी प्रयोग किया है किन्तु 1. ठाणं, 5/170-174, धम्मत्थिकाए............अवट्ठिए लोगदव्वे। 2. (क) स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रं च, पृ. 2 22, लोकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यं । (ख) भगवई, (खण्ड-1), पृ. 411, लोकस्य-पंचास्तिकायात्मकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यम्। 3. भगवई (खण्ड-1) पृ. 291 अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 25/9 5. (क) ठाणं 5/16 9-174 (ख) अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/124 वही, 25/11-12 7. ठाणं 9/6 6. वहा, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 97 द्रव्य शब्द का प्रयोग तो योग, वैशेषिक आदि अन्य दर्शनों में भी तदर्थ हुआ है। बौद्धो में सत्कायदृष्टि के खण्डन का उल्लेख हुआ है। डॉ. टाटिया कहा करते थे कि बौद्ध साहित्य में सत्कायदृष्टि के अर्थ की स्पष्टता नहीं है संभव ऐसा लगता है जैन के अस्तिकाय को ही वहां सत्काय कहा गया है। अस्तिकाय त्रैकालिक अस्तित्व का बोधक है। बौद्ध दर्शन के यहां तो अस्तित्व क्षणिक होता है अतः वे अस्तिकाय के सिद्धान्त का निराकरण करते थे। अनेकान्त जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण एवं प्रमुख सिद्धान्त है। अनेकान्त की स्वीकृति के कारण कुछ विचारक यह समझते हैं कि जैन में मात्र सापेक्ष सत्य की ही स्वीकृति है अतः कुछ समालोचकों ने सापेक्षता के बिन्दु के आधार पर इसकी समालोचना की है।' जबकि सत्य यह है कि सापेक्ष एवं निरपेक्ष दोनों सत्यों की स्वीकृति के बिना अनेकान्त अवस्थित ही नहीं हो सकता।जैनदर्शन में मात्र सापेक्ष सत्य की स्वीकृति है, इस आधार पर की गई समालोचना को निरस्त करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ का वक्तव्य है कि "कुछ समालोचकों ने लिखा है कि स्याद्वाद हमें पूर्ण या निरपेक्ष सत्य तक नहीं ले जाता, वह पूर्ण सत्य की यात्रा का मध्यवर्ती विश्राम गृह है किंतु इस समालोचना में तथ्य नहीं है। स्याद्वाद हमें पूर्ण या निरपेक्ष सत्य तक ले जाता है। उसके अनुसार पंचास्तिकायमय जगत् पूर्ण या निरपेक्ष सत्य है। पांचों अस्तिकायों के अपने-अपने असाधारण गुण हैं और उन्हीं के कारण उनकी स्वतंत्र सत्ता है। इसके अस्तित्व, गुण और कार्य की व्याख्या सापेक्ष दृष्टि के बिना नहीं की जा सकती।''2 द्रव्य निरपेक्ष हैं। पर्याय सापेक्षहैं। अस्तिकाय की अवधारणाका विश्व-व्यवस्था मेंमहत्त्वपूर्ण स्थान है। डॉ. वाल्टर शुब्रींग ने लिखा है-जीव, अजीव और पंचास्तिकाय का सिद्धांत महावीर की देन है। यह उत्तरकालीन विकास नहीं है।' प्रदेश और परमाणु ___ अस्तिकाय के संदर्भ में प्रदेश और परमाणु की विचारणा महत्त्वपूर्ण है। अस्तिकाय की अवधारणा का आधारभूत तत्त्व प्रदेश एवं परमाणु ही है। प्रदेश और परमाणु में अन्तर उसकी स्कन्ध के साथ संलग्नता विलगता के आधार पर ही है वस्तुतः वे दोनों एक समान हैं। स्कन्ध संलग्न परमाणुको प्रदेश कहा जाता है, स्कन्धसे विलगवही अंशपरमाणु कहलाता है। जैन तत्त्व विद्या के अनुसार पुद्गल के चार भेद किए जाते हैं - स्कन्ध, देश, प्रदेश एवं परमाणु । धर्म, अधर्म, आकाश एवं जीव के स्कन्ध, देश एवं प्रदेश के रूप में तीन विभाग किए जाते हैं। पुद्गल के परमाणु होते हैं यह तो सुविदित तथ्य है। इसी तरह अन्य अस्तिकायों 1. Dr. Radhakrishanan, Indian Philosophy (New York) P. 56 2. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन और अनेकान्त, (चूरू, 1999) पृ. 29 3. Schubring, Walther, The Doctrines of the Jaina , P. 126 4. जैन सिद्धान्त दीपिका, 1/31, वृत्ति, निरंश: प्रदेश: ........पृथग्वस्तुत्वेन परमाणुस्ततो भिन्नः। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 जैन आगम में दर्शन के भी परमाणु होते हैं किन्तु उनकी अभिधा प्रदेश रूप में हैं क्योंकि वे अपने स्कन्ध से कभी विलग नहीं होते हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्य एवं आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय तथा जीवास्तिकाय के प्रदेश अनन्त कहे गए हैं।' अस्तिकाय प्रदेशात्मक __ भगवती में प्राप्त अस्तिकाय का स्वरूप दार्शनिक दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस के स्वरूप पर विशद विश्लेषण किया है। भगवती के भाष्य में इसकी विवेचना करते हुए उन्होंने लिखा है कि ---- “जीवतत्त्वका सिद्धांत अनेकदर्शनों में स्वीकृत है। वह अंगुष्ठ परिमाण है, देह-परिमाण है अथवा व्यापक है-यह विषय भी चर्चित है, किंतु उसका स्वरूप ज्ञान- उसके कितने परमाणु या प्रदेश हैं-यह विषय कहीं भी उपलब्ध नहीं है। अस्तिकाय को प्रदेशात्मक बतलाकर भगवान् महावीर ने उसके स्वरूप को एक नया आयाम दिया है। जैन दर्शन में अस्तित्व का अर्थ है-परमाणु या परमाणु-स्कन्ध । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये चार परमाणु स्कन्ध हैं। इनके परमाणु कभी वियुक्त नहीं होते, इसलिए ये प्रदेश स्कन्ध कहलाते हैं। पुद्गलास्तिकाय के परमाणु संयुक्त और वियुक्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं, इसलिए उसमें परमाणु और परमाणुस्कन्ध दोनों अवस्थाएं मिलती हैं। पांच अस्तिकायों में एक जीवास्तिकाय के प्रदेश-स्कन्ध चैतन्यमय हैं, शेष तीन अस्तिकायों के प्रदेश-स्कन्ध तथा पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश-स्कन्ध और परमाणु चैतन्य रहित हैं, अजीव हैं। पांच अस्तिकायों में चार अस्तिकाय अमूर्त हैं, पुद्गलास्तिकाय मूर्त है। अमूर्त का लक्षण है-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का अभाव । मूर्त का लक्षण है-वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से युक्त होना।" पांच अस्तिकाय के साथ काल का योग होने पर छह द्रव्य बन जाते हैं।' अस्तिकाय शब्द विमर्श अस्तिकाय शब्द अस्ति और काय इन दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। प्रस्तुत संदर्भ में अस्ति का अर्थ प्रदेश एवं काय का अर्थ समूह है, प्रदेश-समूह को अस्तिकाय कहा जाता है।' 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/134,135 2. भगवई, (खण्ड) पृ. 292 3. पंचास्तिकाय, (ले. आचार्य कुन्कुन्द, अगास,1986) गाथा 6, तेचेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छन्ति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता। 4. भगवई, (खण्ड-1), पृ. 411, अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्तेऽतस्तेषां काया-राशयोऽस्तिकाया: । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 99 अस्तिकाय में आगत अस्ति' यह त्रिकाल का बोधक निपात है। जिस प्रदेशसमूहका त्रैकालिक अस्तित्व है वह अस्तिकाय है।' तत्त्वार्थभाष्य में अस्तिकाय में काय शब्द का ग्रहण क्यों किया गया, इसके दो कारण बतलाए हैं, वे हैं 1. प्रदेश रूप अवयवों का बहुत्व दिखाने के लिए और 2. अद्धासमय (काल) का प्रतिषेध करने के लिए। अद्धासमय का निषेध इसके दो अर्थ हो सकते हैं-एक तो 1. काल के अस्तित्व का ही निषेध करना अथवा 2.काल के अस्तिकायत्व का निषेध करना। प्रस्तुत प्रसंग में काल के अस्तिकायत्व का ही निषेध अभिप्रेत है क्योंकि इसी अध्याय में लेखक ने काल के उपकार का उल्लेख किया है। यदि प्रस्तुत प्रसंग में काल के अस्तित्व का निषेध होता तो यह उल्लेख संभव ही नहीं था। यद्यपि लेखक ने काल को कुछ आचार्य द्रव्य कहते हैं, ऐसे सूत्र का निर्माण किया है। इससे परिलक्षित होता है उस समय काल को द्रव्य मानने के सम्बन्ध में भी दो अवधारणाएं थीं, एक काल को द्रव्य मानने के पक्ष में थी, दूसरी उसे द्रव्य भी नहीं मानती होगी। आगम में काल को जीव-अजीव की पर्याय भी माना गया है। संभवत: उमास्वाति इसी मान्यता के पक्षधर थे। यद्यपि काल को अस्तिकाय तो किसी ने भी नहीं माना है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रसिद्ध टीकाकार आचार्य सिद्धसेनगणी ने अस्तिकाय पद की नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है। उनके अनुसार काय शब्द उत्पाद एवं व्यय की ओर संकेत करता है तथा अस्ति शब्द ध्रुवता का वाचक है। इस प्रकार अस्तिकाय शब्द से वस्तु का त्रयात्मक स्वरूप अभिव्यजित हो रहा है। अस्तिकाय शब्द से यह ज्ञात होता है कि धर्म आदि पांचों द्रव्य नित्य तथा अस्तित्ववान् हैं तथा वे परिवर्तन के विषय भी बनते हैं। जैन का अस्तिकाय वेदान्त के ब्रह्म एवं सांख्य के पुरुष की तरह कूटस्थ नित्य भी नहीं है तथा बौद्ध के पर्याय की तरह सर्वथा क्षणिक भी नहीं है। अपितु 'उत्पादव्ययध्रुवता' युक्त वस्तु-सत्य है। 1. भगवई (खण्ड-1), पृ. 411, अस्तीत्ययं निपात: कालत्रयाभिधायी, ततोस्तीति-सन्ति, आसन भविष्यन्ति च ये कायाः प्रदेशराशयस्तेऽस्तिकायाइति।। सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/1, कायग्रहणं प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थं च । 3. वही, 5/22 4. वही, 5/38, कालश्चेत्येके। 5. ठाणं, 2/387-390 6. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृत्ति, (ले. सिद्धसेनगणि, बम्बई, वि.सं. 1986) 5/1, पृ. 317, ध्रौव्यार्थ प्रतिपत्तयेऽस्तिशब्दप्रक्षेप:, .........कायग्रहणादापत्तिरुद्भवप्रलयात्मिका प्रतीयत इति.............। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 अस्तिकाय का स्वरूप अस्तिकाय प्रदेशात्मक है ।' काल के प्रदेश नहीं होते अतः वह अस्तिकाय भी नहीं है।' गुण और विविध पर्याय युक्त जिनका अस्ति स्वभाव है। जिनसे तीनों लोक निष्पन्न हुए हैं । वे अस्तिकाय कहलाते हैं । वे अस्तिकाय त्रैकालिकभाव परिणत हैं एवं नित्य हैं । ' अस्तिकाय सत् स्वरूप हैं। वे लोक के कारणभूत हैं । उनका अस्तित्व नियत है । आकाश के एक क्षेत्र में सारे अस्तित्व अवगाहित होने पर भी उनका स्वरूप भिन्न-भिन्न रहता है । परस्पर एक-दूसरे में अनुप्रविष्ट होकर भी उनमें स्वरूप सांकर्य नहीं होता ।' आगमों में स्थान-स्थान पर पंचास्तिकाय का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है, जिसकी हम यहां संक्षिप्त चर्चा करेंगे। यहां विशेष रूप से यह स्मरणीय है कि आगम में जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग बहुतायत में हुआ है। किंतु तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य में जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग प्राप्त नहीं है। आचार्य उमास्वाति ने धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल इनको अजीवकाय कहा है तथा भाष्य में इन्हें अस्तिकाय से भी अभिहित किया है।' जीव को द्रव्य कहा है।' किंतु अस्तिकाय नहीं कहा। इस समस्या को जब भगवती में विवेचित अस्तिकाय के संदर्भ में देखते हैं तो ऐसा लगता है कि भगवती सम्पूर्ण जीवों के समूह को अस्तिकाय कह रही है । तत्त्वार्थ उत्तरवर्ती ग्रंथ एक जीव को अस्तिकाय कह रहे हैं । तत्त्वार्थ का समय इस प्रथम से द्वितीय अवधारणा पर पहुंचने का संक्रान्तिकाल लग रहा है, जहां सूत्रकार जीव शब्द का प्रयोग तो कर रहा है किंतु जीवास्तिकाय का नहीं । जीव को द्रव्य तो आगमकाल में भी कहा गया है उत्तरकाल में भी यह स्वीकृत है। जीव को द्रव्य कहने में उमास्वाति को कोई कठिनाई नहीं हो रही है। भगवती में अस्तिकाय की अवधारणा गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा 'भंते! धर्मास्तिकाय के एक, दो, तीन आदि प्रदेशों को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है ?' जैन आगम में दर्शन 'गौतम! नहीं कहा जा सकता।' 1. अंग सुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2 / 124 135 2. जैन सिद्धान्त दीपिका, 1 / 2 3. पंचास्तिकाय, गाथा 5, जेसिं अत्थिसहाओ गुणेहिं सहपज्जएहिं विविहेहिं । ते होंति अत्थिकाया णिप्पण्णं जेहिं तइलुकं ॥ 4. वही, गाथा 6, ते चेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा । 5. वही, गाथा 7 6. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/1, अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । वही, 5 / 2, द्रव्याणि जीवाश्च । 7. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 101 'भंते! उन्हें धर्मास्तिकाय क्यों नहीं कहा जा सकता?' गौतम ! चक्र का खण्ड चक्र कहलाता है या पूरा चक्र चक्र कहलाता है? 'भंते! चक्र का खंड चक्र नहीं कहलाता, पूरा चक्र चक्र कहलाता है।' ऐसे ही छत्र, चर्मरत्न, दण्ड आदि के सम्बन्ध में महावीर और गौतम का संवाद होता है। निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं 'इसी प्रकार गौतम! धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश न्यून धर्मास्तिकाय को धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता। प्रतिपूर्ण प्रदेशों को ही धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है।' अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय के लिए भी यही नियम है। अस्तिकाय का लोक व्यापित्व पांच अस्तिकाय में धर्म, अधर्म एवं आकाश को संख्या की दृष्टि से एक कहा गया है। एक जीव के असंख्य प्रदेश होते हैं। जीव संख्या की दृष्टि से अनन्त है। प्रत्येक जीव को जीवास्तिकाय का प्रदेश मानने से जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश हो जाते हैं। भगवती में उन अनन्त जीवों के समुदय को जीवास्तिकाय कहा गया है। भगवती में पुद्गलास्तिकाय के भी अनन्त प्रदेश निर्दिष्ट हैं। जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल के स्कन्ध एवं परमाणु ये दो विभाग हैं। परमाणुभी संख्या में अनन्त हैं एवं स्कन्ध भी अनन्त है। इनके समुदय कोपुद्गलास्तिकाय कहा गया है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय को स्कन्ध की अपेक्षा एक व्यक्तिक कहा गया है। ये सदैव एक स्कन्ध के रूप में ही रहते हैं, यद्यपि प्रदेश की दृष्टि से धर्म-अधर्म के असंख्य प्रदेश एवं आकाश के अनन्त प्रदेश स्वीकृत हैं। जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय को क्षेत्र की अपेक्षा लोक प्रमाण माना गया है।' इसी प्रकार धर्म-अधर्म द्रव्य भी लोक व्यापी हैं। जीव जीवास्तिकाय का एक देश हैं। प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशात्मक है। ठाणं में धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय लोकाकाश एवं एक जीव इन चारों को असंख्य प्रदेशात्मक बताया है। धर्म, अधर्म, लोकाकाश तो स्पष्ट रूप से लोक व्यापी द्रव्य हैं, केवली समुद्घात के चतुर्थ समय में जीव भी लोक व्यापी बन जाता है।' किन्तु यह नियम केवली-समुद्घात करने वाले जीवों पर ही लागू होता है। भगवती में 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/130 - 135 2.वही, 2/125-127 3. वही, 2/128, दव्वओणं जीवत्थिकाए अणंताई जीवदव्वाइं। 4.वही,2/129 5.वही,2/128-129 6.वही, 2/125-126 7. भगवई (खण्ड-1), पृष्ठ 412 उपयोगगुणो जीवास्तिकाय:.........तदंशभूतो जीवः। 8. ठाणं, 4/495 9. वही, 8/114, चउत्थे समए लोगं परेति। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 जैन आगम में दर्शन जीवास्तिकाय को लोक व्यापी कहा गया है वह एक जीव की अपेक्षा से नहीं है किन्तु उस वक्तव्य का तात्पर्य है कि लोक में कोई भी ऐसा स्थान नहीं है जहां जीव नहीं हो । यही नियम पुद्गलास्तिकाय पर लागू होता है। अचित महास्कन्ध की अवस्था में पुद्गल का एक स्कन्ध लोक-व्यापी बनता है किन्तु भगवती में उल्लिखित पुद्गलास्तिकाय के लोक व्यापित्व का अर्थ है लोक का कोई भी ऐसा स्थान नहीं है जहां पुद्गल न हो अर्थात् पुद्गल का अवस्थान सम्पूर्ण लोक में है। भगवती में चार अस्तिकाय को लोकव्यापी एवं आकाशास्तिकाय को लोकालोकव्यापी कहा है। सब अस्तिकाय लोक व्यापी होने पर भी उनका लोक -व्यापित्व एक जैसा नहीं है, यह उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है। अस्तिकाय की विविधता जैनदर्शन में अस्तिकाय की अवधारणा विश्व-अस्तित्व कीबोधक है। विश्व-अस्तित्व की समग्र अवधारणा अस्तिकाय शब्द से अभिव्यंजित हो जाती है। जैन दर्शन में धर्म-अधर्म आदि पांच अस्तिकाय स्वीकृत हैं किंतु इनके स्वरूप में विविधता है। अस्तिकाय शब्द तो सबके लिए प्रयुक्त हुआ है पर सबका अस्तिकायत्व एक जैसा नहीं है। अस्तिकाय की अवधारणा का विमर्श करने पर तीन प्रकार के अस्तिकाय की अवगति होती है 1. धर्म, अधर्म एवं आकाश 2. जीवास्तिकाय 3. पुद्गलास्तिकाय। धर्म-अधर्म एवं आकाश रूप अस्तिकाय अविभाज्य स्वरूप वाला है । वह संख्यात्मक दृष्टि से एक है।' उसके प्रदेश विभक्त नहीं होते। जीव के समुदय को जीवास्तिकाय कहा गया है। जीव अनन्त हैं। एक-एक जीव के असंख्य-प्रदेश होते हैं। वे असंख्य प्रदेश कभी भी परस्पर विभक्त नहीं हो सकते। इसका तात्पर्य हुआ कि जीवास्तिकाय का अंश रूप जो जीव है, वह संख्यात्मक दृष्टि से अनन्त है उन प्रत्येक जीवों के पृथक्-पृथक् असंख्य प्रदेश हैं। जो कभी विभक्त नहीं हो सकते। यद्यपि भगवती में ही अन्यत्र जीव के लिए भी जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग हुआ है। उत्तरकालीन साहित्य में जीवास्तिकाय का प्रयोग एक जीव के लिए ही होता रहा है।' अनुयोगद्वार चूर्णि में जीवास्तिकाय में काय शब्द को प्रदेशों के समूह अथवा जीवों के समूह का वाचक माना है। यहां जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग एक जीव एवं सर्वजीवों के समूह के लिए हुआ है। 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/12 5 - 127 2. वही, 2/128 वही 25/244 4. पंचास्तिकाय, गाथा 4 5. अनुयोगद्वारचूर्णि, पृ. 29, कायस्तु समूह: प्रदेशानां जीवानां वा उभयथाप्यविरुन्द्रं इत्यतो जीवास्तिकायः । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 103 पुद्गल परमाणु एवं स्कन्ध के भेद से द्विविध है। परमाणु भी अनन्त हैं एवं स्कन्ध भी अनन्त हैं। उन अनन्त परमाणु एवं अनन्त स्कन्धों के समूह को पुद्गलास्तिकाय कहा गया है।' जैसे जीव अनन्त है वैसे ही परमाणु एवं स्कन्ध भी अनन्त हैं। जीव के असंख्य प्रदेश सदैव संलग्न रहते हैं किंतु पुद्गल के ऐसा नियम नहीं है। संख्यात्मक दृष्टि में समानता होने पर भी स्वरूप की दृष्टि से जीव और पुद्गल के अस्तिकायत्व में परस्पर भेद है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-ये तीनों अमूर्त होने के कारण अदृश्य हैं। जीवास्तिकाय अमूर्त होने के कारण दृश्य नहीं है फिर भी शरीर के माध्यम से प्रकट होने वाली चैतन्यक्रिया के द्वारा वह दृश्य है। पुद्गलास्तिकाय मूर्त होने के कारण दृश्य है। परमाणु, द्विप्रदेशी यावत् सूक्ष्म परिणति वाले अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध मूर्त होने पर भी सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का संक्षिप्त नाम धर्म एवं अधर्म है। भारतीय दर्शन में धर्म, अधर्म शब्द का प्रयोग आचार-मीमांसा के संदर्भ में, शुभाशुभ प्रवृत्ति के अर्थ में तो हुआ है, पर तत्त्व-मीमांसा की दृष्टि से धर्म और अधर्म का मौलिक तत्त्वों के रूप में निरूपण जैन दर्शन में ही प्राप्त होता है। षड्द्रव्यों में चार का उल्लेख तो इतर दर्शनों में भी प्राप्त है पर धर्म-अधर्म की स्वीकृति जैन दर्शन की मौलिक है। धर्म-अधर्म दोनों अमूर्त द्रव्य हैं। अजीव हैं, शाश्वत एवं अवस्थित हैं। एक स्कन्ध रूप हैं अत: इनको द्रव्य से एक द्रव्य कहा जाता है। क्षेत्र की अपेक्षायेसम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। कालसेइनकात्रैकालिक अस्तित्व है। धर्मास्तिकाय के सभी प्रदेशों में गति में सहयोगी बनने की क्षमता है तथा अधर्मास्तिकाय के सभी प्रदेशों में स्थिति में सहयोगी बनने की क्षमता है। धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय असंख्यप्रदेशात्मक है। ये क्रमश: गति-स्थिति सहायक बनते हैं। किंतु गति-स्थिति के प्रेरक नहीं हैं, ये स्वयं निष्क्रिय हैं। यद्यपि आगम साहित्य में इनकी सक्रियता तथा निष्क्रियता का उल्लेख नहीं है जैसा कि तत्त्वार्थ ने स्पष्ट रूप से इन्हें निष्क्रिय कहा है। भगवती में इनको द्रव्य से एक द्रव्य तथा क्षेत्र से लोक-प्रमाण कहा है। इसका तात्पर्य हुआ कि ये एकात्मक होते हुए सर्वव्यापक हैं तथा जो एकद्रव्य रूप में व्यापक हैं वह सक्रिय नहीं हो सकता अत: निष्कर्ष रूप में इनकी निष्क्रियता सिद्ध हो जाती है। आगमोत्तर साहित्य में धर्म-अधर्म के कार्य को क्रमश: मछली एवं पृथ्वी आदि के उदाहरण से समझाया गया है। वैसा प्रयत्न आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं है। 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/129 2. वही, 2/125,126 3. वही, 2/134-135 4. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/6 5. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई)2/125-126 6. पंचास्तिकाय, गाथा 8 5 - 8 6, उदयं जह मच्छाणं.......................कारणभूदं तु पुढवीव ।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 जैन आगम में दर्शन धर्म-अधर्म की उपयोगिता धर्मास्तिकाय का लक्षण गति और अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थिति है।' गति और स्थिति से ही लोक की व्यवस्था होती है। जहां गति और स्थिति है वहां लोक है, जहां गति और स्थिति नहीं है वह अलोक है। इन दो द्रव्यों ने ही आकाश को दो भागों में विभक्त किया है। लोकाकाश और अलोकाकाश। आगमन-गमन, भाषा, उन्मेष, मनयोग, वचनयोग, काययोग आदि जितने भी चल भाव हैं, इन सबका आलम्बन गति सहायक धर्म द्रव्य ही है।' वैसे ही बैठना, सोना, खड़ा होना, मन को एकाग्र करना आदि जितने भी स्थिरभाव हैं उनसबका आलम्बन स्थिति सहायक अधर्म द्रव्य है। धर्म-अधर्मदोनों ही द्रव्य क्रमश: जीवएवंपुद्गल कीगति-स्थिति के उपकारक द्रव्य हैं। लोक के आकार का निर्धारण इन दोनों द्रव्यों के आधार पर होता है। लोक का आकार सुप्रतिष्ठकसंस्थान 'त्रिशरावसम्पुटाकार' माना गया है। पर वास्तव में वह आकार धर्म एवं अधर्म का ही है। इनके आकार के आधार पर ही लोक के आकार की व्याख्या की जाती है। लोक-अलोक की विभाजक रेखा इन तत्त्वों के द्वारा ही निर्धारित होती है। इनके बिना लोकअलोककी व्यवस्था नहीं बनती। “लोकालोकव्यवस्था-न्यथानुपपत्ते:' गति-स्थिति निमित्तक द्रव्य तथा लोक-अलोक की विभाजक शक्ति के रूप में धर्म-अधर्म की अनिवार्य अपेक्षा है। गति-स्थिति सम्पूर्ण लोक में होती है। इसलिए हमें ऐसी शक्तियों की अपेक्षा है, जो स्वयं गतिशून्य और सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हों और अलोक में न हों । इस यौक्तिक आधार पर हमें धर्म-अधर्म की आवश्यकता का सहज बोध होता है। धर्म-अधर्म के अस्तित्व के संदर्भ में एक शंका यह भी की जाती है कि वे दोनों दिखाई नहीं देते फिर उनका अस्तित्व कैसे स्वीकार किया जा सकता है? इसका समाधान इस रूप में प्राप्त होता है कि ये दोनों अमूर्त्तद्रव्य हैं। अमूर्त्तद्रव्यों का ग्रहण इन्द्रियों से नहीं हो सकता।' वेतोउपग्रह के द्वारा अनुमेय होते हैं-उपग्रहानुमेयत्वात् । भगवती टीका में भी कहा गया है कि छद्मस्थ को अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान उनके कार्यों के द्वारा ही होता है। गति सहायकत्व एवं स्थितिसहायकत्वरूप कार्य हमारे सामने है इससे इनके अस्तित्व का सहज अनुमान हो जाता है। 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 13/56-57,..............गइलक्खणे णं धम्मत्थिकाए। ............ठाणलक्खणे णं अधम्मत्थिकाए। 2. वही, 2/ 138 3. वही, 13/56 4. वही, 1 3/57 5. वही, 11/98 6. वही, 18/139 1. उत्तराज्झयणाणि, 14/19, नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा । 8. भगवती वृत्तिपत्र, (ले. अभयदेवसूरि, मुम्बई, वि.सं. 2049)752, कार्यादिलिंगद्वारेणैवाग्दिशामतीन्द्रिय पदार्थावगमोभवति। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 105 चार अस्तिकाय के अष्ट मध्यप्रदेश भगवती एवं स्थानांग में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय के आठ-आठमध्यप्रदेशों का उल्लेख है।' स्थानांग टीका में उन मध्यप्रदेशों को रुचक रूप कहा है। भगवती वृत्तिकार ने चूर्णिकार के मत को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि धर्मास्तिकाय के मध्य प्रदेश अष्ट रुचक प्रदेशों पर अवगाहित हैं। वृत्तिकार अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि धर्मास्तिकाय आदि लोकव्यापी होने के कारण उनका मध्य तो रत्नप्रभावकाशन्तर ही है रुचक नहीं है फिर भी दिशा अनुदिशा की उत्पत्ति रुचक से होती है अत: धर्मास्तिकाय आदि का मध्य भी वहां विवक्षित कर दिया होगा, ऐसी सम्भावना की जा सकती है। केवली समुद्घात में जीव के आठ अविचल मध्य प्रदेश रुचक-स्थित होते हैं।' इसका तात्पर्य यह परिलक्षित होता है कि केवली समुद्घात के समय जीव सर्वलोकव्यापी होता है उस समय उसके आठ मध्य प्रदेशों का अवस्थान लोक के आठ मध्य प्रदेशों पर होता है तथा धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के मध्य प्रदेश तो पहले से ही उस स्थान पर स्थित हैं। धर्म, अधर्म, लोकाकाश एवं एक जीव के प्रदेश समतुल्य हैं। संख्यात्मक दृष्टि से समान है, जितने एक जीव के प्रदेश हैं उतने ही अन्य के हैं। कम-ज्यादा नहीं हैं। धर्म-अधर्म एवं आकाश द्रव्य तो निष्क्रिय है अत: उनके प्रदेश तो जहां स्थित हैं वहीं रहेंगे किंतु जीव के प्रदेशों में संकोच विस्तार होता है किंतु मध्य के अष्ट प्रदेश अविचल होते हैं। केवली-समुद्धात के समय वे ही मध्यप्रदेश लोक के रुचक प्रदेशों पर स्थित होते हैं। भगवती में उल्लेख है कि जीव के अष्ट मध्य प्रदेश जघन्य रूप से आकाश के एक, दो, तीन, चार, पांच, छ: आकाश प्रदेशों में एवं उत्कृष्ट आठ आकाश प्रदेशों पर स्थित हो सकते हैं किंतु सात आकाश प्रदेश पर स्थित नहीं हो सकते। सात आकाश प्रदेश पर अवस्थिति का निषेध क्यों किया गया है? इसका कोई हेतु नहीं दिया गया है। 1. (क) अंगसुत्ताणि भाग 2 'भगवई' 25/240-243 (ख) ठाणं, 8/48-51 2. स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रं च (स्थानांगवृत्ति) पृ. 289,......मध्यप्रदेशास्ते ये रुचकरूपा। 3. भगवती, वृत्तिपत्र 8 87, अट्ठधम्मत्थिकायस्स मज्झपएस त्ति, एते च रुचकप्रदेशाष्टकावगाहिनोऽवसेया इति चूर्णिकार:। ही, पृ. 887, इह च यद्यपि लोकप्रमाणत्वेन धर्मास्तिकायादेमध्यं रत्नप्रभावकाशान्तरं एव भवति न रुचके तथाऽपि दिशामनुदिशां च तत्प्रभवत्वाद्धास्तिकायादि मध्यं तत्र विवक्षितमिति संभाव्यते। 5. स्थानांगसूत्रंसमवायांगसूत्रं च, (स्थानांगवृत्ति) पृ. 289,जीवस्यापि केवलिसमुद्घाते रुचकस्था एव ते........। 6. ठाणं, 4/495 7. स्थानांगसूत्रंसमवायांगसूत्रंच, (स्थानांग, टीका) पृ. 289,..........ते अन्यदात्वष्टावविचला येतेमध्यप्रदेशा: । अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 25/244, एएणं भंते! अट्ठजीवत्थिकायस्स मज्झपदेसा कतिसुआगासपदेसेसु ओगाहंति। गोयमा जहण्णेणं एक्कंसिवा दोहिंवा तीहिंवा चउहिंवा पंचहिंवा छहिंवा, उक्कोसेणं अट्टस्सनो चेव सत्तस्। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 जैन आगम में दर्शन टीकाकार ने “वस्तु-स्वभाव'' कहकर इसको समाहित करने का प्रयत्न किया है।। फिर भी जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि मात्र सात का ही निषेध क्यों किया गया? हो सकता है इसके पीछे कोई विशेष दृष्टि रही हो किंतु टीकाकार के समय में वह दृष्टि विलुस हो गई हो, ऐसी स्थिति में आगम-प्रमाण पर ही हम अवलम्बित रह सकते हैं। संभावना तो यह भी की जा सकती है कि शायद कोई गणित का ऐसा नियम हो जिसके कारण वे आठ-प्रदेश आकाश के सात प्रदेशों पर स्थित नहीं हो सकते। भगवती एवं स्थानांग दोनों में ही आकाशास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेश का उल्लेख है संभवत: यहां लोकाकाश के अर्थ में आकाशास्तिकाय का प्रयोग हुआ है, क्योंकि आकाशास्तिकाय के प्रदेश तो अनन्त हैं तब उसके मध्य प्रदेश क्या होंगे? लोकाकाश का प्रदेशाग्र धर्म-अधर्म एवं एक जीव के प्रदेशाग्र के तुल्य हैं उनके मध्य प्रदेशों का उल्लेख हैं अत: यह उल्लेख लोकाकाश के लिए ही हुआ प्रतीत होता है। भगवती के 25 वें शतक में जीवास्तिकाय के आठ मध्यप्रदेश माने हैं। यहां जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग जीव के संदर्भ में हुआ है न कि जीव-समुदय के रूप में। जैसा कि दूसरे शतक में जीव-समुदय के अर्थ में जीवास्तिकाय शब्द का प्रयोग हुआ है। ठाणं में तो जीव के ही आठ मध्यप्रदेश माने हैं। इससे भी यह तथ्य समर्थित होता है। जीव-पुद्गल की गति लोक में ही क्यों? जीव और पुद्गल गतिशील द्रव्य हैं। उनकी गति में सहायक तत्त्व कौन हैं ? वे लोक में ही गति क्यों करते हैं ? अलोक में क्यों नहीं जाते ? ये प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होते हैं। आगमोत्तर काल के जैन साहित्य में उत्तर दिया गया है कि जीव और पुद्गल धर्मास्तिकाय के सहयोग से गति करते हैं, अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है अत: वे अलोक में नहीं जा सकते।' आगम साहित्य में धर्मास्तिकाय को तो गति के सहायक द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है, किंतु वहां पर धर्मास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य कारणों का भी गति सहायक तत्त्व के रूप में उल्लेख प्राप्त है। स्थानांग में बतलाया गया है कि चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक से बाहर नहीं जा सकते' - 1. भगवती, वृत्ति पत्र 887, नोचेवणं सत्तसुवि' त्ति वस्तुस्वभावादिति । 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 25/244 3. वही, (भगवई)2/128,दव्वओणंजीवत्थिकाए अणंताइंजीवदव्वाई। 4. ठाणं, 8/51 5. जैन सिद्धान्त दीपिका, वृत्ति 1/5, एतयोरभावादेव अलोके जीवपुद्गलानामभाव: 1 6. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/125, गुणओ गमणगुणे। ठाणं, 4/498,चउहिंठाणेहिंजीवाय पोग्गलायणोसंचाएंति बहिया लोगंतागमणयाए,तं जहा -- गतिअभावेणं, णिरुवग्गहयाए, लुक्खताए, लोगाणुभावेणं। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 1. गति का अभाव 2. निरुपग्रहता - गति तत्त्व के आलम्बन का अभाव । 3. रुक्षता 4. लोकानुभाव - लोक की सहज मर्यादा । लोकस्थिति के वर्णन के प्रसंग में भी जीव और पुद्गल की अलोक में गति नहीं होती, इसके लिए धर्मास्तिकाय से भिन्न कारणों का भी उल्लेख है । 107 जहां जीव और पुद्गलों का गति पर्याय है वहां लोक है और जहां लोक है वहां जीव और पुद्गलों की गतिपर्याय है।' यहां जीव - पुद्गल की गतिपर्याय का निषेध किया गया है तथा लोक की सीमा भी गतिपर्याय के आधार पर स्वीकार की है फिर भी यहां पर एक जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि गतिपर्याय लोक में ही क्यों है, उसके बाहर क्यों नहीं ? समस्त लोकान्तों के पुद्गल दूसरे रुक्ष पुद्गलों के द्वारा अबद्ध और अस्पृष्ट होने पर भी लोकान्त के स्वभाव से रुक्ष हो जाते हैं, जिससे जीव और पुद्गल लोकान्त से बाहर जाने में समर्थ नहीं होते हैं । ' प्रस्तुत वक्तव्य से फलित होता है कि अलोक में जीव और पुद्गल की गति इसलिए नहीं होती कि लोकान्त में पुद्गल रुक्ष हो जाते हैं, अत: वे गति में सहयोगी नहीं बनते । धर्मास्तिकाय के होने पर भी पुद्गल के सहयोग के बिना गति नहीं हो सकती । परमाणु के गति स्खलन के कारणों में भी गतितत्त्व का उल्लेख नहीं हुआ है । ' भगवती में एक प्रश्न उपस्थित किया गया है कि लोकान्त में खड़ा रहकर देव अलोक में अपना हाथ हिला सकता है क्या ? ' उत्तर दिया गया कि नहीं हिला सकता और उसका कारण बताया है कि वहां पर पुद्गल नहीं है अत: गति नहीं हो सकती । "जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला, पोग्गलमेव पप्प जीवाण य अजीवाण य गतिपरियाए आहिज्जइ । अलोए णं नेवत्थि जीवा नेवत्थि पोग्गला ।' स्पष्ट है कि यहां पर जीव और अजीव की गति का कारण पुद्गल को माना गया है। धर्मास्तिकाय के होने पर भी पुद्गल के सहयोग के बिना जीव एवं पुद्गल की गति नहीं होती । अलोक में पुद्गल नहीं है, इसलिए वहां जीव एवं पुद्गल नहीं जा सकते। ' उपर्युक्त वक्तव्यों के आधार पर हम यह निष्कर्ष तो नहीं निकाल सकते कि "यदि भगवती के इस स्तर की रचना के समय में धर्मास्तिकाय 1. ठाणं, 10/1/9, 2. वही, 10 / 1 /10 3. वही, 3 / 498, तिविहे पोग्गलपडिघाते पण्णत्ते, तं जहा परमाणु पोग्गले परमाणुपोग्गलं पप्प पडिहण्णिज्जा, लुक्खत्ताए वा पडिण्णिज्जा, लोगंते वा पडिहण्णिज्ना । 4. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 16/118 5. वही, 16 / 119 6. भगवती, वृति पत्र 717, इदमुक्तं भवति - यत्र क्षेत्रे पुद्गलास्तत्रैव जीवानां पुद्गलानां च गतिर्भवति, एवं चालोके नैव संति जीवा नैव च सन्ति पुद्गला इति तत्र जीवपुद्गलानां गतिर्नास्ति, तदभावाच्चालोके देवो हस्ताद्याकुण्टयितुं प्रसारयितुं वा न प्रभुरिति । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 जैन आगम में दर्शन की कल्पना स्थिर हो गई तो ऐसा उत्तर नहीं मिलता।''। इस प्रसंग में आचार्य महाप्रज्ञ का अभिमत उल्लेखनीय है "यह सही है कि अलोक में जीव और पुद्गल नहीं हैं और लोकान्त के सभी भागों में रुक्ष पुद्गल हैं, इसलिए गति नहीं होती। मुक्त आत्मा की गति लोकान्त तक ही क्यों होती है, आगे अलोक में क्यों नहीं होती ? वह गति पुद्गल-परमाणु के योग से नहीं होती, इसलिए अलोक में जीव नहीं है, अजीव नहीं है-यह नियम भी बाधक नहीं बन सकता। लोकान्त के परमाणु रुक्ष हैं, यह नियम भी उसमें बाधक नहीं बन सकता। मुक्त आत्मा की गति अलोक में नहीं होती, इसका नियामक तत्त्व धर्मास्तिकाय ही हो सकता है। जहां तक गति का माध्यम है वहां तक अर्थात् लोकान्त तक मुक्त आत्मा चली जाती है, उससे आगे अलोक में धर्मास्तिकाय नहीं है इसलिए वह वहां नहीं जा सकती।' उपर्युक्त विमर्श के पश्चात् निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि आगम युग में गति सहायक तत्त्व के रूप में धर्मास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य कारणों की भी स्वीकृति है। उत्तरकालीन जैन दार्शनिक साहित्य में गति तत्त्व के सहयोगी के रूप में मात्र धर्मास्तिकाय का ही उल्लेख है। वहां पर आगम में प्राप्त अन्य कारणों का उल्लेख ही नहीं किया गया है। विचार-विकास के परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसा संभव लगता है कि उत्तरकालीन जैन दार्शनिक जैन मान्यताओं को एक व्यवस्थित आकार दे रहे थे। गति सहायक तत्त्व के रूप में प्राप्त कारणों में धर्मास्तिकाय ही असाधारण एवं मुख्य कारण था। क्योंकि इतर कारणों में गति सहायक द्रव्य के रूप में स्वीकृत धर्मास्तिकाय जैसी असाधारणता नहीं थी। अत: गति में असाधारण कारण होने से उत्तरवर्ती आचार्यों ने आगम में प्राप्त अन्य कारणों की उपेक्षा करके धर्मास्तिकाय को ही गति सहायक तत्त्व के रूप में स्वीकृति दी। धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय की तुलना अस्तिकाय की अवधारणा भगवान् महावीर की दर्शन के क्षेत्र में मौलिक देन है। उनमें भी धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की स्वीकृति जैनेतर अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है। जैनदर्शनकायहमौलिक अवदान है। आधुनिक कुछ विद्वान् धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय की तुलना क्रमश: सांख्य की प्रकृति के दो गुण रज एवं तम से कर रहे हैं - "Acomparative study of these two substances-Dharma and Adharma can be made with two Gunas of Prakrtitattva(Primordial Matter)ofthe Samkya Philosophy, viz. Rajas (energy)and Tamas (inertia). Rajas, being mobile is 1. मालवणिया, दलसुख, जैन दर्शन का आदिकाल, पृ. 35 2. भगवई (खण्ड 1) भूमिका पृ. 18 3. आवश्यकचूर्णि, पृ. 16,जेण अलोए जीवाजीवदव्वाणं धम्मत्थिकायदव्वस्स अभावे गती चेव गत्थि। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा dynamic in nature. It keeps the action of Prakrti in motion, i.e. it gives an impetus to action to be set in motion, while Tamas puts restraint on the motion." though they have the same significance in regard to their origin with the attributes of gatisilata of Rajas (motion or dynamism of Rajas) and sthisilata of Tamas (static state or rest)."1 धर्म एवं अधर्म की तुलना प्रकृति के गुण रज एवं तम के साथ करनी समीचीन प्रतीत नहीं होती, क्योंकि रज और तम तो प्रकृति के गुण है जबकि जैन दर्शन ने धर्म एवं अधर्म को स्वतंत्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया है। 2 जैन दर्शन के अनुसार धर्मास्तिकाय स्वयं गतिशील नहीं है, निष्क्रिय है।' वह उदासीन भाव से जीव- पुद्गल की गति में सहायता करता है। गमन में सहयोग करना उसका असाधारण धर्म है। ' प्रकृति में प्राप्त रज नाम का गुण तो स्वयं चंचल है, 'गतिशील है । वैसे ही तमोगुण गुरु एवं आवारक है।' उनकी तुलना धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय से कैसे हो सकती है ? प्रकृति पुद्गल द्रव्य की तरह मूर्त है जबकि धर्म एवं अधर्म अमूर्त द्रव्य हैं।' स्याद्वादमंजरी में रजस् तमस् एवं सत्त्वगुण को उत्पाद, विनाश एवं स्थिति का कारण माना है, अत: उनकी तुलना उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवता के साथ तो कदाचित् हो सकती है । अन्यत्र विमर्शनीय है । 8 पर्यायवाची अभिवचन भगवती में पांचों ही अस्तिकाय के अनेक पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख हुआ है । ' आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय एवं पुद्गलास्तिकाय के अभिवचन तो उन अस्तिकायों के स्वरूप को अभिव्यक्त करने वाले हैं, किंतु धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के अभिवचन विमर्शनीय है । 109 धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातवेरमण, मृषावादवेरमण आदि पांच वेरमण, मन, क्रोधविवेक आदि से लेकर मिथ्यादर्शनशल्य तक, ईर्या, भाषा, एषणा, आदन- निक्षेप एवं उत्सर्ग समिति तथा मनगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्ति इन सबको धर्मास्तिकाय के अभिवचन कहा गया है । अधर्मास्तिकाय के अभिवचन धर्मास्तिकाय के विपरीत हैं । " 10 1. Dr. Sikdar J. C, Jain Theory of Reality, (वाराणसी, 1991 ) PP 186-187 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2/124 3. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5/6 4. अंगसुत्ताणि भाग 2 ( भगवई) 2 / 125, ..... .. गमणगुणे । 5. सांख्यकारिका, 13, उपष्टम्भकंचलं च रजः । 6. वही, 13, गुरुवरणकमेव तमः । 7. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 2 / 125-126 8. स्याद्वादमंजरी, पृ. 41, रजोगुणात्मकतया सृष्टौ, तमोगुणात्मकतया संहरणे, सात्त्विकतया च स्थितौ ...... । 9. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 20 / 14-18 10. वही, 20/14 11. वही, 20/15 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 जैन आगम में दर्शन प्रस्तुत प्रसंग में प्रदत्त पर्यायवाची शब्दों के उल्लेख में धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय ये दो शब्द तो प्राप्त हैं किंतु अन्य सारे ही अभिवचन, धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय की स्वरूप मीमांसा के अनुकूल नहीं है । वस्तुत: ये पर्यायवाची धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय के न होकर धर्म एवं अधर्म के हैं। धर्म-अधर्म आचार-मीमांसा के शब्द हैं। जीव की शुभ, अशुभ प्रवृत्ति के द्योतक हैं जबकि धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय अजीव हैं। उनकी अवधारणा आचार-मीमांसा में प्रयुक्त धर्म-अधर्म से सर्वथा भिन्न हैं। ___ भगवती टीकाकार के अनुसार धर्म शब्द से साधर्म्य के कारण अस्तिकाय रूप धर्म के पर्याय रूप में प्राणातिपात विरमण आदि का कथन कर दिया है। वस्तुत: प्राणातिपात विरमण आदि चारित्र धर्म हैं।' उनका धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय की अवधारणा से साम्य नहीं है। धर्मास्तिकाय आदि के प्रदेशों का स्वभाव बंध अस्तिकाय का अस्तित्व स्कन्धात्मक है। अखण्ड वस्तु अथवा परमाणुओं के एकीभाव को स्कन्ध कहते हैं। वस्तु के प्रदेश आपस में बन्धे हुए रहते हैं। उन परमाणुओं के पारस्परिक सम्बन्ध को बन्ध कहा जाता है। भगवती में दो प्रकार के बंधों का उल्लेख हुआ है - प्रयोग बंध एवं विस्रसा (स्वभाव) बंध।' सादि एवं अनादि के भेद से विससा बन्ध भी द्विधा विभक्त है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय के प्रदेशों के पारस्परिक सम्बन्ध को अनादि विससा बन्ध के अन्तर्गत समाविष्ट किया गया है। उनके प्रदेशों में देश बंध है, सर्वबंध नहीं है। धर्म-अधर्म एवं आकाश के प्रदेशों का बंध सार्वकालिक है।' धर्म आदि तीनों अस्तिकाय के प्रदेशों में अनादिकाल स्वभाव बंध है। ये तीनों अस्तिकाय निष्क्रिय हैं ' एवं सर्वलोक व्यापी हैं। इनके प्रदेशों का जीव एवं पुद्गल के प्रदेशों की तरह संकोच विकोच नहीं होता है। ये सर्वकाल में जहां स्थित है वहीं स्थित रहेंगे। इसलिए ही इनके बंध को अनादि के साथ सर्वकालिक भी कहा है। देश बंध सांकल की कड़ियों जैसे होता है। और सर्वबंध क्षीर-नीर की तरह होता है। इन अस्तिकायों का देशबंध है अर्थात् इनके प्रदेशएकदूसरे का स्पर्श करते हैं किन्तुएक दूसरे में समाहित नहीं होते।सबका अवगाहन स्थल स्वतंत्र होता है। धर्म के असंख्य प्रदेश है तो उनके अवगाहन के लिए असंख्य आकाश प्रदेश ही चाहिए। जीव और पुद्गल की तरह उनका अवगाहन नहीं हो सकता। 1. भगवतीवृत्ति, पत्र 776, इह धर्म: -चारित्रलक्षण: स च प्राणातिपातविरमणादिरूपः ततश्च धर्मशब्दसाधादस्तिकायरूपस्यापि धर्मस्य प्राणातिपातविरमणादय: पर्यायतया प्रवर्तन्त इति। 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8/345, दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-पयोगबंधे य, वीससाबंधे य। 3. वही, 8/346 4. वही, 8/347 5. वही, 8/348 6. वही, 8/349 7. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, सूत्र 5/6 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा आकाशास्तिकाय विश्व-संरचना के घटक द्रव्यों के संदर्भ में आकाश का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आकाश तत्त्व को प्राय: सभी भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों ने स्वीकार किया है। यद्यपि उसके स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर मतभेद हैं पर अस्तित्व के सम्बन्ध में सभी एकमत हैं। जैन दर्शन ने आकाश को धर्म-अधर्म द्रव्य की तरह ही अमूर्त्त, अजीव, शाश्वत एवं अवस्थित स्वीकार किया है। वह द्रव्यत: एक द्रव्य है किंतु क्षेत्र की दृष्टि सेलोकालोकप्रमाण है। क्योंकि आकाशलोकाकाश एवं अलोकाकाशके भेद से द्विरूप है। वह अनन्तप्रदेशात्मक है। आकाश के प्रदेशों में अवगाह देने की क्षमता है।' अवगाह देना ही आकाशास्तिकाय का लक्षण है। आकाश का वह भाग जो धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल एवं जीव के द्वारा अवगाहित है, वह लोकाकाश है। जहां आकाश के अतिरिक्त अन्य द्रव्य नहीं है वह अलोक है।' अलोक एक विशाल गोले के समान है। धर्म आदि पांच द्रव्यों को धारण करने वाला लोकाकाश अनन्त आकाश समुद्र में एक द्वीप के समान है। यहां यह तथ्य स्मरणीय है कि आकाश अखण्ड द्रव्य है। अन्य द्रव्यों के अस्तित्व के कारण ही वह लोक और अलोक रूप में विभक्त होता है। आकाश स्वप्रतिष्ठित एवं अनन्त प्रदेशी है किंतु लोकाकाश असंख्यप्रदेशी है।' यह दृश्यमान सम्पूर्ण जगत् लोकाकाश में ही स्थित है। पुद्गलास्तिकाय सभी भारतीय दर्शनों में पृथक्-पृथक् नाम से पुद्गल की अवधारणा पर विमर्श हुआ है। चार्वाक दर्शन में भूत', सांख्यदर्शन में प्रकृति', न्याय-वैशेषिक में जड़-द्रव्य ', बौद्ध में रूप।। शंकर वेदान्त में माया एवं जैन में पुद्गल के नाम से इसके स्वरूप पर विमर्शहआ है। आधुनिक भौतिक विज्ञान भी मुख्य रूप से पुद्गल पर ही आधारित है। यही एक ऐसा तत्त्व है जो दर्शन और विज्ञान इन दोनों के कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट है। हम इस प्रस्तुत शोधप्रबन्ध 1. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई), सूत्र 8 / 348 2. वही, 2/127 3. वही, 2/138 4. वही, 2/127 5. वही, 1 3/58, अवगाहणालक्खणे णं आगासत्थिकाए। 6.पंचास्तिकाय, गाथा 3 7. ठाणं, 4/495 8. तत्त्वोपप्लवसिंह (जयराशिकृत) (ले. जयराशि, वारणसी, 1987), पृ. 1 9.सांख्यकारिका, 3 10. वैशेषिक दर्शनम्, (संपा. उदयवीर शास्त्री, गाजियाबाद, 1972) 1/1/5 11. अभिधर्मकोश (ले. आचार्य वसुबन्धु, इलाहाबाद, 1958), 1/124, पृ. 38 12. श्वेताश्वतरोपनिषद्, 4/10, मायां तु प्रकृतिं विद्या। 13. अंगसुत्ताणि - 2 (भगवई) 2/129 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन में पुद्गल से सम्बन्धित उन कतिपय अवधारणाओं का ही उल्लेख करेंगे, जो आगमोत्तर साहित्य में अल्पमात्रा में चर्चित हुई हैं। अन्य दर्शनों से अथवा विज्ञान के साथ तुलना का प्रयत्न प्रसंग प्राप्त कदाचित् ही हो सकेगा। उन संदर्भों के लिए पाठक Concept of Matter in Jaina Philosophy' आदि पुस्तकों का अवलोकन कर सकते हैं । 112 जैन दर्शन के अनुसार जिसमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हो वह पुद्गल कहलाता है। वह रूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित तथा लोक का एक अंशभूत द्रव्य है । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एवं गुण के आधार पर उसकी मीमांसा की गई है। द्रव्य की अपेक्षा पुद्गलास्तिकाय अनन्त द्रव्य है । क्षेत्र की अपेक्षा वह लोकप्रमाण है । काल की अपेक्षा नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । भाव की अपेक्षा से वर्णवान्, गंधवान्, रसवान् और स्पर्शवान् है । गुण की अपेक्षा से ग्रहणगुण-समुदित एवं विभक्त होने की योग्यता वाला है । ' संघात और भेद-मिलना और बिखरना पुद्गल का असाधारण गुण है । ' चार अस्तिकायों में केवल संघात है, भेद नहीं है। भेद के बाद संघात और संघात के पश्चात् भेद – यह शक्ति केवल पुद्गलास्तिकाय में है। दो परमाणु मिलकर द्विप्रदेशी यात् अनन्त परमाणु मिलकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध बन जाते हैं पुनः वियुक्त होकर वे दो परमाणु यावत् अनन्त परमाणु हो जाते हैं। यदि पुद्गल में संयोग-वियोग गुण नहीं होता तो यह विश्व या तो एक पिण्ड ही होता या केवल परमाणु ही होते । उन दोनों रूपों से वर्तमान विश्व व्यवस्था फलित नहीं होती । पुद्गल द्रव्य रूपी है, इन्द्रियगम्य है, इसलिए इसका अस्तित्व बहुत स्पष्ट है, पर इसकी स्वतंत्र सत्ता का आधार यह संघात भेदात्मक गुण है । जीव और पुद्गल - इन दोनों अस्तिकायों के योग से विश्व की विविध परिणतियां होती हैं । ' पुद्गल की द्विरूपता पुद्गल परमाणु एवं स्कन्ध के भेद से दो प्रकार का है।' यह दृश्य जगत् - पौद्गलिक जगत् परमाणु संघटित है । परमाणुओं से स्कन्ध बनते हैं और स्कन्धों से स्थूल पदार्थ का निर्माण होता है। पुद्गल में संघात एवं भेद - ये दोनों शक्तियां हैं ।' परमाणुओं के संयोग से 5. 6. 7. 1. Sikdar,J. C., 1987, P. V. Research Institute, Varanasi-5 अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 2 / 129 2. 3. वही, 2 / 129 4. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन और अनेकान्त, पृ. 23 जैन सिद्धान्त दीपिका, 1 / 9, जीवपुद्गलयोर्विविधसंयोगैः स विविधरूपः । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5 / 25, अणवः स्कन्धाश्च । ठाणं 2 / 221-225 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा स्कन्ध बनते हैं । स्कन्ध के टूटने से अन्य अनेक स्कन्ध भी बन जाते हैं। स्कन्ध के टूटने से परमाणु भी बन जाते हैं। दो परमाणु पुद्गल के मिलने से द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है और द्विप्रदेशी स्कन्ध के टूटने से दो परमाणु बन जाते हैं। ऐसे ही तीन परमाणु मिलने से त्रिप्रदेशी स्कन्ध बनता है और उनके टूटने से दो प्रकार की उत्पत्ति हो सकती है - तीन पृथक् पृथक् परमाणु अथवा एक परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध । इस प्रकार संघात एवं भेद से स्कन्ध का निर्माण होता है' तथा अणु भेद से ही उत्पन्न होता है । ' सामान्यतः परमाणु को कारण ही माना जाता है। परमाणु स्कन्ध का जनक होता है किन्तु स्कन्ध के टूटने से ही परमाणु बनता है अतः वह स्कन्ध का कार्य भी है। नय चक्र में परमाणु के कारण एवं कार्य इन दोनों रूपों का वर्णन है । पुद्गल के परिवर्तन के हेतु जैन दर्शन में छह द्रव्य माने गए हैं। उनमें जीव और पुद्गल ये दो गतिशील द्रव्य हैं, अर्थात् इनमें स्वभाव पर्याय के साथ विभाव पर्याय भी होती है। जीव एवं पुद्गल में अर्थपर्याय एवं व्यञ्जनपर्याय दोनों ही होती हैं, अन्य में अर्थपर्याय ही होती है, व्यञ्जन पर्याय नहीं होती । भगवती में प्रश्न उपस्थित किया गया कि परमाणु एवं द्विप्रदेशी से लेकर अनन्त प्रदेशी स्कन्ध एजन, व्येजन, चलन, स्पन्दन, प्रकम्पन, क्षोभ और उदीरणा करता है, नए-नए भाव में परिणत होता है ? भगवान ने अपनी अनेकान्तात्मक शैली के आधार पर उत्तर दिया कि एजन आदि क्रियाओं में परमाणु एवं स्कन्ध आदि कदाचित परिणत होते भी हैं और नहीं भी होते हैं । ' पुद्गल में अर्थपर्यायात्मक स्वाभाविक परिवर्तन तो स्वतः होता रहता है किन्तु उसकी व्यञ्जन पर्यायात्मक अवस्था एजन, व्येजन आदि क्रियाओं के बिना नहीं हो सकती। परमाणु की स्कन्ध के रूप में परिणति एवं स्कन्ध की अन्य स्कन्ध अथवा परमाणु के रूप में परिणति एजन आदि क्रियाओं के कारण ही होती है। उनमें एजन आदि क्रिया होती है तो वे नई-नई अवस्थाओं में परिणित होते हैं।' यदि ये क्रियाएं नहीं होती हैं तो वे अवस्थान्तर को प्राप्त नहीं कर सकते।' इसलिए ही भगवती में कहा गया कि वे एजन आदि करते भी है और नहीं भी करते । 1. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5 / 26, संघातभेदेभ्य उत्पद्यन्ते । 2. वही, 5 / 27, भेदादणुः । 3. नयचक्र ( माइल्ल धवल), श्लोक 113 29, जो खलु अणाइणिहणो, कारणरूवो हु कज्जरूवो वा । परमाणुपोग्लाणं सो दव्व सहावपज्जाओ । 4. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 5 / 150-153 5. वही, 5 / 150 6. वही, 5 / 151 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 जैन आगम में दर्शन परमाणु की सप्रदेशता-अप्रदेशता पुद्गल द्रव्य की सूक्ष्मतम इकाई को परमाणु कहते हैं। परमाणु से और कोई छोटा भेद पुद्गल का नहीं हो सकता। परमाणु अभेद्य है।' परमाणु अपनी द्रव्यात्मक अवस्था में अकेला होता है। अतः उस अवस्था में वह अप्रदेशी है। परमाणु का अर्ध, मध्य भाग भी नहीं होता।' ठाणं में भी परमाणु को अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य, अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश और अविभाज्य कहा है। भगवती में परमाणु के चार प्रकार बतलाए हैं - द्रव्य परमाणु, क्षेत्र परमाणु, काल परमाणु एवं भाव परमाणु । वहां द्रव्य परमाणु को अछेद्य, अभेद्य, अदाह्य, अग्राह्य एवं क्षेत्र परमाणु को अनर्ध, अमध्य, अप्रदेश एवं अविभागी कहा है। भगवती में द्रव्य और क्षेत्र परमाणु का जो स्वरूप बताया है स्थानांग में यह संयुक्त रूप से, द्रव्य और क्षेत्र का भेद किए बिना परमाणु के स्वरूप का व्याख्यान है। भगवती में ही अन्यत्र परमाणु को अनर्ध, अमध्य और अप्रदेश कहा है। परमाणु अप्रदेश है- यह वक्तव्य द्रव्य एवं क्षेत्र परमाणु की अपेक्षा से है। काल एवं भाव की अपेक्षा परमाणु सप्रदेशी एवं अप्रदेशी दोनों हो सकता है। द्रव्य की अपेक्षा परमाणु निरवयव है अत: वह अप्रदेशी है तथा क्षेत्र की अपेक्षा वह एक आकाश प्रदेशावगाही ही होता है अत: क्षेत्र की अपेक्षा भी अप्रदेशी है। काल की अपेक्षा जो परमाणु एकसमय स्थिति वाला है अर्थात् एकसमय के बाद स्कन्ध में परिवर्तित हो जाएगा वह अप्रदेशी एवं एक से अधिक समय स्थिति तक परमाणु रूप में ही रहेगा वह सप्रदेशी है। परमाणु में वर्ण, गन्ध, रस, एवं स्पर्श की भी विभिन्न मात्रा होती है। एक परमाणु अनन्त गुण काला हो सकता है दूसरा परमाणु एक गुण काला हो सकता है , यही नियम गन्ध आदि के सन्दर्भ में है जब परमाणु एक गुण वर्ण रस आदि वाला होगा तब अप्रदेशी एक से अधिक गुण या मात्रा वाला होगा तो वह सप्रदेशी कहा जाएगा।' । भगवती में भाव परमाणुओं को वर्णवान्, गंधवान्, रसवान् एवं स्पर्शवान् कहा है। इस अपेक्षा से भी उन्हें सप्रदेशी कहा जा सकता है। सिद्धसेनगणी ने भी भाव परमाणु को 1. ठाणं 3/329 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 5/160 3. ठाणं, 3/329-335 4. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 20/37-38 5. वही, 5/160 6. प्रज्ञापनावृत्ति, पत्र 202 - 3, परमाणुर्हि अप्रदेशो गीयते, द्रव्यरूपतया सांशो न भवतीति...........कालभावाभ्यां सप्रदेशत्वेपि न कश्चिद् दोषः। भगवतीवृत्ति, पत्र 241, यो द्रव्यतोऽप्रदेश:-परमाणु स च क्षेत्रतो नियमादप्रदेशो, यस्मादसौ क्षेत्रस्यैकत्रैव प्रदेशेऽवगाहते प्रदेशद्वयाद्यवगाहे तु तस्याप्रदेशत्वमेव न स्यात्, कालतस्तु यद्यसावेकसमयस्थितिकस्तदाऽप्रदेशोऽनेकसमयस्थितिकस्तु सप्रदेश इति, भावत: पुनर्योकगुणकालकादिस्त दाऽप्रदेशोऽनेक गुणकालकादिस्तु सप्रदेश इति । 8. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 20/41 1. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 115 सावयव और द्रव्य परमाणु को निरवयव कहा है।' अनेकान्त दृष्टि से विचार करने पर परमाणु की सप्रदेशता-अप्रदेशता सिद्ध हो जाती है। स्कन्ध की सप्रदेशता-अप्रदेशता परमाणु की तरह ही अपेक्षा भेद से स्कन्ध भी सप्रदेशी एवं अप्रदेशी उभय रूप हो सकता है। जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया था कि द्रव्य की अपेक्षा परमाणु अप्रदेशी ही होता है। स्कन्ध के सम्बन्ध में इससे विपरीत होगा, द्रव्य की अपेक्षा स्कन्ध सप्रदेशी ही होगा। क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा स्कन्ध सप्रदेशी एवं अप्रदेशी उभय रूप है। द्रव्य की अपेक्षा द्विप्रदेशो आदि स्कन्ध सप्रदेश ही होते हैं। जो स्कन्ध आकाश के एक प्रदेश पर अवगाढ़ होता है उसे क्षेत्र की अपेक्षा अप्रदेशी एवं एकाधिक प्रदेशावगाही को सप्रदेशी कहा जाता है। एक समय स्थिति वाला स्कन्ध काल की अपेक्षा अप्रदेशी एवं एकाधिक समय स्थिति वाला सप्रदेशी कहलाता है। भाव की अपेक्षा एकगुण (मात्रा) वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श वाला परमाणु अप्रदेशी एवं अधिक गुण वाला सप्रदेशी कहा जाता है।' परमाणु-पुद्गल की शाश्वतता-अशाश्वतता जैन दर्शन के अनुसार अस्तित्व विरोधी धर्मों का समवाय है। प्रत्येक वस्तु में एक साथ, एक ही काल में विरोधी धर्मो का सहावस्थान है। परमाणु-पुद्गल में भी यही नियम घटित होता है। वह शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है।' द्रव्यार्थ की अपेक्षा वह शाश्वत है एवं वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श पर्याय की अपेक्षा अशाश्वत है।' अपेक्षा भेद से वस्तु में स्थित विरोधी धर्मों के सहावस्थान की सम्यक् व्याख्या की जा सकती है। पुद्गल के परिवर्तन का नियम स्कन्ध एवं परमाणु के भेद से पुद्गल द्विधा विभक्त है। स्कन्ध का परमाणु के रूप में एवं परमाणु का स्कन्ध के रूप में परिवर्तन होता रहा है। भगवती में एक प्रश्न उपस्थित किया गया कि परमाणु पुद्गल काल की दृष्टि से कितने समय तक परमाणु रूप में रह सकता है? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए कहा गया कि कम-से कम एक समय एवं उत्कर्षतः असंख्येय काल तक वह एक स्थिति में रह सकता है तथा परमाणु के सम्बन्ध में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में समाधानकार ने स्कन्ध की काल स्थिति का भी उत्तर दे दिया । अर्थात् परमाणु एवं 1. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी वृत्ति, 5/1, पृ. 31 8 - 3 19, ..............ननु प्रसिद्धमेवेदमेकरसगन्धवर्णो द्विस्पर्शश्चाणुर्भवति, भावावयवै:सावयवो द्रव्यावयवैर्निरवयव इति। 2. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 5/161-164 3. (क) वही, 5/205 (ख) भगवती वृत्ति, पत्र 241 अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 14/49.परमाणुपोग्गलेणं भंते! किं सासए? असासए ? गोयमा! सिय सासए, सिय असासर। 5. वही, 14/50 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन स्कन्ध दोनों का ही यह एक ही नियम है । जघन्यतः एक समय एवं उत्कर्षतः असंख्येय काल तक वे परमाणु रूप में अथवा स्कन्ध रूप में रह सकते हैं।' असंख्येय काल के पश्चात् तो निश्चित रूप से उनको परिवर्तित होना ही पड़ेगा। अर्थात् परमाणु को स्कन्ध के रूप में एवं स्कन्ध को परमाणु के रूप में बदलना ही होगा। कोई भी पुद्गल अनन्तकाल तक एक ही रूप मैं नहीं रह सकता। यह पुद्गल के परिवर्तन का स्वाभाविक नियम है । पुद्गल के गुणधर्म में परिवर्तन के नियम 116 पुद्गल वर्ण, गंध, रस और स्पर्श युक्त होता है। वर्ण आदि गुण परमाणु एवं स्कन्ध दोनो में रहते हैं । शब्द, संस्थान आदि भी पुद्गलात्मक हैं किन्तु ये स्कन्ध में ही हो सकते हैं परमाणु में नहीं होते । परमाणु एवं स्कन्ध में जिस प्रकार नियमतः असंख्येय वर्ष के बाद परिवर्तन होगा ही उसी प्रकार पुद्गल के धर्म-वर्ण आदि में भी परिवर्तन का नियम है। वर्ण आदि पुद्गल गुण हैं, उनमें गुणांश बदलते रहते हैं अर्थात् वर्ण, रस आदि सब परमाणु एवं स्कन्धों में वे एक जैसे नहीं होते हैं। उनमें तरतमता रहती है। जैसे कोई परमाणु एक गुण लाल और कोई दो, चार यावत् अनन्त गुण भी लाल हो सकता है। इन गुणांशों में कम से कम एक समय में एवं उत्कर्षतः असंख्येय काल में तो अवश्य ही परिवर्तन होगा ।' अर्थात् कोई एक गुण लाल वर्ण वाला परमाणु है, नियमतः असंख्येय काल बाद उसे दो चार यावत् अनन्त गुण लाल वर्ण वाला बनना ही पड़ेगा। पुद्गल के धर्मों में गुणात्मक एवं रूपात्मक दोनों ही प्रकार के परिवर्तन होते हैं । गुणात्मक अर्थात् एक गुण काले परमाणु का पांच गुण वाले काले में परिवर्तित हो जाना । काले गुण वाले का पीत आदि वर्णों में भी परिवर्तन हो सकता है।' यह रूपात्मक परिवर्तन है । परमाणु का विखण्डन पुद्गल की अन्तिम इकाई है - परमाणु । परमाणु का छेदन, भेदन, दहन, स्पर्शन आदि नहीं हो सकता जैसा कि हम पहले वर्णन कर चुके हैं। परमाणु से लेकर असंख्यप्रदेशी स्कन्ध का बाह्य साधनों से छेदन - भेदन नहीं किया जा सकता।' अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में विकल्प है, उसका छेदन - भेदन आदि हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । ' आधुनिक विज्ञान के अनुसार परमाणु का विखण्डन हो सकता है। इस संदर्भ में हम जैन दर्शन की अवधारणा पर विमर्श करेंगे। 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 5/169 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 5/172 3. भगवती वृत्ति, पृ. 420 4. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 5 / 157 158 5. वही, 5 / 159 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 117 परमाणु ः सूक्ष्म एवं व्यावहारिक __ जैन दर्शन में दो प्रकार के परमाणु माने गए हैं - सूक्ष्म और व्यावहारिक ।' सूक्ष्म परमाणु अविभाज्य होता है। उसको विभक्त नहीं किया जा सकता। जैन दर्शन में दो नय स्वीकृत है निश्चय नय एवं व्यवहार नय। निश्चयनय तात्त्विक अर्थ का अभ्युपगमक होता है। जैसे सभी बादर स्कन्ध पञ्चवर्णात्मक होते हैं अतः भ्रमर में पांचों ही वर्ण है। व्यवहारनय लोक प्रसिद्ध अर्थ का ग्राहक होता है अतः उसकी अवधारणा में भ्रमर श्याम वर्ण का है। व्यवहार परमाणु के संदर्भ में भी यही दृष्टि प्रयुक्त होती है। अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं से व्यावहारिक परमाणु निर्मित होता है। निश्चयनय के अनुसार वह अनन्त प्रदेशी स्कन्ध ही है किन्तु व्यवहार में उसे परमाणु भी कहा गया है। अनुयोगद्वार में व्यवहार परमाणु को अविभाज्य माना है।' परमाणु एवं स्कन्ध के विभाजन के संदर्भ में भगवती में विचार हुआ है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार परमाणु का विभाजन हो सकता है। आचार्य महाप्रज्ञ जी ने इस विषय पर गम्भीर विचार किया है। उनका मन्तव्य है कि - "जैन दर्शन के अनुसार विज्ञान सम्मत अणु अनन्तप्रदेशी स्कन्ध है। व्यावहारिक परमाणु भी शस्त्र से नहीं टूटता । इस विषय में एक प्रश्न उपस्थित होता है-आगम साहित्य में असिधारा से परमाणु छिन्न-भिन्न नहीं होता, यह कहा गया है। असि की धारा बहुत स्थूल होती है, इसलिए उससे परमाणु का विभाजन नहीं होता, यह सही है। आधुनिक विज्ञान ने बहुत सूक्ष्म उपकरण विकसित किए हैं। उनसे व्यावहारिक परमाणु के विभाजन की संभावना की जा सकती है।'' पदार्थकी द्विरूपताः भारमुक्त या भारयुक्त जैन दर्शन के पदार्थ जगत् में षड्द्रव्य का सिद्धांत मान्य है। उनमें धर्म, अधर्म, आकाश, जीव और काल ये पांच पदार्थ तो सर्वथा भारमुक्त हैं। उन्हें अगुरुलघु कहा गया है। अगुरुलघुभारहीन ही होते हैं। पुद्गलास्तिकाय गुरुलघु (भारयुक्त) एवं अगुरुलघु (भारमुक्त) दोनों ही प्रकार का होता है। परमाणु से लेकर चतु:स्पर्शी स्कन्ध तक के पुद्गल अगुरुलघु 1. अणुओगदाराई, सूत्र 396, परमाणु दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सुहुमे य वावहारिए य । 2. वही, सूत्र 3 98. वावहारिए -- अणंताणं सुहुमपरमाणु-पोग्गलाणं समुदय-समिति-समागमेणं से एगे वावहारिए परमाणुपोग्गले निप्फजइ। 3. अनु. म. वृ. प. । 48, ततोऽसौ निश्चयत: स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन व्यावहारिक: परमाणुरुक्तः । (क) अणुओगदाराई, सूत्र 398 (ख) अनु. म. न. प. 148, इदमुक्तं भवति-यद्यप्यनन्तै: परमाणुभिर्निष्पन्ना: काष्ठादय: शस्त्रछेदादिविषया दृष्टास्तथाप्यनन्तकस्याप्यनन्त-भेदत्वात् तावत् प्रमाणेनैव परमाण्वनन्तकेन निष्पन्नोऽसौ व्यावहारिक: परमाणुाह्यो यावत् प्रमाणेन निष्पन्नोद्यापि सूक्ष्मत्वान्नशस्त्र-छेदादिविषयतामासादयतीतिभावः। 5. भगवई (खण्ड 2), पृ. 191, भाष्य सूत्र 5/154-159 का 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 1/401-406 7. वही, 1/401-40 3, 405-406 8. वही, । - 404 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 जैन आगम में दर्शन होते हैं। कार्मण वर्गणा चतु:स्पर्शी है अत: कर्म को अगुरुलघु कहा है।' पांच शरीर में कार्मण शरीर को अगुरुलघु एवं शेष चार शरीर को गुरुलघु कहा हैं। कार्मण शरीर को छोड़कर शेष चार शरीर अष्टस्पर्शी पुद्गल स्कन्धों से निर्मित हैं। मनयोग, वचनयोग को अगुरुलघु एवं काययोग को गुरुलघु कहा गया है। यहां पर प्रश्न उपस्थित होता है कि काययोग को एकान्त गुरुलघु क्यों कहा गया? क्योंकि कार्मण शरीर तो चतु:स्पर्शी है उसका योग भी चतु:स्पर्शी होना चाहिए, यहां यह सम्भावना भी नहीं की जा सकती कि कार्मण शरीर तो चतु:स्पर्शी है किंतु योग अष्टस्पर्शी हो जाता है क्योंकि मनोयोग, वचनयोग को अगुरुलघु कहा है संभव ऐसा लगता है यह वक्तव्य कार्मण शरीर से इतर शरीरों के लिए है क्योंकि कार्मण योग तो मात्र अन्तराल गति एवं केवली समुद्घात के समय में ही हो सकता है, अन्यत्र नहीं है। चार शरीरों का ही काययोग मुख्य है अत: बहुलता की दृष्टि से काययोग को गुरुलघु कह दिया गया है। यह भी सापेक्ष वचन ही है। पुद्गल का परिणमन जैन दर्शन के अनुसार पुद्गल रूपी है। रूपी उसे कहते हैं जिसमें वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श होते हैं। पांच अस्तिकायों में मात्र पुद्गल ही मूर्त है। पुद्गल का परिणमन अनेक प्रकार का होता है। भगवती में पुद्गल के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान इन पांच प्रकार के परिणमनों का उल्लेख प्राप्त है। स्थानांग में चतुर्विध पुद्गल-परिणमन का उल्लेख है।' वहां पर संस्थान का उल्लेख नहीं किया गया है। इसका अर्थ हुआ वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श पुद्गल मात्र का असाधारण धर्म है। ये चारों गुण परमाणु तथा स्कन्ध दोनों में ही रहेंगे। यद्यपि संस्थान पुद्गल का ही होता है किंतु यह संस्थान रूप परिणमन स्कन्ध में ही हो सकता है परमाणु में नहीं अत: संस्थान रूप परिणमन की पुद्गल में सर्वव्यापकता नहीं है, इसलिए ही उत्तरवर्ती आचार्यों ने पुद्गल के लक्षण विमर्श में दो सूत्रों का प्रणयन किया है। स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गला: शब्दबंधसौक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायातपोद्योतवन्त:' इसका अर्थ हुआ 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1/407 2. वही, 1/412 3. वही, 1/413 4. वही, 2 / 129 5. वही, 2/129 6. वही, 8/467,पंचविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे। 7. ठाणं, 4/135, चउब्विहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहा-वण्णपरिणामे, गंधपरिणाम, रसपरिणामे, फासपरिणामे। 8. तत्त्वार्थसूत्र, 5/23 9. वही, 5/24 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा शब्द आदि पुद्गल के ही धर्म हैं किंतु ये अणु में नहीं रह सकते। स्कन्धरूप पुद्गल में ही रहेंगे।' परमाणु एवं स्कन्ध में स्पर्श आदि गुण एक समान नहीं होते। इसका विमर्श भी भगवती में पर्याप्त रूप से हुआ है। परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस एवं दो स्पर्श होते हैं ।' परमाणु में पांच वर्णों में से कोई एक वर्ण, दो गंध में से कोई एक गंध तथा पांच रसों में से कोई एक रस हो सकता है। स्पर्श दो होंगे, कौन से दो होंगे, इस संदर्भ में चार विकल्प प्राप्त हैं 1. शीत और स्निग्ध । 2. अथवा शीत और रुक्ष । 3. अथवा उष्ण और स्निग्ध । 4. अथवा उष्ण और रुक्ष । ' भिन्न-भिन्न प्रदेशी स्कन्ध में वर्ण आदि के विभिन्न विकल्प बनते हैं। जिसको निम्नलिखित चार्ट से समझा जा सकता है 4 वर्ण परमाणु द्विप्रदेशी त्रिप्रदेशी चतुः प्रदेशी पांच प्रदेशी असंख्य प्रदेशी कोई एक एक या दो एक, दो या तीन एक, दो, तीन या चार सूक्ष्मपरिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध या पांच बादरपरिणति वाले अनन्त प्रदेशी स्कन्ध या पांच 1. एक, दो, तीन, चार या पांच एक, दो, तीन, चार या पांच एक, दो, तीन, चार एक, दो, तीन, चार गन्ध कोई एक एक या दो एक या दो एक या दो एक या दो एक या दो एक या दो रस एक एक या दो एक या दो एक, एक, दो, तीन दो या तीन 119 चार, पांच, छह, सात या आठ द्विप्रदेशी आदि स्कन्धों में वर्ण-वर्ण, रस - रस, स्पर्श - स्पर्श के भी परस्पर अनेक विकल्प हो सकते हैं। जिसका भगवती में विस्तार से उल्लेख प्राप्त है ।' जिज्ञासु को भगवती के उस स्थल का अवलोकन करना चाहिए। तत्त्वार्थधिगमभाष्य वृत्ति, 5 / 24 पृ. 364, ....... . स्पर्शादयः परामाणुषु स्कन्धेषु च, पुनः स्कन्धविषया एव नाणुविषयाः । 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 18 111 3. वही, 20/20 स्पर्श दो दो, तीन या चार दो, तीन या चार दो, तीन या चार या चार एक, दो, तीन, दो, तीन या चार चार या पांच एक, दो, तीन दो, तीन या चार चार या पांच एक, दो, तीन दो, तीन या चार चार या पांच एक, दो, तीन चार या पांच 4. वही, 18/111-117 5. वहीं, 20/27-36 . शब्दादयः Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 जैन आगम में दर्शन द्विप्रदेशी स्कन्ध से लेकर सूक्ष्मपरिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रुक्ष इनमें से दो, तीन या चार स्पर्श प्राप्त होते हैं। अत: ये स्कन्ध अगुरुलघु अर्थात् भारहीन होंगे। बादर परिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में चार स्पर्श से यावत् अष्ट स्पर्श तक होते हैं। उनमें जब चार स्पर्श होते हैं तब आठों में से कोई भी स्पर्श साथ रह सकता है मात्र लघु और गुरु स्पर्श साथ नहीं रहते। पांच स्पर्शी स्कन्ध से लेकर आगे तक गुरु-लघु स्पर्श साथ भी रह सकते हैं। अत: ये स्कन्ध भारयुक्त होने चाहिये भले वे चार स्पर्श से यावत् आठ स्पर्श वाले क्यों न हो। गुरु एवं लघु स्पर्श ही स्कन्ध की भारयुक्तता के नियामक होते हैं अत: बादर परिणति वाले अनन्तप्रदेशी चतुस्पर्शी स्कन्ध में भी भार की संभावना परिलक्षित हो रही है। पुद्गल की ग्राह्यता-अग्राह्यता ___ पुद्गल स्पर्श, रस आदि से युक्त होने के कारण रूपी है। षड्द्रव्यों में यदि कोई इन्द्रिय का विषय बनता है तो वह केवल पुद्गल ही बन सकता है किंतु सारे पुद्गल इन्द्रियग्राह्य नहीं होते। छद्मस्थदो प्रकार के होते हैं-इन्द्रियज्ञानी एवं अतीन्द्रियज्ञानी । इन्द्रिय प्रत्यक्ष वाला व्यक्ति परमाणु से लेकर सूक्ष्म परिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक के पुद्गलों का ग्रहण नहीं कर सकता । भगवती में कहा गया है कि परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को कुछ छद्मस्थ जानते हैं कुछ नहीं जानते हैं। परमाणु से लेकर असंख्यप्रदेशी स्कन्ध इन्द्रियज्ञान के विषय नहीं बन सकते। अनन्तप्रदेशी के लिए जो वक्तव्य है वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष के संदर्भ में सूक्ष्म-परिणति वाले अनन्तप्रदेशी के लिए है। बादर परिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्धों में से कतिपय का ज्ञान तो इन्द्रिय-प्रत्यक्ष से होता ही है। यदि इसका अर्थ सूक्ष्मबादर दोनों ही प्रकार के अनन्तप्रदेशी स्कन्ध होते तो "कुछ जानते हैं कुछ नहीं जानते" इसमें अनन्तप्रदेशी को अर्थात् पुद्गल मात्र को ग्रहण न करने वाले कौन-से जीव होते क्योंकि यह तो स्पष्ट ही है कि संसार के सभी प्राणी किसी-न-किसी रूप में पुद्गल का ग्रहण/ज्ञान तो करते ही हैं। सामान्य अवधिज्ञान के धारक कुछ प्राणी परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध को जानते-देखते हैं। परमावधि सम्पन्न व्यक्ति एवं केवलज्ञानी उनको जानते-देखते हैं किंतु युगपद्जानने-देखने की क्रिया नहीं कर सकते। क्रमपूर्वक ही उनको जानते-देखते हैं। क्योंकि एक ही समय में एक ही उपयोग हो सकता है। फलितार्थ में यह कह सकते हैं कि इन्द्रियज्ञान के मात्र बादर परिणति वाले अनन्तप्रदेशी स्कन्ध ही ज्ञेय बनते हैं। अतीन्द्रिय ज्ञान परमाणु एवं स्कन्ध दोनों को ही अपना ज्ञेय बना सकता है। 1. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई),20/27-35 2. वही, 20/ 36 3. वही, 18/174-176 4. वही, 18/177 5. वही, 18/178-179 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 121 पुद्गलपरिणतिके प्रकार भगवती में पुद्गल के तीन प्रकार के परिणमन माने है तथा उस परिणमन के संदर्भ में वहां विभिन्न तथ्य प्रस्तुत हुए हैं। आचार्यश्री महाप्रज्ञजी जो सम्प्रति भगवती सूत्र के संपादन कार्य में संलग्न है, भगवती के इस संदर्भ की सृष्टिवाद के संदर्भ में एक विशिष्ट चर्चा प्रस्तुत की है। उनकी यह विवेचना दर्शन जगत में सृष्टिवाद के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण दृष्टि प्रदान करती है। आपश्री द्वारा संपादित भगवती के सात शतक प्रकाशित हो चुके हैं। अन्य प्रकाशित नहीं हुए हैं। उपर्युक्त कथित विषय की विमर्शना आठवें शतक में है जो अप्रकाशित है। मैंने इस विषय में उस अप्रकाशित सामग्री का स्वीकृति पूर्वक उपयोग किया है। किन्तु संदर्भ देने की कठिनाई थी अतः उस सामग्री में दिए गए संदर्भो का पुद्गल परिणति से लेकर परिणाम प्रत्ययिक बंध तक प्रयोग किया है। परिणमन की अपेक्षा से पुद्गल तीन प्रकार के होते हैंप्रयोग परिणत। मिश्र परिणत। विस्रसा (स्वभाव) परिणत।' प्रयोग निरपेक्ष परिवर्तन को विस्रसा कहा जाता है। शरीर आदि की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है, वह प्रयोग परिणत है।' सिद्धसेनगणी ने प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार किया है। अकलंक ने प्रयोग का अर्थपुरुषका शरीर, वाणी और मन का संयोग किया है। जीव के प्रयोगऔर स्वभावइनदोनोंके योग से जोपरिणमन होता है, वह मिश्रपरिणत है। सिद्धसेनगणी ने जीव प्रयोग सहचरित अचेतन द्रव्य की परिणति को मिश्र कहा है। अभयदेवसूरि ने मिश्र को समझाने के लिए दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं 1. मुक्त जीव का शरीर। 2. औदारिकादि वर्गणाओं का शरीर रूप में परिणमन । शरीर का निर्माण जीव ने किया है, इसलिए वह जीव के प्रयोग से परिणत द्रव्य है। स्वभाव से उसका रूपान्तरण होता है इसलिए वह मिश्रपरिणत द्रव्य है। 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 8/। 2. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, विस्रसा-स्वभाव: प्रयोगनिरपेक्षो विस्रसाबन्धः। 3. भगवतीवृत्ति पत्र 328, जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः। 4. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, प्रयोगो जीवव्यापारस्तेन घटितो बंध: प्रायोगिकः। 5. तत्त्वार्थवार्तिक, 5/24 पृ. 487, प्रयोग: पुरुषकायवाङ्मनसंयोगलक्षण: । 6. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, प्रयोगविस्रसाभ्यां जीवप्रयोगसहचरिताचेतनद्रव्यपरिणतिलक्षण: स्तम्भकुम्भादिमिश्रः। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 जैन आगम में दर्शन औदारिक आदि वर्गणा स्वभाव से निष्पन्न हैं। जीव के प्रयोग सेवेशरीर रूप में परिणत होती हैं। इसमें भी जीव का प्रयोग और स्वभाव दोनों का योग है। उन्होंने स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया-प्रयोग परिणाम और मिश्र परिणाम में क्या अन्तर है? उन्होंने समाधान में कहा-प्रयोग परिणाम में भी स्वभाव परिणाम है किंतु वह विवक्षित नहीं है।' सिद्धसेनगणी के अनुसार मिश्र परिणाम में प्रयोग और स्वभाव दोनों का प्राधान्य विवक्षित है, आचार्य महाप्रज्ञ ने इन दोनों व्याख्याओं की संगति प्रस्तुत करते हुए लिखा“उक्त दोनों व्याख्याओं की संगति कार्य-कारण के संदर्भ में बिठाई जा सकती है। मिश्रपरिणाम के उदाहरण हैं घट और स्तम्भ । घट के निर्माण में मनुष्य का प्रयत्न है और मिट्टी में घट बनने का स्वभाव है इसलिए घट मिश्रपरिणत द्रव्य है। इसकी तुलना वैशेषिक सम्मत समवायि कारण से की जा सकती है।' प्रयोग परिणाम में किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती। उसका निर्माण जीव के आंतरिक प्रयत्न से ही होता है। मिश्र-परिणाम में जीव के प्रयत्न के साथ निमित्त कारण का भी योग होता है। स्वभाव परिणाम जीव के प्रयत्न और निमित्त दोनों से निरपेक्ष होता है। भगवती में प्रयोग परिणत का वर्णन विस्तार से हुआ है। इससे फलित होता है-जीव अपने प्रयत्न से शरीर की रचना, इन्द्रिय की रचना, वर्ण का निष्पादन और संस्थान की संरचना करता है। प्रयोग परिणाम से पुरुषार्थवाद और स्वभाव परिणाम से स्वभाववाद फलित होता है। जैन दर्शन अनेकांतवादी है इसलिए उसे सापेक्ष दृष्टि से पुरुषार्थवाद एवं स्वभाववाद दोनों मान्य हैं। विस्रसा, प्रयोग एवं मिश्र परिणमन का सिद्धान्त कार्य-कारण के क्षेत्र में नवीन दृष्टि प्रदान करता है। विस्रसा परिणत द्रव्य कार्य-कारण के नियम से मुक्त होता है। प्रयोग परिणत द्रव्य निमित्त कारण के नियम से मुक्त होता है। मिश्रपरिणत द्रव्य में निर्वर्तक और निमित्त कारण की संयोजना होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कार्य-कारण का सिद्धान्त सापेक्ष है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण खोजने की अनिवार्यता नहीं है। प्रयोगपरिणतपुद्गल शरीर आदि की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है वह प्रयोग परिणत पुद्गल है। प्रयोग, विस्रसा एवं मिश्र परिणत पुद्गलों के संदर्भ में विचार करते हैं तब जैन मान्य सृष्टि के दो रूप बनते हैं-(1) जीवकृत सृष्टि (2) अजीव निष्पन्न सृष्टि। 1. भगवती वृत्ति, पत्र 3 2 8, ........प्रयोगपरिणतेषु विरसा सत्यपि न विवक्षिता इति । 2. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24, पृ. 360, चोभयमपि प्राधान्येन विवक्षितम् । 3. अवस्थी, नरेन्द्र, शाश्वत, (जोधपुर, 1997) पृ. 2 1 4 - 215 तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, प्रयोगनिरपेक्षो विरसा बंधः। 5. भगवतीवृत्ति, पत्र 328 – पओगपरिणयत्ति जीव व्यापारेण शरीरादितया परिणता: 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8/2-49 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 123 जीवकृत सृष्टि प्रयोग परिणत एवं मिश्र परिणत पुद्गलों के माध्यम से जो शरीर आदि की संरचना आदि होती है। उसे जीवकृत सृष्टि कहा जा सकता है। जीव अपने वीर्य से शरीर, इन्द्रिय और शरीर के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान का निर्माण करता है। यह प्रयोग परिणति है।' इसे जीवकृत सृष्टि कहा जा सकता है। प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य के प्रकरण में शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि के आधार पर जीवकृत सृष्टि के नानात्व का निरूपण किया गया है। शरीर और इन्द्रिय पौद्गलिक हैं। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये पुद्गल के गुण हैं।' संस्थान पुद्गल का लक्षण है। जीवकृत सृष्टि का नानात्व पुद्गल द्रव्य के संयोग से होता है, इसलिए उसके निरूपण में शरीर, इन्द्रिय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का निरूपण किया गया है। जीव जैसे शरीर और इन्द्रिय का निर्माण करता है वैसे ही अपने वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का भी निर्माण करता है।' जीव का वीर्य दो प्रकार का होता है-आभोगिक और अनाभोगिक। इच्छा-प्रेरित कार्य करने के लिए वह आभोगिक वीर्य का प्रयोग करता है और अनाभोगिक वीर्य स्वत: चालित है। शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की रचना अनाभोगिक वीर्य से होती है। प्रायोगिक बंध अनाभोगिक वीर्य से होता है। भगवती में प्रयोग परिणत के प्रकरण में शरीर के पांच, इन्द्रिय के पांच, वर्ण के पांच, गंध के दो, रस के पांच, स्पर्श के आठ और संस्थान के पांच प्रकार निरूपित हैं। इनके नानात्व के आधार पर जीवकृत सृष्टि का नानात्व परिलक्षित है। प्रयोग-परिणत पुद्गल द्रव्य का प्रथम उदाहरण एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत द्रव्य हैं।' इसी प्रकार मिश्र परिणत पुद्गल द्रव्य का उदाहरण भी एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य हैं।' किंतु दोनों के स्वरूप में भिन्नता है। एकेन्द्रिय जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पुद्गलों से औदारिक शरीर की रचना की है, वे पुद्गल एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं। एकेन्द्रिय जीव के मुक्त शरीर का स्वभाव से परिणामान्तर होता है। वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत है। इसमें जीव का पूर्वकृत प्रयोग तथा स्वभाव से रूपान्तर ये दोनों परिणमन विद्यमान हैं। घड़ा मिट्टी से बना। मिट्टी पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव का शरीर है, वह निर्जीव हो गया। एकेन्द्रिय जीव उससे च्युत हो गया, इस अवस्था में मिट्टी उसका मुक्त शरीर है। उसमें 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 8/2-39 2. वही, 2/129, भावओ वण्णमंते, गंधमंते, रसमंते, फासमंते। 3. वही, 8/2-39 4. तत्त्वार्थसूत्र, 8 / 3 वृत्ति पृ. 128 5. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8/32 - 39 6. वही, 8.2 7. वही, 8-40 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 जैन आगम में दर्शन घट रूप में परिणत होने की क्षमता है। मिट्टी का परिणामान्तर हुआ और घट बन गया इसलिए वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य है।' हमारा दृश्य जगत् पौद्गलिक जगत् है । जो कुछ दृष्टिगोचर हो रहा है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीवमुक्त शरीर है। जीवच्छरीर प्रयोग परिणत द्रव्य का उदाहरण है। उसके मौलिक रूप पांच हैं 1. एकेन्द्रिय जीवच्छरीर 2. द्वीन्द्रिय जीवच्छरीर 3. त्रीन्द्रिय जीवच्छरीर 4. चतुरिन्द्रिय जीवच्छरीर 5. पंचेन्द्रिय जीवच्छरीर इनके अवान्तर भेद असंख्य बन जाते हैं। जीवमुक्त शरीर के भी मौलिक रूप पांच ही हैं। उनके परिणामान्तर से होने वाले भेद भी असंख्य बन जाते हैं। प्रयोग-परिणाम, मिश्रपरिणाम और स्वभाव-परिणाम-ये सृष्टि रचना के आधारभूत तत्त्व हैं। प्रथम दो परिणाम जीवकृत सृष्टि है। स्वभाव परिणाम अजीव निष्पन्न सृष्टि है। वर्ण आदि का परिणमन पुद्गल के स्वभाव से ही होता है। इसमें जीव का कोई योग नहीं है।' सृष्टिवाद को विभिन्न भारतीय दर्शनों ने भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है। उसकी मीमांसा प्रयोग, मिश्र और स्वभावजन्य परिणमनों के संदर्भ में की जा सकती है। प्रयोग एवं विस्रसा बंध बंध स्वाभाविक एवं प्रायोगिक दोनों प्रकार का होता है। स्वाभाविक बंध के दो प्रकार हैं-अनादिकालीन और सादिकालीन । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय एवं आकाशास्तिकाय के प्रदेशों का परस्पर स्वाभाविक सम्बन्ध है, वह अनादिकालीन है। इसका हेतु यह है कि ये तीनों अस्तिकाय व्यापक हैं। प्रत्येक अपने स्थान पर व्यवस्थित हैं। उनका संकोच एवं विस्तार नहीं होता। वे अपने स्थान को कभी नहीं छोड़ते। इनके प्रदेशों में परस्पर देश बंध है सर्वबंध नहीं है। जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। __सादि विस्रसा बंध तीन प्रकार का होता है'- 1. बंधन प्रत्ययिक 2. भाजन प्रत्ययिक 3. परिणाम प्रत्ययिक। 1. उत्तरज्झयणाणि, 3 6/8 3,10 5 आदि । 2. भगवई (खण्ड-2) 8/32-41 का भाष्य। अंगसुत्ताणि2 (भगवई) 8/345,गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-पयोगबंधे च वीससाबंधे य। 4. वही, 8 / 346 5. वही, 8/347 6. वही, 8/3 48 7. वही, 8/350 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 125 बंधनप्रत्ययिक-यह पुद्गल के स्कन्ध निर्माण का सिद्धान्त है। दो परमाणु मिलकर द्विप्रदेशी स्कन्ध का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार तीन परमाणु मिलकर तीन प्रदेशी यावत् अनंतपरमाणु मिलकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का निर्माण करते हैं। इसबंधन के तीनहेतुबतलाए गए हैं। -विमात्रस्निग्धता, विमात्ररुक्षता एवं विमात्रस्निग्धरुक्षता। तीसरे विमात्रस्निग्धरुक्ष का अन्तर्भाव तो पहले दो हेतुओं में ही हो जाता है फिर उसका पृथक् उल्लेख क्यों किया गया, यह विमर्शनीय है। संभव ऐसा लगता है प्रथम दो हेतु सदृश बंध के नियम को प्रस्तुत कर रहे हैं एवं तीसरा विसदृश बंध का हेतु प्रतीत होता है। समगुण स्निग्ध का समगुण स्निग्ध परमाणु के साथ बंध नहीं होता तथा इसी प्रकार समगुण रुक्ष परमाणु का समगुणरुक्ष परमाणु के साथ बंध नहीं होता। स्निग्धता और रुक्षता की मात्रा विषम होती है तब परमाणुओं का परस्पर बंध होता है। प्रज्ञापना में विसदृश और सदृश दोनों प्रकार के बंधनों का निर्देश है।' स्निग्ध परमाणुओं का स्निग्ध परमाणुओं के साथ तथा रुक्ष परमाणुओं का रुक्ष परमाणुओं के साथ सम्बन्ध दो अथवा उनसे अधिक गुणों का अन्तर मिलने पर होता है। उनका समान गुण वाले अथवा एक गुण अधिक वाले परमाणु के साथ सम्बन्ध नहीं होता है।' स्निग्ध का दो गुण अधिक स्निग्ध के साथ बंध होता है। रुक्ष का दो गुण अधिक रुक्ष के साथ बंध होता है। यह सदृश बंध की प्रक्रिया है। विसदृश बंध के नियम के अनुसार एक गुण स्निग्ध का एक गुण रुक्ष के साथ बंध नहीं होता। द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण रुक्ष के साथ सम्बन्ध हो सकता है। यह समगुण का बंध है। द्विगुण स्निग्ध का त्रिगुण, चतुर्गुण आदि के साथ सम्बन्ध होता है। वह विषम गुण का बंध है। विसदृश सम्बन्ध में सम का सम्बन्ध और विषम का सम्बन्ध ये दोनों नियम मान्य हैं। “आगम साहित्य में सृष्टिवाद' नामक लेख में आचार्य महाप्रज्ञ ने पुद्गल के बंध की प्रक्रिया का विस्तार एवं तुलनात्मक विमर्श किया है। प्रासंगिक होने के कारण हम उन चार्टस् का यहां पर ययावत् संग्रहण कर रहे हैं 1. अंगसुत्नाणि 2 (भगवई), 8/351 2. भगवतीवृत्ति, पत्र 395, समनिद्धयाए बन्धो न होइ समलुक्खयाए विन होइ। वेमायनिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ।। 3. प्रज्ञापना, 1 3 /21 - 22 4. भगवतीवृत्ति, प. 3 95, निद्धस्स निद्रेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा ।। 5. अवस्थी, नरेन्द्र, शाश्वत, पृ. 218 - 220 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 जैन आगम में दर्शन सदृश नहीं नहीं प्रज्ञापना-पद प्रज्ञापना-पद, उत्तराध्ययन चूर्णि और भगवती जोड़ के अनुसार स्वीकृत यंत्र__ क्र. गुणांश विसदृश जघन्य + जघन्य जघन्य + एकाधिक नहीं जघन्य + व्यधिक नहीं जघन्य + व्यादिअधिक जघन्येतर + समजघन्येतर जघन्येतर + एकाधिकतर 7. जघन्येतर + व्यधिकतर 8. जघन्येतर + त्र्यादिअधिकतर नहीं Foto citec Mc बंधकेसम्बन्ध में सभीपरम्पराएंसदृशनहीं हैं । द्रष्टव्ययंत्र तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका 5/55 के अनुसार सदृश विसदृश . नहीं नहीं नहीं no ho क्रमांक गुणांश जघन्य + जघन्य जघन्य + एकाधिक जघन्य + व्यधिक जघन्य + व्यादिअधिक जघन्येतर + समजघन्येतर जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर 7. जघन्येतर + व्यधिक जघन्येतर 8. जघन्येतर + अधिक जघन्येतर MVM he is है no नहीं नहीं है है no no la दिगम्बर ग्रंथ सर्वार्थसिद्धि के अनुसारक्रमांक गुणांश सदृश नहीं 1. 2. 3. 4. जघन्य + जघन्य जघन्य + एकाधिक जघन्य + व्यधिक जघन्य + व्यादिअधिक नहीं नहीं नहीं विसदृश नहीं नहीं नहीं नहीं Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा क्रमांक गुणांश 5. जघन्येतर + समजघन्येतर 6. 7. 8. दिगम्बर ग्रंथ षट्खंडागम के अनुसार - क्रमांक गुणांश जघन्य + जघन्य जघन्य + एकाधिकअधिक जघन्येतर + समजघन्येतर 1. 2. 3. 4. 5. 6. 1. 2. 3. 4. तत्त्वार्थसूत्र के अनुसारगुणांश क्रमांक 5. 6. जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर जघन्येतर + द्व्यधिक जघन्येतर है जघन्येतर + त्र्यादिअधिक जघन्येतर नहीं सदृश नहीं नहीं भाजन- प्रत्ययिक बंध जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर जघन्येतर + द्व्यधिक जघन्येतर जघन्येतर + त्र्यादिअधिक जघन्येतर नहीं सदृश नहीं नहीं नहीं नहीं है जघन्य + जघन्य नहीं जघन्य + एकाधिक नहीं जघन्येतर + समजघन्येतर नहीं जघन्येतर + एकाधिक जघन्येतर नहीं जघन्येतर + द्व्यधिक जघन्येतर है जघन्येतर + त्र्यादिअधिक जघन्येतर नहीं सदृश विसदृश नहीं नहीं नहीं विसदृश नहीं नहीं Ne ne ne me विसदृश नहीं नहीं नहीं नहीं है नहीं सादि विस्रसा बंध का यह द्वितीय प्रकार है। भाजन का अर्थ है - आधार । किसी भाजन में रखी हुई वस्तु का स्वरूप दीर्घकाल में बदल जाता है, वह भाजन प्रत्ययिक बंध है । जैस पुरानी मदिरा अपने तरल रूप को छोड़कर गाढी बन जाती है। पुराना गुड़ और पुराने तंदुल पिण्डीभूत हो जाते हैं।' इस प्रकार के बंध को भाजन बन्ध कहा जाता है । 127 1. भगवतीवृत्ति, पत्र 395, भाजनं आधारः । 2. वही, 395, तत्र जीर्णसुरायाः स्त्यानीभवनलक्षणो बन्ध:, जीर्णगुडस्य जीर्णतन्दुलानां च पिण्डीभवनलक्षणः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 परिणाम प्रत्ययिक बंध यह सादि विस्रसा बंध का तीसरा प्रकार है। परिणाम का अर्थ है - रूपान्तरगमन । ' परमाणु स्कन्धों का बादल आदि अनेक रूपों में परिणमन होता है, वह परिणाम- प्रत्ययिक बंध है । जैन आगम में दर्शन ये तीनों प्रकार के बंध पौद्गलिक हैं। इनमें बंधप्रत्ययिक मुख्य बंध परिलक्षित होता है, उसमें परमाणु का पारस्परिक सम्बन्ध नियम के आधार पर नियत है अन्यत्र ऐसा नहीं है । बंध को आगमोत्तर साहित्य में पौद्गलिक माना गया है। जबकि भगवती में प्रास अनादि विस्रसा बंध धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय में प्राप्त है तथा सादि विससा बंध पुद्गल का माना गया है । " प्रयोगबन्ध जीव के व्यापार से सम्बन्ध रखता है । ' तत्त्वार्थ सूत्र के 5 / 24 सूत्र के भाष्य में बंध को प्रयोग, विस्रसा एवं मिश्र के भेद से तीन प्रकार कहा है। जिसको भगवती में पुद्गल का परिणाम कहा गया है ' तथा बंध को प्रयोग एवं विस्रसा के भेद से दो प्रकार का बतलाया गया है । ' तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में विस्रसा बंध को सादि एवं अनादि उभय प्रकार का बतलाया है तथा अनादिविस्रसा बंध के उदाहरण के रूप में धर्म, अधर्म एवं आकाश का उल्लेख किया है। यह स्पष्ट ही है कि ये पौद्गलिक नहीं हैं । पुद्गल के स्वभाव रूप में जिस बंध का तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों में उल्लेख हुआ है उसको सादि विस्रसा बंध ही समझना चाहिए। बंध पांचों अस्तिकाय में ही किसी-न-किसी रूप में उपलब्ध है अतः उसको मात्र पौद्गलिक नहीं कहा जा सकता । परमाणु की गति जैन दर्शन के अनुसार जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य गतिशील हैं। इनमें तीव्रता से गति करने की शक्ति है । जिस प्रकार मुक्त जीव एक समय में लोकान्त तक पहुंच जाता है, उसी प्रकार परमाणु भी एक समय में लोक के एक छोर से दूसरे छोर पर जा सकता है। ' धर्मास्तिकाय परमाणु को गति के लिए प्रेरित नहीं करता किंतु जब वह गति करता है तो उसका सहयोगी बनता है । परमाणु पुद्गल की गति का विमर्श आधुनिक विज्ञान के गति सिद्धान्त के संदर्भ में करणीय है । 1 भगवतीवृत्ति,, 395, परिणामो रूपान्तरगमनं । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5 / 24 2. 3. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 8/347, 350-351 4. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृत्ति, 5 / 24 पृ. 360 5. सभाष्यतत्त्वार्थाधिगम, 5 / 24, बन्धस्त्रिविध:- प्रयोगबंधो, विस्रसाबंधो मिश्रबंध: । अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8 / 1 6. 7. वही, 8 / 345 8. तत्त्वार्थाधिगमभाष्यवृत्ति, 5 / 24 पृ. 360 9. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 16/116, परमाणुपोग्गलेणं लोगस्स पुरत्थिमिल्लं तं चेव जाव उवरिल्लं चरिमंतं एगसमएणं गच्छति । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 129 मन एवं भाषा पौद्गलिक मन एवं भाषा जीव के होते हैं, ' किंतु ये स्वयं अचेतन हैं, पौद्गलिक हैं, रूपी हैं। भाषा श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य है अत: मूर्त है। अमूर्त पदार्थ इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है।' शब्द और भाषा एक नहीं है। शब्द तो अजीव से भी उत्पन्न हो सकते हैं किंतु वह भाषा नहीं है क्योंकि भाषापर्याप्ति के द्वारा जन्य शब्द को ही भाषा कहा जाता है। भाषा पर्याप्ति जीव के ही होती है। जब जीव बोलता है वही भाषा है उससे पूर्व एवं उत्तरकाल में उसको भाषा नहीं कहा जाता।' भाषा वर्गणा के पुद्गल समूचे लोक में व्याप्त रहते हैं। बोलने वाला उन पुद्गल-वर्गणाओं का पहले ग्रहण करता है, फिर भाषा रूप में परिणत करता है। उसके पश्चात् उनका विसर्जन करता है। यह विसर्जन-काल ही वर्तमान काल है और विसर्जन काल में ही भाषा का निर्देश किया जाता है। उसी से अर्थका ज्ञान होता है। इसी प्रकार मन भी पुद्गल जनित है।मननकाल में ही मन, मन कहलाता है, इससे पूर्व एवं बाद में उसको मन नहीं कहा जा सकता।' मन रूपी है, पुद्गल है, इसका अर्थ हुआ हमारे विचार भौतिक हैं। जीव द्वारा गृहीत भाषावर्गणा के पुद्गल भाषा रूप में परिणत होते हैं एवं मनोवर्गणा के पुद्गल मन (द्रव्यमान) के रूप में परिणत होते हैं। जैन दर्शन में द्रव्य एवं भाव के भेद से मन दो प्रकार का माना गया है। द्रव्य मन ही पौद्गलिक होता है, भाव मन चेतनरूप है, आत्मा का ही अंश है। ___ विचार बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। देकार्त ने विचार के आधार पर अस्तित्व को सिद्ध किया है।' विचार को चैतन्य की अभिव्यक्ति का साधन माना गया। मानव विचारशील है किंतु विचार स्वयं जड़ हैं, भौतिक हैं, यह जैन दर्शन की मान्यता है। शब्द श्रवण की प्रक्रिया शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है। श्रोत्र-इन्द्रिय में शब्द के परमाणुस्कन्धों का स्पर्श होता 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 13/124,1 2 6, ......जीवाणं भासा, नो अजीवाणं भासा।......जीवाणं मणे नो अजीवाणं मणे। 2. वही, 13/124,126, रूविं भासा नो अरूविं भासा । रूविं मणे, नो अरूविं मणे। 3. भगवतीवृत्ति, पत्र 621,नजीवस्वरूपा श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वेन मूततयात्मनो विलक्षणत्वात् । 4. उत्तरज्झयणाणि, 14/19, नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा । 5. भगवतीवृत्ति पत्र 622, ......जीवानां भाषा......., यद्यपि चाजीवेभ्यः शब्द उत्पद्यते तथाऽपि नासौ भाषा, भाषापर्याप्तिजन्यस्यैव शब्दस्य भाषात्वेनाभिमत्वादिति ।। 6. (क) अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 13/124, भासिज्जमाणी भासा। (ख) भगवतीवृत्ति पत्र 622,भाष्यमाणा-निसर्गावस्थायां वर्तमाना भाषा घटावस्थायां घटस्वरूपमिव । 7. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 13/126 8. जैन सिद्धान्त दीपिका, 2/41 9. Masih, y, A Critical History of Western Philosophy P.200, Cogito Ergo Sum (I think therefore I am) . Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 है। श्रवण क्षेत्र में आत्म-प्रदेशों के साथ स्पृष्ट शब्द को सुना जा सकता है।' आत्म-प्रदेशों के साथ एक क्षेत्र में अवस्थित तथा उनसे अव्यवहित रूप में अवस्थित शब्द ही श्रवण के विषय बनते हैं । ' व्यवहित एवं अस्पृष्ट शब्दों को नहीं सुना जा सकता । भगवती में उल्लेख है कि अणु और बादर दोनों प्रकार के शब्दों को सुना जा सकता है । प्रस्तुत प्रसंग में अणु और बादर सापेक्ष शब्द हैं । भाषा वर्गणा के पुद्गल चतु:स्पर्शी होते हैं, उन्हें नहीं सुना जा सकता। वक्ता के मुंह से निकलने वाले शब्द का विस्फोट होता है । उसमें अन्य अनन्तप्रदेशी स्कन्ध मिलकर शब्द को अष्टस्पर्शी बना देते हैं। वे अष्टस्पर्शी शब्द श्रोत्रेन्द्रिय के विषय बनते हैं। मलयगिरि ने सापेक्ष दृष्टि को स्पष्ट करते हुए अणु का अर्थ अल्पप्रदेशोपचय वाला और बादर का अर्थ प्रचुरप्रदेशोपचय वाला किया है। ' ऊर्ध्ववर्ती, अधोवर्ती और तिर्यग्वर्ती तथा आदि, मध्य और पर्यवसान तीनों समयों में शब्द को सुना जा सकता है।' भाषा द्रव्य का ग्रहणोचित्त-काल उत्कर्षतः अन्तर्मुहूर्त है। उसके प्रथम समय, मध्य समय और पर्यवसान समय में शब्द श्रवण का विषय बन सकता है।' शब्द की तरंगें होती हैं। एक तरंग आरम्भ होती है और कुछ दूरी पर जाकर पूरी हो जाती है। फिर उसी प्रकार दूसरी तरंग का आरम्भ और अन्त होता है। शब्द की तरंगों के आदि मध्य और पर्यवसान तीनों को पकड़ा जा सकता है। श्रवण क्षेत्र में क्रम से आने वाले शब्द को सुना जा सकता है, अक्रम अथवा व्युत्क्रम से आने वाले शब्द को नहीं सुना जा सकता। छहों दिशाओं से आने वाले शब्द को सुना जा सकता है।' इसका हेतु यह है कि लोक में त्रस जीवों का एक नियत क्षेत्र है, उसे त्रसनाडी कहा जाता है । भाषक त्रस - प्राणी होता है, उसका अस्तित्व नियमत: त्रसनाडी में मिलता है। त्रसनाडी में छहों दिशाओं से पुद्गल का ग्रहण किया जा सकता है। " जैन आगम में दर्शन श्रोत्र- इन्द्रिय पटुतर होती है इसलिए वह स्पृष्ट अथवा प्राप्त मात्र विषय को ग्रहण करती है । जैसे धूल शरीर का स्पर्श करती है वैसे ही शब्द कान को छूता है और उसका बोध हो जाता है । शब्द के परमाणु स्कन्ध सूक्ष्म, प्रचुर द्रव्य वाले तथा भावुक अर्थात् उत्तरोत्तर शब्द 1 अंग सुत्ताणि 2 (भगवई) 5 / 164 2. वही, 5 / 64 3. वही, 5/64 4. प्रज्ञापना वृत्ति पत्र 263, अणून्यपि -- स्तोकप्रदेशान्यपि गृह्णाति बादराण्यपि प्रभूत- प्रदेशोपचितान्यपि, इहाणुत्वबादरत्वे तेषामेव भाषायोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशस्तोकबाहुल्यापेक्षया व्याख्याते । 5. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 5/64 6. प्रज्ञापनावृत्ति पत्र 263 - यानि भाषाद्रव्याण्यन्तर्मुहूर्त्तं यावद् ग्रहणोचितानि तानि ग्रहणोचितकालस्य उत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्त - प्रमाणस्यादावपि प्रथमसमये, मध्येऽपि - द्वितीयादिष्वपि समयेषु पर्यवसानेऽपि + पर्यवसानसमयेऽपि गृह्णाति । अंग सुत्ताणि 2 ( भगवई) 5/64 7. 8. प्रज्ञापना वृत्ति पत्र 264, भाषको हि नियमात् वसनाइयां अन्यत्र सकायासम्भवात् वसनाड्यांच व्यवस्थितस्य नियमात् षड् दिगागत- पुद्गलसम्भवात् । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 131 के परमाणु स्कन्धों को वासित करने वाले होते हैं, इसलिए उनका बोध स्पर्श मात्र से हो जाता है।' वक्ता बोलता है उसकी भाषा के पुद्गल स्कन्ध छहों दिशाओं में विद्यमान आकाश प्रदेश की श्रेणियों से गुजरते हुए प्रथम समय में ही लोकान्त तक पहुंच जाते हैं। भाषा की समश्रेणी में स्थित श्रोता मिश्र शब्द को सुनता है। वक्ता द्वारा उच्छृष्ट भाषा वर्गणा के पुद्गलों के साथ दूसरे भाषा वर्गणा के पुद्गल स्कन्ध मिल जाते हैं, इसलिए श्रोता मूल शब्द को नहीं सुनता, मिश्र शब्द सुनता है। विश्रेणी में स्थित श्रोता वक्ता द्वारा उच्छृष्ट भाषा के पुद्गल स्कन्धों द्वारा वासित अथवा प्रकम्पित शब्दों को सुनता है। इसमें वक्ता द्वारा उच्छृष्ट मूल शब्द का मिश्रण नहीं रहता। औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक शरीरी जीव भाषा को ग्रहण करते हैं एवं छोड़ते हैं।' वक्ता द्वारा निसृष्ट भाषा उत्कृष्टत: सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो सकती है।' चार समय में ही सम्पूर्ण लोक भाषा के परमाणुओं से परिपूरित हो जाता है। भाषा के संदर्भ में आगम साहित्य में विपुल विमर्श हुआ है। तद्विषयक स्वतंत्र शोध की जा सकती है। जीव और पुद्गल की अनुश्रेणी गति श्रेणी का सामान्य अर्थ पंक्ति होता है किंतु आगम साहित्य में प्रयुक्त श्रेणी शब्द से आकाशप्रदेश की पंक्ति का ग्रहण कर्तव्य है। आकाशप्रदेश की वह पंक्ति जिसके माध्यम से जीव और पुद्गल गति करते हैं, उसे श्रेणी कहते हैं। जीव और पुद्गल श्रेणी के अनुसार ही गति करते हैं, विश्रेणी से गति नहीं करते। पुद्गल के सम्बन्ध में यह ध्यातव्य है कि परप्रयोगनिरपेक्ष पुद्गल की स्वाभाविक गति तो अनुश्रेणी में ही होती है किंतु पर प्रयोग की अपेक्षा से वह अन्यथा भी होती है अर्थात् विश्रेणी में भी गति हो सकती है।' श्रेणी आकाश द्रव्य की होती है अत: उन्हें 1. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 3 3 8 , बहु-सुहुम भावुगाइं जं पडुयरं च सोत्तविण्णाणं । 2. आवश्यक हारिभद्रीयाटीका, पृ. 12, .....तानि प्रथमसमय एव षट्सु दिक्षु लोकान्तमनुधावन्ति। 3. नंदी, 54/5, भासासमसेढीओ सदं जं सुणइ मीसयं सुणइ। वीसेढी पुण सई सुणेइ नियमा पराघाए ।। आवश्यकनियुक्ति, गा. 9, ओरालियवेउन्वियआहारो गिण्हई मुयइ भासं। आवश्यक हारिभद्रीया, वृत्ति पत्र 12, कश्चित्तु महाप्रयत्न, स खलु आदाननिसर्गप्रयत्नाभ्यां भित्वैव विसृजति, तानि च सूक्ष्मत्वाद् बहुत्वाच्च अनन्तगुणवृद्धया वर्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमाप्नुवन्ति । 6. आवश्यकनियुक्ति, गा. 11, चउहि समएहि लोगो, भासाइ निरन्तरं तु होइ फुडो। 7. भगवती वृत्ति पात्र 865, श्रेणी शब्देन च यद्यपि पंक्तिमात्रमुच्यते तथाऽपीहाकाशप्रदेशपंक्तय: श्रेणयो ग्राह्याः । 8. (क) अंगसुत्ताणि-2, (भगवई) 25/92-94 (ख) तत्त्वार्थासूत्र, 2/27 टी. अनुश्रेणिर्गति: श्रेणि:-आकाशप्रदेशपंक्ति......श्रेणिमनु अनुश्रेणि श्रेण्यामनुसारिणी गतिरिति यावत् । तत्त्वार्थाधिगमवृत्ति, सूत्र 2/27 पृ. 180, पुद्गलानामपि परप्रयोगनिरपेक्षाणां स्वाभाविकी गतिरनुश्रेणीभवति, यथाऽणो: प्राच्यात लोकान्तात् प्रतीच्यं लोकपर्यन्तमेकेन समयेन प्राप्तिरिति प्रवचनोपदेश परप्रयोगापेक्षया त्वन्यथाऽपि गतिरस्तीति । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 जैन आगम में दर्शन अनन्त माना गया है, क्योंकि आकाश के प्रदेश अनन्त होते हैं। लोकाकाश की श्रेणियां अनन्त नहीं है, वे असंख्य है क्योंकि लोकाकाश के प्रदेश असंख्य हैं। इन श्रेणियों के आकार की अपेक्षा से सात भेद हो जाते हैं। सात श्रेणियों के नाम निम्न निर्दिष्ट हैं नाम 1. ऋजुआयता 2. एकतोवक्रा 3. द्वितोवक्रा 4. एकत:खहा 5. द्वित:खहा 6. चक्रवाला 7. अर्द्धचक्रवाला ऋजु:आयता-जब जीव और पुद्गल ऊंचे लोक से नीचे लोक में और नीचे लोक से ऊंचे लोक में जाते हुए सम-रेखा में गति करते हैं, कोई घुमाव नहीं लेते, उस मार्ग को ऋजुआयता श्रेणी कहा जाता है। इस गति में केवल एक समय लगता है। एकतोवक्रा-आकाश प्रदेश की पंक्तियां-श्रेणियां-ऋजु ही होती हैं। उन्हें जीव या पुद्गल की घुमावदार गति की अपेक्षा से वक्रा कहा गया है। जब जीव और पुद्गल ऋजु गति करते-करते दूसरी श्रेणी में प्रवेश करते हैं तब उन्हें एक घुमाव लेना होता है इसलिए उस मार्ग को 'एकतोवक्रा' श्रेणी कहा जाता है। द्वितोवक्रा-जिस श्रेणी में दो घुमाव लेने पड़ते हैं उसे 'द्वितोवक्रा' कहा जाता है। एकत:खहा-जब स्थावर जीव त्रसनाड़ी के बायें पार्श्व से उसमें प्रवेश कर उसके बायें या दाएं किसी पार्श्व में दो या तीन घुमाव लेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है। उसके वसनाड़ी के बाहर का आकाश एक ओर से स्पृष्ट होता है इसलिए इसे 'एकत:खहा' कहा जाता है। द्वित:खहा-जब स्थावर जीव त्रसनाड़ी के किसी एक पार्श्वसे उसमें प्रवेश कर उसके बाह्यवर्ती दूसरे पार्श्व में दो या तीन घुमावलेकर नियत स्थान में उत्पन्न होता है, उसके त्रसनाड़ी के बाहर का दोनों ओर का आकाश स्पृष्ट होता है इसलिए उसे द्वित:खहा कहा जाता है। चक्रवाला- इसमें चक्राकार गति होती है। इस आकार में जीव की गति नहीं होती, केवल पुद्गल की ही गति होती है। अर्द्धचक्रवाला-इस गति में अर्धचक्राकार गति होती है।' 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 25/73 2. वही, 25/75 3. (क) वही, 25/91,34/3 (ख) ठाणं, 7/112 4. ठाणं (टिप्पण) पृ.771-772 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 133 परिभोग्य-परिभोक्ता संसार में चेतन और अचेतन-ये दो प्रकार के पदार्थ हैं। इनका परस्पर में कोई आदानप्रदान होता है या नहीं? यदि होता है तो कौन-किसका परिभोग करता है ? उस परिभोग के नियम क्या हैं ? इन विषयों में भगवती में विशद विवेचन हुआ है। अजीव द्रव्य अर्थात् पुद्गल जीव के परिभोग में आते हैं। जीव परिभोक्ता है, पुद्गल परिभोग्य है। जो सचेतन होता है वह ग्राहक होता है और जो अचेतन होता है वह ग्राह्य होता है। अत: जीव ग्राहक एवं पुद्गल ग्राह्य है। जीव पुद्गल को ग्रहण करता है और उससे पांच शरीर, पांच इन्द्रियां, तीन योग, श्वासोच्छवास आदि का निर्माण करता है, इसलिए जीव को परिभोक्ता एवं पुद्गल को परिभोग्य कहा है।' संसारी जीव सशरीर ही होता है। शरीर, इन्द्रिय, योग आदि के लिए जब वह पुद्गलों का ग्रहण करता है तब उसके अलग-अलग नियम होते हैं। औदारिक, वैक्रिय एवं आहारक शरीर के निर्माण के लिए स्थित एवं अस्थित दोनों ही प्रकार के पुद्गलों का ग्रहण करता है।' स्थित का अर्थ है--जीवप्रदेश जिस प्रदेश जिस क्षेत्र में अवगाढ़ है उसी क्षेत्र के भीतर में रहने वाले पुद्गल । उस क्षेत्र से बाहर रहने वालों को अस्थित कहा गया है। तैजस् एवं कार्मण शरीर के निर्माण में यह नियम नहीं है। तैजस् एवं कार्मण शरीर के निर्माण में स्थित पुद्गलों का ही जीव ग्रहण करता है। मनयोग, वचनयोग के पुद्गल ग्रहण का नियम तैजस्, कार्मण जैसा है। काययोग के लिए पुद्गल ग्रहण का नियम औदारिक शरीर जैसा है।' जीव के उपयोग में अनन्तप्रदेशी पुद्गल स्कन्ध ही आ सकते हैं तथा क्षेत्र की दृष्टि में वे अनन्तप्रदेशी पुद्गल असंख्य आकाशप्रदेशों पर ही स्थित होनेजरूरी हैं। अर्थात् यदि अनन्तप्रदेशी पुद्गल स्कन्ध एक प्रदेशावगाही यावत् संख्येय प्रदेशावगाही हो तो जीव उसका ग्रहण नहीं कर सकता। भगवती में वर्णित इस संदर्भ की आगे की सम्पूर्ति के लिए प्रज्ञापना 2 8/1 का उल्लेख किया है। इससे परिलक्षित होता है कि भगवती का यह पाठ प्रज्ञापना के बाद का है अथवा आगमों के संकलन के समय में पहले प्रज्ञापना का संकलन कर लिया था। तत्पश्चात् भगवती का 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 25/17,जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति, नो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति । भगवतीवृत्तिपत्र856,इह जीवद्रव्याणिपरिभोजकानिसचेतनत्वेनग्राहकत्वात् इतराणितुपरिभोग्यान्यचेतनतया ग्राह्यत्वादिति। 3. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 25/18 4. वही, 25/24 5. भगवतीवृत्ति पत्र 857, स्थितानि-किं जीवप्रदेशावगाढक्षेत्रस्याभ्यन्तरवर्तीनि अस्थितानिच-तदनन्तरवर्तीनि। 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 25/27, ........ठियाइं गेण्हइ, नो अट्ठियाइं गेण्हइ। 7. वही, 25/30 8. वही, 25/25 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 जैन आगम में दर्शन संकलन हुआ है अत: यह वक्तव्य दिया गया है। कुछ भी हो भगवती की प्रस्तुत विचारणा जीव विज्ञान (biology) की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। शरीर निर्माण में जीव कैसे पुद्गलों का ग्रहण करता है, उनकी स्थिति किंरूप होती है, इत्यादि बातों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त है। इसका आधुनिक शरीर विज्ञान की अवधारणा के साथ तुलनात्मक अध्ययन करना महत्त्वपूर्ण हो सकता है। तमस्काय एवं कृष्णराजी जैन दर्शन में तमस्काय एवं कृष्णराजी का वर्णन हुआ है। इन दोनों का वर्ण काला, कृष्ण अवभासवाला गम्भीर, रोमांच उत्पन्न करने वाला, भयंकर, उत्त्रासक और परम कृष्णप्रज्ञप्त है। कोई एक देव भी उसे देखकर प्रथम दर्शन में क्षुब्ध हो जाता है ; यदि वह उसमें प्रविष्ट हो जाता है तो उसके पश्चात् अति शीघ्रता और अतित्वरा के साथ झटपट उसके बाहर चला जाता है।' इसका तात्पर्य हुआ कि ये दोनों ऐसे पुद्गल स्कन्धों से निर्मित हैं जिनमें से प्रकाश की एक भी किरण बाहर नहीं जा सकती। भगवती में तमस्काय को जल एवं कृष्णराजी को पृथ्वीकायिक माना गया है।' तमस्काय का प्रारम्भ एवं अन्त बिन्दु जम्बूद्वीप से बाहर तिरछी दिशा में असंख्य द्वीप-समुद्रों को पार करने पर अरुणवर द्वीप की बहिर्वर्ती वेदिका के छोर से आगे अरुणोदय समुद्र है, उसमें बयालीस हजार योजन अवगाहन करने पर जल के ऊपर के सिरे से एक प्रदेश वाली श्रेणी निकली है। यहां सेतमस्काय उठता है। वह सतरह सौ इक्कीस योजन ऊपर जाता है। उसके पश्चात् तिरछा फैलता हुआ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार और माहेन्द्र इन चार स्वर्गलोकों को घेरकर ऊपर ब्रह्मलोक कल्प के रिष्ट विमान के प्रस्तर तक पहुंच जाता है। यहां तमस्काय समास होता है।' तमस्काय की संस्थान, विस्तार आदि अनेक बिन्दुओं के आधार पर भगवती में विस्तृत व्याख्या है। कृष्णराजी की संख्या एवं स्थिति कृष्णराजियां आठ मानी गई हैं।' सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गलोक से ऊपर 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 6 / 8 5,102 2. (क) वही, 6/70, नो पुढवि तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति, आऊ तमुक्काए त्ति पव्वुच्चति । (ख) वही, 6/104, कण्हरातीओ........पढवि परिणामाओ. नो आउपरिणामा ओ। 3. वही, 6/72 4. वही, 6/72-88 5. (क) ठाणं, 8 / 4 3 - 45 (ख) अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 6/89 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 135 ब्रह्मलोक कल्प में रिष्ट विमान प्रस्तर के समानान्तर आखाटक के आकार वाली समचतुरस्र संस्थान से संस्थित प्रत्येक दिशा में दो-दो कृष्णराजियां हैं।' भगवती सूत्र में तमस्काय एवं कृष्णराजियों का भौगोलिक एवं गणितीय दृष्टि से विवेचन है। इनका जैसा स्वरूप वर्णित किया गया है, उसकी आधुनिक विज्ञान सम्मत Black hole से तुलना यथासंभव की जा सकती है। आचार्य महाप्रज्ञ ने इस दिशा में संक्षिप्त प्रयत्न किया है। इस क्षेत्र में तुलनात्मक दृष्टि से अधिक विचार एवं अन्वेषण अपेक्षित है। काल-द्रव्य __ पांच अस्तिकाय के साथ जब ‘काल-द्रव्य' को योजित कर दिया जाता है तब उन्हें ही षड्द्रव्य कहा जाता है। विश्व-व्यवस्था में कालद्रव्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैन परम्परा में काल के संदर्भ में दो अवधारणाएं प्राप्त हैं - (1) प्रथम अवधारणा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य नहीं है, वह जीव और अजीव की पर्यायमात्र है। इस मान्यता के अनुसार जीव एवं अजीव द्रव्य के परिणमन को ही उपचार से काल माना जाता है। वस्तुत: जीव और अजीव ही काल द्रव्य है। काल की स्वतंत्र सत्ता नहीं है। पातंजलयोगसूत्र में भी काल की वास्तविक सत्ता नहीं मानी गई है। काल वस्तुगत सत्य नहीं है। बुद्धिनिर्मित तथा शब्दज्ञानानुपाती है। व्युत्थेितदृष्टि वाले व्यक्तियों को वस्तुस्वरूपकी तरह अवभासित होता है। इसका यही भावार्थ है कि काल का व्यावहारिक अस्तित्व है, तात्त्विक अस्तित्व नहीं है। (2) दूसरी अवधारणा के अनुसार काल स्वतंत्र द्रव्य है। अद्धासमय के रूप में उसका पृथक् उल्लेख है। यद्यपि काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने वालों ने भी उसको अस्तिकाय नहीं माना है। सर्वत्र धर्म-अधर्म आदि पांच अस्तिकायों का ही उल्लेख प्राप्त होता है।' श्वेताम्बर परम्परा में काल की दोनों प्रकार की अवधारणाओं का उल्लेख है किंतु दिगम्बर परम्परा में काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने वाली अवधारणा का ही उल्लेख है। 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 6/90 2. भगवई (खण्ड 2) पृ. 278 3. पंचास्तिकाय, गा. 6, ते चेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छंति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता ।। 4. ठाणं,2/387 समयाति वा, आवलियाति वा, जीवाति वा अजीवाति वा। 5. पातंजलयोगदशनम्, (संपा. स्वामी हरिहरानन्द, दिल्ली, 1991) 3/52, सखल्वयं कालो वस्तुशून्यो बुद्धिनिर्माणः शब्दज्ञानानुपाती लौकिकानां व्युत्थितदर्शनानां वस्तुस्वरूप इवावभासते। 6. अंगसुताणि 2 (भगवई) 13/61-71 7. वही,2/124 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 जैन आगम में दर्शन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है किंतु काल के स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर भिन्नता है । श्वेताम्बर परम्परा काल के अणु नहीं मानती तथा व्यावहारिक काल को समयक्षेत्रवर्ती तथा नैश्चयिक काल को लोक-अलोक प्रमाण मानती है । ' दिगम्बर परम्परा के अनुसार 'काल' लोकव्यापी और अणु रूप है। कालाणु असंख्य है, लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है।' पंडित सुखलालजी काल को स्वतंत्र द्रव्य मानने के पक्ष में नहीं हैं। उनका इस संदर्भ में वक्तव्य है कि "निश्चयदृष्टि से देखा जाए तो काल को अलग द्रव्य मानने की कोई जरूरत नहीं है । उसे जीवाजीव के पर्याय रूप मानने से ही सब कार्य व सब व्यवहार उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए यही पक्ष तात्त्विक है। अन्य पक्ष व्यावहारिक एवं औपचारिक हैं। काल को मनुष्य क्षेत्र प्रमाण मानने का पक्ष स्थूल लोक-व्यवहार पर निर्भर है और उसे अणुरूप मानने का पक्ष औपचारिक है।" ___पं. दलसुख मालवणिया ने काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानने वाली अवधारणा को प्राचीन माना है। उनका कहना है कि "काल को पृथक् नहीं मानने का पक्ष प्राचीन मालूम होता है, क्योंकि लोक क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों के मत में एक ही है कि लोक पंचास्तिकायमय है। कहीं यह उत्तर नहीं देखा गया कि लोक षड्द्रव्यात्मक है। अतएव मानना पड़ता है कि जैनदर्शन में काल को पृथक मानने की परम्परा उतनी प्राचीन नहीं। यही कारण है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों में काल के स्वरूप के विषय में मतभेद भी देखा जाता है।" आचार्य महाप्रज्ञ इन दोनों अवधारणाओं की संगति अनेकान्त के आधार पर करते हैं। उनका मानना है कि "काल छह द्रव्यों में एक द्रव्य भी है और जीव-अजीव की पर्याय भी है। ये दोनों कथन सापेक्ष हैं, विरोधी नहीं। निश्चयदृष्टि में काल जीवअजीव की पर्याय है और व्यवहारदृष्टि में वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वह परिणमन का हेतु है, यही उसका उपकार है। इसी कारण वह द्रव्य माना जाता है। 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 5/248 2. द्रव्यसंग्रह, (ले. नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, मथुरा, वी सं. 2475), गाथा 22, लोगागासपदेसे, एक्कक्क जे ठिया ह एक्के क्का। रयणाणं रासी इव, ते कालाणू असंखदव्वाणि ।। 3. संघवी सुखलाल, दर्शन और चिंतन, (अहमदाबाद, 1957) खण्ड 1 - 2 पृ. 333 4. मालवणिया दलसुख, आगम युग का जैन दर्शन, पृ. 214 5. उत्तरज्झयणाणि, 2 8/10 का टिप्पण, पृ. 148 Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा काल-परमाणु भगवती सूत्र में चार प्रकार के परमाणुओं का उल्लेख हुआ है।' यद्यपि यह उल्लेख द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के संदर्भ में हुआ है। जैसे कि आगम साहित्य की शैली है वह वस्तु की व्याख्या द्रव्य क्षेत्र आदि के माध्यम से करता है, उदाहरण स्वरूप हम पंचास्तिकाय का संदर्भ ले सकते हैं । ' किंतु प्रस्तुत प्रसंग में परमाणु के प्रकार पुद्गल से जुड़े हुए नहीं है अर्थात् पौद्गलिक परमाणु की द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के आधार पर व्याख्या नहीं की जा रही है अपितु द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के परमाणु बताए जा रहे हैं । द्रव्यरूप परमाणु को द्रव्य परमाणु, आकाशप्रदेश को क्षेत्र परमाणु, समय को कालपरमाणु एवं भावपरमाणु को पुद्गल का परमाणु माना गया है । ' प्रस्तुत प्रसंग में विशेष मननीय काल-परमाणु है। भगवती टीका में समय को काल परमाणु कहा है, जैसा कि हमने ऊपर उल्लेख किया है। जैन दर्शन के अनुसार काल के अन्तिम अविभाज्य भाग को समय कहा जाता है जिसे जैनेतर दर्शनों में क्षण कहा गया है ।' क्षण और समय ये दोनों शब्द एक ही भाव को प्रकट कर रहे हैं उनको परस्पर पर्यायवाची माना जा सकता है । श्वेताम्बर परम्परा में काल को पर्याय तथा स्वतंत्र द्रव्य रूप में मानने की अवधारणा है ! भगवती टीका में समय को काल-परमाणु कहा है।' जबकि दिगम्बर परम्परा में समय को कालाणु की पर्याय कहा गया है । ' द्रव्यानुयोगतर्कणा में समय के आधार को कालाणु कहा गया है। काल का ऊर्ध्वप्रचय श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में काल के अस्तित्व को तो स्वीकार किया गया है किंतु उसे अस्तिकाय नहीं माना है । अस्तिकाय वही द्रव्य हो सकता है 1. अंग सुत्ताणि 2 (भगवई) 20 / 40, चउव्विहे परमाणु पण्णत्ते, तं जहा- दव्वपरमाणू खेत्तपरमाणू, कालपरमाणू, भावपरमाणू ॥ 137 2. वही, 2 / 125-129 3. भगवतीवृत्ति पत्र 788 तत्र द्रव्यरूपः परमाणुर्द्रव्यपरमाणु :- एकोऽणुर्वर्णादिभावानामविवक्षणात् द्रव्यत्वस्यैव विवक्षणादिति, एवं क्षेत्र परमाणु : आकाश प्रदेश: कालपरमाणुः समयः भावपरमाणुः परमाणुरेव वर्णादिभावानां प्राधान्यविवक्षणात् । 4. Mookerjee, Satakari, Illuminator of Jaina Tenets P. 14 (footnote) samaya, being the smallest indivisible quantum of time, can perhaps be appropriately called time-point. 5. पातंजलयोगदर्शनम्. 3/52, यथापकर्षपर्यन्तं द्रव्यं परमाणुरेवं परमापकर्षपर्यन्तः कालः क्षणः । 6. भगवतीवृत्ति पत्र 788 7. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, (संपा. क्षु. जिनेन्द्रवर्णी, दिल्ली, 1986) भाग 2 पृ. 84, समयस्तावत्सूक्ष्मकालरूप: प्रसिद्ध: स एव पर्याय: न द्रव्यम् तच्च कालपर्याय स्योपादानकारणभूतं कालाणुरूपं कालद्रव्यमेव न च पुद्गलादि । 8. द्रव्यानुयोगतर्कणा, 10/14, मन्दगत्याप्यणुर्यावत्प्रदेशे नभसः स्थितौ । याति तत्समयस्यैव स्थानं कालाणुरुच्यते ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 जिसका स्कन्ध बन सके । काल के अतीत समय नष्ट हो जाते हैं । अनागत समय अनुत्पन्न होते हैं, इसलिए उसका स्कन्ध नहीं बनता । वर्तमान समय एक होता है, इसलिए उसका तिर्यक्-प्रचय (तिरछा फैलाव ) नहीं होता । काल का स्कन्ध या तिर्यक् प्रचय नहीं होता, इसलिए वह अस्तिकाय नहीं है।' काल की पूर्व एवं अपर पर्याय में ऊर्ध्वताप्रचय होता है । काल के प्रदेश नहीं होते इसलिए उसके तिर्यक्- प्रचय नहीं होता । ' “दिगम्बर परम्परा के अनुसार कालाणुओं की संख्या लोकाकाश के तुल्य है । आकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु अवस्थित है । काल शक्ति और व्यक्ति की अपेक्षा एक प्रदेशवाला है । इसलिए इसके तिर्यक् प्रचय नहीं होता । धर्म आदि पांच द्रव्य के तिर्यक्- प्रचय क्षेत्र की अपेक्षा से होता है और ऊर्ध्व प्रचय काल की अपेक्षा से होता है । उनके प्रदेश- समूह होता है, इसलिए वे फैलते हैं और काल के निमित्त से उनमें पौर्वापर्य या क्रमानुगत प्रसार होता है । समयों का प्रचय जो है वही काल द्रव्य का ऊर्ध्वप्रचय है । " जैन आगम में दर्शन आगम साहित्य में काल को अस्तिकाय नहीं माना गया है क्यों नहीं माना गया है इसका उल्लेख नहीं है यह आगम की शैलीगत विशेषता है कि वह तत्त्व के निरूपण में तर्क का सहारा नहीं लेता। उत्तरकालीन जैन साहित्य को क्यों का भी उत्तर देना था अत: उन्हें अनिवार्यता से हेतु का अवलम्बन लेना पड़ा। काल के विभाग काल के समय, आवलिका मुहूर्त, दिवस आदि से लेकर पुद्गलपरिवर्त तक अनेक विभाग किए गए हैं। इन विभागों के अतिरिक्त भी काल के अन्य प्रकार भी उपलब्ध हैं । स्थानांग एवं भगवती में काल को चार प्रकार का माना गया है. प्रमाणकाल, यथायुनिर्वृत्तिकाल, मरणकाल और अद्धाकाल । ' - जिसके द्वारा वर्ष आदि का ज्ञान होता है उसे प्रमाणकाल कहा जाता है, यह अद्धाकाल का ही दिवस आदिलक्षण वाला भेद है । " 3. 4. 1. द्रव्यानुयोगतर्कणा, 10 / 16 वृ. (पृ. 179), परन्तु स्कन्धस्य प्रदेशसमुदाय: कालस्य नास्ति तस्माद्धर्मास्तिकायादीनामिव तिर्यक्प्रचयता न संभवति एतावता तिर्यक्प्रचयत्वं नास्ति । तेनैव कालद्रव्यमस्तिकाय इति नोच्यते । 2. वही, 10 / 16, प्रचयोर्ध्वत्वमेतस्य द्वयोः पर्याययोर्भवेत् । तिर्यक्प्रचयता नास्य प्रदेशत्वं विना क्चचित् ॥ महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 195 अणुओगदाराई, सूत्र 415/1, समयावलिय - मुहुत्ता, दिवसमहोरत्त पक्खमासा य । संवच्छर जुग- पलिया, सागर- ओसप्पि परियट्टा । 5. (क) ठाणं, 4 / 13 4 (ख) अंगसुनाणि 2, 11 / 119 6. भगवतीवृत्ति पत्र 533, प्रमीयते परिच्छिद्यते येन वर्षशतादि तत् प्रमाणं स चासौ कालश्चेतिप्रमाणकाल:..... अद्धाकालस्य विशेषो दिवसादिलक्षण: । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वमीमांसा 139 जिस रूप में आयुष्य का बंध हुआ है उस की उस रूप में अवस्थिति को यथायुनिर्वृत्तिकाल कहा जाता है। यह नारक आदि आयुष्य लक्षण वाला है। आयुष्यकर्म के अनुभव से विशिष्ट यह अद्धाकाल ही है। यह सारे संसारी जीवों के होता है।' ___ मृत्यु भी काल की पर्याय है उसे मरणकाल कहा गया है।' सूर्य, चन्द्र आदि की गति से सम्बन्ध रखने वाला अद्धाकाल कहलाता है। काल का प्रधान रूप अद्धा-काल ही है। शेष तीनों इसी के विशिष्ट रूप हैं | अद्धाकाल व्यावहारिक है । वह मनुष्यलोक में ही होता है। इसलिए मनुष्य लोक को समयक्षेत्र कहा जाता है। अढाई द्वीप में ही मनुष्य निवास करते हैं। उसको ही समयक्षेत्र कहा गया है।' निश्चय-काल जीव-अजीव का पर्याय है, वह लोक-अलोक व्यापी है। उसके विभाग नहीं होते। काल का अन्तिम भेद समय है। परमाणु मंदगति से एक आकाश प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाता है उतने काल को समय (क्षण) कहा जाता है। समय अत्यन्त सूक्ष्म है। आगमों में कमलपत्रभेदन, जुलाहे द्वारा जीर्ण वस्त्र का फाड़ना आदि उदाहरणों से उसे समझाया गया है। निश्चय एवं व्यवहार काल निश्चय और व्यवहार के भेद से काल दो प्रकार का परिगणित है। निश्चय काल का लक्षण वर्तना है। उत्तराध्ययन में काल का यही लक्षण निर्दिष्ट है। आचार्य अकलंक ने स्वसत्तानुभूति को वर्तना कहा है। वर्तना सभी पदार्थों में सर्वत्र होती है अत: निश्चय काल सबमें एवं सर्वत्र विद्यमान है। तत्त्वार्थसूत्र में काल के पांच लक्षण बतलाए गए हैं - वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ।' इनमें वर्तना और परिणाम का सम्बन्ध नैश्चयिक काल से तथा क्रिया, परत्व और अपरत्व का सम्बन्ध व्यावहारिक काल से है। अकलंक के अनुसार मनुष्य क्षेत्रवर्ती समय, आवलिका आदि व्यावहारिक काल के द्वारा ही सभी जीवों की कर्मस्थिति, भव-स्थिति और काय-स्थिति आदि का परिच्छेद 1. भगवतीवृत्ति पत्र 533 2. वही, वृत्ति पत्र 533 3. वही, वृत्ति पत्र 5 33 अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 2/122 5. द्रव्यानुयोगतर्कणा, 10/14, तुलनीय पातंजलयोगदर्शनम्, 3/52, यावता वा समयेन चलित: परमाणु: पूर्वदेशं जह्यादुत्तरप्रदेशमुपसम्पद्येत स काल: क्षण: । 6. अणुओग्दाराइं, सूत्र 417 7. उत्तरज्झयणाणि, 28/10, वनणा लक्खणो कालो। 8. तत्त्वार्थवार्त्तिक, 522/4. प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तीतैकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना। 9. तत्त्वार्थसूत्र, 5/22. वर्तना परिणाम: क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 जैन आगम में दर्शन होता है । संख्येय, असंख्येय और अनन्त-इस काल-गणना का आधार भी व्यावहारिक काल है।' __आधुनिक विज्ञान भी काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मान रहा है। उसके अनुसार काल Subjective है । Stephen Hawking के शब्दों में आधुनिक विज्ञान सम्मत काल की अवधारणा को हम समझ सकते हैं-.......Our views of nature of time have changed over the years. Up to the beginning of this century people belived in an absolute time. That is, each event could be labeled by a number called "time" in a unique way, and all good clocks would agree on the time interval between two events. However, the discovery that the speed of light appeared the same to every observer, no matter how he was moving, led to the theory of relativityand in that one had to abandon the idea that there was a unique absolute time. Instead, each observer would have his own measure of time as recorded by a clock that he carried : clocks carried by different observers would not necessarily agree. Thus time became a more personal concept, relative to the observer who measured it.? काल के स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न मतभेद हो सकते हैं किंतु व्यावहारिक जगत् में उसकी उपयोगिता निर्विवाद है। इसी उपयोगिता के कारण काल को द्रव्य की कोटि में परिगणित किया गया है। 'उपकारकं द्रव्यम्' जो उपकार करता है वह द्रव्य है। काल का उपकार भी प्रत्यक्ष सिद्ध है अत: काल की स्वीकृति आवश्यक है। कालवादी दार्शनिक तो मात्र काल को ही विश्व का नियामक तत्त्व स्वीकार करते हैं।' इतना न भी माने तो भी विश्व-व्यवस्था का एक अनिवार्य घटक तत्त्व तो काल को मानना ही होगा। द्रव्य-मीमांसा के अन्तर्गत द्रव्य सम्बन्धी कतिपय मुख्य अवधारणाओं का उल्लेख प्रस्तुत अध्याय में किया गया है। भगवती में अस्तिकाय/द्रव्य संबंधी अनेक महत्त्वपूर्ण अवधारणाएं प्रतिपादित हैं, जिनमें से जीवास्तिकाय को छोड़कर शेष द्रव्य सम्बंधी विवेचन प्रस्तुत अध्याय में हुआ है। अब अग्रिम अध्याय में जीवास्तिकाय का वर्णन करेंगे। 000 तत्त्वार्थवार्तिक, 5/22/25, मनुष्यक्षेत्रसमुत्थेन ज्योतिर्गतिसमयावलिकादिना परिच्छिन्नेन क्रियाकलापेन कालवर्तनया कालाख्येन ऊर्ध्वमधस्तिर्यक च प्राणिनां संख्येयाऽसंख्येयाऽनन्ता नन्तकालगणनाप्रभेदेन कर्मभवकायस्थितिपरिच्छेद: सर्वत्र जघन्य-मध्यमोत्कृष्टावस्थाः क्रियते। 2. Hawking, Stephen, A Brief History of Time, New York, 1990, P. 143 3. षड्दर्शनसमुच्चय (डॉ. महेन्द्रकुमार जैन, दिल्ली, 1997) वृ. पृ. 16, काल: पचति भूतानि काल: संहरति प्रजाः। काल: सुसेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः ।। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा भारतीय चिंतन के इतिहास में पुरुषसूक्त तथा नासदीयसूक्त जैसे वेद संहिताओं के वे अंश दार्शनिक माने गए जिनमें चेतना पर विचार हुआ । यूनान में भी यद्यपि सुकरात से पूर्व थेलीज, एनेक्जीमेण्डर आदि विचारक हो गए थे, जिन्होंने सृष्टि के स्वरूप पर विचार किया तथापि यूनान के दार्शनिक इतिहास का सुकरात से प्रारम्भ इसलिए माना जाता है कि उन्होंने सर्वप्रथम यह कहकर कि 'अपने को जानो' । दर्शन की धारा भौतिक पदार्थों से आत्मा की ओर मोड़ दी। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम दोनों ही परम्पराओं में दर्शन के क्षेत्र में चेतन तत्त्व का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। आत्मा का स्वरूप जैन दर्शन प्रारम्भ से ही आत्मवादी दर्शन रहा है। जैन आगम साहित्य में प्रचुर मात्रा में आत्म-विमर्श उपलब्ध है । परम्परा एवं आधुनिक विद्वानों के द्वारा भी प्राचीनतम जैन आगम के रूप में स्वीकृत आचारांग का प्रारम्भ आत्मजिज्ञासा से होता है । सम्पूर्ण जैन आचार-मीमांसा आत्मवाद की अवधारणा पर अवलम्बित है। आचारांग में आत्मस्वरूप की विशद मीमांसा हुई है। आचारांग में आत्मा एवं विज्ञाता का तादात्म्य भाव माना गया है-- जे आया से विण्णाया। जे विण्णाया से आया॥' आत्मा एवं विज्ञाता एक ही है। सांख्य दर्शन के अनुसार ज्ञान पुरुष (आत्मा) का स्वरूप नहीं है किंतु वह प्रकृति का धर्म है। प्रकृति जड़ है। अपने सत्त्वगुण के वैशिष्ट्य से वह 'ज्ञान' को भी उत्पन्न करती है। सांख्य के अनुसार ज्ञान सत्त्व गुणात्मक है। अत: 1. Durant Will, The story of Philosophy, (New York, 1954) P.6, There is no real philosophy until the mind turns round and examines itself. 'Gnothi seavton', said Socrates : Know theyself. आयारो, 1/। 3. वही, 5/104 4. सांख्यकारिका, 13 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 जैन आगम में दर्शन प्रकृति का धर्म या कार्य है, पुरुष का स्वरूप नहीं है। पुरुष का स्वरूप चैतन्य है। ज्ञान नहीं है । वह चैतन्य एवं ज्ञान को भिन्न-भिन्न मानता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का उपाधिगत धर्म है। वह समवाय सम्बन्ध से आत्मा से जुड़ता है। मुक्तावस्था में आत्मा ज्ञानशून्य हो जाती है। जबकि जैन के अनुसार चैतन्य एवं ज्ञान एक ही है। आत्मा चैतन्य लक्षण, चैतन्य स्वरूप या चैतन्य गुणवाला पदार्थ है। आत्मा के प्रकार जैन दर्शन के अनुसार आत्मा के दो प्रकार हैं- सिद्ध और संसारी।' संसारी आत्मा कर्मयुक्त है अत: वह औपपातिक अर्थात् पुनर्जन्म करने वाली होती है। औपपातिक आत्मा नानाविध शरीरों को धारण करती है और वह नानाविध योनियों में अनुसंचरण करती है, बार-बार जन्मती है और मरती है। इसे संसारी आत्मा कहा जाता है। द्रव्यार्थिक नय के मत में यह कर्मोपाधिसापेक्ष आत्मा शरीर में अधिष्ठित होने के कारण तर्कगम्य, बुद्धिग्राह्य, पौद्गलिक गुणों से युक्त, पुनर्जन्मधर्मा, स्त्री-पुरुष आदि लिंग से सहित तथा कथंचिद् मूर्त भी है। जैन चिंतकों ने निश्चय एवं व्यवहार नय के माध्यम से वस्तु स्वरूप का विमर्श करके वस्तु-व्यवस्था को एक नया आयाम प्रदान किया है। आत्म-स्वरूप विश्लेषण में भी इसी दृष्टि का उपयोग आगम-साहित्य में हुआ है। व्यवहारनय के द्वारा आत्मा के संसारी स्वरूप का वर्णन किया जा सकता है। किंतु आत्मा का शुद्ध स्वरूप व्यवहार नय का विषय नहीं बन सकता। निश्चय नय के ज्ञेय क्षेत्र में ही आत्मा का शुद्ध स्वरूप समायोजित हो सकता है। शुद्धात्मा शुद्ध आत्मा कर्ममुक्त होती है। शरीरमुक्त होने के कारण वह आत्मा अमूर्त होती है। इसलिए वह न शब्दगम्य है और न तर्कगम्य है। बुद्धि भी उसका ग्रहण नहीं कर सकती। शब्द, तर्क एवं बुद्धि का ज्ञेय एवं अभिव्यक्ति का क्षेत्र सीमित है। शब्द, तर्क और चिन्तन, जो वस्तु-विश्लेषण के साधन हमारे पास में है उनके द्वारा शुद्ध आत्म-तत्त्व की व्याख्या नहीं हो सकती। आचारांग का प्रवक्ता इस वस्तु सत्य से अवगत है। इसी वस्तु सत्य को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया 1. सव्वे सरा णियस॒ति 2. तक्का जत्थ ण विज्जइ 3. मई तत्थ ण गाहिया।' 1. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक 8, चैतन्यमौपाधिकमात्मनोऽन्यत्, न संविदानन्दमयी च मुक्तिः। . 2. उत्तरज्झयणाणि, 28/10,11 3. ठाणं, 2/409, सिद्धा चेव, असिद्धा चेव । 4. आचारांग भाष्यम्, 5/123-140 5. आयारो, 5/12 3 - 125 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 143 __ "सब स्वर लौट आते हैं-शब्द के द्वारा आत्मा प्रतिपाद्य नहीं है। वहां कोई तर्क नहीं है-आत्मा तर्कगम्य नहीं है तथा वह मति के द्वारा भी ग्राह्य नहीं है।' भाषा का प्रयोग क्षेत्र __ भाषा का प्रयोग क्षेत्र पौद्गलिक जगत् है, जिसको वह विधिरूप में प्रकट कर सकती है किंतु आत्मा का शुद्ध स्वरूप विधिपरक भाषा से अभिव्यंजित नहीं हो पा रहा है, अत: उसका प्रकटन आचारांग, उपनिषद् आदि ग्रन्थ निषेधपरक भाषा में कर रहे हैं। __ आगमयुग में आत्मा के स्वरूप को अभिव्यक्त करने के लिए जो शैली अपनाई गई है वह शैली प्राचीन उपनिषदों की शैली के निकट है। आत्मा शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्शात्मक नहीं है।' आत्मा का स्वयं का कोई आकार नहीं है अत: शुद्ध आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते समय इन सबका निषेध किया जाता है और इसका वर्णन करने वाली भाषा नकारत्मक हो जाती है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही सांख्य दर्शन में प्रतिपादित है अत: जैन आगम जब आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन करते हैं तो उसका निष्कर्ष वही होता है जो सांख्य का होता है अन्तर इतना है कि सांख्य दर्शन आत्मा को सदा शुद्ध एवं अपरिणामी ही मानता है जबकि जैन दर्शन आत्मा की अशुद्ध अवस्था को भी मानता है तथा उसे परिणामी मानता है। 'कसले पुण णो बद्धे णो मुक्के'। इस प्रकार के वक्तव्य आगम साहित्य में उपलब्ध हैं किंतु परवर्ती दार्शनिक साहित्य में इस अभिव्यक्ति के स्वर क्षीण हो गए हैं । जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी आत्म-तत्त्व व्याख्यात हुआ है किन्तु उसकी अभिव्यक्ति का प्रकार बदल गया है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन वहां पर उपलब्ध नहीं है। आत्मा के शुद्ध स्वरूप का वर्णन आगमयुग अथवा आगमयुग के अत्यन्त सन्निकट समयसार आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। आगम में निश्चय नय की दृष्टि से प्रतिपादित आत्म-विचार सांख्य दर्शन सम्मत आत्म-विचार के निकट पहुंच जाता है तथा निषेधात्मक भाषा में अभिव्यक्त आत्मविचार उपनिषद् में वर्णित आत्म विचार के पास पहुंच जाता है। आचारांग जैसे शब्द, तर्क आदि के द्वारा आत्मा को अग्राह्य मान रहा है वैसे ही उपनिषद् भी आत्मा को इन्द्रिय, वाणी, बुद्धि एवं मन के द्वारा अग्राह्य मानते रहे हैं - 1. न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो।' 2. नैषा तर्केण मतिरापनेया। 1. आयारो, 5/140, सेण सद्दे, ण रूवे. ण गंधे, ण रसेण फासे इच्चेताव। 2. वही, 2/182 3. केनोपनिषद्, (गोरखपुर, सं. 2026) 1/3 4. कठोपनिषद्, (गोरखपुर, सं. 2014)1/2/9 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 आत्म विचार : आचारांग एवं उपनिषद् उपनिषदों में आत्मा के प्रतिपादक जो सूत्र हैं, उनका आचारांग प्रतिपादित सूत्रों के साथ साम्य है । आचारांग एवं उपनिषद् दोनों में ही आत्मा के शुद्ध स्वरूप को अनिर्वचनीय माना है। आत्मा अमूर्त और सूक्ष्मतम है, इसलिए वह शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है। सारे शब्द लौट आते हैं आत्मा तक पहुंच ही नहीं पाते हैं।' आचारांग चूर्णि में शब्द के स्थान पर प्रवाद शब्द प्रयुक्त हुआ है।' उसका तात्पर्य भी यही है कि आत्मा वाद-विवाद का विषय नहीं है। उपनिषद् में ब्रह्म के आनन्द - विज्ञान के विषय में भी ऐसा ही वक्तव्य उपलब्ध है - "वाणी वहां तक पहुंचे बिना ही मन के साथ लौट आती है। जो ब्रह्म के आनन्द को जानता है, उसको कहीं कभी भय नहीं होता । " " आचारांग में आत्मा के दीर्घत्व, (लोक व्यापित्व) ह्रस्वत्व (अंगुष्ठ प्रमाण) आदि का निषेध किया गया है।' आत्मा न छोटी होती है न बड़ी होती है। उपनिषदों में आत्मा को छोटे से छोटा और बड़े से बड़ा बताया गया है । ' आत्म व्याख्या में नेतिवाद इन्द्रियों का विषयभूत जगत् तीन आयामों वाला है । वे तीन आयाम हैं - ऊंचा, नीचा और तिरछा । हम इन्हें इन्द्रियों से जानते हैं। आत्मा सभी आयामों से अतीत है । इसलिए पौद्गलिक द्रव्य से भिन्नता प्रतिपादित करने के लिए 'नेति' पद का प्रयोग किया गया है । जिसमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान होते हैं वह पदार्थ मूर्त्त है । आत्मा में वर्ण आदि नहीं होते हैं।' इसलिए यह अमूर्त है। अमूर्त पदार्थ इन्द्रियों का विषय नहीं बन सकता । नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा ।' आत्मा अमूर्त है अत: वह इन्द्रियग्राह्य नहीं है । जैन आगम में दर्शन आत्मा अशरीरी है। वह जन्मधर्मा नहीं है। वह लेपमुक्त है । ' जो आत्मा अपने मूल स्वरूप में स्थित है वह अशरीरी और अकर्मा होती है, इसलिए वह लिंगातीत होती है । वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ।' श्वेताश्वतर उपनिषद् में आत्मा की लिंगमुक्त अवस्था तथा लिंगयुक्त अवस्था- दोनों का प्रतिपादन है। वहां कहा है 1. आयारो, 5 / 123, सव्वे सरा नियट्टेति । 2. आचारांगचूर्णि, पृ. 199, सव्वे पवाया तत्थ णियद्वंति । 3. तैतरीय उपनिषद्, (गोरखपुर, सं. 2014) 2/4, 6. आयारो, 5 / 128-131 7. उत्तरज्झयणाणि, 14 / 19 8. आयारो, 5 / 132-134, न काऊ, ण रुहे, ण संगे । 9. वही, 5 / 135, ण इत्थी, ण पुरिसे, ण अण्णा । 4. आयारो, 5 / 127, से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, पण परिमंडले । 5. छान्दोग्य उपनिषद् (गोरखपुर, सं. 2023) 3 / 14 / 3 एष मे आत्माऽन्तर्हृदये अणीयान् व्रीहेर्वा यवाद् वा सर्षपाद् वा श्यामाकाद् वा श्यामाकतण्डुलाद् वा, एष मे आत्माऽन्तर्हृदये ज्यायान् पृथिव्या ज्यायान् अन्तरिक्षाद् ज्यायान् दिवो ज्यायानेभ्यो लोकेभ्यः । - यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कदाचन ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 145 "आत्मा न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक। जिस लिंग वाले शरीर को वह प्राप्त होती है, उसी लिंग से वह पहचानी जाती है।' इसका तात्पर्य यही है कि शुद्ध आत्मा लिंगातीत है तथा बद्ध आत्मा शरीरयुक्त होने के कारण अमुक-अमुक लिंग विशेष से पहचानी जाती है। आत्मा अपद है अर्थात् पदातीत है। उसका बोध कराने वाला कोई पद नहीं है।' पद शब्दात्मक होता है । आत्मा उसका वाच्य नहीं बन सकती । आत्मा के लिए कोई उपमा नहीं है ' अथवा किसी भी सांसारिक पदार्थ से आत्मा को उपमित नहीं किया जा सकता। आत्मा का अस्तित्व है, किन्तु वह अरूपी है-अरूवी सत्ता । इसलिए आत्मा का अस्तित्व केवल केवलज्ञानी के ही प्रत्यक्ष हो सकता है। इन्द्रियज्ञानी उसे साक्षात् नहीं जान सकते । आत्मा का लक्षण है-चैतन्य । कोई भी आत्मा, चाहे वह मुक्त हो या संसारी, चैतन्य से रहित नहीं होती। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा की मुक्त अवस्था में भी ज्ञान और उसका उपयोग दोनों रहते हैं । प्रत्येक आत्मा अनन्त ज्ञान एवं अनन्त दर्शन से सम्पन्न होती है। उसका यह स्वरूप शुद्ध आत्म-दशा में सर्वथा प्रस्फुटित रहता है। आत्मा की त्रैकालिकता चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी भारतीय दर्शन आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व को स्वीकार करते हैं।' काल का अखण्ड प्रवाह प्रवाहित है। उसमें कोई भेद नहीं होता किंतु इन्द्रिय चेतना के स्तर पर जीने वाला व्यक्ति काल के उस अखण्ड प्रवाह का साक्षात् नहीं कर सकता। उसके ज्ञान में काल खंडों में विभाजित हो जाता है। उसके दृष्टिपथ में वर्तमान तो होता है किंतु अतीत एवं भविष्य का दर्शन नहीं होता है । फलस्वरूप कुछ व्यक्ति अतीत एवं भविष्य को नकार कर केवल वर्तमान को ही वास्तविक मान लेते हैं, इस भ्रम का निराकरण करने के लिए सूत्रकार ने कहा- जिसका आदि-अंत नहीं है, उसका मध्य कहां से होगा ? जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया? पुरा का अर्थ है-अतीतकाल और पश्चाद् का अर्थ है भविष्यकाल । जिसका अतीत में अस्तित्व नहीं है तथा भविष्य में भी अस्तित्व नहीं है तब उसका वर्तमान में अस्तित्व कहां से होगा? इसका तात्पर्य है आत्मा का अस्तित्व सार्वकालिक है, किसी भी काल विशेष में उसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। 1. श्वेताश्वतरोपनिषद् (गोरखपुर, सं. 2014), 5/10 नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः । यद् यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते।। 2. आयारो,5/139, अपयस्स पयं णत्थि। 3. वही, 5/137, उवमा ण विज्जए। 4. वही, 5/138 5. तेजोबिन्दूपनिषद्, 2/28, भूतं भव्यं भविष्यच्च सर्वं चिन्मात्रमेव हि। 6. आयारो, 4/46 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 जैन आगम में दर्शन आत्मा एक है जैन दर्शन आत्मवादी दर्शन है। आत्मा उसके दर्शन का केन्द्रीय विचार है। दर्शन जगत में आत्मा की संख्यात्मक अवधारणा पर भी विचार हुआ है। कुछ भारतीय दर्शन आत्मा को एक मानते हैं। कुछ आत्मा की अनेकता में विश्वास करते हैं। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है। आत्मा की संख्या के संदर्भ में भी इसी दृष्टि का उपयोग हुआ है। नय अनेकान्त का मूल आधार है। संग्रह नय अभेदग्राही है व्यवहार नय भेद का ग्राहक है। ठाणं का 'एगे आया' का वक्तव्य संग्रहनय की अवधारणा के आधार पर स्वीकरणीय है तथा व्यवहारनय के अनुसार आत्मा की अनेकता भी वास्तविक है। चेतना, उपयोग सम्पूर्ण आत्माओं का सामान्य लक्षण है। इस साधारणता के आधार पर आत्मा को एक कहा गया है। एगे आया इस वक्तव्य में अनन्त आत्माओं का एकत्व में समाहार संग्रहनय की दृष्टि से किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार अनंत आत्माएं हैं। उन सबका स्वतंत्र अस्तित्व है। मुक्तावस्था में भी वे किसी ब्रह्म जैसी सत्ता में विलीन नहीं होती। उनका स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहता है, इस स्वीकृति के बावजूद भी एगे आया के सिद्धान्त को स्वीकार करने में जैन को कोई कठिनाई नहीं है। संग्रह नय का सशक्त आधार इस यथार्थ को प्रतिष्ठत करता है। आचारांग में आत्माद्वैत "जिसे तू हनन योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है। आचारांग की यह उद्घोषणा आत्माद्वैत की सहज स्वीकृति है । तेरी और मेरी आत्मा में स्वरूपगत कोई भेद नहीं है। तेरे और मेरे में विभेद करने वाला व्यक्ति अध्यात्म की साधना ही नहीं कर सकता। अहिंसा की अनुपालना आत्मा-आत्मा में परस्पर भेद मानने पर नहीं हो सकती। "जब मैं और तू एक हैं, यह अनुभूति प्रबल होती है तब हिंसा, छल प्रपञ्च इत्यादि पर- प्रताड़क भाव स्वतः ही निःशेष हो जाते हैं । आत्माद्वैत की अनुभूति हिंसा विरति का सुगम उपाय है। अहिंसा प्रशिक्षण के अन्तर्गत आत्माद्वैत की अनुप्रेक्षा का प्रयोग करके हिंसा की समस्या के समाधान की ओर गतिशील हो सकते हैं। जैन दर्शन 1. ब्रह्मबिन्दूपनिषद्, 11, एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । ____एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ 2. सांख्यकारिका, 18, जन्ममरणकरणानां, प्रतिनियमादयुगपत् प्रवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्धं, वैगुण्यविपर्ययाच्चैव ।। 3. ठाणं, 1/2 4. अनुयोगद्वारचूर्णि,पृ.86,स्वसमयव्यवस्थिता: पुन: ब्रवंति उवयोगादिकं सव्वजीवाण सरिसं लक्खणं ......। 5. आयारो, 5/101, तुमंसि नाम सच्चेन 'जं हंतव्वं' ति मन्नसि.......... | Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 147 अस्तित्व की दृष्टि से सब आत्माओं को स्वतन्त्र मानता है किंतु उन सबका स्वरूप एक जैसा है, उसमें किसी भी प्रकार का अन्तर नहीं है। यह स्वरूपगत आत्माद्वैत का सिद्धांत जैन आचार का महत्त्वपूर्ण आयाम है। जैन आचार का यह स्वीकृत तथ्य है कि सम्पूर्ण जीवों को जो आत्मवत् मानता है उसके पापकर्म का बन्ध नहीं होता।' सम्पूर्ण जीवों को आत्मवत् मानने का तात्पर्य यही है कि सभी जीव समान हैं। उनमें स्वरूपगत ऐक्य है, अत: जैन दर्शन नानात्मवादी होने पर भी अनेकान्त दर्शन के अनुसार किसी अपेक्षा विशेष से आत्माद्वैतवादी भी है। आत्म विमर्श : आचारांग और समयसार आचारांग के परमात्मपद में शुद्ध आत्मतत्त्व का वर्णन हुआ है। जिसका उल्लेख हमने आचारांग एवं उपनिषद् वर्णित आत्म-तत्त्व के विवेचन के प्रसंग में किया है। समयसार में भी उसी शुद्ध आत्मतत्त्व का निश्चयनय की दृष्टि से वर्णन हुआ है। जिसका विमर्श करना यहां प्रासंगिक होगा। आचारांग में आत्मा को वर्ण आदि से रहित माना है। समयसार आचारांग की इसी अवधारणा का अनुगमन कर रहा है। समयसार 'आत्मा' शब्द के स्थान पर 'जीव' शब्द का प्रयोग कर रहा है। जैन दर्शन में आत्मा और जीव शब्द पर्यायवाची हैं जबकि वेदान्त में दोनों परस्पर भिन्नार्थक हैं। आत्मा ब्रह्म का वाचक है। जीव शब्द वहां पर जीवात्मा के लिए प्रयुक्त होता है। जैन दर्शन ऐसा भेद अस्वीकार करता है अत: वहां पर आत्मा एवं जीव ये दोनों समानार्थक हैं। शुद्ध जीव के वर्णन के प्रसंग में समयसार ने जीव को वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान एवं संहनन से रहित माना है जीवस्स णत्थि वण्णो ण विगंधोण वि रसोण वि य फासो। __ण वि रूवंण सरीरंण वि संठाणं ण संहणणं॥' आचारांग की तरह ही यहां भी जीव को 'अशब्द' अर्थात् पदातीत/शब्दातीत माना है। समयसार ने आत्मा को अवक्तव्य कहकर' आचारांग प्रतिपादित आत्मा की शब्दातीत, तर्कातीत एवं बुद्धि-अग्राह्यता का समर्थन किया है। आचारांग ने आत्मा को अरूपी सत्ता, परिज्ञ, संज्ञ आदि शब्दों से सम्बोधित किया है। समयसार में इस विचार का समर्थक शब्द 'चेतनागुण' उपलब्ध है, जो आत्मा की अमूर्त्तता एवं ज्ञानात्मकता दोनों का ही द्योतन कर रहा है। 1. दसवेआलियं, 4/9, सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइं पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स.पावं कम्मन बंधई। समयसार, (अनु. परमेष्ठीदास, सोनगढ़, 1964) 1/50 (जीव-अजीव अधिकार) 3. वही, 1/49 4. (क) आयारो,5/136,138 (ख) समयसार, 1/49 2. सन Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 जैन आगम में दर्शन आत्म-विश्लेषण : व्यवहार एवं निश्चय नय जैन दर्शन में व्यवहारनय एवं निश्चयनय दोनों मान्य हैं । दोनों में से किसी का भी अपलाप नहीं किया जा सकता। क्योंकि व्यवहार के बिना तीर्थ की सुरक्षा नहीं हो सकती तथा निश्चय के बिना तत्त्व स्वरूप की सुरक्षा नहीं हो सकती।' जइ जिणमयं पवज्जह ता मा ववहार णिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण उण तच्चं।। इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि तत्त्व-व्यवस्था में मुख्यता निश्चयनय की है। आचार्य कुन्दकुन्द ने तो व्यवहारनय को अभूतार्थ (अयथार्थ) कह दिया है। उनके अनुसार निश्चयनय (शुद्ध नय) ही भूतार्थ है। उस नय का आश्रय लेने वाला ही निश्चय में सम्यग्दृष्टि ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थो देसिदो दु सुद्धणओ। भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो।' श्रुतज्ञान के द्वारा जो केवल शुद्ध आत्मा को जानता है वही परमार्थत: श्रुत केवली है।' श्रुतज्ञान सब कुछ जानता है, यह व्यवहारनय की वक्तव्यता है।' आत्मा की पुद्गलजनित जितनी भी अवस्थाएं हैं वे सब व्यवहारनय का विषय है। वस्तुत: वे आत्मा का वास्तविक स्वरूप है ही नहीं, इसी अवधारणा के आधार पर समयसार ने जीव को राग, द्वेष, मोह, प्रत्यय (आश्रव), कर्म, नोकर्म, वर्ग,' वर्गणा,' स्पर्धक,' अध्यात्मस्थान,' अनुभागस्थान,'' योगस्थान, बंधस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबंधस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, 4. 1. समयसार (आत्म-ख्याति) 1/12 की टीका, पृ. 26 2. समयसार (पूर्वरंग) 11 3. वही, (पूर्वरंग) 9, जो हि सुदेणहिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तंसुदकेवलिमिसिणो भणंति लोयप्पदीवयरा ।। समयसार, (आत्मख्याति) 10 टीका, पृ. 22, य: श्रुतज्ञानं सर्वजानाति स श्रुतकेवलीति तु व्यवहारः। 5. वही,गा. 50 से 55 की टीका, पृ. 101-106, मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणा: प्रत्ययाः। 6. वही, यत्षट्पर्याप्तित्रिशरीरयोग्यवस्तुरूपं नोकर्म। 7. वही, शक्तिसमूहलक्षणो वर्ग:। 8. वही, वर्गसमूहलक्षणा वर्गणा । 9. वही, मंदतीवरसकर्मदलविशिष्टन्यासलक्षणानि स्पर्धकानि। 10. वही, स्वपरैकत्वाध्यासे सति विशुद्धचित्परिणामातिरिक्तत्वलक्षणान्यध्यात्मस्थानानि। 11. वही, प्रतिविशिष्टप्रकृतिरसपरिणामलक्षणान्यनुभागस्थानानि । 12. समयसार, आत्मख्याति टीका, गाथा, 50-55, कषायविपाकोद्रेकलक्षणानि संक्लेशस्थानानि । 13. वही, कषायविपाकानुद्रेकलक्षणानि विशुद्धिस्थानानि। 14. वही, चारित्रमोहविपाकक्रमनिवृत्तिलक्षणानि संयमलब्धिस्थानानि। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 149 जीवस्थान एवं गुणस्थान ' से युक्त नहीं माना है। समयसार ने उपर्युक्त सभी अवस्थाओं को पुद्गल द्रव्य का परिणाम माना है। ये जीव की पुद्गलकृत अवस्थाएं हैं। शुद्ध जीव में इन अवस्थाओं की सत्ता नहीं हो सकती। शुद्ध जीव मात्र चेतन स्वरूप है। उसमें किसी भी प्रकार का विभेद नहीं हो सकता। समयसार की टीका आत्मख्याति के कर्ता आचार्य अमृतचन्द्र ने इन अवस्थाओं के विवेचन में प्रत्येक के साथ पुद्गलद्रव्यपरिणाम का उल्लेख किया है। ये सारी अवस्थाएं पुद्गल द्रव्य के परिणामस्वरूप वाली होने के कारण जीव की अवस्थाएं नहीं हैं। समयसार में आचारांग के नेतिवाद का विस्तार आचारांग एवं समयसार दोनों में ही निषेधपरक भाषा में आत्मा तत्त्व अभिव्यंजित हुआ है। आचारांग में प्राप्त 'नेतिवाद' का अनुगुंजन प्राय: शब्दश: समयसार में हुआ है। आचारांग वर्ण, गंध आदि का भेदपूर्वक उल्लेख करके आत्मा में उनका निषेध करता है जबकि समयसार वर्ण आदि के कृष्ण, नील आदि भेद किए बिना ही समुच्चय में ही उनका जीव तत्त्व में निषेध कर देता है। समयसार ने आचारांग में प्राप्त 'नेतिवाद' के अतिरिक्त भी निषेध का उल्लेख किया है, जिसकी हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं | समयसार में प्राप्त विस्तृत नेतिवाद के अवलोकन से ज्ञात होता है कि समयसार आचारांग में प्राप्त संक्षिप्त वर्णन को विस्तार प्रदान कर रहा है तथा यह भी संभव है कि समयसार तक आते-आते विभिन्न जैन दार्शनिक मान्यताओं का विकास एवं विस्तार हो चुका था, समयसार उनका भी जीव में निषेध कर यह स्पष्ट कर देता है कि पुद्गलकृत जीव की जितनी भी अवस्थाएं हैं वह जीव का शुद्ध स्वरूप नहीं है। वह व्यवहार हो सकता है परमार्थ नहीं। आत्मा : बंध एवं मोक्ष प्रस्तुत प्रसंग में एक बात ध्यातव्य है कि समयसार ने जीव के बंधस्थान नहीं माने हैं। इससे यह भी स्पष्ट है कि जब जीव के बंधन ही नहीं है तो मोक्ष क्या होगा ? किंतु 1. समयसार में 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग हुआ है। गुणस्थानकी अवधारणा को विद्वान् परवर्ती मानते हैं। श्वेताम्बर आगम साहित्य में गुणस्थान शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं है तथा तत्त्वार्थसूत्र में भी 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग प्रास नहीं है। किंतु समयसार में 'गुणस्थान' शब्द उपलब्ध है । विचारणीय है कि दिगम्बर परम्परा उमास्वामी को कुन्दकुन्द का परवर्ती मानती है। ऐसी स्थिति में तत्त्वार्थसूत्र में 'गुणस्थान' शब्द का न मिलना चिन्त्य है। इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा कुन्कुन्द कोउमास्वातिकापरवर्ती मानती है।गुणस्थानशब्द की उपलब्धि-अनुपलब्धि के आधार पर यह प्रश्न विमर्शनीय है। समयसार, 1/51-55 3. वही, 1/55, जेण दु एदे सव्वे पोग्गलदव्वस्स परिणामा। 4. आत्मख्याति, गाया 50-55 की टीका, य: कृष्णो हरित: पीतो रक्तः श्वेतो वा वर्ण: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150 जैन आगम में दर्शन समयसार इसका उल्लेख नहीं करता है। संभव है ग्रन्थकार यह वक्तव्य जानबूझ कर भी नहीं दे रहे हों क्योंकि ऐसा मानने से आत्म-स्वरूप सांख्य स्वीकृत पुरुष जैसा हो जाता है। सांख्य दर्शन के अनुसार बंधन और मोक्ष प्रकृति के होता है,' पुरुष के नहीं होता। यद्यपि आचारांग ने स्पष्ट उद्घोषणा की है कि-'कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के' कुशल न तो बंधता है न ही मुक्त होता है, जो बंधन में नहीं पड़ता उसका मोक्ष कैसा ? यद्यपि आचारांग के व्याख्याकार कुशल शब्द के विभिन्न अर्थ करते हैं।' सांख्य दर्शन पुरुष को सर्वथा अपरिणामी मानता है जबकि जैन दर्शन के अनुसार शुद्ध आत्मा में भी स्वाभाविक परिणमन होता रहता है । इसलिए जैन दर्शन मान्य आत्मा सांख्य सम्मत पुरुष से स्वत: ही भिन्न हो जाता है, अत: यह कहा जा सकता है कि शुद्ध जीव के न बंधन होता है और न मोक्ष । बंध एवं मोक्ष की अवधारणा भी कर्म सिद्धान्त पर अवलम्बित है । संसारी जीव कर्मों से बंधता है और उनसे मुक्त होता है। ये अवस्थाएं पुद्गल द्रव्य का ही परिणाम है। व्यवहारनय की वक्तव्यता के अनुसार जीव बंधता भी है और मुक्त भी होता है तथा निश्चयनय के अनुसार वह सदा ही अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित है। कर्म से अस्पृष्ट है। अनन्य है। नियत है। अविशेष एवं असंयुक्त है। शुद्ध चैतन्य के अनुभव की स्थिति में प्रमाण, नय, निक्षेप, जो वस्तु अवगति के साधन हैं, वे कृतकाम हो जाते हैं। शुद्ध चैतन्य के अनुभव के समय द्वैत प्रतिभासित ही नहीं होता मात्र चैतन्य को अनुभूति होती उदयति न नयश्रीरस्तमेति प्रमाणं, क्वचिदपि च न विद्मो याति निक्षेपचक्रं । किमपरमभिदध्मो धाम्नि सर्वंकषेऽस्मिन्ननुभवमुपयाते भाति न द्वैतमेव ॥ निश्चयनय के अनुसार शुद्ध चैतन्य ही स्वस्वरुप है किंतु व्यवहारनय के अनुसार वर्तमान अवस्था में अनुभूत चैतन्य कर्मबद्ध है। कर्मों के कारण ही जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है । इस तथ्य को भी स्वीकार करना ही होगा। निश्चयनय के प्रबल समर्थक आचार्य कुन्दकुन्द ने भी व्यवहारनय की अनिवार्यता को मान्यता दी है।' 1. सांख्यकारिका, 62, संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः। 2. आयारो, 2/182 आचारांगभाष्यम्, पृ. 1 5 3, पादटिप्पण 4, कुशल का अर्थ है ज्ञानी । धर्मकथा में दक्ष, विभिन्न दर्शनों का पारगामी, अप्रतिबद्धविहारी, कथनी-करनी में समान, निद्रा एवं इन्द्रियों पर विजय पाने वाला, साधना में आनेवाले कष्टों का पारगामी और देश-काल को समझने वाला मुनि 'कुशल' कहलाता है। तीर्थंकर को भी कुशल कहा जाता है। 4. (क) समयसार, गाथा 1 2 3, तं सयमपरिणमंतं कहंणु परिणामयदि कोहो। (ख) आत्मख्याति टीका, 12 3, पृ. 198, जीव: परिणामस्वभाव: स्वयमेवास्तु । 5. समयसार, गाथा । 4, जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणीहि ।। 6. आत्मख्याति, श्लोक, 9, पृ. 36 7. समयसार, गाथा 8, जहण विसक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा दुगाहेदु । तह ववहारेण विणा परमत्थुव देसणमसक्कं ।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 151 षड् जीवनिकाय जीव दो प्रकार का होता है-शुद्ध और अशुद्ध । शुद्ध जीव अपने स्वरूप में अवस्थित है उसके भेद-प्रभेद नहीं होते । अशुद्ध जीव कर्म से बद्ध है। उन जीवों की परस्पर स्वरूपगत समानता होने पर भी संसारावस्था में कर्म के आवरण के कारण उनमें भी तरतमता है। आचारांग में जैसे आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्रतिपादित हुआ है वैसे ही उसके संसारी स्वरूप की भी चर्चा है । आत्मा के संसार में संचरण एवं पुनर्जन्म की जिज्ञासा से ही आचारांग का प्रारम्भ हुआ है ।' आचारांगजैसे प्राचीन आगम में मुनि के अहिंसा आचरण के परिपालन के लिए ‘षड्जीवनिकाय' के संयम का उल्लेख है। षड्जीवनिकाय : जैनदर्शन की मौलिक अवधारणा पृथ्वी आदि षड्जीवनिकाय में जीवत्व की स्वीकृति जैन दर्शन की मौलिक अवधारणा है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर भगवान् महावीर की 'षड्जीवनिकाय' की अवधारणा से प्रभावित होकर कहते हैं- प्रभो ! आपकी सर्वज्ञता सिद्धि में अन्य प्रमाणों की आवश्यकता ही नहीं है आप द्वारा प्रदत्त षड्जीवनिकाय का सिद्धान्त ही आपकी सर्वज्ञता की सिद्धि के लिए पर्याप्त है। षड्जीवनिकायवाद भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। यह सिद्धान्त भगवान् महावीर से पूर्व किसी अन्य दार्शनिक द्वारा प्रतिपादित है, ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। भगवान् महावीर स्वयं कहते हैं - आर्यों ! मैंने श्रमण निग्रंथों के लिए पृथ्वी आदि छह जीव निकायों का निरूपण किया है। भगवान् महावीर के समय में चतुर्भूतवाद और पंचभूतवाद का उल्लेख मिलता है । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु - ये चार महाभूत हैं। इनमें आकाश को सम्मिलित करने से ये ही पंचमहाभूत कहलाते हैं। अजितकेशकम्बल आत्मा को चार भूतों से उत्पन्न मानता था और आकाश भी उसके दर्शन में सम्मत था । इस प्रकार उसका दर्शन पंचभूतवादी था।' इस पंचभूतवाद का उल्लेख सूत्रकृतांग में भी उपलब्ध है। सूत्रकृतांग में ही पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु का धातु रूप में उल्लेख मिलता है। ये भूत अचेतन माने जाते थे और इनसे चेतना की उत्पत्ति 1. आयारो, 1/1-2 2. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, (ले. सिद्धसेन दिवाकर, बाटोदा, 1977) 1/13, य एव षड्जीवनिकायविस्तर:, परैरनालीढपथस्त्वयोदित: । अनेन सर्वज्ञपरीक्षणक्षमास्त्वयि प्रसादोदयसोत्सवा: स्थिताः।। 3. ठाणं, 9/62, से जहाणामए अज्जो ! मए समणाणं णिग्गंथाणं छज्जीवणिकाया पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया, आउकाइया, तेउकाइया, वाउकाइया, वणस्सइकाइया, तसकाइया। 4. दीघनिकाय, (संपा. भिक्षु जगदीश काश्यप, नालन्दा, 1958) पृ. 48. 5. सूयगडो, 1/1/7,8 6. वही, 1/1/18, पुढवी आऊ तेऊय तहा वाऊय एगओ। चत्तारि धाउणो रूवं एवमाहंसुजाणगा ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन मानी जाती थी किंतु भगवान् महावीर ने इन भूतों का जीवत्व स्थापित किया । उन्होंने बतलाया - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस - ये सब जीव हैं। जितने प्रकार के जीव हैं, वे सब इन छह जीवनिकायों में समाविष्ट हो जाते हैं। पृथ्वीकाय 152 भगवान् महावीर ने छह जीव निकायों - पृथ्वी, अप्, तेजस्, वायु, वनस्पति और स की प्ररूपणा की है।' पृथ्वी सजीव है यह अन्यतीर्थिकों का अभिमत नहीं था। भगवान् महावीर ने इस नये पक्ष की स्थापना की। उनके अनुसार पृथ्वी स्वयं जीव है। जैन दर्शन के अनुसार वनस्पति काय के अतिरिक्त सभी काय के जीव प्रत्येकशरीरी हैं। प्रत्येक शरीरी का अर्थ है- प्रत्येक जीव का पृथक् पृथक् शरीर । पृथ्वीकाय भी प्रत्येक शरीरी है । जिन जीवों का पृथ्वी ही शरीर है वे पृथ्वीकायिक जीव कहलाते हैं।' सूक्ष्म एवं बादर के भेद से पृथ्वीकाय के दो भेद हैं तथा सूक्ष्म एवं बादर के भी पर्याप्त एवं अपर्याप्त दो-दो भेद और होते हैं । ' जैन आगम साहित्य में पृथ्वी, अप् आदि जीवों का विस्तार से वर्णन हुआ है। उनमें चेतना अव्यक्त होती है, इसलिए उनको व्यक्त चेतना वाले प्राणी की तरह सहजतया जाना नहीं जा सकता । भगवान् महावीर ने पृथ्वी आदि जीवों में केवल चेतना का ही प्रतिपादन नहीं किया है, किंतु इस विषय में अनेक अन्य तथ्य भी प्रस्तुत किए हैं। ' पृथ्वीकाय में श्वास जीव विज्ञान आगम युग के दर्शन का मुख्य विषय रहा है। इसकी पुष्टि के अनेक साक्ष्य प्राप्त हैं । आगम - साहित्य में जीव के आहार और श्वास से लेकर चेतना के चरम विकास तक का गहन अध्ययन उपलब्ध है। एकेन्द्रिय जीव का श्वास विषयक महावीर और गौतम का संवाद बहुत रोचक है गौतम ने पूछा- भंते ! दो, तीन, चार, पांच इन्द्रिय वाले जीव श्वास लेते हैं, हम जानते-देखते हैं। क्या एक इन्द्रिय वाले जीव- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय भी श्वास लेते हैं ? महावीर - हां, गौतम ! वे भी उच्छ्वास - निश्वास, आन और पान करते हैं। पेड़पौधे श्वास लेते हैं - यह सूक्ष्म यन्त्र वाले वैज्ञानिक युग में कहना आश्चर्य की बात नहीं है, किंतु ढाई हजार वर्ष पहले ऐसा कहना सचमुच आश्चर्य है । यांत्रिक उपकरणों द्वारा 1. दसवे आलियं, 4/3 2. आयारो, 1 / 16, संति पाणा पुढो सिया । 3. तत्त्वार्थवार्तिक, 2/13/1, पृथिवी कायोऽस्यास्तीति पृथिवीकायिकः तत्कायसम्बन्धवःशीकृत आत्मा । 4. जीवाजीवाभिगम, 6 / 2-3 5. आचारांगभाष्यम्, पृ. 37 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 153 जो नहीं जाना जा सकता, वह निरावरण चेतना से जाना जा सकता है, इस स्थापना में कोई कठिनाई नहीं है। कुछ प्राचीन ग्रन्थों में पेड़-पौधों को सजीव बतलाया गया है, किंतु वे श्वास लेते हैं, किस द्रव्य का श्वास लेते हैं, कितनी दिशाओं से श्वास लेते हैं आदि-आदि विषय जैन आगमों के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हैं।'' पृथ्वीकाय आदि के जीव किसका उच्छवास और नि:श्वास करते हैं, इसका समाधान देते हुए कहा गया ये जीव द्रव्य की अपेक्षा से अनन्तप्रदेशी, क्षेत्र की अपेक्षा से असंख्येय प्रदेशावगाढ, काल की अपेक्षा से किसी भी स्थितिवाले और भाव की अपेक्षा से वर्ण-गंध रस तथा स्पर्शयुक्त पुद्गल द्रव्यों का उच्छवास और नि:श्वास करते हैं।' पृथ्वीकाय आदि केजीव यदि कोई बाधा उपस्थित न हो तो छहों दिशाओं में और यदि व्याघात (बाधा) हो तो कदाचित् तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आन, अपान तथा उच्छवास और नि:श्वास करते हैं।' त्रस जीव त्रसनाड़ी के अन्तर्गत होते हैं, इसलिए वे छहों दिशाओं में श्वासोच्छ्वास लेते हैं । ' एकेन्द्रिय जीव लोकान्त के कोणों में भी होते हैं, इसलिए वे तीन, चार अथवा पांच दिशाओं में भी श्वास लेते हैं।' "जीवन का मुख्य लक्षण है-श्वास । जो श्वास लेता है, उसमें जीवन है और जो श्वास नहीं लेता है, उसमें जीवन नहीं है- यह एक पहचान बनी हुई है। एकेन्द्रिय जीव श्वास लेते हैं -- यह विषय ज्ञात नहीं है । भगवान् महावीर ने कहा-वे श्वास लेते हैं। वनस्पति का जीवत्व प्राचीन साहित्य में भी यत्र-तत्र चर्चित है किंतु पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु का जीवत्व कहीं भी सम्मत नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से भी वनस्पति का जीवत्व प्रमाणित है। पृथ्वी आदि के जीवत्व के विषय में वह मौन है। वनस्पति के जीव श्वास लेते हैं। इसकी स्वीकृति वैज्ञानिक जगत् में भी है। शेष पृथ्वी आदि का जीवत्व कहीं भी सम्मत नहीं है, फिर श्वास लेने का प्रश्न ही नहीं उठता। भगवान महावीर ने एकेन्द्रिय जीवों द्वारा श्वास लेने के सिद्धान्त की स्थापना ही नहीं की है, किंतु उसका पूरा विवरण दिया है। श्वास के पुद्गलों की एक स्वतन्त्र वर्गणा है। उसके पुद्गल ही श्वास के काम में आते हैं।" 1. भगवई (खण्ड-1) (आमुख दूसरा शतक) पृ. 197 (अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 2/2, जे इमे भंते ! बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया जीवा एएसिणं आणामंवा पाणामंवा उस्सासंवा निस्सासंवा जाणामोपासामो। जे इमे पुढ विकाइया जाव वणप्फइकाइया-एगिंदिया जीवा, एएसि णं आणामं वा पाणामं वा उस्सासंवा नस्सासंवा न याणामोन पासामो। एएणं भंते ! जीवा आणमंति वा ? पाणमंति वा ? उससंति वा? नीससंति वा? हंता गोयमा ! एए विण जीवा आणमंति वा, पाणमंति वा, उससंति वा, नीससंति वा।) 2. वही, 2/3 3. वही, 2/5 4. भगवतीवृत्ति, 2/7, शेषा नारकादिवसा: षड् दिशमानमन्ति, तेषां हि वसनाइ यन्तर्भूतत्वात् षड्दिशमुच्छ्वासादिपुद्गलग्रहोस्त्येवेति । 5. भगवतीवृत्ति, 2/7, यतस्तेषां लोकान्तवृत्तावलोकेन त्र्यादिदिक्षुच्छ्वासादिपुद्गलानां व्याघात: संभवतीति। 6. भगवई, (खण्ड ।) पृ. 201 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 जैन आगम में दर्शन प्राचीन जैन साहित्य में षड़जीवनिकाय के जीवों से सम्बन्धी विचार बहुत विस्तार से हुआ। वर्तमान में आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने आचारांगभाष्य में बहुत विशदता एवं गम्भीरता से इस विषय पर विमर्श किया है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में इस विषय के ग्रहण की अनिवार्यता थी। अतः प्रस्तुत प्रसंग में आचारांगभाष्य में प्रदत्त विचारों का उसकी भाषा सहित संग्रहण किया है तथा पाठक की सुविधा के लिए उद्धरण प्राचीन ग्रन्थों के जो भाष्य अथवा अन्यत्र उपलब्ध थे वे दिए हैं। पृथ्वीकाय की अवगाहना पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर की अवगाहना बहुत सूक्ष्म होती है । भगवती में इनकी अवगाहना को बहुत ही रोचक ढंग से उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। चातुरन्त चक्रवर्ती की स्थिर हस्ताग्र (हथेली तथा अंगुलियां) वाली तथा शारीरिक शक्ति सम्पन्न कोई एक युवती दासी तीक्ष्ण वज्रमयी चिकनी खरल में तीक्ष्ण वर्तक (बट्टे) से पृथ्वीकाय के टुकड़े को इक्कीस बार पीसती है। तब भी कुछ पृथ्वीकायिक जीव संघटित होते हैं और कुछ नहीं, कुछ परितापित होते हैं और कुछ नहीं, कुछ भयभीत होते हैं और कुछ नहीं, कुछ स्पृष्ट होते हैं और कुछ नहीं । पृथ्वीकायिक जीवों की इतनी सूक्ष्म अवगाहना होती है। पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर की अवगाहना सूक्ष्म होती है, इसलिए एक-दो जीवों के शरीर दीखते नहीं हैं किंतु उन असंख्य जीवों के पिण्डीभूत शरीरों को ही हम देख सकते हैं।' पृथ्वीकाय के असंख्य जीवों का पिण्डीभूत शरीर ही हमारी इन्द्रियों का विषय बन सकता है। पृथ्वीकाय में आश्रव ___ पृथ्वीकायिक जीव कभी महाआश्रव वाले, महाक्रिया वाले, महावेदना वाले और महानिर्जरा वाले होते हैं तथा कभी अल्पआश्रव वाले, अल्पक्रियावाले, अल्पवेदना वाले और अल्पनिर्जरा वाले होते हैं।' पृथ्वीकायिक जीवों के मात्र एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है। उनकी चेतना अविकसित होती है फिर भी अध्यवसाय के आधार पर उनमें कर्मबंध आदि की तरतमता होती रहती है। 1. अंगसुत्ताणि (भगवई) 19/34 2. आचारांग नियुक्ति, गा. 82, इक्कस दुण्ह तिण्ह व संखिज्जाण व न पासिउं सका। दीसंति सरीराइं पढविजीवाणं असंखाणं ।। 3. अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई) 19/55-56, सिय भंते ! पुढविकाइया महासवा महाकिरिया महावेयणा महानिज्जरा ? हंता सिया। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 155 जरा और शोक पृथ्वीकायिक जीव शारीरिक वेदना का अनुभव करते हैं, इसलिए उनके जरा होती है। वे मानसिक वेदना का अनुभव नहीं करते, इसलिए उनके शोक नहीं होता है।। पृथ्वीकाय में उन्माद __ पृथ्वीकाय में यक्षावेशजनित और मोहोदयजनित दोनों प्रकार के उन्माद होते हैं। प्रेत आदि के द्वारा अशुभ पुद्गलों के प्रक्षेपण से होने वाला उन्माद यक्षावेशजनित और मोहकर्म के विपाक से होने वाला उन्माद मोहोदय जनित कहलाता है।' वर्तमान में भी देखा जाता है कि प्रेत से अभिभूत हीरों के धारण करने वाले व्यक्ति में वैसा उन्माद पैदा होता है। यक्षावेशग्रस्त कुछ भवन भी देखने को मिलते हैं। ' पृथ्वीकाय में ज्ञान पृथ्वीकायिक जीवों में मति और श्रुत-यह दोनों प्रकार का अव्यक्त बोध होता है। पृथ्वी आदि जीव मिथ्यात्वी होते हैं अत: इनके ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है । पृथ्वी आदि जीवों में मनुष्य आदि की भाषा और मनोजनित प्रकम्पनों को पकड़ने की शक्ति भी होती है। यद्यपि उन एकेन्द्रिय आदि जीवों के लिए दूसरों का वचन सुनना असंभव है, फिर भी उनके अक्षरलाभ के अनुरूप क्षयोपशम के कारण कोई अव्यक्त अक्षरलाभ होता है। इसके फलस्वरूप अक्षर सम्बन्धी श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इस प्रकार उनमें श्रुत अज्ञान स्वीकार किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त उनमें आहार आदि की अभिलाषा पैदा होती है। अभिलाषा का अर्थ है-मांग । जैसे-यदि यह मुझे मिल जाए तो अच्छा हो यह मांग अक्षरात्मक ही होती है। इसलिए उनमें भी कुछ अव्यक्त अक्षरलब्धि अवश्य मानी जा सकती है। मत्त, मूर्छित तथा विष से प्रभावित पुरुष के ज्ञान की तरह एकेन्द्रिय जीवों में जघन्यतम ज्ञान होता है। पृथ्वीकाय में आहार की अभिलाषा पृथ्वीकायिक जीवों में प्रतिक्षण, निरन्तर आहार की अभिलाषा होती है। वे आहार के पुद्गलों के पहले वाले वर्ण आदि गुणों का विपरिणमन कर, अन्य नए वर्ण आदि गुणों 1. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई), 19/30-31,गोयमा ! पुढविकाइयाणं जरा न सोगे । .......पुढविकाइयाणं सारीरं वेदणं वेदेति, नो माणसं वेदणं वेदेति । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-पुढविकाइयाणं जरा, नो सोगे। 2. वही, 14/16-20 3. संदेश (गुजराती पत्र) 24 जुलाई 1983 पृ. 8 4. नवभारत टाइम-स-वार्षिक अंक-पराविद्या के रहस्य 1976, पृ. 43 ।। अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/107,पुढविक्काइयाणभंते! किंनाणी? किं अण्णाणी?गोयमा !नो नाणी, अण्णाणी जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी-मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी य । 6. आचारांगभाष्यम्, पृ. 40 5. अगर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156. जैन आगम में दर्शन को उत्पन्न कर उन्हें सर्वात्मना आत्मसात् कर लेते हैं।' वृक्ष में सूक्ष्म स्नेहगुण होता है। उसी के आहार से वृक्ष के शरीर का उपचय होता है, किंतु अव्यक्त होने के कारण वह परिलक्षित नहीं होता। वैसे ही पृथ्वी में भी सूक्ष्म स्नेह होता है, किंतु सूक्ष्मता के कारण वह दिखाई नहीं देता। पृथ्वीकाय में क्रोध पृथ्वीकायिक जीवों में क्रोध आदि भाव भी होते हैं किंतु वे सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रिय-ज्ञानयिों के ज्ञान के विषय नहीं बन सकते । जैसे-क्रोध का उदय होने पर मनुष्य आक्रोश करते हैं, त्रिवली करते हैं या भृकुटि तानते हैं, उस प्रकार पृथ्वीकायिक जीव क्रोध का उदय होने पर उसे प्रदर्शित करने में समर्थ नहीं होते हैं।' पृथ्वीकाय में लेश्या भगवती सूत्र में पृथ्वीकायिक जीवों के कृष्ण, नील, कापोत एवं तेज-ये चार लेश्याएं बताई गई हैं। इससे ज्ञात होता है कि उनमें मन का विकास नहीं है, फिर भी उनमें भावों का अस्तित्व है। भावों का अस्तित्व होने के कारण उनमें आभामण्डल भी होता है। भावों के आधार पर उनमें लेश्या का परिवर्तन होता रहता है। अध्यवसाय जब अत्यन्त क्लिष्ट बनते हैं तब कृष्ण लेश्या उनमें होती है। भावों की क्लिष्टता जब कम होने लगती है तब लेश्या क्रमश: विशुद्ध होने लगती है। पृथ्वीकाय आदि जीवों में अधिकतम इतनी ही शुद्धि हो सकती है जिससे तेजोलेश्या उनमें हो सकती है। पद्म एवं शुक्ल लेश्या जितनी उनमें विशुद्धि नहीं हो सकती। पृथ्वीकाय में वेदना भगवान् महावीर ने कहा-पृथ्वीकायिक जीव वेदना का, दु:ख का अनुभव करते हैं। इस संदर्भ में एक प्रश्न सहज ही उठता है कि पृथ्वीकायिक जीव न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं और न ही गति करते हैं। हम कैसे विश्वास करें कि उनको वेदना होती है। आचारांग सूत्र में इस जिज्ञासा का समाधान करते हुए दृष्टान्तों का निरूपण किया है। तीन दृष्टांतों से वेदना निरूपण __ जैसे कोई पुरुष अन्ध अर्थात् इन्द्रिय-विकल पुरुष का भेदन-छेदन करता है, क्या उसे वेदना का अनुभव नहीं होता? वह इन्द्रिय विकलता के कारण वेदना को व्यक्त करने में 1. प्रज्ञापना, 28/28 - 32 2. निशीथभाष्य, गाथा 4264 3. वही, गाथा 4265, कोहाई परिणामा तहा, एगिदियाण जंतूणं । पावल्लं तेसु कज्जेसु, कारेउंजे अपच्चला ।। 4. अंगसुत्ताणि (भगवई) 19/6 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 157 असमर्थ होते हुए भी उसका अनुभव करता ही है। उसी प्रकार वेदना को प्रकट करने में अक्षम होते हुए भी पृथ्वीकायिक जीव उसका अनुभव अवश्य ही करते हैं।' जैसे किसी इन्द्रिय-सम्पन्नव्यक्त चेतना वाले पुरुष के पैर, टखने,जंघा, घुटने, पिंडली, कटि, नाभि, उदर, पार्श्व, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, भुजा, हाथ, अंगुली, नख, ग्रीवा, ठुड्डी, होंठ, दांत, जीभ, तालु, गला, कपोल, कान, नाक, आंख, भौंह, ललाट और सिर-इन बत्तीस अवयवों का एक साथ भेदन-छेदन करने पर उसे जैसी वेदना होती है उसको वह व्यक्त नहीं कर पाता है वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को भी वेदना का अव्यक्त अनुभव होता है। जैसे कोई पुरुष किसी व्यक्ति को मूर्छित करता है और किसी का प्राणवध करता है। वह मूर्च्छित पुरुष तथा वह मरने वाला व्यक्ति जैसे अव्यक्त वेदना का अनुभव करता है, वैसे ही स्त्यानर्धिनिद्रा के उदय से अव्यक्त चेतना वाले पृथ्वीकायिकजीव अव्यक्त वेदना का अनुभव करते हैं।' भगवती में भी पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना दृष्टांत से स्पष्ट की गई है। गौतम के प्रश्न के समाधान में भगवान् महावीर कहते हैं-जैसे कोई हृष्ट-पुष्ट शरीर वाला तरुण पुरुष किसी जराजर्जरित पुरुष के सिर को दोनों हाथों से आहत करता है, उस समय उस वृद्ध को कितनी घोर वेदना होती है। उसी प्रकार पृथ्वीकायिक जीव आक्रान्त होने पर उस वृद्ध पुरुष से भी अधिक अनिष्टतर वेदना का अनुभव करते हैं।' भगवान् महावीर के शासन में दीक्षित मुनि पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा से विरत होता है, क्योंकि उसमें उनजीवों की सजीवता और उनको होने वाली वेदना का स्पष्ट अवबोध है। जैन मुनि न तो पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, न करवाता है और न ही उनकी हिंसा का अनुमोदना करता है। वह उनकी हिंसा से सर्वथा विरत रहता है। वह संसार के सभी छोटे-बड़े जीवों को अपनी आत्मा के समान समझता है। सब जीवों के प्रति आत्मतुला का बोध उसे हिंसा से विरत रखता है। अप्काय पानी के जीवों को अप्काय कहा जाता है। जिनजीवों का पानी ही शरीर है वे अप्कायिक जीव कहलाते हैं । अप्कायिक जीव भी सूक्ष्म हैं। इन्द्रिय-स्तर पर जीने वाले उनके जीवत्व का 1. आयारो, 1/28 2. वही, 1/29 3. वही, 1/30 4. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 19/35 5. दसवेआलिया, 6/26. पुढविकायं न हिंसति, मणसा वयसा कायसा। तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिया॥ 6. वही, 10 15, अत्तसमे मन्नेज्ज छप्पिकाए। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 जैन आगम में दर्शन बोध नहीं कर सकते। उन जीवों के जीवत्व की सिद्धि के लिए तथा परोक्षबुद्धि वाले मनुष्यों को उनका सम्यक् अवबोध हो, इसलिए आचारांग का प्रवक्ता कहता है-अप्कायिक जीवों का अस्तित्व है। प्रत्यक्षज्ञानी उसे साक्षात् जानते हैं। यदि आप उन्हें नहीं जानते हैं तो उन प्रत्यक्षज्ञानियों की आज्ञा से उनको जानें और जानने के पश्चात् उन जीवों को किसी भी प्रकार से भय उत्पन्न न करे। अप्कायिक जीवों के जीवत्व सिद्धि में हेतु का प्रयोग अप्कायिक जीव अत्यन्त दुर्बोध हैं, वे न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं और न रस का आस्वाद करते हैं और न वे सुख-दु:ख का अनुभव करते हुए प्रतीत होते हैं। उनमें न प्राण का स्पन्दन दृष्टिगोचर होता है और न ही उच्छवास-नि:श्वास क्रिया दिखाई देती है, फिर भी उनमें जीवत्व कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न के समाधान में सर्वज्ञ की आज्ञा का निर्देश तो प्राप्त है ही साथ ही आचारांग के नियुक्तिकार ने अप्कायिक जीव के जीवत्व सिद्धि में हेतु का भी प्रयोग किया है 'जैसे तत्काल उत्पन्न कलल अवस्था मे स्थित हाथी का शरीर तथा जल प्रधान अंडे का शरीर द्रव होने पर भी सचेतन देखा जाता है वैसे ही अप्कायिक जीव भी सचेतन होते हैं।'' आचारांग के भाष्यकार अधुनातन विज्ञान द्वारा स्वीकृत जल निर्माण की विधि के माध्यम से पानी में जीवत्व स्थापित करने की जिज्ञासा प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि 'वैज्ञानिक लोग प्राणवायु (ऑक्सीजन) के बिना जल की उत्पत्ति नहीं मानते। यह प्राणवायु की अनिवार्यता क्या जल के जीवत्व का समर्थन नहीं करती?' अप्काय में भी पृथ्वीकाय की तरह ही श्वास, लेश्या, ज्ञान आदि पाए जाते हैं। उनकी कष्टानुभूति के अनुभव को पृथ्वीकाय के प्रसंग में प्रस्तुत दृष्टांतों से ही समझाया है। आचारांग ने अप्कायिक जीवों के अस्तित्व को बहुत ही गम्भीरता से प्रस्तुत किया है। उसका उद्घोष है-जो जलकायिक जीवों के अस्तित्व को अस्वीकार करता है वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जैन आगम साहित्य में पृथ्वी, अप आदि सभी जीवों के प्रकार उनकी काल-स्थिति आदि अनेक विषयों पर विस्तार से विमर्श हुआ है। जीवविद्या की दृष्टि से एक स्वतंत्र प्रबन्ध इन विषयों का हो सकता है। 1. आयारो, 1/3 8, लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं । 2. आचारांगनियुक्ति, गाथा । 10, जह हत्थिस्स सरीरं कललावत्थस्स अहुणोववन्नस्स। होइ उदगंडगस्स य एसुवमा सव्वजीवाणं ।। 3. आचारांगभाष्यम्, पृ. 48 4. आयारो, 1/3 9, ......जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भाइक्खइ। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा अप्काय के शस्त्र अकायिक जीवों को निष्प्राण करने वाले अनेक शस्त्रों का उल्लेख प्राप्त है । आचारांग 1_ नियुक्ति में उनका उल्लेख इस प्रकार है' 1. उत्सेचन - कुए आदि से बाल्टी आदि के द्वारा पानी निकालना । 2. गालन - सघन और स्निग्ध वस्त्र से जल छानना । 3. धावन - वस्त्र, पात्र आदि का प्रक्षालन । 4. स्वकाय शस्त्र - नदी का पानी तालाब के पानी का शस्त्र । 5. पर काय शस्त्र-मिट्टी, तेल, क्षार और अग्नि आदि । 6. तदुभयशस्त्र - जलमिश्रित मिट्टी जल का शस्त्र । आचारांगचूर्णि में अप्काय के इनसे भिन्न शस्त्रों का उल्लेख हुआ है। चूर्णिकार ने वर्ण, रस, गंध और स्पर्श को शस्त्र कहा है। जैसे - अग्नि पुद्गलों के अनुप्रविष्ट होने से गरम पानी वर्ण से थोड़ा कपिल (पीला मिश्रितलाल) हो जाता है। गंध से वह धूमगन्धवाला हो जाता है। जहां गंध होती है वहां रस भी होता है। रस से वह पानी विरस बन जाता है। स्पर्श से वह उष्ण होता है । जल थोड़ा गर्म होने पर भी अचेतन नहीं होता। जिसमें उकाला न आया हो, जो पूरा उबला हुआ न हो वह सजीव ही होता है। लोना, मीठा और अम्ल पानी परस्पर एकदूसरे के शस्त्र होते हैं। दुर्गन्धयुक्त पानी प्रायः अचित्त होता है । ' पानी के सचित्त, अचित्त के संदर्भ में जैन आगम साहित्य में प्रभूत विचार हुआ है । मुनि अहिंसा महाव्रत की अनुपालना के अन्तर्गत प्रासंगिक रूप से इस विषय पर विशद विवेचना आगमों में उपलब्ध है । तेजस्काय 159 जैन दर्शन अग्नि को भी सजीव मानता है। जिनका शरीर ही अग्नि है वे तेजस्कायिक जीव कहलाते हैं। अग्नि, अंगार, उल्का आदि अनिकाय के विविध प्रकार हैं । जो व्यक्ति अग्निकाय के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता वह अपने अस्तित्व का भी अपलापक होता है । ' तेजस्काय के जीव सूक्ष्म होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है। उनके अस्तित्व की अवगति का मुख्य साधन तीर्थंकर की वाणी ही है, फिर भी आगमों के व्याख्याकारों ने उनमें जीवत्व सिद्ध करने के लिए हेतु भी प्रस्तुत किए हैं 1. आचारांगनिर्युक्ति, गा. 113, उस्सिंचण-गालण-धोवणे य उवगरणमत्तभंडे य ॥ बायर आउक्काए एवं तु समासओ सत्थं ॥ 2. आचारांग चूर्णि, पृ. 27, 28 3. आयारो, 1/66 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 जैन आगम में दर्शन तेजस्कायिक जीवों के जीवत्व सिद्धि में हेतु का प्रयोग 'जैसे खद्योत के शरीर की तैजस परिणति रात्रि में प्रकाशमय होकर प्रदीस होती है, उसी प्रकार अग्नि में भी जीव के प्रयोग विशेष से आविर्भूत प्रकाश-शक्ति का अनुमान किया जाता है। जैसे ज्वर की उष्मा जीव में ही पाई जाती है, उसी प्रकार उष्मावान होने के कारण अग्नि भी जीव है, ऐसा अनुमान किया जाता है।। ___ आचारांग वृत्ति में अग्नि को सचेतन कहा गया है, क्योंकि उसमें उचित आहार-ईंधन से वृद्धि और ईंधन के अभाव में हानि देखी जाती है। आधुनिक वैज्ञानिकों का भी यही मानना है कि प्राणवायु (ऑक्सीजन) के बिना अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। नामकर्म की आतापक तथा उद्योतक प्रकृतियों के उदय से शेष जीवकायों की अपेक्षा तेजस्काय में विशेषता दृष्टिगोचर होती है। अग्निकायिक जीवों का शरीर सूई की नोक जैसा होता है। अग्निकाय को तीक्ष्ण शस्त्र कहा गया है। यह सब ओर से जीवों का आघात करती है। अग्निकाय के शस्त्र आचारांग नियुक्तिकार ने अग्निकायिक जीवों की शस्त्रतुल्य वस्तुओं का निरूपण किया है - 1. मिट्टी या बालु 2. जल 3. गीली वनस्पति 4. वसप्राणी 5. स्वकायशस्त्र-पत्तों की अग्नि तृण की अग्नि का शस्त्र होती है। पत्राग्नि के संयोग से तृणाग्नि अचित्त हो जाती है। 6. परकायशस्त्र-जल आदि। 7. तदुभयशस्त्र-भूसी और सूखे गोबर आदि से मिश्रित अग्नि दूसरी अग्नि का शस्त्र होती है। 1. आचारांगनियुक्ति,गाथा ।19, जह देहप्परिणामो रत्तिं खज्जोयगस्ससा उवमा। जरियस्स यजह उम्हा, तओवमा तेउजीवाणं ।। 2. आचारांगवृत्ति, पृ. 3 4 3. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गाथा 201 4. दसवेआलियं, 6/32, तिक्खमन्नयरं सत्थं, सव्वओ वि दुरासयं । आचारांगनियुक्ति,गा. 123,124. पुढवी आउक्काए उल्ला य वणस्सई तसा पाणा। बायरतेउक्काय एयं तु समासओ सत्थं ।। किंचि सकायसत्थं किंचि परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो।। 6. आचारांगभाष्यम्, पृ. 56 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 161 वायुकाय __ हवा को वायुकाय कहा जाता है। जिन जीवों का शरीर ही वायु है, वे वायुकायिक जीव कहलाते हैं। उत्कलिका, मण्डलिका आदिवायुके अनेक प्रकार हैं। वायुचक्षुग्राह्य नहीं है उसका अनुभव स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा होता है। पंखे आदि के द्वारा हवा करने से वायुकाय के जीवों की विराधना होती है। संयमी मुनि पंखे आदि से हवा लेने की इच्छा नहीं करते, क्योंकि इससे हवा का समारम्भ होता है। यह सावध बहुल है। छहकाय के रक्षक मुनि अनिल का सेवन नहीं करते।' वायुकाय के शस्त्र आचारांग नियुक्ति में वायुकाय के ये शस्त्र प्रतिपादित हैं - 1. वायु को उत्पन्न करने वाले व्यजन-पंखा, तालवृन्त-ताड़ का पंखा, छाज, चामर, पत्र तथा वस्त्र का छोर आदि। 2. अभिधारणा-पसीने से लथपथ व्यक्ति का हवा के आगमन के मार्ग पर बैठना या खड़े रहना। 3. चन्दन, खस आदि गंध द्रव्यों की सुगंध । 4. अग्नि-उसकी ज्वाला तथा गर्मी। 5. स्वकायशस्त्र-ठण्डा या गर्म प्रतिपक्ष वायु। वनस्पतिकाय लता आदि वनस्पति ही जिनका शरीर होता है, उन जीवों को वनस्पतिकाय कहते हैं। वनस्पतिकायिक जीव सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के हैं। इन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो-दो भेद होते हैं। बादर पर्याप्त वनस्पतिकायिक जीवों के दो भेद होते हैंसाधारण शरीर और प्रत्येक शरीर। जिसके एक शरीर में अनन्त जीव होते हैं, उसे साधारण शरीर कहा जाता है। साधारण जीवों के आहार, उच्छ्वास आदि सब एक साथ होते हैं। ये सब जीव समान होते हैं। जिसके एक शरीर में एक-एक जीव होता है उसे प्रत्येकशरीरी कहा जाता है।' इन जीवों के प्रत्येक के स्वतंत्र शरीर होता है। सूक्ष्म वनस्पति के जीव एक शरीर 1. दसवेआलियं, 6/36, अनिलस्स समारंभ, बुद्धामन्नंतितारिसं। सावजबहुलं चेयं, नेयंताईहिंसेवियं ।। 2. आचारांगनियुक्ति, गा. 170, विअणे य तालवंटे सुप्पसियपत्त चेलकण्णेय। अभिधारणा य बाहिं गंधग्गी वाउ सत्थाई।। 3. दशवैकालिकहारिभद्रीया वृत्ति पत्र-138, वनस्पति:-लतादिरूप: प्रतीत:, स एव काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः। 4. उत्तरज्झयणाणि, 36/92 5. वही, 36/93 उत्तराध्ययनशान्त्याचार्य वृत्ति पत्र-691 7. वही, पत्र-691 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 जैन आगम में दर्शन में अनन्त ही होते हैं। सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव समूचे लोक में व्याप्त हैं तथा बादर जीव लोक के एक देश में व्याप्त हैं।'' वनस्पतिकीसचेतनता वनस्पति जीव है। जन्म, वृद्धत्व, जीवन, मृत्यु, व्रणरोहण, आहार, दोहद, रोगचिकित्सा आदि वृक्ष की सचेतनता को प्रकट करते हैं।' आचारांग में वनस्पति की मनुष्य के साथ तुलना की गई है, जो ज्ञातव्य है। __आचारांग में मनुष्य के साथ वनस्पति की तुलना करते हुए कहा गया- “यह मनुष्य शरीर भी जन्मता है, यह वनस्पति भी जन्मती है। यह मनुष्य शरीर भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है। यह मनुष्य शरीर भी चैतन्ययुक्त है, यह वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। यह मनुष्य शरीर भी छिन्न होने पर म्लान होता है, यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है। यह मनुष्य शरीर भी आहार करता है, यह वनस्पति भी आहार करती है। यह मनुष्य शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पति भी अनित्य है। यह मनुष्य शरीर भी अशाश्वत है, यह वनस्पति भी अशाश्वत है। यह मनुष्य शरीर भी उपचित और अपचित होता है, यह वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है। यह मनुष्य शरीर भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, यह वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्रास होती है।'' . स्थावरकायिक जीवों में वनस्पतिकायिक जीवों की चेतना अत्यधिक स्पष्ट होती है। पृथ्वी आदि में वनस्पति की तरह चैतन्य स्पष्ट नहीं होता। इसलिए मानव शरीर के साथ उनकी तुलना नहीं की गई है। मनुष्य शरीर के साथ वनस्पति की तुलना सर्वांगीण रूप से होती है। जन्म, वृद्धि, भोजन, चयापचय, मरण, रोग, बाल आदि अवस्था और चैतन्य आदिका साक्षात् दृश्यमान लक्षण दोनों में प्राप्त होते हैं। आचारांगचूर्णि में स्वप्न, दोहद, रोग आदि अन्य लक्षणों का भी वनस्पति में उल्लेख किया है। दोहद के विषय में यह उल्लेख मिलता है कि वृक्षों में इच्छा उत्पन्न करने अथवा उनमें उत्पन्न इच्छा को सिंचन देने अथवा उनके दोहद की पूर्ति करने से फूल, फल आदि का उपचय होता है। आचारांग वृत्ति में दोहद का तो उल्लेख है किंतु स्वप्न का उल्लेख नहीं है। I. उत्तरज्झयणाणि, 36/100 2. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1756, जम्म-जरा-जीवण-मरण-रोहणा-हार-दोहला-मयो। रोग-तिगिच्छाईहियनारिव्व सचेयणा तरवो।। 3. आयारो, 1/113,सेबेमि-इमंपिजाइधम्मयं, एयंपिजाइधम्मयं । इमंपिबुड्डिधम्मयं, एयंपि बुड्डिधम्मयं.......। 4. आचारांगचूर्णि, पृ. 35 5. (क) आचारांग, वृत्ति पत्र 60, दोहदप्रदानेन तत्पूर्त्या वा पुष्पफलादीनामुपचयो जायते। (ख) आप्टे (वी.एस. आप्टे, मुम्बई, 1924) 'दोहद' The desire of plants at budding-time, (as, for instance, of the Asoka to be kicked by young ladies, of the Bakula to be sprinkled by mouthfuls of liquor etc.) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 163 वनस्पतिकाय के शस्त्र जिस किसी भी वस्तु से वनस्पति को क्षत-विक्षत किया जाता है वे सब वनस्पतिकाय के शस्त्र हो जाते हैं। आचारांग नियुक्ति में वनस्पतिकाय के शस्त्र निम्नलिखित प्रतिपादित हुए हैं 1. कैंची, कुठारी, हंसिया, छोटी हंसिया, कुदाली वसूला और फरसा। 2. हाथ, पैर, मुंह आदि। 3. स्वकायशस्त्र-लाठी आदि। 4. परकायशस्त्र-पाषाण, अग्नि आदि। 5. तदुभयशस्त्र-कुठार आदि । 6. भावशस्त्र-असंयम ।। संसार में सबसे अधिक जीव वनस्पतिकाय के ही है। वह जीवों का अक्षय भण्डार है। जीव अनन्त काल तक निरन्तर वनस्पतिकाय में रहते हैं। वनस्पति को दीर्घलोक भी कहा जाता है। वनस्पति जगत् को दीर्घलोक कहने के तीन कारण हैं 1. शरीर की दीर्घता। 2. द्रव्य परिमाण की अनन्तता। 3. कायस्थिति की दीर्घता । उसी काय में बार-बार जन्म-मरण करना। अन्य सब काय के जीव वनस्पतिकाय की अपेक्षा से लघु शरीर होते हैं। जीवों की संख्या तथा कायस्थिति भी वनस्पति की अपेक्षा उनमें कम होती है। पांचस्थावर परिणत एवं अपरिणत (सजीवएवं निर्जीव) स्थानांग के अनुसार पांचों स्थावर जीवनिकाय परिणत और अपरिणत-दोनों प्रकार के होते हैं। इसका अर्थ है कि पृथ्वी आदि सजीव एवं निर्जीव दोनों प्रकार के होते हैं। वायु : सचित्त एवं अचित्त स्थानांग में ही अचित्त वायु पांच प्रकार की प्रतिपादित है - 1. आचारांगनियुक्ति, गा. 149-150, कप्पणिकुहाणिअसियगदत्तियकुद्दालवासिपरसू अ। सत्थं वणस्सईए हत्था पाया मुहं अग्गी ।। किंची सकायसत्थं किंची परकाय तदुभयं किंची। एयं तु दव्वसत्थं भावे य असंजमो सत्थं ।। 2. आचारांगभाष्यम्, पृ. 54, दीर्घलोक:-वनस्पतिः। 3. ठाणं, 2/133-137 4. वही, 5/18 3, पंचविधा अचित्ता वाउकाइया पण्णत्ता, तं जहा-अकंते धंते पीलिए सरीराणुगते संमुच्छिमे। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 1. आक्रान्त - पैरों को पीट-पीट कर चलने से उत्पन्न वायु । ध्मात - धौंकनी आदि से उत्पन्न वायु । 2. 3. पीड़ित - गीले कपड़ों के निचोड़ने आदि से उत्पन्न वायु । शरीरानुगत- डकार, उच्छ्वास आदि । 4. 5. सम्मूर्च्छिम - पंखा झलने आदि से उत्पन्न वायु । यह पांच प्रकार की वायु उत्पत्तिकाल में अचेतन होती है और परिणामान्तर होने पर सचेतन भी हो सकती है।' स्थानांग के इस उल्लेख के अनुसार पांच स्थावरकाय निर्जीव भी हो सकते हैं, इस वक्तव्य के आधार पर विद्युत, H2O से निर्मित जल आदि की सजीवतानिर्जीवता पर विमर्श का अवकाश है। समूर्च्छिम का अर्थ टीकाकार ने पंखे आदि झलने से उत्पन्न वायु किया है और उसको अचित्त माना है, इन संदर्भों में प्रस्तुत जीवनिकाय की सचेतनताअचेतनता पर एक नई दृष्टि प्राप्त होती है। जल: सचित्त एवं अचित्त भगवती सूत्र में 'महातपोपतीर प्रभव' नामक निर्झर के वर्णन के प्रसंग में उल्लेख प्राप्त होता है कि वहां अनेक उष्णयोनिक जीव और पुद्गल उदक रूप में उत्पन्न और विनष्ट होते हैं, च्युत होते हैं और उत्पन्न होते हैं ।' प्रस्तुत वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि जल सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार का होता है । यदि पुद्गल का पानी के रूप में परिणमन नहीं होता तो "जीवा य पोग्गलाय उदगत्ताए वक्कमंति" पाठ में केवल 'जीवा' शब्द ही प्रयुक्त होता 'पोग्गला' पाठ नहीं होता। ‘जीवा' और 'पोग्गला' इन दोनों शब्दों का प्रयोग उदग परिणति के संदर्भ में हुआ है । सामान्यत: प्राकृतिक पानी शीतल होता है। 'महातपोपतीरप्रभव' निर्झर के पानी को उष्ण कहा गया है। सामान्यतः गरम जल अचित्त होता है किंतु प्रस्तुत वर्णन से ज्ञात होता है कि अप्कायिक जीव उष्णयोनिक भी हो सकते हैं । उष्णयोनिक जीव गरम वातावरण में उत्पन्न एवं वृद्धि को प्राप्त करते हैं । वैज्ञानिक मान्यता भी इस तथ्य का समर्थन कर रही है । जैन आगम में दर्शन भगवतीभाष्य में इस प्रसंग में लुईस टामस के वक्तव्य को प्रस्तुत किया गया है जिसका उल्लेख प्रस्तुत प्रसंग में करना समीचीन होगा। लुईस टामस ने लिखा है - " एक जीवाणु प्रजाति है जिसे 1982 तक पृथिवी के धरातल पर देखा ही नहीं गया। इन जीवों को स्वप्न में भी कभी नहीं देखा गया। ये प्रकृति के जिन 1 स्थानांगवृत्ति पत्र - 335, आक्रान्ते पादादिना भूतलादौ यो भवति स आक्रान्तो यस्तु ध्माते दृत्यादौ स ध्मातः जलार्द्रवस्त्रे निष्पीड्यमाने पीडित: उद्गारोच्छ्वासादि: शरीरानुगतः व्यजनादिजन्य: सम्मूर्च्छिमः, एते च पूर्वमचेतनास्ततः सचेतना अपि भवन्ति । 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 2 / 113, तत्थ णं बहवे उसिणजोणिया जीवाय पोग्गला य उदगत्ताए वक्कमंति विउक्कमंति चयंति उववज्र्ज्जति । 3. अंगसुत्ताणि, 2 / 113, तव्वइरित्ते वि य णं सया समियं उसिणे - उसिणे आउयाए अभिनिस्सवइ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा नियमों को हम जानते हैं, उनके जीते-जागते उल्लंघन हैं। चीजें जो एक प्रकार से सीधे नरक आई हों या हम जो नरक के बारे में सोचते हैं। पृथ्वी के अन्दर गरम क्षेत्र में जो रहने लायक न हो। इस प्रकार के क्षेत्रों में हाल में अनुसंधानी पनडुब्बियों की वैज्ञानिक निगाह पड़ी है। यह पनडुब्बियां समुद्र के तल में 25000 मीटर या इससे ज्यादा तक जा सकती हैं। ये तल के गड्ढों में किनारे तक पहुंच सकती हैं। जहां खुली नालियां पृथिवी की पपड़ी में चिमनियों से अधिक गरम समुद्री जल छोड़ती हैं। इन्हें समुद्री वैज्ञानिक “ब्लेक स्मोकर्स” कहते हैं। यह केवल गरम पानी या भाप नहीं या दबाव के नीचे भी भाप नहीं, जैसी कि प्रयोगशाला के (ऑटो ब) में होती है, जिस पर हम दशकों से सारे जीवाणु नष्ट करने के लिए निर्भर करते आए हैं । यह बहुत अधिक गरम पानी अत्यधिक दबाव में होता है। जिसका तापमान 300 अंश सेण्टीग्रेट से भी ज्यादा होता है। इतने ताप पर अब तक ज्ञात जीव रह ही नहीं सकता। प्रोटीन और डी. एन. ए. टूट जाएंगे। एन्जाइम पिघल जाएंगे। कोई भी जिन्दा चीज क्षणभर में मर जाएगी। हम अब तक स्वीकार करते आए हैं कि शुक्र ग्रह पर इतना ही तापमान होने के कारण वहां जीवन नहीं हो सकता। इसी आधार पर हम कह सकते हैं कि 4-5 अरब वर्ष पूर्व इस ग्रह के आरम्भिक समय में जीवन नहीं रहा होगा। बी. जे. ए. बैरोज तथा जे. डब्ल्यू डेमिंग ने हाल गहरे समुद्रों का नालियों से आए जीवाणुओं की जीवन्त बस्तियों की खोज की है। यही नहीं जब इन जीवाणुओं को पानी से ऊपर लाया गया, उन्हें टाइटेनियम सूइयों में रखा गया तथा 250 अंश सेण्टीग्रेट तक गरम ताप वाले कक्षों में मुहरबन्द किया गया तो ये जीवित ही नहीं रहे बल्कि बड़े उत्साह से पुनरुत्पादन किया। इनकी संख्या बढ़ती गई उन्हें केवल उबलते पानी में ही डालकर मारा जा सकता है। फिर भी यह साधारण जीवाणु जैसे लगते हैं । इलेक्ट्रोनिक माइक्रोस्कोप के नीचे इनकी संरचना वैसी ही है - कोशिका - दीवारें, राइबोसोम तथा बाकी सब कुछ जैसा कि अब कहा जा रहा है । यदि ये मूल रूप से पुरातत्त्व काल के जीवाणु हैं हमारे सबके पुरखे, तो फिर उन्होंने या उनकी पीढ़ियों ने ठण्डा होकर जीना कैसे सीखा ? मैं इससे ज्यादा आश्चर्यजनक चाल की कल्पना ही नहीं कर सकता ।" " 165 स्थानांग में परिणत एवं अपरिणत के रूप में स्थावरकाय की चर्चा तथा भगवती में पुद्गल की भी पानी के रूप में परिणति के उल्लेख आधुनिक विचारकों को नवीन दृष्टि प्रदान करने वाले हैं । न्याय वैशेषिक दर्शन में पृथ्वी, पानी, अग्नि एवं वायु को द्रव्य माना गया है। यद्यपि इनके जीवत्व का निर्देश वहां पर नहीं है किंतु इनको शरीर, इन्द्रिय एवं विषय के भेद से तीन प्रकार का कहा है। शरीर जीव के होता है। तर्कसंग्रह में कहा है-जल का शरीर वरुणलोक में भगवई, खण्ड 1, पृ. 280 1. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन होता है । अनि का शरीर आदित्यलोक में होता है तथा वायु का शरीर वायुलोक में होता है । ' इस उल्लेख से यह तो अभिव्यंजित हो ही रहा है कि इन्होंने भी जलशरीर वाले, अग्निशरीर वाले एवं वायुशरीर वाले जीवों को तो स्वीकार कर लिया है। वेद में भी अग्नि, वायु, जल आदि को देव रूप में स्वीकार किया है। देव में जीव तो होता ही है । त्रसप्राणी 166 आचारांग में अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, संमूर्च्छिम, उद्भिद् और औपपातिक-इन आठ प्रकार के त्रस जीवों का उल्लेख हुआ है। ' त्रस जीवों के प्रस्तुत भेदों से वे तीन प्रकार के हैं - 1. संमूर्च्छनज 2. गर्भज 3. औपपातिक । त्रस जीव के ये भेद उनके जन्म की अपेक्षा से है । अर्थात् किस रूप से वे जन्म लेते हैं। स्थावरकाय के जीव सम्मूर्च्छन ही होते हैं जबकि सकाय के जीव सम्मूर्च्छन के साथ गर्भज एवं औपपातिक भी होते हैं। सम्मूर्च्छन का अर्थ है - गर्भाधान के बिना ही यत्र-तत्र आहार ग्रहण कर शरीर का निर्माण करना । इस विधि से उत्पन्न होने वाले प्राणी सम्मूर्च्छनज कहलाते हैं। रसज, संस्वेदज और उद्भिद-ये तीन सम्मूर्च्छनज हैं। अण्डज, पोतज और जरायुज- ये गर्भज हैं। उपपात से जन्म लेने वाले देव और नारक औपपातिक कहलाते हैं । त्रस की परिभाषा आचारांग में स प्राणियों का उल्लेख है किंतु वहां त्रस की परिभाषा उपलब्ध नहीं है । दशवैकालिक सूत्र में त्रस की परिभाषा उपलब्ध है - 1. तर्कसंग्रह, (संपा. केदारनाथ त्रिपाठी, मद्रास, 1985) पृ. 5-7, (शरीरमस्मदादीनाम्) शरीर वरुणलोके...... शरीरमादित्यलोके..... शरीरं वायुलोके । 2. (क) आयारो, 1 / 118, से बेमि-संतिमे तसा पाणा, , तं जहा- अंडया पोयया जराउया रसया संसेयया संमुच्छिमा उब्भिया ओववाइया । (ख) दसवे आलियं, 4 / 9 3. आचारांगवृत्ति पत्र - 62, · • अण्डज - अण्डों से उत्पन्न होने वाले मयूर आदि । पोतज-पोत का अर्थ है शिशु । जो शिशुरूप में उत्पन्न होते हैं, जिन पर कोई आवरण लिपटा हुआ नहीं हो तो वे पोतज कहलाते हैं। जैसे- हाथी आदि । जरायुज- जरायु का अर्थ गर्भ-वेष्टन या वह झिल्ली है, जो शिशु को आवृत किए रहती है। जन्म के समय में जो जरायु-वेष्टित दशा में उत्पन्न होते हैं, वे जरायुज हैं। भैंस, गाय आदि । रसज- छाछ, दही आदि रसों में उत्पन्न होने वाले सूक्ष्म शरीरी जीव । संस्वेदज-पसीने से उत्पन्न होने वाले खटमल, यूका (जूं) आदि जीव । औपपातिक- उपपात का अर्थ है-अचानक घटित होने वाली घटना । देवता और नारकीय जीव एक मुहूर्त के भीतर ही पूर्ण युवा बन जाते हैं, इसलिए इन्हें औपपातिक-अकस्मात् उत्पन्न होने वाला कहा है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 167 ..........जेसिं केसिंचि पाणाणं अभिक्तंपडिक्कंतं, संकुचियं पसारियं रुयंभंतंतसियं पलाइयं आगइगइविन्नाया.......।' जिन किन्हीं प्राणियों में सामनेजाना, पीछे हटना, संकुचित होना, फैलना, शब्द करना, इधर-उधर जाना, भयभीत होना, दौड़ना-ये क्रियाएं हैं और जो आगति एवं गति के विज्ञाता हैं, वे त्रस हैं। उत्तराध्ययन वृत्ति के अनुसार जो ताप आदि से संतप्त होने पर छाया आदि की ओर गतिशील होते हैं, वे त्रस (द्वीन्द्रिय आदि जीव) हैं।' त्रस और स्थावर आचारांग के प्रथम शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में ही पृथ्वीकाय आदि छहों कायों का वर्णन है। वहां इनका क्रम प्रचलित क्रम से थोड़ा भिन्न है। पृथ्वी, अप, तेज, वनस्पति, त्रस एवं वायु इस प्रकार का क्रम वहां उपलब्ध है जबकि इसी सूत्र के नवें अध्ययन में पृथ्वी आदि का प्रचलित क्रम से ही उल्लेख है।' इस षड्जीवनिकाय को आचारांग स्थावर और त्रस-इन दो भागों में विभक्त करता है या नहीं ? इसका अवबोध प्रथम अध्ययन से प्राप्त नहीं होता है। वहां त्रस प्राणी यह उल्लेख है किंतु स्थावर शब्द का प्रयोग वहां पर नहीं है। पूरे आचारांग में मात्र एक सूत्र में स्थावर शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है। वहां त्रस और स्थावर दोनों शब्दों का एक साथ प्रयोग है। जिससे ज्ञात होता है कि सम्पूर्ण जीव-समूह त्रस और स्थावर इन दो विभागों में विभक्त है। आचारांग में यह तथ्य प्रकारान्तर से प्राप्त है कि पृथ्वीकायिक आदि स्थावर जीव हैं, इसके अतिरिक्त द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीव हैं । दशवैकालिक में षड्जीवनिकाय का उल्लेख है। वहां पर भी षड्जीवनिकाय का त्रस एवंस्थावर इनदो भागों में विभाग नहीं हुआहैकिंतु उसी आगम के चतुर्थ अध्ययन में अहिंसा महाव्रत के प्रसंग में त्रस और स्थावर का एक साथ प्रयोग हुआ है। जिससे ज्ञात होता है कि बस के अतिरिक्त पृथ्वीकाय आदि स्थावर हैं। वहां भी त्रसस्थावर का प्रकारान्तर से ही उल्लेख है। षड्जीवनिकाय : त्रस एवं स्थावर उत्तराध्ययन सूत्र में षड्जीवनिकाय का विभाग स्थावर एवं त्रस इन दो भागों में हुआ है। वहां पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय इन तीन को स्थावर कहा है। तेजस्काय, वायुकाय एवं उदार त्रस ये त्रसकाय के भेद हैं। 1. दसवेआलियं, 4/9 2. उत्तराध्ययनशान्त्याचार्य, वृत्ति पत्र-244, त्रस्यन्ति-तापाद्युपतप्तौ छायादिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति त्रसा: द्वीन्द्रियादयः। 3. आयारो, 9/1/12, पुढविंच आउकायं तेउकायं च वाउकायं च। पणगाइं बीय-हरियाई, तसकायं च सव्व सोणच्चा॥ . 4. वही, 9/1/14 अदु थावरा तसत्ताए, तसजीवाय थावरत्ताए। 5. दसवेआलियं, 4/3 6. वही,4/11 7. उत्तरज्झयणाणि, 36/69, पुढवी आउजीवा उतहेव य वणस्सई। इच्चेए थावरा तिविहा...........।। 8. वही. 36/107. तेऊ वाऊ य बोन्द्रव्वा. उराला य तसा तहा। इच्चेए तसा तिविहा...................।। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 जैन आगम में दर्शन स्थानांग में भी त्रस एवं स्थावर का यही वर्णन प्राप्त है। वहां भी तेजस्काय, वायुकाय एवं उदार त्रस जीवों को त्रस कहा है तथा पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय को स्थावर कहा है।' जीवाजीवाभिगम में त्रस एवं स्थावर के भेद से दो प्रकार के संसार समापन्नक जीवों का उल्लेख है। इस आगम में भी पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय को स्थावर कहा है' तथा तेज, वायु एवं उदार (स्थूल) त्रस का त्रस रूप में उल्लेख है। त्रस एवं स्थावर का यह विभाग उत्तराध्ययन जैसा ही है। तत्त्वार्थसूत्र में भी त्रस एवं स्थावर के सम्बन्ध में उपर्युक्त विभाग ही प्राप्त है। यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय मान्य सूत्रों में भिन्नता है। वहां पृथ्वी आदि पांचों को स्थावर एवं द्वीन्द्रिय आदि को त्रस कहा है।' स्थानांग में दो कायप्रज्ञस हैं-त्रस और स्थावर । वहां पर इन दोनों के दो-दो भेद किए हैं-भवसिद्धिक और अभवसिद्धिक।' पांचवें स्थान में पांच स्थावरकाय एवं उनके पांच अधिपतियों का उल्लेख है। किंतु वे नाम भिन्न प्रकार के हैं। स्थावरकाय के इन्द्र, ब्रह्म आदि नाम उनके अधिपतियों के आधार पर किए गए हैं। स्थानांग की टीका में इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति एवं प्राजापत्य को क्रमश: पृथ्वी, अप, तेज, वायु एवं वनस्पति कहा है। टीका में कहा गया है कि जिस प्रकार दिशाओं के अधिपति इन्द्र, अग्नि आदि हैं, नक्षत्रों के अधिपति अश्वि, यम दहन आदि हैं, शक्र दक्षिण लोक का अधिपति और ईशान उत्तरलोक का अधिपति, उसी प्रकार पांच स्थावर कायों के भी क्रमश: इन्द्र, ब्रह्म, शिल्प, सम्मति और प्राजापत्य-अधिपति हैं।' स्थानांग में प्राप्त स्थावरकाय के ये नाम प्रचलित नामों के साथ किस प्रकार से सामंजस्य रखते हैं ? स्थानांग की टीका में इसका कोई उल्लेख नहीं है। केवल अमुक को अमुक कहा जाता है, यही उल्लेख है। स्थावर काय के सम्बन्ध में ऐसा उल्लेख अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। स्थानांग स्थावरकाय के प्रचलित नामों को छोड़कर अन्य नामों का उल्लेख क्यों करता है ? यह भी अन्वेषणीय है। I. ठाणं, 3/326-327 2. जीवाजीवाभिगमे, 1/11, ........ 'दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता' ते एवमाहंसु तं जहा-तसा चेव थावराचेव। 3. वही, 1/12,थावरा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया आउकाइया वणस्सइकाझ्या । 4. वही, 1/75, तसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-तेउक्काइया वाउक्काइया ओराला तसा । 5. तत्त्वार्थसूत्र, 2/13,14, पृथिव्यम्बुवनस्पतय: स्थावरा: । तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसा: । 6. तत्त्वार्थवार्तिक, 2/13, 14, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय: स्थावरा: । द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । 7. ठाणं, 2/16 4-166, दो काया पण्णत्ता, तं जहा-तसकाए चेव थावरकाए चेव। तसकाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-भवसिद्धिए चेव अभवसिद्धिए चेव । थावरकाए दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-भवसिद्धिए चेव अभवसिद्धिए चेव। 8. वही, 5/119,पंच थावरकाया पण्णत्ता, तंजहा-इदे थावरकाए, बंभे थावरकाए, सिप्पेथावरकाए सम्मती थावरकाए पायावच्चे थावरकाए। पंच थावरकायाधिपती पण्णत्ता,तंजहा-इंदे थावरकायाधिपती बंभेथावरकायाधिपतीसिप्पे थावरकायाधिपतीसम्मती थावरकायधिपती, पायावच्चे थावरकायाधिपती। स्थानांग, वृ. प. 293 (पृ. 196) स्थावरनामकर्मोदयात् स्थावरा:-पृथिव्यादय:तेषां काया राशय: स्थावरो वा काय:-शरीरं येषां ते स्थावरकाया: इन्द्रसम्बन्धित्वात् इन्द्र: स्थावरकाय: पृथिवीकाय:, एवं ब्रह्मशिल्पसम्मतिप्राजापत्या अपि अप्कायादित्वेन वाच्या इति ।....... Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 169 त्रस-स्थावर के विभाग की आगमकालीन अवधारणा आचारांग से लेकर विपाकसूत्र तक ग्यारह अंग आगमों में, औपपातिक, राजप्रश्नीय आदि उपांग आगमों में, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन आदि मूल आगमों में पृथ्वीकाय, अप्काय आदि पांचों को एक साथ स्थावरकाय के रूप में उल्लिखित नहीं किया है। बल्कि स्थानांग, उत्तराध्ययन एवं जीवजीवाभिगम में तो छह कायों में से तीन को स्थावर एवं तीन को त्रस कहा है। तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य तक यही अवधारणा प्रचलित है। दशवैकालिक में 'षड्जीवनिकाय' के अन्तर्गत त्रसकाय का वर्णन हुआ है। वहां वसकाय में द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव का ग्रहण हुआ है।' इसका तात्पर्य हुआ कि इनके अतिरिक्त जीव स्थावर हैं। एकेन्द्रिय का उल्लेख त्रसकाय में नहीं है अत: एकेन्द्रिय जीव स्थावर होते हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय एकेन्द्रिय हैं। प्रज्ञापना में संसारसमापन्नक जीवों का उल्लेख पांच इन्द्रियों के माध्यम से हुआ है वहां स्थावरकाय एवं त्रसकाय के भेद से जीवों का विभाग नहीं है। जबकि जीवाजीवाभिगम में जीवों का विभाग त्रस एवं स्थावर के आधार पर हुआ है। आगम व्याख्या साहित्य में त्रस एवं स्थावर स एवं स्थावर के सम्बन्ध में यह ध्यातव्य है कि जैन आगम साहित्य में पृथ्वी आदि पांच कायों को एक साथ स्थावर काय के रूप में अभिव्यंजित नहीं किया है। उत्तरवर्ती टीका साहित्य में उनका उल्लेख स्थावरकाय के रूप में हो गया है। उत्तराध्ययन के टीकाकार तेजस्काय एवं वायुकाय को स्थावरकाय ही मानते हैं। उत्तराध्ययन में इनका उल्लेख त्रसकाय के रूप में है। टीकाकार ने लब्धिवस एवं गतित्रस के भेद से त्रस जीव दो प्रकार के माने हैं। द्वीन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीव लब्धित्रस हैं। अग्नि और वायुगतित्रस हैं। यद्यपि इनके स्थावर नामकर्म का उदय है फिर भी गतिशीलता के कारण ये त्रस कहलाते हैं। गति एवं लब्धि त्रस विचार करने से प्रतीत होता है कि प्रारम्भ में केवल गति के आधार पर त्रस और स्थावर का विभाग किया गया होगा। इसी कारण अग्नि और वायु को त्रस कहा गया है किंतु एक चींटी की गति एवं वायु की गति एक जैसी नहीं होती। चींटी की गति इच्छाप्रेरित है। वह अपने हित के संपादन एवं अहित की निवृत्ति के लिए गति करती है जबकि अग्नि एवं वायु की गति में ऐच्छिक प्रेरणा नहीं है, वेस्वभावत: ही गतिशील हैं। मात्र गति के आधार पर विकसित 1. दसवे आलियं, 4/9 2. पण्णवणा, 1/15 3. उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य, वृत्ति पत्र-693, दुविहा खलु तसजीवा-लद्धितसा चेव गतितसा चेव । ततश्च तेजोवाम्वोर्गतित उदाराणां च लब्धितोऽपि त्रसत्वमिति । तेजोवाय्वोश्च स्थावरनामकर्मोदयेऽप्युक्तरूपं वसनमस्तीति त्रसत्वम्। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 जैन आगम में दर्शन अविकसित को एक जैसा कैसे माना जा सकता है ? जब इस तथ्य की ओर ध्यान गया होगा तब कर्मसिद्धांत के आधार पर त्रस और स्थावर की व्यवस्था हुई। जिसके स्थावर नामकर्म का उदय है वे स्थावर हैं भले ही वे गतिशील क्यों न हों तथा जिनके त्रसनामकर्म का उदय हैं वे त्रस हैं। आगमों में जब अग्नि और वायु को त्रस कह दिया गया तब उस वक्तव्य की समीचीनता लब्धित्रस एवं गतित्रस के आधार पर प्रस्तुत की गई। आगमिक वक्तव्यों की तर्कसंगत व्याख्या के लिए गति त्रस एवं लब्धित्रसजैसा विभाग करना आवश्यक था । और यह विभाग जनसाधारण के लिए बुद्धिगम्य भी है। एकेन्द्रिय-स्थावर अन्यत्रस ___ वर्तमान में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में पृथ्वी, अप, तेजस, वायु एवं वनस्पति के जीव स्थावरकाय के रूप में एवं द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीव त्रसकाय के रूप में एकस्वर से स्वीकृत हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम पृथ्वी आदि पांचों प्रकार के जीवों को एक साथ स्थावर किसने कहा है यह अन्वेषणीय है। स्थानांग, उत्तराध्ययन की टीका आदि में तो इन पांचों को स्थावर कहा गया है। शरीर रचना और ज्ञान का सम्बन्ध शारीरिक दृष्टि से जीवछह प्रकार के होते हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक। ज्ञान के विकास क्रम के आधार पर वे पांच प्रकार के होते हैं - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। इन्द्रिय और मन से होने वाला ज्ञान शरीर-रचना से सम्बन्ध रखता है। जिस जीव में इन्द्रिय और मानस ज्ञान की जितनी क्षमता होती है, उसी के आधार पर उनकी शरीर-रचना होती है और शरीर-रचना के आधार पर ही उस ज्ञान की प्रवृत्ति होती है। स्थानांग सूत्र में शरीर-रचना और इन्द्रिय तथा मानसज्ञान के सम्बन्ध पर विमर्श हुआ है। स्थानांग के टिप्पण में इस सम्बन्ध को तालिका के माध्यम से प्रस्तुत किया हैजीव बाह्यशरीर (स्थूल शरीर) इन्द्रिय ज्ञान 1. एकेन्द्रिय (पृथ्वी, अप्, औदारिक स्पर्शनज्ञान तेजस्,वायु, वनस्पति) 2. द्वीन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) रसन, स्पर्शननान 3. त्रीन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान 4. चतुरिन्द्रिय औदारिक (अस्थिमांस शोणितयुक्त) चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शनज्ञान 5. पंचेन्द्रिय (तिर्यंच) औदारिक (अस्थिमांस शोणित श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्नायुशिरायुक्त) स्पर्शनज्ञान 6. पंचेन्द्रिय (मनुष्य) औदारिक (अस्थिमांस शोणित स्नायु श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, शिरायुक्त) स्पर्शनज्ञान 1. ठाणं, टिप्पण 2/155-160 पृ. 125 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 171 पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी एवं असंज्ञी दोनों प्रकार के होते हैं। मन का विकास पांच इन्दियों की प्राप्ति के बाद ही हो सकता है। शरीर की विशेष संरचना के साथ मन की प्राप्ति का सम्बन्ध है। एकेन्द्रिय जीवों में मात्र एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है। ये जीव स्थावर ही होते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों में स्पर्शन एवं रसन, त्रीन्द्रिय में स्पर्शन, रसन एवं घ्राण चतुरिन्द्रिय में स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु तथा पंचेन्द्रिय में स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु एवं श्रोत्र-ये इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियों का क्रम निर्धारित है अर्थात् जो एकेन्द्रिय जीव है। उनके स्पर्शन इन्द्रिय ही होगी। द्वीन्द्रिय आदि में भी अपनी निर्धारित इन्द्रिय ही होगी। स्पर्शन के बाद ही रसन इन्द्रिय की प्राप्ति हो सकती है, रसन की प्राप्ति के बाद ही घ्राण उपलब्ध होगी। इन्द्रिय प्राप्ति का यह क्रम निर्धारित है। इसमें किसी भी प्रकार का व्युत्क्रम नहीं हो सकता। त्रस जीवों की सजीवता प्रत्यक्षगोचर है अत: उनके जीवत्व सिद्धि में हेतु के प्रयोग की आवश्यकता नहीं है। आगम साहित्य में त्रस जीवों के भेदों का विस्तार से वर्णन हुआ है। जीव स्वरूप, अभिज्ञान एवं लक्षण प्रत्येक जीव चेतनायुक्त है। आत्मा ही विज्ञाता है। 'जे आया से विण्णाया।'' चेतना आत्मा का स्वरूप है। प्राणीमात्र में उसका न्यूनाधिक मात्रा में सद्भाव होता है। यद्यपि सत्ता रूप में चैतन्य शक्ति सब प्राणियों में अनन्त होती है, पर विकास की अपेक्षा वह सबमें एक जैसी नहीं होती। ज्ञान के आवरण की सघनता एवं विरलता के अनुसार जीव में चेतना का विकास न्यून या अधिक होता है। एकेन्द्रिय जीवों में भी कम-से-कम एक इन्द्रिय का अनुभव अवश्य ही मिलेगा। यदि वह न रहे, तब जीव और अजीव में कोई अन्तर ही नहीं रहता। नंदी में कहा गया है कि सब जीवों के पूर्णज्ञान का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवृत हो जाए तो जीव अजीव बन जाएगा। ज्ञान की आंशिक रूप में नित्य अनावृतता जीव मात्र में उपलब्ध है। अत: चेतना जीव का नैश्चयिक लक्षण है। जीव का अस्तित्व निरुपाधिक है। उसके उपाधि कर्म के उदय अथवा विलय से होती है, जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से जीव अज्ञानी कहलाता है, उसके क्षयोपशम से जीव मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी कहलाता है । स्थानांग में औदायिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक एवं सन्निपातिक इन छह भावों का उल्लेख है। इन भावों के आधार पर ही सांसारिक जीवों के व्यक्तित्व का निर्धारण होता है। औदयिक भाव से मनुष्य का बाहरी व्यक्तित्व निर्मित होता है। क्षायोपशमिक भाव से उसके आन्तरिक व्यक्तित्व का निर्माण होता है। आचार्य उमास्वाति ने पांच भावों को जीव का स्वतत्त्व या स्वरूप बतलाया 1. आयारो, 5/104 2. नंदी, सूत्र 70 3. ठाणं,6/124 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 जैन आगम में दर्शन है।' इन भावों के आधार पर जीव अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व का निर्माण करता है। पांच भाव जीवके व्यक्तित्व निर्धारण के पेरामीटर हैं। व्यक्तिक्यों है ? कैसा है ? इत्यादि प्रश्नों का समाधान इन भावों के आधार पर ही किया जा सकता है। भाव जीव की पहचान के मुख्य एवं महत्त्वपूर्ण घटक हैं। भावों के आधार पर प्राणी की भौतिक, मनोवैज्ञानिक, चैतसिक एवं आत्मिक अवस्थिति की व्याख्या की जा सकती है। उसके शरीर का आकार-प्रकार, बुद्धि की सामान्यता एवं विशिष्टता, संवेगों की बहुलता एवं न्यूनता आदि तथ्यों का संज्ञान पांच भावों के आधार पर करना दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण हो सकता है। ___ जीव उपयोग लक्षण वाला है। उवओगलक्खणे णं जीवे।' उपयोग, प्रवृत्ति के द्वारा जीवत्व की अभिव्यक्ति होती है। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार पराक्रम से युक्त जीव अपने आत्म-भाव (आत्म-प्रवृत्ति) से जीव-भाव (जीव होने) को प्रकट करता है। जीवस्वरूप से अमूर्त और चैतन्यमय है, किंतु प्रत्येक संसारी जीव शरीरधारी है। शरीरधारी होने के कारण वह मूर्त है, उसका चैतन्य अदृश्य है। वह क्रिया अथवा प्रवृत्ति के द्वारा दृश्य बनता है। जीव की पहचान ज्ञान से नहीं होती, ज्ञानपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति से होती है। जीव उत्थान, गमन, शयन आदि आत्मभावों के द्वारा अपने चैतन्य को अभिव्यक्त करता है। विशिष्ट उत्थान विशिष्ट चेतनापूर्वक होता है। यह चैतन्यपूर्वक होने वाली प्रवृत्ति ही जीव का लक्षण बनती है। जीव का लक्षण उपयोग बतलाया गया है। ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। ज्ञेय के अनुसार ज्ञान के पर्याय का परिवर्तन होता रहता है, इसलिए उपयोग-चेतना का व्यापार, जीव का लक्षण बनता है। प्रयत्न एवं उपयोग जीव और अजीव की भेदरेखा है। शक्ति के द्वारा जीव अपने जीवत्व को अभिव्यक्त करता है। मतिज्ञान की उपलब्धि ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से होती है किंतु मतिज्ञान की प्रवृत्ति के लिए नामकर्म का उदय एवं वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम की आवश्यकता है। शक्ति के बिना ज्ञान का भी उपयोग नहीं हो सकता। सांख्य दर्शन जीव में शक्ति नहीं मानता, उसके अनुसार शक्ति प्रकृति में पाई जाती है किंतु जैन दर्शन शक्ति जीव में मानता है। जीव में अनन्त ज्ञान एवं अनन्त दर्शन स्वभावत: है। किंतु उसका उपयोग वीर्यान्तराय कर्म के विलय से ही संभव है। जीव के व्यावहारिक लक्षण सजातीय-जन्म, वृद्धि, सजातीय-उत्पादन, क्षत-संरोहण और अनियमित तिर्यग्गति-ये जीव के व्यावहारिक लक्षण हैं। खाना, पीना, सोना, उठना, निद्रा, भय, प्रजनन, वृद्धि आदि ही व्यवहार जगत् में जीव की पहचान के साधन बनते हैं। बॉयोलॉजी में वृद्धि, 1. तत्त्वार्थसूत्र 2/1, औपशमिकक्षायिकभावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च । 2. अंगसुत्ताणि भाग-2 (भगवई) 2/137 3. वही,2/136,जीवेणंसउट्ठाणे सकम्मे सबलेसवीरिएसपुरिसक्कारपरक्कमे आयभावेणंजीवाभावं उवदंसेतीति। 4. भगवई (खण्ड-1) पृ. 294 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा चयापचय, प्रजनन और संवेदन ये कोशिका के लक्षण दिए गए हैं। इनको ही जीव- अजीव की भेदरेखा ज्ञापक तत्त्व माना जा सकता है। एक मशीन खा सकती है किंतु उसके शरीर में वृद्धि नहीं हो सकती । मशीन को चलाने के लिए पेट्रोल, ईंधन आदि दिए जाते हैं। उससे वह चलती तो रहती है किंतु उस आहार का सात्मीकरण वह नहीं कर सकती। जीव पदार्थ अपने आहार का ग्रहण, परिणमन एवं उत्सर्ग आहार पर्याप्ति के द्वारा कर लेता है।' यह सामर्थ्य जीव में ही है अजीव में नहीं है । सजीव पदार्थ ही अपने द्वारा गृहीत आहार का सात्मीकरण कर सकता है । यह सात्मीकरण की क्षमता जीव पदार्थ में ही है, अजीव में नहीं है अत: पर्याप्ति भी जीव का लक्षण है । यन्त्र में प्रजनन क्षमता नहीं है । वे अपने सजातीय से न तो उत्पन्न होते हैं और न ही सजातीय को पैदा करते हैं। इसके विपरीत जीव सजातीय से पैदा भी होता और सजातीय को पैदा भी करता है । भी यंत्र मनुष्यकृत नियमन के बिना इधर-उधर घूम नहीं सकता । तिर्यग् गति नहीं कर सकता । एक रेलगाड़ी पटरी पर दौड़ सकती है, हवाई जहाज आकाश में उड़ सकता है किंतु अपनी इच्छा से एक इंच भी इधर-उधर नहीं हो सकता, जबकि एक छोटी-सी चींटी भी अपनी इच्छा से गति करती है । यंत्र क्रिया का नियामक चेतनावान् प्राणी है । संसारी जीवों की पहचान के उपर्युक्त लक्षण जीव की पहचान के मुख्य साधन बनते हैं । जीव की पहचान एवं उसको अजीव से पृथक् करने के कुछ असाधारण लक्षण पंचास्तिकाय में उपलब्ध हैं 173 जादि पस्सदि सव्वं इच्छदि सुखं बिभेदि दुक्खादो । कुव्वदि हिदमहिदं वा भुंजदि जीवो फलं तेसिं ॥ ' जीव समस्त पदार्थों को जानता, देखता है। वह सुख की इच्छा करता है, दु:ख से भयभीत होता है। हितकारी एवं अहितकारी कार्य करता है, उनके फल भी वही भोगता है । ज्ञान, दर्शन, सुख की इच्छा, भय आदि जीव की पहचान के साधन हैं । आत्मा के अवयव जीव तत्त्व का सिद्धान्त अनेक दर्शनों में स्वीकृत है। जीव अंगुष्ठ परिमाण है, देह परिमाण है अथवा व्यापक है - यह विषय भी चर्चित है, किंतु उसके कितने परमाणु या प्रदेश हैं-यह विषय कहीं भी उपलब्ध नहीं है । अस्तिकाय को प्रदेशात्मक बतलाकर भगवान् महावीर ने उसके स्वरूप को एक नया आयाम दिया है। आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है । आत्मा के प्रदेश (परमाणु) होते हैं ' - यह भगवान् महावीर की मौलिक स्थापना है। पुद्गल अचेतन तत्त्व के भी परमाणु और आत्मा के भी परमाणु । पुद्गल और आत्मा के परमाणुओं में एक मौलिक जैन सिद्धान्त दीपिका, 3 / 11 1. 2. पंचास्तिकाय, गाथा 1 22 3. (क) ठाणं, 4/ 495, चत्तारि पएसग्गेणं तुल्ला पण्णत्ता, तं जहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए लोगागासे एगजीवे । (ख) नयचक्र, गाथा 1 21 णिच्छदो असंखदेसो हु से णेओ । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन अन्तर अवश्य है। पुद्गल के परमाणु पृथक्-पृथक् होते हैं किंतु आत्मा के परमाणुओं को विभक्त नहीं किया जा सकता। वे असंख्य परमाणु निरन्तर मिले हुए रहते हैं इसलिए उनका नाम प्रदेश है। आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि 174 “प्रदेश और परमाणु में परिमाणात्मक अन्तर नहीं। परिमाण में दोनों समान है। उनमें केवल संघातात्मक अन्तर है । . आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं/ असंख्य परमाणु हैं वे कभी पृथक् नहीं होते । हमेशा संघात रूप में रहते हैं, उनको परमाणु नहीं कहा गया, प्रदेश कहा गया। जितने स्थान का अवगाहन परमाणु करता है उतने स्थान का ही अवगाहन प्रदेश करता है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मा के असंख्य प्रदेश हैं अर्थात् असंख्य परमाणु हैं। इसका अर्थ है- आत्मा के अवयव हैं। आत्मा के ये अवयव हमेशा संघात रूप में ही रहते हैं । जैन दर्शन में अस्तित्व का अर्थ है - परमाणु या परमाणु-स्कन्ध । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय - ये चार परमाणु-स्कन्ध हैं। इनके प्रदेश कभी वियुक्त नहीं होते, इसलिए ये प्रदेश-स्कन्ध कहलाते हैं । पुद्गलास्तिकाय के परमाणु संयुक्त और वियुक्त दोनों अवस्थाओं में होते हैं, इसलिए उसमें परमाणु और परमाणुस्कन्ध दोनों अवस्थाएं मिलती हैं। पांच अस्तिकायों में एक जीवास्तिकाय के प्रदेश -स्कन्ध चैतन्यमय है । शेष के प्रदेश - स्कन्ध एवं परमाणु चैतन्यरहित हैं, अजीव हैं। " जीवास्तिकाय और जीव जैन दर्शन के अनुसार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव-ये पांच अस्तिकाय हैं । ' प्रश्न उपस्थित होता है कि जीवास्तिकाय और जीव में क्या अन्तर है ? सामान्यतः जीव और जीवास्तिकाय को एकार्थक माना जाता है । भगवती के बीसवें शतक में जीव और जीवास्तिकाय को एक माना गया है । ' किंतु इसी आगम के दूसरे शतक में प्रदत्त जीव एवं जीवास्तिकाय की भिन्नता मननीय है । जीव अनन्त हैं। उन अनन्त जीवों के समुदय का नाम जीवास्तिकाय है । एक जीव जीवास्तिकाय नहीं कहलाता तथा एक कम जीव वाले जीवास्तिकाय को जीवास्तिकाय नहीं कहा जाता। सभी जीवों का समुदय जीवास्तिकाय है । ' जीव जीवास्तिकाय का एक देश है ।' प्रत्येक जीव असंख्यात प्रदेशात्मक है जबकि जीवास्तिकाय के प्रदेश अनन्त बतलाए गए हैं।' यह अनन्त जीवों की अपेक्षा से है अर्थात् जीव संख्या की दृष्टि से अनन्त है तथा प्रत्येक जीव जीवास्तिकाय का एक प्रदेश माना गया है । अतः जीवास्तिकाय के अनन्त प्रदेश हो जाते हैं। यद्यपि उत्तरवर्ती काल में जीव का ही जीवास्तिकाय 1. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन और अनेकान्त, पृ. 87 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 2/124 3. वही, 20 / 17, 4. वही, 2 / 135 . जीवे इ वा, जीवत्थिकाए इ वा । 5. भगवतीवृत्ति 2 / 135, उपयोगगुणो जीवास्तिकाय: प्राग्दर्शितः, अथ तदंशभूतो जीवः । 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 2 / 135, तिण्हं पि पदेसा अणंता भाणियव्वा । . आगासत्थिकाय जीवत्थिकाय-पोग्गलत्थिकाया विएवं चेव, नवरं Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा 175 के रूप में ग्रहण होता रहा है। जब जीव को जीवास्तिकाय कहेंगे तो उसके प्रदेश असंख्य होंगे। उनको अनन्त नहीं कहा जा सकता। अनन्त प्रदेश की संगति सम्पूर्ण जीवों के समूह को जीवास्तिकाय कहने से ही हो सकती है। जीवकी देहपरिमितता भारतीय दर्शन अध्यात्म-प्रधान दर्शन है। उसने एक अभौतिक, अलौकिक तत्त्व के विषय में चिन्तन किया। उसके चिन्तन के आलोक में आत्म-तत्त्व उद्भासित हुआ। आत्म तत्त्व की स्वीकृति के साथ ही एक प्रश्न उभरा कि इस आत्म-तत्त्व का निवास स्थान कहां हैं? आत्मा की स्वीकृति के साथ ही आत्म-तत्त्व के परिमाण के संदर्भ में दार्शनिकों ने विचार किया है। आत्मा के परिमाण के संदर्भ में तीन प्रकार की अवधारणाएं उपलब्ध हैं 1. जघन्य परिमाण (अणुरूप) 2. मध्यम परिमाण (अंगुष्ठ, विलस्त, देह परिमाण आदि) 3. उत्कृष्ट परिमाण (व्यापक)। जैनेतरर्दशन की अवधारणा उपनिषद्-साहित्य में आत्म के परिमाण के संदर्भ में तीनों प्रकार की विचारणा प्राप्त हैं। मैत्री उपनिषद् में आत्मा को अणु से भी अणु माना गया है। बृहदारण्यक में आत्मा को जौ या चावल के दाने जितना माना गया है। कठोपनिषद् में आत्मा को अंगुष्ठ परिमाण कहा है।' कुछ की मान्यता के अनुसार आत्मा प्रादेश (वितस्ति) परिमाण है।' कौषीतकी उपनिषद् के अनुसार जैसे तलवार अपनीम्यान में और अग्नि अपने कुंड में व्याप्त है उसी तरह आत्मा शरीर में नख सेलेकर शिखा तक व्याप्त है। मुण्डकोपनिषद् में आत्मा के सर्वव्यापकत्व का उल्लेख है।' जब आत्मा को अवर्ण्य माना जाने लगा तब आत्मा को अणु से अणु ओर महान् से महान् भी कहा जाने लगा। न्याय-वैशेषिक' आदि सभी वैदिक दर्शनों ने आत्मा को व्यापक माना है। शंकर को 1. अनुयोगद्वार चूर्णि, पृ. 29 2. मैत्र्युपनिषद्, 6/38 3. बृहदारण्यक, (मद्रास, 1979)5/6/1,मनोमयोऽयं पुरुषोभा: सत्यस्तस्मिन्नन्तर्हृदयेयथाव्रीहिर्वायवोवा। 4. कठोपनिषद्, 2/2/12 5. छान्दोग्योपनिषद्, (अनु. स्वामी गम्भीरानन्द, कलकत्ता, 1992) 5/18/1 यस्त्वेतमेवं प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानं 6. कौषीतकी उपनिषद्, 35/4/20, एष प्रज्ञात्मा इदं शरीरमनुप्रविष्टः । 1. मुण्डकोपनिषद्, (गोरखपुर, सं. 2014) 1/1/6, नित्यं विभु सर्वगतं सुसूक्ष्म ....... | 8. श्वेताश्वतर, 3/20, अणोरणीयांन्महतो महीयानात्मा गुहायां निहितोऽस्य जन्तोः। 9. तर्कसंग्रह, पृ. 10, जीवस्तु प्रतिशरीरं भिन्नो विभुर्नित्यश्च । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 छोड़कर रामानुज आदि ब्रह्मसूत्र के भाष्यकारों ने ब्रह्मात्मा को व्यापक एवं जीवात्मा को परिमाण माना है । चार्वाक ने चैतन्य को देहपरिमाण माना है और बौद्धों ने भी पुद्गल को देहपरिमाण स्वीकार किया है, ऐसी कल्पना की जा सकती है।' जैन आगम में दर्शन जैनदर्शन की स्वीकृति - जैन दर्शन के अनुसार जीव के दो प्रकार हैं- सिद्ध और संसारी । सिद्ध कर्म मुक्त होते हैं। उस अवस्था में उनका स्व-स्वरूप में अवस्थान होता है । आत्मा के स्वाभाविक गुणकेवलज्ञान, केवलदर्शन, असंवेदन, आत्म- रमण, अटल- अवगाहना, अमूर्ति, अगुरुलघु एवं निरन्तराय- ये आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। अटल- अवगाहना अर्थात् उनके आत्म-प्रदेशों में अब किसी भी प्रकार का संकोच - विकोच नहीं होगा। वे जिस रूप में स्थित हुए हैं, अनन्तकाल तक उसी रूप में स्थित रहेंगे। यद्यपि जैनदर्शन यह मानता है कि मुक्त होने वाले जन्म में जीव का जितना बड़ा शरीर होता है, उसके दो-तिहाई भाग के आकार में मुक्तावस्था में आत्मा के प्रदेश अवस्थित होंगे। शरीर के पोल का जो भाग है वह कम हो जाता है। मुक्तावस्था से पूर्व जन्म तक कार्मण शरीर रहता है अतः आत्म प्रदेशों में संकोच - विकोच होता रहता है। चूंकि अब सिद्धावस्था में उस कारण का विनाश हो गया है अतः आत्म-प्रदेशों में संकोच - विस्तार नहीं होगा । संसारी आत्मा शरीर युक्त ही होती है । उसे जैसा शरीर प्राप्त होता है । उसी के अनुसार आत्म प्रदेशों का फैलाव हो जाता है, इसी अवधारणा के संदर्भ में जैन दर्शन ने आत्मा को अणु, विभु परिमाण से रहित मध्यम (शरीर) परिमाणवाला स्वीकार किया है। जीव असंख्य प्रदेशी है अत: व्यास होने की क्षमता की दृष्टि से लोक के समान विराट् है । केवली समुद्घात के समय आत्मा एक समय के लिए व्यापक बन भी जाती है ।' प्रदेश संख्या की दृष्टि से धर्म, अधर्म, लोकाकाश तथा एक जीव समतुल्य हैं।' किंतु अवगाह की अपेक्षा से ये समान नहीं हैं। धर्मास्तिकाय आदि पूरे लोक में व्यास हैं । ये तीनों द्रव्य गतिशून्य एवं निष्क्रिय हैं। इनमें ग्रहण, उत्सर्जन आदि नहीं होते हैं। इनमें किसी प्रकार की प्रतिक्रिया भी नहीं होती इसलिए इनके परिमाण में कोई परिवर्तन नहीं होता । संसारी जीवों में पुद्गल का ग्रहण होता है । उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है अत: उनका परिमाण सदा एक सरीखा नहीं रहता । उसमें संकोच 1. मालवणिया, दलसुख, आत्म-मीमांसा, (बनारस, 1953) पृ. 45 2. ठाणं, 8/114 3. वही, 4/495 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्ममीमांसा विकोच होता रहता है। कार्मण शरीर युक्त आत्मा में संकोच - विकोच होता है। छोटे-बड़े सभी प्राणियों में जीव एक जैसा ही होता है। हाथी एवं चींटी के शरीर में अन्तर है किंतु उनमें जीव समान ही है ।' संसारावस्था में जीव को जैसा शरीर प्राप्त होता है वह उसके अनुसार ही अपना संकोच - विस्तार कर लेता है । भगवती में इसको दीपक के उदाहरण से समझाया गया है । दीपक को बड़े कमरे में रखेगें तो उसका प्रकाश उसमें फैल जाएगा । ढक्कन आदि छोटे स्थान में रखेंगे तो वह उतने ही प्रदेश को प्रकाशित करेगा। वैसे ही जीव को जैसा शरीर प्राप्त होगा वह उतने में ही अपना फैलाव कर सकेगा ।' भगवती के उपर्युक्त वर्णन से भी आत्मा की देहपरिमितता सिद्ध होती है । नयचक्र में भी समुद्घात के समय को छोड़कर आत्मा को शरीर प्रमाण ही कहा है ।' आत्मा के व्यापकत्व की स्थिति कादाचित्क घटना है मूलतः आत्मा शरीर-परिमाण ही है । जो दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं उनके मत में भी संसारी आत्मा के ज्ञान, सुखदु:ख इत्यादि गुण शरीर मर्यादित क्षेत्र में ही आत्मा को अनुभूत होते हैं, शरीर के बाह्य क्षेत्र में स्थित आत्म-प्रदेशों से उनका अनुभव नहीं होता । नैयायिक विद्वान् श्रीधर ने न्यायकंदली में कहा है “सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वम्, नान्यत्र, शरीरस्योपभोगायतनत्वात्, अन्यथा तस्य वैयर्थ्यादिति ॥ "4 - 4. स्याद्वादमंजरी, पृष्ठ- 68 पर उधृत 5. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, कारिका, 9 - इस प्रकार संसारी आत्मा को व्यापक माना जाए अथवा शरीर-व्यापी, संसार का भोग तो शरीर - व्यापी आत्मा ही करती है । जिस पदार्थ के गुण जहां उपलब्ध होते हैं वह पदार्थ वहीं होता है। आत्मा के ज्ञान आदि गुण शरीर में उपलब्ध हैं अत: आत्मा शरीर-व्यापी है, सर्वव्यापक नहीं है।' आगम उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा इस तथ्य को परिपुष्ट किया है। इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने एक स्वर से आत्मा के देह परिमाणत्व को स्वीकृत किया है। 177 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 7 / 158, हंता गोयमा ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे । 2. वही, 7/159, . एवामेव गोयमा ! जीवे वि जं जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्धं बोंदिं निव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपदेसेहिं स चेत्तीकरेइ खुड्डियं वा महालियं वा । 3. नयचक्र, गाथा 1 :: 1, गुरुलघुदेहपमाणो अत्ता चत्ता हु सत्तसमुघायं । ववहारा णिच्छदो असंखदेसो हु से णेओ ।। यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवत् निष्प्रतिपक्षमेतत् । तथापि देहाद् बहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहताः पठन्ति ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 जैन आगम में दर्शन आत्मा दर्शन जगत् के विचार का मुख्य केन्द्र रहा है। अब विज्ञान भी उस दिशा में प्रस्थान करने का प्रयत्न कर रहा है। वैज्ञानिक मानने लगे हैं कि मस्तिष्क को संचालित करने वाली कोई अन्यशक्ति है। परामनोविज्ञान एवं मनोविज्ञान तो इस दिशा में पहले से ही गतिशील है। आत्मा की विचारणा स्वअस्तित्व की विचारणा है। जब व्यक्ति अपने स्वाभाविक अस्तित्व के प्रति जागरूक बनता हैतबस्वत: ही अनेक अकरणीय कृत्यों से विमुख होजाताहै। वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय अनेक समस्याओं का समाधान आत्म-विचारणा के परिप्रेक्ष्य में खोजा जा सकता है। आत्मा अपने मूलरूप में शुद्ध है किंतु संसारावस्था में वह कर्मों के बंधन से बंधी हुई है। कर्म के कारण ही उसका संसार में भ्रमण हो रहा है। अध्यात्म का उद्देश्य है आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति । कर्मों के क्षय से ही वह प्राप्त हो सकता है। कर्म क्षय की प्रक्रिया को हस्तगत करने के लिए कर्म का विभिन्न कोणों से अवबोध भी आवश्यक है। आत्मवाद के पश्चात् अब हम अग्रिम अध्याय में कर्मवाद की व्याख्या करेंगे। 000 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा दार्शनिक चिंतन का एक प्रमुख पक्ष है-कारण-कार्य सम्बन्ध का विचार । विज्ञान भी कारण-कार्य सम्बन्ध पर विचार करता है किंतु उसकी सीमा है। विज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण को ही काम लेता है। आस्तिक-नास्तिक का शब्दार्थ : कर्मसिद्धान्त का महत्त्व भारतीय चिंतन में दो शब्द बहु-प्रचलित हैं-आस्तिक और नास्तिक । पाणिनी ने इन दो शब्दों की व्युत्पत्ति करते समय यह पक्ष प्रस्तुत किया कि जो दिष्ट अर्थात् कर्म तथा कर्मफल में विश्वास करता है वह आस्तिक है और जो दिष्ट में विश्वास नहीं करता वह नास्तिक है।' पाणिनी द्वारा दी गई आस्तिक-नास्तिक की व्याख्या से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि केवल आगमगम्य प्रमेयों में कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध का सिद्धान्त मुख्य है। भारतीय दर्शनों में अधिकतर दर्शन आगम-प्रामाण्यवादी हैं। चार्वाक के अतिरिक्त सभी दर्शन कर्म और कर्मफल के सम्बन्ध तथा उससे जुड़े हुए पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। कर्मसिद्धान्त का आधार : आगम प्रामाण्य दर्शन, विशेषकर भारतीय दर्शन प्रत्यक्ष एवं अनुमान के अतिरिक्त एक तीसरे प्रमाण को भी मान्यता देते हैं। वह प्रमाण है-आगम-प्रमाण । आगम प्रमाण को मान्यता देने के पीछे यह मान्यता काम कर रही है कि कुछ ऐसे प्रमेय भी हैं जो प्रत्यक्ष अथवा अनुमान प्रमाण का विषय नहीं बन पाते। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने प्रमेयों को दो भागों में बांटा है 1. हेतु-गम्य प्रमेय, 2. आगम-गम्य प्रमेय। कर्म और कर्मफल के बीच का सम्बन्ध प्रत्यक्ष अथवा अनुमान गम्य नहीं है। उसे आगमसे ही जाना जा सकता है। इसीलिए प्रकारान्तरसे कर्म और कर्मफल के बीच के सम्बन्ध को मानने का अर्थ हो जाता है-आगम प्रमाण को मानना। भारतीय दर्शन में दो मत प्रचलित हैं- प्रमाण-संप्लव और प्रमाण-व्यवस्था।' प्रमाण 1. अष्टाध्यायीसूत्रपाठ (संपा. पं. ब्रह्मदत्तजिज्ञासु, बहालगढ़, 1989) 4/4/60 अस्तिनास्तिदिष्टं मति: 2. सन्मति प्रकरण (अनु. पं. सुखलाल संघवी, अहमदाबाद, 1932) 3/45 3. न्यायमञ्जरी, (ले. जयन्सभट्ट, मैसूर, 1970), Vol. I, पृ. 87, 88 प्रायेण प्रमाणानि प्रमेयमभिसंप्लवन्ते, क्वचित् व्यवतिष्ठन्ते अपि। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 जैन आगम में दर्शन संप्लववादी मानते हैं कि जिस प्रमेय को एक प्रमाण द्वारा जाना जा सकता है उसी प्रमेय को दूसरे प्रमाण के द्वारा भी जाना जा सकता है। इसके विपरीत प्रमाण-व्यवस्थावादी मानते हैं कि प्रत्येक प्रमाण का स्वतंत्र विषय है। जिस प्रमेय को आगम द्वारा जाना जा सकता है उसे प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा नहीं जाना जा सकता। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर का भी यही मत प्रतीत होता है क्योंकि उन्होंने कहा है कि हेतुगम्य को हेतु द्वारा और आगमगम्य को आगम द्वारा जानने का प्रयत्न जैन सम्मत है और इसके विरुद्ध मानना जैन सिद्धान्त के प्रतिकूल है।' सायण ने भी कहा है कि हम वेद अर्थात् आगम द्वारा उन प्रमेयों को जानते हैं जिन्हें प्रत्यक्ष या अनुमान के द्वारा नहीं जाना जा सकता। इस संदर्भ में इतना विषेश ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में आगम का प्रामाण्य विशिष्ट ज्ञान पर आधारित है। न्याय-परम्परा में इसे योगज प्रत्यक्ष कहा जाता है। अभिप्राय यह है कि हम जिन प्रमेयों को आगम द्वारा जानते हैं उन प्रमेयों को ही केवली अथवा योगी पारमार्थिक प्रत्यक्ष द्वारा जानता है। इसीलिए उनके वचन आप्त-पुरुष के वचन होने के कारण प्रमाण बन जाते हैं। पुनर्जन्म जैसा इन्द्रियातीत विषय भले ही आगम-गम्य हो किंतु जिन्हें अपने पूर्वभव का स्मरण होता है, उनके लिए तो वह विषय स्वानुभवगम्य ही है। जिनकी आगमप्रमाण में श्रद्धा नहीं है वे भी पूर्वभव का स्मरण रखने वाले व्यक्तियों के उदाहरण से पुनर्भव के सिद्धान्त तथा उससे जुड़े हुए कर्म सिद्धान्त को जान सकते हैं किंतु अभी पूर्वभव स्मृति के उदाहरणों को पूर्ण वैज्ञानिक मान्यता प्राप्त नहीं हुई है अत: जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक तो आगम प्रमाण ही इस विषय में हमारे लिए मुख्य स्रोत बना रहेगा। इस दृष्टि से यह जानना महत्त्वपूर्ण होगा कि जैन आगमों में कर्म सिद्धान्त के सम्बन्ध में क्या कहा गया है ? विविधता का मूल कर्म मूल समस्या प्राणी और प्राणी के बीच दिखाई देने वाली विभिन्नता का कारण ढूंढने की है। यह विभिन्नता प्रत्यक्ष गोचर है-कोई सुखी है, कोई दु:खी है, कोई जीव चींटी की योनि में है कोई हाथी की, कोई मन्दमति है और प्रखरबुद्धि, कोई लब्धप्रतिष्ठ है कोई अपयश 1. सन्मतितर्क प्रकरण 3/45 जो हेउवायपक्खम्मि हेउओ आगमे य आगमिओ। सो ससमयपण्णवओ सिद्धंतविराहओ अन्नो। 2. ऋग्वेद संहिता, सायणभाष्य उपोद्घात, पृ. 26 पर उद्धृत प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुद्ध्यते। एनं विदन्ति वेदेन, तस्माद् वेदस्य वेदता।। 3. मूलाचार 5/80, सुत्तं गणहरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धकथिदं च। सुदकेवलिणाकथिदं अभिण्णदसपूव्वकथिदं च ।। 4. प्रत्यक्ष खण्ड कारिका 63, अलौकिकस्तु व्यापारस्त्रिविधः परिकीर्तितः। सामान्यलक्षणो ज्ञानलक्षणो योगजस्तथा।। 5. ईआन स्टीवेंसनकत शोध के उदाहरण द्रष्टव्य हैं। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 181 का भागी। ये सब विभिन्नताएं प्रत्यक्ष हैं। दार्शनिक इन विभिन्नताओं का कारण खोजते रहे हैं। श्वेताश्वतरोपनिषद् में सुख-दु:ख के हेतु की गवेषणा के अन्तर्गत अनेक कारणों का उल्लेख हुआ है।' इस सम्बन्ध में दार्शनिकों में मतैक्य नहीं है। कुछ दार्शनिक काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पुरुष आदि को विभिन्नता का हेतु मानते हैं। इस मतभेद के होने पर भी भारतीय चिन्तक एक निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि इस विविधता का कारण स्वयं जीव द्वारा किया गया कर्म है। कठोपनिषद् में कहा गया कि विभिन्न प्रकार की योनियां कर्म एवं ज्ञान के द्वारा ही प्राप्त होती है।' बौद्ध दर्शन भी लोक वैचित्र्य का हेतु कर्म को मानता है। जैन दर्शन में विविधता का हेतु जैन दर्शन में भी प्राणियों तथा उनकी पारस्परिक विविधता का हेतु कर्म को स्वीकार किया गया है। आचारांग सूत्र में स्पष्ट निर्देश प्राप्त है कि उपाधि कर्म से होती है।' उपाधि का अर्थ है-- व्यवहार, व्यपदेश या विशेषण | व्यवहार अर्थात् भिन्नता कर्म जनित है। सुखी-दु:खी, सवीर्य-निर्वीर्य आदि सारे व्यपदेश कर्म से सम्बद्ध हैं। कर्ममुक्त आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता।' कर्ममुक्त आत्मा के लिए नाम और गोत्र का व्यपदेश नहीं होता। कर्म के क्षीण हो जाने से पुरुष अकर्मा हो जाता है। अकर्मा के लिए यह नैरयिक है, तिर्यग्योनिक है, मनुष्य है अथवा देव है। यह बाल है, कुमार है, अमुक गोत्र वाला है इत्यादि व्यपदेश नहीं होते हैं। सारी विविधता कर्मकृत है। भगवती में कहा गया है कि जीव कर्म के द्वारा ही विभक्तिभाव अर्थात् विविधता को प्राप्त करता है। कर्म अतिरिक्त अन्य तत्त्व विविधता का हेतु नहीं है।' विविधता के पांच हेतु यद्यपि उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों ने काल, स्वभाव, नियति, कर्म एवं पुरुषार्थ इनके समवाय को जगत वैविध्य का कारण माना है। आचार्य सिद्धसेन ने कहा है कि काल, स्वभाव, नियति, पूर्वकर्म और पुरुषार्थ परस्पर निरपेक्ष रूप में कार्य की व्याख्या करने में अयथार्थ बन 1. श्वेताश्वतरोपनिषद् ।/2 काल: स्वभावनियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्याः । संयोग एषा न त्वात्मभावादात्माप्यनिश: सुखदु:खहेतोः॥ 2. इन विविध वादों के विस्तार के लिए देखें-Bhargava D. Jaina Ethics, Ist Chapter, (Delhi, 1968) 3. काठकोपनिषद् 2/2/7 योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः। स्थाणुमन्ये तु संयान्ति यथाकर्म यथाश्रूतम् ।। 4. अभिधर्मकोश (ले. आचार्य वसुबन्धु, इलाहाबाद, 1958) 4/1 कर्मजं लोकवैचित्र्यम्। 5. आयारो, 3,19 आचारांग भाष्यम् 3/19 1. आयारो. 3/18 अकम्मस्स ववहारो न विज्जइ। 8. आचारांगभाध्यम् 318 9. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 12/120 कम्मओ णं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 जैन आगम में दर्शन जाते हैं, जबकि यही सिद्धान्त परस्पर सापेक्ष होकर कार्य की व्याख्या करने में सफल हो जाता है।' जैन कर्मसिद्धान्त में काल, स्वभाव आदि वादों को समन्वित करने का प्रयास किया गया है। जैन कर्म सिद्धान्त के परिप्रेक्ष्य में कालवाद का स्थान कर्म के विपाक काल के रूप में है, क्योंकि प्रत्येक कर्म की विपाक की दृष्टि से एक निश्चित कालमर्यादा होती है और अपने विपाक-काल में ही कर्मों में फल प्रदान करने की शक्ति होती है। प्रत्येक कर्म का अपना नियत स्वभाव होता है और उसके अनुसार वे अपना फल देते हैं। किसी कर्म का फल सुखद होता है तो किसी का दु:खद। जैन दर्शन की यह भी मान्यता है कि निकाचित कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है। यदि किसी कर्म का फल वर्तमान समय में नहीं मिलता है तो उसके लिए भावी जन्मलेना पड़ता है। इस रूप में कर्मसिद्धान्त में व्यक्ति स्वयं ही अपना निर्माता, नियन्ता और स्वामी है तथा दलिक कर्मों को तपस्या द्वारा नष्ट भी किया जा सकता है इसलिए पुरुषार्थ का भी महत्त्व है। जैन दर्शन कर्म को सर्वेसर्वा नहीं मानता। कार्य की निष्पत्ति में उसका भी महत्त्वपूर्ण योग है किंतु अन्य काल आदि समवाय भी कार्य निष्पत्ति में हेतुभूत बनते हैं। जगत के वैविध्य में कर्म प्रधान तत्त्व है। आचारांग एवं भगवती के उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है। वहां कर्म को ही विविधता का हेतु कहा गया है। किंतु जैनदर्शन का प्रत्येक वक्तव्य नय सापेक्ष है। प्रस्तुत प्रसंग में भी अनेकान्तिक दृष्टिकोण की उपेक्षा नहीं की जा सकती। आचारांग एवं भगवती में जीव की विविधता का हेतु कर्म को माना गया है। इसका तात्पर्य यही है कि जगत की विविधता का प्रधान कारण कर्म है अन्य उसके सहयोगी हैं । इस विवेचना से पूर्ववर्ती एवं उत्तरवर्ती अवधारणाओं में सामंजस्य हो जाता है। जीव एवं कर्म का सम्बन्ध जीव और जड़ के सम्बन्ध की समस्या भारतीय एवं पाश्चात्य दार्शनिकों की चिन्ता का विषय रही है। सभी दार्शनिकों ने इस समस्या को समाहित करने का प्रयत्न किया है। विश्वव्यवस्था के संदर्भ में दो प्रकार की विचार धाराओं का प्रस्फुटन हुआ-द्वैतवादी और अद्वैतवादी। अद्वैतवादियों ने एक तत्त्व के आधार पर विश्व व्यवस्था की। द्वैतवाद ने दो तत्त्वों को विश्व-व्यवस्था का नियामक माना। अद्वैतवाद में भूताद्वैत तथा चैतन्याद्वैत प्रसिद्ध है। इन दो धाराओं के फलस्वरूप हमें जीव और जड़ के सम्बन्ध में चार अवधारणाएं प्राप्त होती हैं 1. सन्मतितर्कप्रकरण 3/53 कालो सहाव णियई पुव्वकयं पुरिस कारणेगंता। मिच्छत्तं ते चेवा समासओ होति सम्मत्तं ।। 2. (क) छान्दोग्योपनिषद् । 4/1सर्वं खल्विदं ब्रह्म (ख) काठकोपनिषद् 2/1/11 नेह नानास्ति किंचन 3. ठाणं 2/| जदत्थि णं लोगे तं सव्वं दुपओआरं, तंजहा-जीवच्चेव अजीवच्चेव। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 183 1. चेतन है, जड़ का अस्तित्व ही नहीं है। यह ब्रह्मवाद है। 2. जड़ है, जड़ से भिन्न चेतन का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। यह भूतवाद है। 3. जड़ और चेतन दोनों स्वतंत्र पदार्थ हैं किंतु उनमें परस्पर सम्बन्ध नहीं होता। यह सांख्यमत है। 4. जड़ और चेतन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है तथा उनमें परस्पर सम्बन्ध भी होता है। यह द्वैतवाद है। ब्रह्मवाद ___ प्रथम अवधारणा अद्वैत वेदान्त से जुड़ी हुई है। अद्वैतवाद के सामने दो विसदृश पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध कैसे हुआ? यह समस्या नहीं थी क्योंकि उनके अनुसार जगत एक तत्त्व से ही निर्मित है । यद्यपि ब्रह्म (चेतन) से जड़ अथवा जड़ से चेतन की उत्पत्ति कैसे हुई ? यह समस्या तो उनके सामने भी थी किंतु विसदृश पदार्थों के परस्पर सम्बन्ध की समस्या उनके सम्मुख नहीं थी। जहां तक वेदान्त का सम्बन्ध है उसने विविधता को सम्बन्धजन्य न मानकर मायाजन्य माना अर्थात् उसके मत में विविधता पारमार्थिक नहीं है अपितु उसकी केवल प्रतीतिमात्र होती है। भूतवाद द्वितीय अवधारणा के स्वीकर्ता चार्वाक हैं। उनके अनुसार जड़ से ही चेतन की उत्पत्ति हो गई है। जड़ भिन्न चेतन पदार्थ का स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। इनको भी दो विसदृश पदार्थों में पारस्परिक सम्बन्ध की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। उसके अनुसार जड़ पदार्थ ही एक क्रमविशेष में तथा तारतम्य विशेष में व्यवस्थित होने पर चैतन्य को जन्म दे देते हैं। द्वैतवाद अद्वैतवादी वेदान्त अथवा जड़वादी चार्वाक के सामने दो विजातीय पदार्थों के सम्बन्ध की समस्या नहीं थी। इस समस्या से द्वैतवादियों को ही जूझना पड़ा।ये द्वैतवादी तीन प्रस्थानों में विभक्त हैं--(1) सांख्य, (2) न्याय-वैशेषिक, (3) जैन। सांख्यमत सांख्य प्रकृति और पुरुष - इन दो तत्त्वों को स्वीकार करता है।' दोनों परस्पर विजातीय हैं, एक जड़ है, एक चेतन है। सांख्य के अनुसार पुरुष अपरिणामी है। उसमें किसी भी प्रकार का परिवर्तन संभव ही नहीं है। परिणमन प्रकृति का स्वभाव है, उसमें परिणमन होता रहता है। पुरुष और प्रकृति का परस्पर सम्बन्ध ही नहीं होता। सांख्य के अनुसार बंध 1. सांख्यकारिका, श्लोक 3 2. पातञ्जलयोगदर्शनम् 4/33 वृत्ति, तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य, परिणामी नित्यता गुणानाम Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन एवं मोक्ष पुरुष के नहीं होते हैं। प्रकृति ही बंधती है और वही मुक्त होती है।' सांख्य ने विसदृश पदार्थों का सम्बन्ध करवाए बिना ही संसार की व्याख्या की । न्यायमत 184 नैयायिक-वैशेषिक एवं जैन दर्शन ने जीव और जड़ में परस्पर सम्बन्ध को स्वीकार किया है किंतु इसका समाधान दोनों ने भिन्न प्रकार से दिया है। नैयायिक-वैशेषिक दर्शन ने आत्मा और परमाणु में सम्बन्ध स्वीकार किया है। उनके अनुसार उन दो विसदृश पदार्थों में स्वतः सम्बन्ध नहीं होता किंतु ईश्वर उन दोनों का परस्पर सम्बन्ध करवाता है। अतएव वे निमित्त कारण के रूप में ईश्वर को जगत का कर्ता मानते हैं। उन्हें दो विजातीय तत्त्वों में सम्बन्ध करवाने के लिए एक विशिष्ट ईश्वरीय शक्ति को स्वीकृति देनी पड़ी। जैनमत जैन दर्शन द्वैतवाद का पक्षधर है। उसके अनुसार जीव और पुद्गल दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है । ' जीव चेतन है और पुद्गल अचेतन है । चेतन कभी अचेतन नहीं बनता, अचेतन कभी चेतन नहीं बनता । अस्तित्व की त्रैकालिक स्वतंत्रता होने पर भी उनमें परस्पर सम्बन्ध हो सकता है। यह जैनदर्शन की मान्यता है । भगवती सूत्र में जीव और पुद्गल के पारस्परिक सम्बन्ध पर महत्त्वपूर्ण चिंतन हुआ है । वैसा चिंतन कर्म सिद्धान्त के आगम से उत्तरवर्ती ग्रंथों में तो उपलब्ध है ही नहीं किंतु भगवती इतर अन्य आगमों में भी वैसा निरूपण प्राप्त नहीं है । गौतम ने जिज्ञासा की - भंते! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्यबद्ध, अन्योन्यस्पृष्ट, अन्योन्य-अवगाढ, अन्योन्य- स्नेह प्रतिबद्ध और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं? भगवान् ने इस जिज्ञासा का समाधान हाँ में दिया । 3 सम्बन्ध : भौतिक या अभौतिक जीव और पुद्गल का सम्बन्ध भौतिक होता है या अभौतिक यह एक प्रश्न है । संसारी अवस्था में जीव सर्वथा अभौतिक नहीं होता, इसलिए जीव और पुद्गल के सम्बन्ध को भौतिक माना जा सकता है। भगवती सूत्र के अनुसार यह सम्बन्ध केवल जीव या पुद्गल की ओर से ही नहीं होता किंतु दोनों ओर से होता है, इसकी अवगति हमें 'स्नेह प्रतिबद्ध' शब्द से मिलती है। आश्रव जीव का स्नेह है तथा आकर्षित होने की अर्हता पुद्गल का स्नेह है। स्नेह का सम्बन्ध जीव और पुद्गल दोनों से है। उसके आधार पर सम्बन्ध की व्याख्या 1. सांख्यकारिका, श्लोक 62, तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ 2. ठाणं 2 / 1 3. अंगसुत्ताणि 2, ( भगवई) 1 / 312 अत्थि णं भंते! जीवा य पोग्गला य अण्णमण्णबद्रा, अण्णमण्णपुद्रा, अण्णमण्णमोगाढ़ा, अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धा, अण्णमण्णवडत्ताए चिह्नंति ? हंता अन्थि ।। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा सरल हो जाती है ।' आचार्य अमृतचन्द्र ने जीव के स्निग्ध परिणाम का उल्लेख तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति में किया है ।' जीव और पुद्गल का सम्बन्ध शरीर धारण, आहार ग्रहण, कर्मबंध, कर्मविपाक आदि अनेक रूपों में होता है । 185 नद का उदाहरण आगम साहित्य की यह शैलीगत विशेषता रही है कि वे तत्त्व प्रतिपादन में तर्क का अवलम्बन तो नहीं के बराबर लेते हैं किंतु प्रसंगप्राप्त विषय को व्यावहारिक उदाहरण से स्पष्ट करके पाठक की जिज्ञासा को शांत करने का प्रयत्न करते हैं । जीव और पुद्गल के सम्बन्ध के प्रसंग में भी भगवती में 'नद' का उदाहरण दिया गया है । भगवान् महावीर गौतम की जिज्ञासा का समाधान 'नद' के उदाहरण से प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- “जैसे कोई ग्रह जल से पूर्ण, परिपूर्ण प्रमाण वाला, छलकता हुआ, हिलोरें लेता हुआ चारों ओर से जल-जलाकार हो रहा है । कोई व्यक्ति उस द्रह में एक बहुत बड़ी सैंकड़ों छिद्रों वाली नौका को उतारे। गौतम ! वह नौका उन आश्रवद्वारों के द्वारा जल से भरती हुई, पूर्ण परिपूर्ण प्रमाण वाली, छलकती हुई, हिलोरें लेती हुई चारों ओर से जल जलाकर हो जाती है ? गौतम- हां, हो जाती है । गौतम ! इस अपेक्षा से कहा जा रहा है - जीव और पुद्गल अन्योन्य-बद्ध, अन्योन्यस्पृष्ट, अन्योन्य अवगाढ, अन्योन्य- स्नेह प्रतिबद्ध और अन्योन्य- एकीभूत बने हुए हैं । ' भगवती के इस वक्तव्य से स्पष्ट हो जाता है कि जीव और कर्म परस्पर एकीभूत बने हुए हैं। जीव और पुद्गल का सादृश्य संसारावस्था में जीव और पुद्गल का कथंचिद् सादृश्य होता है अत: उनका सम्बन्ध होना असम्भव नहीं है । संसारी आत्मा सूक्ष्म और स्थूल- इन दो प्रकार के शरीरों से आवेष्टित है । एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय स्थूल शरीर छूट जाता है, सूक्ष्म शरीर नहीं छूटता । सूक्ष्म शरीरधारी जीव ही दूसरा शरीर धारण करते हैं, इसलिए अमूर्त्त जीव मूर्त्त शरीर में प्रवेश कैसे करता है, यह प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है क्योंकि संसारी आत्मा कथंचिद् मूर्त्त है । भगवती में कर्मयुक्त जीव को मूर्त्त माना है। शरीर सम्बन्ध के कारण जीव पांच वर्ण, दो गंध आदि से युक्त है । ' वह रूपी है। जैन के सामने भी समस्या थी कि विजातीय द्रव्यों का सम्बन्ध कैसे होता है ? उसने जीव का पुद्गल के साथ कथंचिद् सादृश्य स्वीकार करके इस समस्या 1. भगवई (खण्ड-1) पृ. 139 2. पञ्चास्तिकाय, गाथा 128 / 130 तत्त्वप्रदीपिकावृत्ति, पृ. 188 - इह हि संसारिणो जीवादनादिबंधनोपाधिवशेन स्निग्धः परिणामो भवति । 3. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1/313 4. वही, 17/33 जणं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स, सकम्मस्स, सरागस्स, सवेदस्स, समोहस्स, सलेसस्स, ससरीरस्स ताओ सरीराओ अविप्पमुस्स एवं पण्णायति, तं जहा कालत्ते वा सुक्किलित्ते वा, सुब्भिगंधत्ते वा, दुब्भिगंधत्ते वा, तित्तत्ते वा जाव महुरत्ते वा, कक्खडते वा जाव लुक्खत्ते वा । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 जैन आगम में दर्शन को समाहित करने का प्रयत्न किया। इस संदर्भ में एक प्रश्न यह भी उपस्थित होता है कि जीव का पुद्गल के साथ कथंचित् सादृश्य है क्या वैसा ही सादृश्य पुद्गल का भी जीव के साथ है? जैनदर्शन इसका उत्तर हां में देता है। भगवती में ही शरीर और आत्मा के परम्पर भेदाभेद का प्रश्न उपस्थित किया गया है। काय (शरीर) आत्मा है अथवा आत्मा से भिन्न है ? यह रूपी है अथवा अरूपी है ? यह सचित्त है अथवा अचित्त है? इन प्रश्नों को समाहित करते हुए कहा गया है कि शरीर आत्मा भी है और उससे भिन्न भी है। वह रूपी भी है और अरूपी भी है, सचित्त भी है और अचित्त भी है।' शरीर की आत्मा से अभेदता, अरूपता एवं सचित्तता शरीर की जीव के साथ सदृशता की अभिव्यक्ति दे रही है। जैसे जीव स्वरूपत: अमूर्त होते हुए भी अपेक्षा विशेष से मूर्त हो जाता है, वैसे ही शरीर स्वरूपत: मूर्त, अचित्त होते हुए भी अपेक्षा विशेष से अमूर्त एवं सचित्त भी हो जाता है। आत्मा एवं शरीर का भेदाभेद आत्मा और शरीर में सर्वथा अभेद नहीं है. यदि सर्वथा अभेद होता तो ये दोनों एक ही हो जाते। उनमें सर्वथा भेद भी नहीं है । यदि सर्वथा भेद होता तो उनका परस्पर कभी भी सम्बन्ध ही नहीं होता अत: अपने विशेष गुणों के कारण इनमें परस्पर भेद भी है और सामान्य गुणों के कारण अभेद भी है। आत्मा और शरीर में अत्यन्त भेद माना जाये तो कायकृत कर्मों का फल आत्मा को नहीं मिलना चाहिए। उनको परस्पर अत्यन्त अभिन्न मानें तो शरीर दाह के समय आत्मा भी नष्ट हो जायेगी जिससे परलोक सम्भव नहीं है। संसारावस्था में शरीर और आत्मा का क्षीर-नीरवत् या अग्नि-लोहपिण्डवत् तादात्म्य है, अतएव काय से किसी वस्तु का स्पर्श होने पर आत्मा में संवेदन होता है। कायकृत कर्म का भोग भी आत्मा करती है अत: शरीर और आत्मा अभिन्न है। शरीर नाश के बाद भी आत्मा रहती है तथा सिद्धावस्था में आत्मा अशरीरी होती है अत: आत्मा एवं शरीर परस्पर भिन्न भी है। जीव के सवर्णता, सगन्धता आदि एवं शरीर के अरूपता, सचित्तता आदि विशेषण जीव और शरीर में परस्पर ऐक्य मानने से ही घटित होते हैं। भगवती में जीव को अरूप, अकर्म, अवर्ण आदि भी कहा है। काय को अचित्त, रूपी आदि कहा है। भगवती का यह वक्तव्य उन दोनों में भिन्नता को सिद्ध कर रहा है। 1. अंगसुत्ताणि 2, (भवगई) 13/12 8, आया वि काये, अण्णे वि काये। रूवि पि काये, अरूवि पि काये। सचित्ते विकाये, अचित्ते विकाये। जीवे वि काये अजीवे वि काये। 2. वही, 17/35, जण्णं तहागयस्स जीवस्स अरूविस्स, अकम्मस्स, अरागस्स, अवेदस्स, अमोहस्स, असरीरस्स, ताओ सरीराओ विप्पमुक्कस्स नो एवं पण्णायति, तं जहा-कालते वा जाव सुक्किलिते वा..... Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा संसारी जीव की व्याख्या बिना पुद्गल के नहीं की जा सकती। संसारी जीव का अर्थ ही पुद्गल (कर्म) युक्त जीव की अवस्था । संसारावस्था में जीव और पुदगल परस्पर क्षीर और नीर की तरह एक भूत बने हुए हैं अतः उनमें अभिन्नता है । एक चेतन है दूसरा अचेतन अतः उनमें स्वरूपगत भिन्नता भी है। आचार्य सिद्धसेन गणी ने अनेकान्त दृष्टि का उपयोग करते हुए जीव और पुद्गल की पारस्परिक भिन्नता एवं अभिन्नता का प्रतिपादन किया है। ' जीव परिभोक्ता एवं पुद्गल परिभोग्य जीव और पुद्गल का परस्पर अनेक प्रकार का सम्बन्ध है । भगवती में उनको एकत्र परिभोक्ता एवं परिभोग्य कहा है। जीव पुद्गल का परिभोग करता है, अतः वह परिभोक्ता है तथा पुद्गल जीव द्वारा परिगृहीत होता है अतः उसे परिभोग्य कहा गया है। जीव चेतना युक्त होने के कारण पुद्गल का ग्राहक है तथा अचेतन होने के कारण पुद्गल ग्राह्य बनता है । ' निष्कर्ष संसारावस्था में चेतन एवं अचेतन दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रभाव का कारण है एक दूसरे का पारस्परिक सम्बन्ध । अनेकान्त दृष्टि के आधार पर दो विजातीय तत्त्वों के सम्बन्ध की व्याख्या सहजता से हो जाती है। जैन दर्शन अनेकान्तदृष्टि का संवाहक है अतः उसके अनुसार चेतना और अचेतन न तो सर्वथा भिन्न है और न ही अभिन्न है। चेतन और अचेतन के सम्बन्ध की समस्या एकान्त दृष्टिवालों के समक्ष है। जैन दर्शन अनेकान्त माध्यम से इस समस्या को समाहित कर लेता है । 187 सम्बन्ध का स्वरूप जैन परम्परा द्रव्य कर्म को पौद्गलिक मानती है। पुद्गल की आठ वर्गणाओं में एक वर्गणा है - कार्मण । उसी के परमाणु- पुद्गल कर्म रूप में आत्मा से सम्बंधित होते हैं । भगवती में अण्णमण्णबद्धा, अण्णमण्णपुट्ठा' आदि कहकर उनका अन्योन्यानुप्रवेश प्रकट किया है। 1 1. सन्मतितर्कप्रकरण 1/47-48 अण्णोणाणुगाणं इमं व तं व त्ति विभयणमजुत्तं । जह दुद्ध- पाणियाणं जावंत विसेसपज्जाया ॥ रूआइ पज्जवा जे देहे जीवदवियम्मि सुद्धम्मि | ते अण्णोणाणुगया पण्णवणिज्जा भवत्थम्मि ॥ 2. (क) अंगसुताणि 2, (भगवई) 25/17 जीवदव्वाणं अजीवदव्वा परिभोगत्ताए हव्वमागच्छेति । नो अजीवदव्वाणं जीवदव्वा परिभोगताए हव्वमागच्छंति । (ख) भगवतोवृत्ति, पत्र, 856 इह जीवद्रव्याणि परिभोजकानि सचेतनत्वेन ग्राहकत्वाद् इतराणि तु परिभोग्यान्यचेतनतया ग्राह्यत्वात् ॥ 3. अंगसुत्ताणि 2, ( भगवई), 1 / 312 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 जैन आगम में दर्शन जीव और पुद्गल के अन्योन्यानुप्रवेशको अग्निएवं अय-गोलक, क्षीर-नीर ' आदि के उदाहरणों से स्पष्ट किया गया है किंतु भगवती सूत्र में कर्मबंध के सम्बंध में ‘आवेष्टन-परिवेष्टन' शब्द का प्रयोग भी हुआ है, जो बहुत महत्त्वपूर्ण है। जीव-प्रदेशों को ज्ञानावरणीय आदि के कर्मपरमाणु आवेष्टित परिवेष्टित करते हैं। उनको बांध देते हैं। आवेष्टन-परिवेष्टन शब्द से यह द्योतित हो रहा है कि कर्म परमाणुओं का आत्मप्रदेशों में अनुप्रवेशन आवेष्टन-परिवेष्टनात्मक होता है। आत्मा पर कर्म का आवेष्टन-परिवेष्टन ___भगवती में एक प्रश्न यह भी उपस्थित किया गया है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्म के अविभागी-परिच्छेद (कर्मपरमाणु) कितनी संख्या से जीव के एक प्रदेश पर आवेष्टन एवं परिवेष्टन करते हैं। इस प्रश्न के समाधान में कहा गया-वे कर्म-परमाणु आवेष्टन-परिवेष्टन करते भी हैं और नहीं भी करते हैं, यदि करते हैं तो अनंत-कर्मपरमाणु एक साथ आवेष्टनपरिवेष्टन करते हैं। संख्येय या असंख्येय संख्या वाले कर्मवर्गणा के स्कन्ध कर्म रूप में परिणत नहीं हो सकते हैं। स्यात् आवेष्टन-परिवेष्टन होता है, स्यात् नहीं होता है। इस वक्तव्य के संदर्भ में यह मननीय है कि अमुक-अमुक गुणस्थानवी जीव के अमुक कर्म का आवेष्टनपरिवेष्टन होता है तथा अमुक प्रकार का नहीं होता अत: यहां आवेष्टन-परिवेष्टन होता भी है, नहीं भी होता है। इस वक्तव्य को रुचकप्रदेश की अवधारणा के आलोक में देखने से भी ज्ञात होता है कि जीव के प्रदेशों पर आवेष्टन एवं परिवेष्टन होता भी है और नहीं भी। कुछ जैनाचार्य जीव के मध्यवर्ती रुचकप्रदेशों को पूर्ण विशुद्ध मानते हैं। उन पर कर्म का आवरण नहीं हो सकता। नंदीसूत्र में भी एक वक्तव्य है कि अक्षर का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवृत्त हो जाये तो जीव भी अजीवत्व को प्राप्त हो जाता है। अक्षर का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है अर्थात् उतने आत्म प्रदेशों पर कर्म का आवरण नहीं होता, इससे लगता है कि आत्मा के कुछ प्रदेश सर्वथा कर्म-परमाणुओं से मुक्त होते होंगे । यद्यपि भगवती में यह भी कहा है कि मनुष्य को छोड़कर नियम से सब जीवों के आत्मप्रदेशों पर अनन्त कर्मपरमाणुओं का आवेष्टन-परिवेष्टन होता है। फिर भी यह अवधारणा एक नए तथ्य की ओर इंगित करती हुई प्रतीत होती है। 1. सन्मति तर्क 1/47 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/482 जइ आवेढिय-परिवेढिए नियमा अणंतेहिं। 3. वही, 8/482 सिय आवेढिय-परिवेढिए, सिय नो आवेढिय-परिवेढिए। जइ आवेढिय-परिवेढिए, नियमा अणंतेहिं । 4. नंदीसूत्र 71 अक्खरस्स अणंतभागो निच्चुघाडिओ 5. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/483 नियम अणंतेहिं। जहा नेरइयस्स एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं. मणूसस्स जहा जीवस्स। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 189 कर्म का बंध कब से? जीव के साथ कर्म का बंध है। इस संदर्भ में यह प्रश्न स्वाभाविक ही है कि वह सम्बन्ध कबसे है? यह प्रश्न न केवल जैनदर्शन के सामने है, अपितु सभी भारतीय दर्शनों के सामने है। ब्रह्म और माया का सम्बन्ध, प्रकृति और पुरुष का सम्बन्ध, आत्मा और परमाणुकासम्बन्ध, नाम और रूप का सम्बन्ध, जीव और कर्म के सम्बन्ध को उन-उन परम्पराओं ने अनादि माना है। उनका परस्पर अनादि सम्बन्ध है। जैनदर्शन भी जीव और कर्म के सम्बन्ध को अनादि मानता है। जैनदर्शन के अनुसार जीव और कर्म का सम्बन्ध 'अपश्चानुपूर्विक' है।' अर्थात् न पहले न पीछे। जीव और कर्म के सम्बन्ध में पूर्वता एवं अपरता मानने से अनेक कठिनाइयां उपस्थित होती हैं। यदि जीव पूर्व में हो कर्म बाद में हो तो कर्म-रहित जीव संसार में क्यों रहेगा? यदि कर्म पहले हो जीव बाद में हो तो जीव के बिना कर्म किए किसने? क्योंकि कर्म तो जीवकृत होते हैं, अत: जीव और कर्म में पौर्वापर्य नहीं है। रोह के प्रसंग से यही तथ्य उद्भूत हो रहा है। रोह के द्वारा मुर्गी एवं अंडे के पौर्वापर्य के बारे में जिज्ञासा प्रस्तुत करवाकर मुर्गी एवं अण्डे में अनानुपूर्वी सिद्ध कर देते हैं। वैसे ही जीव एवं अजीव में भी अनानुपूर्वी है।' 'कब' का समाधान कब होगा या नहीं होगा या यही होगा-ये सब अनन्त काल के प्रवाह में सतत गतिशील रहने वाले प्रश्न हैं, जिन पर ऊहापोह होता रहेगा। कर्म का कर्ता जीव और कर्म का परस्पर सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध का कर्ता कौन है ? दूसरे शब्दों में कर्म को कौन करता है ? इस संदर्भ में कुछ विकल्प उपस्थित हैं 1. कर्म प्रकृतिकृत हैं, 2. कर्म नियतिकृत हैं, 3. कर्म चैतन्य (जीव) कृत हैं। सांख्य : प्रकृति कर्म की कर्ता प्रथम विकल्प के अनुसार कर्म ही कर्म का कर्ता है। कर्म से भिन्न कोई अन्य शक्ति कर्म को नहीं कर सकती। सांख्य दर्शन के अनुसार कर्म प्रकृति का ही हिस्सा है। कर्म का बन्धनविमोचन प्रकृतिकृत ही है। सांख्यदर्शन के अनुसार पुरुष चेतन, अकर्ता अपरिणामी और केवल साक्षी द्रष्टा है। उसमें किसी भी प्रकार का कर्तृत्व नहीं है। कर्तृत्व प्रकृति का धर्म है। 1. अंगसुत्ताणि :, (भगवई) 1/291 नियमं अणंतेहिं। जहा नेरझ्यस्स एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं मणूसस्स जहा जीवस्स। 2. वही, 1/295 3. सांख्यकारिका, श्लोक 19 4. सांख्यकारिका, श्लोक 19 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 जैन आगम में दर्शन बिना कर्तृत्व के प्रकृति का अस्तित्व ही नहीं है। संसार के सारे कार्य प्रकृति ही कर रही है। गीता में स्पष्ट कहा गया है कि गुणों के माध्यम से प्रकृति सम्पूर्ण कार्यों को करती है। अहंकार से विमूढ व्यक्ति यह सोचता है कि मैं इन कार्यों का कर्ता हूं।' सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष में मात्र साक्षि-भाव है। उसमें कर्तृत्व नहीं है। अत: इस दर्शन के अनुसार प्रकृति जो अचेतन है वही कर्म की कर्ता है। तात्पर्यार्थ कर्म ही कर्म का कर्ता है। नियति : कर्म की कर्ता आजीवक सम्प्रदाय नियतिवादी है। वह कर्मबन्ध को नियति से जुड़ा हुआ मानता है। उसके अनुसार कर्मबन्ध आदि सभी क्षेत्रों में पुरुषार्थ अकिञ्चित्कर होता है। नियतिवाद के अनुसार जीवके कर्मबन्ध पुरुषार्थ द्वारा नहीं होते। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य आदि का कर्मबन्ध में कोई स्थान नहीं है। जो कुछ भी शुभ-अशुभ की प्राप्ति होती है वह नियति के बल से ही प्राप्त होता है। कर्मचैतन्यकृत जैन आगमसीहत्य में कर्मको चैतन्यकृत माना गया है। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद के प्रतिपादक रहे हैं। महावीर के दर्शन के अनुसार जीव अपने पराक्रम से कर्म का बन्ध करता है। कर्मबन्ध नियति से जुड़ा हुआ नहीं है। जीव अपने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम से कर्म का बन्ध करता है। प्राणी अपनी ही प्रवृत्ति से कर्म का संचय करता है और उनका भोग करता है। कर्मबन्ध के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है। जीवकृत शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक शुभाशुभ प्रवृत्ति के द्वारा ही आकृष्ट कर्म वर्गणा के अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध आत्मा से चिपक कर कर्म संज्ञा को प्राप्त होते हैं।' जैनदर्शन सांख्य की तरह प्रकृति से कर्मबन्ध नहीं मानता। प्रकृति अचेतन होती है। अचेतन में स्वयं का कर्तृत्व नहीं होता। अत: वह कर्मबन्ध नहीं कर सकती। जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते।' 1. गीता 3/27 प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः। अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।। 2. भगवई (खण्ड-1), पृ. 372, यथा गोशालकमते नास्ति जीवानामुत्थानादि पुरुषार्थासाधकत्वात्, नियतित एवं पुरुषार्थसिद्धेः, यदाह - प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थ, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ।। अंगुसत्ताणि 2, (भगवई) 1/146 एवं सति अत्थेि उटाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कार परक्कमेइ वा। 4. जैन सिद्धान्त दीपिका 4/1 आत्मप्रवृत्त्याकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गला: कर्म 5. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 16/41 जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कामा कन्जंति। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 191 ___ जीव जिस प्रकार आहार, शरीर आदि के प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है और उनको तद्रूप में परिणत करता है ठीक वैसे ही जीव कर्म प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है तथा वे पुद्गल कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं। पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन जीव द्वारा ही होता है अत: कर्म चैतन्यकृत है। अचैतन्यकृत नहीं है।' निश्चय एवं व्यवहारनय से कर्म का कर्ता जैन-परम्परा के कुछ आचार्यों ने कर्म के कर्तृत्व के सम्बन्ध में निश्चय एवं व्यवहार नय से विमर्श किया है। शुद्ध निश्चय नय के अनुसार आत्मा द्रव्य कर्मों की कर्ता नहीं हो सकती क्योंकि द्रव्य कर्म पौद्गलिक हैं। उन पौद्गलिक कर्मों का कर्ता चेतन आत्मा नहीं हो सकती। प्रत्येक द्रव्य स्वभाव का कर्ता होता है, परभाव का कर्तृत्व उसमें नहीं है। आत्मा अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करती हुई अपने चेतन परिणामों की ही कर्ता है। पौद्गलिक कर्मों की वह कर्ता नहीं है। कर्म ही कर्म का कर्ता है। यह कुन्दकुन्द की शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि है। संसारी अवस्था में आत्मा कर्म से मुक्त नहीं है। अत: व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा पौद्गलिक कर्म की कर्ता है। अशुद्ध निश्चय नय के अनुसार आत्मा राग-द्वेष आदि चेतन कर्म-समूह की कर्ता है और शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा अपने शुद्ध ज्ञान आदि भावों की कर्ता है। जैनदर्शन के अनुसार अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन आदि आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं। शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा केवल इन गुणों की ही कर्ता है। कर्म-पुद्गल के साथ उसका किसी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं हो सकता। कर्म की कर्ता आत्मा नहीं है क्योंकि कर्म परभाव है। कर्म ही कर्म के कर्ता हैं। आचार्य कुन्दकुन्द की विचारधारा का सांख्यदर्शन के साथ आंशिक साम्य परिलक्षित हो रहा है। सांख्यदर्शन के अनुसार भी जड़ प्रकृति ही कर्म की कर्ता है। चेतन पुरुष का उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। कर्मोपचय प्रयत्नजन्य पुद्गलों का उपचय स्वभाव एवं प्रयत्न दोनों ही प्रकार से होता है किंतु कर्म का उपचय प्रयत्न कृत ही होता है स्वत नहीं हो सकता। जीव के मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति रूप प्रयत्न होता है उससे ही कर्म पुद्गलों का आकर्षण होता है। मन, वचन एवं काया के भेद से अंगसुत्ताणि :, (भगवई) 16/42 गोयमा! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा........। दुट्ठाणेसु दुसेज्जासु, दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा। समयसार, गाथा 82 3. द्रव्यसंग्रह गाथा 8 पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु निच्छयदो। चेदण-कम्माणादा, सुद्धनया सुद्ध-भावाणं ।। 4. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 6/25 जीवाणं कम्मोवचए.......पयोगसा, नो वीससा। 2. समय Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 प्रयोग तीन प्रकार का माना जाता है । पञ्चेन्द्रिय प्राणी के कर्मबंध मन, वचन एवं काया इन तीनों के प्रयोग से ही होता है । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों के मन नहीं होता अत: उनके कर्मोपचय काया एवं वचन के प्रयोग से होता है। एकेन्द्रिय जीवों के काययोग ही होता है अत: उनके कर्मोपचय मात्र शरीर निमित्तक ही होता है।' कर्मबन्ध तीनों ही योगों से होता है । महावीर ने मन, वचन एवं काया - इन तीनों से ही कर्मबंध माना है। ये तीनों करण रूप हैं। चेतन रूप कर्ता इन करणों का प्रयोग करके कर्म का बन्ध करता है अतः यह स्पष्ट ही है कि कर्म अचैतन्यकृत नहीं है किंतु चैतन्यकृत ही है । दुःख का स्पर्श किसको ? गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- - भंते! क्या दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है अथवा अदुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है? जिज्ञासा को समाहित करते हुए भगवान महावीर ने कहा - दुःखी ही दुःख से स्पृष्ट होते हैं।' कर्म मुक्त जीव के कर्म का बंध नहीं होता । पूवकर्म से बंधा हुआ जीव ही नए कर्मों का बंध करता है।' नए बंधन का हेतु पूर्व बंधन न हो तो मुक्त जीव के भी कर्म बंधे बिना कैसे रह सकते हैं ? अतः बंधा हुआ ही बंधता है । संसारावस्था में आत्मा सकर्मा होती है। सकर्मा आत्मा के निरन्तर कर्म का बंध होता रहता है। शुद्ध आत्मा, मुक्तआत्मा दुःख से स्पृष्ट नहीं हो सकती । अभयदेवसूरि ने दुःख को कर्म कहा है । ' कर्म दुःख के निमित्त बनते हैं अतः वे दुःख ही हैं। जो कर्मों से युक्त होता है वह दुःखी है तथा दुःखी ही दुःख को / कर्म को आकर्षित करते हैं । I जैन आगम में दर्शन - कर्मबंध का हेतु जैसा कि पहले कहा गया है दार्शनिक जगत् में 'कार्य कारणवाद' का सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। दर्शन के अनेक सिद्धान्त कार्यकारण की श्रृंखला से सम्पृक्त हैं। कर्मवाद जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । वह कार्यकारण की परम्परा में निबद्ध है। कर्म का बंध होता है तो उसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। कर्म का बंध कार्य है उसके कारण क्या हैं ? कर्मबंध के कारणों के सम्बन्ध में जैनदर्शन में प्रभूत विचार हुआ है क्योंकि कर्मबन्ध के हेतुओं को जानकर ही कर्मबन्ध से बचा जा सकता है। कर्मबन्ध का कारण: प्रमाद एवं योग भगवती में कांक्षा - मोहनीय कर्मबंध के प्रसंग में प्रमाद एवं योग को कर्मबंध का हेतु गया है । 'कर्मबंध का मूल उपादान कारण प्रमाद है तथा उसका सहकारी कारण योग 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 6 / 26 जीवाणं कम्मोवचए. .पयोगसा, नो वीससा । 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 7 / 16 दुक्खी दुक्खेणं फुड़े नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे । 3. पण्णवणा 23/1/292 4. भगवई (खण्ड-2), पृष्ठ 489 (7/16) दु:खं कर्म तद्वान् जीवो दुःखी 5. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 1 / 141 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा है । प्रमाद के साथ प्रयुक्त प्रत्यय शब्द से तथा योग के साथ प्रयुक्त निमित्त शब्द से इस तथ्य की अवगति प्राप्त होती है। किसी भी कार्य के निष्पादन में उपादान कारण एवं निमित्त / सहकारी कारण की आवश्यकता होती है कर्मबंध रूप कार्य के लिए भी इन दोनों कारणों की आवश्यकता । सूत्रकार ने स्वयं ही इन दोनों कारणों का स्पष्ट उल्लेख कर दिया है । प्रमाद के प्रकार भगवई भाष्य में आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने प्रमाद एवं योग पर विशेष विमर्श प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि- “प्रमाद का एक अर्थ मद्य आदि किया जाता है।' ठाण में प्रमाद के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं - मद्य, निद्रा, विषय, कषाय, द्यूत और प्रतिलेखन । वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में प्रमाद के अन्तर्गत मिथ्यात्व, अविरति और कषाय का निर्देश किया है । ' तत्त्वार्थवार्तिक प्रमाद के पन्द्रह प्रकारों का उल्लेख प्राप्त होता है ।' कर्मबंध के हेतु के प्रसंग में प्रमाद एवं योग इन दोनों का स्वतंत्र उल्लेख है अतः इन दोनों की सीमा भी स्वतंत्र होनी चाहिए। इस सीमा की दृष्टि से विचार करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि कर्मबन्ध की प्रक्रिया में मुख्यतः कर्मबन्ध के भूत बनते हैं - मोहकर्म और नामकर्म । प्रमाद मोहकर्म की सूचना देने वाला पद है और योग नामकर्म का सूचक पद है।' 193 योग का अर्थ श्रीमद् जयाचार्य ने धर्मसी मुनि का मत उद्धृत किया है। धर्मसी मुनि ने 'योग' का अर्थ अशुभ योग किया है। किंतु कर्मबंध के हेतुभूत प्रमाद और योग के सम्बन्ध में विचार करने पर यह अर्थ विमर्शनीय लगता है । यदि योग को अशुभ मान लिया जाये तो फिर प्रमाद का अर्थ क्या होगा ? यहां प्रमाद स्वयं सावद्ययोग रूप है। फिर प्रमाद और योग में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती, इसलिए प्रमाद का अर्थ मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली मूर्च्छा अथवा अशुभ व्यापार और योग का अर्थ नामकर्म के उदय से होने वाली शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति है । ' प्राणी की सारी प्रवृत्तियां जीव और शरीर दोनों के संयोग से होती है। शरीर का निर्माण जीव के द्वारा होता है ।" वीर्य दो प्रकार का होता है क्रियात्मक और अक्रियात्मक | जीव का 1. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 1 / 141 कहण्णं भंते! जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं बंधति ? गोयमा ! पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च । 2. भगवई (खण्ड-1) पृ. 81-82 (1/141) प्रमादश्च मद्यादिः । 3. ठाणं 6 / 44 छव्विहे पमाए पण्णत्ते, तं जहा- मज्जपमाए, णिद्दपमाए, विसयपमाए, कसायपमाए, जूतपमाए, पडिलेहणापमाए 4. भगवई (खण्ड-1 ) ( 1/141) अथवा प्रमादग्रहणेन मिथ्यात्वाविरिति कषायलक्षणं बन्धहेतुत्रयं गृहीतम् । 5. तत्त्वार्थवार्तिक 7 / 13 / 3 पञ्चदशप्रमादपरिणतो वा । 6. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8 / 420-433 7. भगवई (खण्ड- 1) 1/140-146 पृ. 81 8. भगवती जोड़ 1 / 12/24 9. भगवई (खण्ड- 1) 1 / 141 का टिप्पण, पृ. 81 10. वही, पृ. 372 ( भगवती वृत्ति 1 / 145 ) इह यद्यपि शरीरस्य कर्मापि कारणं न केवलं एव जीवस्तथाऽपि कर्मणो जीवकृतत्वेन जीवप्राधान्यात् जीवप्रवहं शरीरमित्युक्तम् Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 जैन आगम में दर्शन अपरिस्पन्दात्मक वीर्य केवल जीव से सम्बद्ध होता है। जीव का परिस्पन्दात्मक वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है। उसी के द्वारा मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियां सञ्चालित होती हैं। उमास्वाति ने योग का अर्थ काय, वाक् और मन का कर्म किया है। सिद्धसेनगणी ने योग की प्रक्रिया में चार तत्त्वों का उल्लेख किया है-आत्मा, शरीर, करण और योग ।' उनकी तुलना भगवती में आगत जीवप्रवह शरीर, शरीरप्रवह वीर्य और वीर्यप्रवह योग से की जा सकती है। प्रमाद और योग जो क्रमश: मोहकर्म एवं नामकर्म स्थानीय हैं, उनसे कर्म का बंध होता है। अन्य जैन आगम तथा दर्शन के ग्रंथों में भी कर्मबंध के हेतुओं का उल्लेख हुआ है जिनका प्रस्तुत प्रसंग में विमर्श करना उचित होगा । पाठकों की सुविधा के लिए भगवई (भाष्य) में प्रदत्त प्राचीन संदर्भो का भी यहां अवतरण किया है। कर्मबन्ध का कारण : राग और द्वेष प्रज्ञापना में कर्मबन्ध केराग और द्वेष-येदो कारण बतलाए गए हैं। राग के दो प्रकार हैं-- माया और लोभ तथा द्वेष के दो प्रकार हैं-क्रोध और मान । विस्तार में क्रोध, मान, माया एवंलोभ ये चार कर्मबंध के हेतु बनते हैं। ठाणं में भी कर्मबंध के इन चार हेतुओं का उल्लेख मिलता है। प्रज्ञापना की अवधारणा प्रज्ञापना में भी कर्मबंध की अवधारणा पर एक महत्त्वपूर्ण विमर्श प्राप्त है। वहां पर कर्मबंध की पृष्ठभूमि का उल्लेख हुआ है, जो विशेष रूप से ध्यातव्य है। प्रज्ञापना के अनुसार ज्ञानावरण के तीव्र उदय से दर्शनावरण का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरण के तीव्र उदय से दर्शनमोह का तीव्र उदय होता है। दर्शनमोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है। मिथ्यात्व के उदय से जीव के आठ प्रकार के कर्मों का बंध होता है। भगवती में प्रमाद और 1. भगवई (खण्ड-1), पृ. 372, (भगवती वृत्ति 1/143-144) वीर्यं नाम वीर्यान्तरायकर्मक्षयक्षयोपशमसमुत्थो जीवपरिणामविशेषः। 'सरीरप्पवहे' त्ति वीर्य द्विधा-सकरणमकरणं च। तत्रालेश्यस्य के वलिन: कृत्स्नयोर्जेयदृश्ययो: केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुञानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो जीवपरिणामविशेष तदकरणं तदिह नाधिक्रियते। यस्तु मनोवाक्कायकरणसाधन: सलेश्यजीव कर्तृको-जीवप्रदेशपरिस्पन्दा त्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्यं तच्च शरीरप्रवहम्। शरीरं विना तदभावादिति। 2. तत्त्वार्थसूत्र 6/1 कायवाड्मनः कर्मयोगः । 3. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी 6/1 4. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/142-145 पण्णवणा 23/6 जीवे णं भंते! णाणावरणिज्ज कम्म कतिहिं ठाणेहिं बंधति? गोयमा! दोहिं ठाणेहिं, तं जहा-रागेण य दोसेण य। रागे दुविहे पण्णत्ते-तं जहा-माया य लोभे य। दोसे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा -- कोहे य माणे य। इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं वीरिओवग्गहिएहिं एवं खलु जीवे णाणावरणि कम्मं बंधति । ठाणं 4/92-94 जीवा णं चउहिं ठाणेहिं अट्ठकम्मपगडीओ चिणिंसु......। चिणंति.......चिणिस्संति, तं जहा-कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं । पण्णवणा 23/3......णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंसणावरणिज्नं कम्मं णियच्छति, दंसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंसणमोहणिनं कम्मं णियच्छति, दंसणमोहणि जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं गोयमा! एवं खल जीवे अट्ठ कम्मपरडीओ बंधइ। 6. ठाण Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 195 योग को कर्मबंध का हेतु माना है। प्रज्ञापना में मिथ्यात्व का उल्लेख हुआ जो मोहकर्म का ही भेद है तथा भगवती आगत प्रमाद भी मोहकर्म का ही भेद है। प्रज्ञापना में योग का बंध हेतु के रूप में उल्लेख नहीं हुआ किंतु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख प्रज्ञापना में है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण के उदय से दर्शन मोह का उदय और उससे कर्म का बंध होता है, मिथ्यात्व तो दर्शन मोह का ही भेद है। प्रस्तुत प्रसंग पर विचार करने से ज्ञात होता है कि सूत्रकार अज्ञान एवं मिथ्यात्व को कर्मबंध का हेतु कह रहे हैं। प्रस्तुत सूत्र में कर्मबंध के हेतुओं की एक श्रृंखला प्राप्त हो रही है। यदि शृंखला न रहे तो कर्मबंध नहीं हो सकता। चार घाती कर्मों में अन्तराय को छोड़कर शेष तीन कर्मबंध के हेतु बन रहे हैं। कर्म बंध का प्रत्यक्ष कारण तो कषाय ही है किंतु उस कषाय का सहयोगी अज्ञान है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अज्ञान एवं कषाय-ये दो कर्मबंध के हेतु हैं। आगमोत्तर साहित्य : कर्मबंध के हेतु आगम उत्तरवर्ती साहित्य में कर्मबन्ध के पांच कारण बतलाए गए हैं। सबसे पहले कर्मबंध के मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय एवं योग-इन पांच हेतुओं का प्रयोग आचार्य उमास्वाति ने किया है। उत्तरवर्ती ग्रंथकार उनका अनुगमन करते रहे हैं। किंतु कर्मशास्त्र में कर्म बंध के चार कारण बतलाए गए हैं, उनमें प्रमाद का उल्लेख नहीं हुआ है। ठाणं में प्रमाद को दु:ख का हेतु कहा गया है। कर्म दु:ख रूप ही होते हैं। जहां कर्मबंध में प्रमाद को मुख्यता दी गई वहां पर प्रमाद का उल्लेख पृथक् रूप से कर दिया गया। जहां ऐसा नहीं किया गया वहां प्रमाद का पृथक् रूप से उल्लेख नहीं किया गया। सामान्यत: आठ कर्मों में मोहनीय एवं नामकर्म को कर्मबंध का हेतु माना जाता है किंतु प्रज्ञापना में ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म को भी कर्मबंध के हेतु के रूप में उल्लिखित किया है। कर्मबंध के आभ्यन्तर एवं बाह्य हेतु अविरति, प्रमाद, कषाय आदि ये कर्मबंध के आभ्यन्तर हेतु हैं। प्रत्यक्ष ग्राह्य नहीं हैं। कर्मबंध के बाह्य हेतु मन, वचन, काया की प्रवृत्ति है जो प्रत्यक्ष ग्राह्य है। आभ्यन्तर कारण पृष्ठभूमि में है। बाह्यकारण स्पष्ट है अत: सामान्यत: व्यक्ति यही समझता है कि मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति से ही कर्म का बंध होता है। प्रश्न होता है कि पाप कर्म का बंध उसी के होना चाहिए जिसके मन, वचन और काया स्पष्ट हैं अर्थात् जो मन से चिंतन कर सकता है, 1. तत्त्वार्थसूत्र 8/1 मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः 2. प चसंग्रह (स्पा, हीरालाल जैन, काशी, वि.सं. 2017) (दिगम्बर) चतुर्थ अधिकार (शतक) गा.77 पृ.105 मिच्छासंजम हूंति हु कसाय जोगा य बंधहेउ ते । पंचदुवालसभेया कमेण पणुवीस पण्णरसं ।।। 3. ठाणं 3/3 3 6 ...भंते। दुक्खे केण कडे, जीवेण कडे पमादेणं । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 जैन आगम में दर्शन वचन से बोल सकता है और शरीर से संकल्पपूर्वक प्रवृत्ति कर सकता है। जो प्राणी मन से कुशल या अकुशल का चिन्तन नहीं करता, वाणी से कुछ नहीं बोलता और काया से स्थाणु की तरह निश्चेष्ट रहता है, उसके कर्मबंध कैसे होगा? यदि उसके भी कर्मबंध माना जाए तो मुक्त आत्माओं के भी कर्मबंध होने का प्रसंग आ जाएगा। एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीवों के कर्मबंध का प्रसंग ही नहीं आता क्योंकि उनमें घात करने का मन, वचन और काया नहीं है। कर्मबंध का हेतु है-योग-प्रवृत्ति । योग तीन हैं-मन, वचन और काया। जो जीव इनके द्वारा प्रवृत्त नहीं हैं, उनके कर्मबंध कैसे होगा? जैनदर्शन इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहता है कि कर्मबंध का मूल कारण व्यक्त या अव्यक्त मन, वचन, काया नहीं है उसका मूल कारण हैअप्रत्याख्यान- अविरति । एकेन्द्रिय आदि जीव भी अठारह पापों से अनिवृत्त हैं, उनके पांच आश्रव द्वार खुले हैं। उनके प्रवृत्तिरूप कर्मबंध न भी हो पर अनिवृत्तिरूप कर्मबंध तो होगा ही। एकेन्द्रिय आदि अमनस्क या समनस्क जीवों में प्रत्याख्यानात्मक अवधकचित्त उत्पन्न ही नहीं होता। वैसा अवधकचित्त उत्पन्न न होने के कारण वे अविरत है। जो अविरत हैं उनके कर्मबंध होगा। उनका चित्त निरन्तर अठारह पापों के प्रति अव्यक्तरूप से संलग्न रहता है, इसलिए उनके कर्मबंध होता है। स्वप्न एवं जागरण में कर्म का बंध बौद्ध आदि दार्शनिक मानते हैं कि स्वप्न के मध्य होने वाली कुशल-अकुशल क्रियाओं से कर्म का चय नहीं होता क्योंकि उस अवस्था में प्राणी अव्यक्त विज्ञान वाला होता है। उस क्रिया के निष्पादन में न उसका चित्त है और न उसका अध्यवसाय है। जैन कहते हैं कि प्रत्येक प्राणी में सोते-जागते अविरति का प्रवाह निरन्तर चालू रहता है। अविरति आश्रव है। उससे निरन्तर कर्मबंध होता रहता है। स्वप्न में भी व्यक्ति को अवरिति नहीं छोड़ती। इसलिए व्यक्ति उस अव्यक्त अवस्था में भी कर्म का चय करता है। जो व्यक्ति हिंसा आदि का प्रत्याख्यान नहीं करता, वह निरन्तर अठारह पापों में प्रवृत्त होता रहता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनमें भी पांच आश्रवों की विद्यमानता है वे अठारह पापों से अनिवृत्त हैं, इसलिए स्वप्न आदि की अवस्था में भी वे कर्मों के बंधक होते हैं।' कर्मबंध का हेतु अविरति जो पापकर्म का प्रत्याख्यान कर देता है उसके पापकर्म का बंध नहीं होता। जिनके विरति नहीं होती उनके अशुभ योग की प्रवृत्ति नहीं होने पर भी विरति के अभाव के कारण उन जीवों में पाप कर्मों के निष्पादन की योग्यता है, इसलिए उनके कर्मबन्ध होता है। व्यावहारिक दृष्टि के अनुसार मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्ति के बिना पाप कर्म का बंध नहीं माना जाता 1. सूयगडो 2/4 का आमुख 2. वही, पृ. 286 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 197 किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से पापकर्म के बंध का एक कारण अविरति है। उससे निरन्तर बंध होता रहता है। दुष्प्रवृत्ति उसकी अभिव्यक्ति मात्र है। वह कभी-कभी होती है, निरन्तर नहीं होती। इसलिए साधक को अविरतिचित्त को बदलने की दिशा में उपक्रम करना चाहिए। उसके बदलने पर दुष्प्रवृत्ति सहज निरुद्ध होने लग जाती है।' जितना निरोध होगा उतना ही कर्मों का आगमन रुक जाएगा। कारण की मन्दता में कार्यमन्दताभी अवश्यंभावी है। आश्रव की अल्पता एवं क्रमश: क्षीणता ही कर्मनिरोध का प्रधान हेतु है। बन्ध की प्रक्रिया जीव कर्म का बंध प्रमाद और योग के द्वारा करता है। कर्मबन्ध में प्रमाद को उपादान एवं योग को निमित्त कारण माना गया है। इस प्रसंग में प्रश्नों की एक महत्त्वपूर्ण श्रृंखला भगवती में उपस्थित की गई है। प्रमाद का जनक योग, योग का जनक वीर्य, वीर्य का जनक शरीर एवं शरीर का जनक जीव को माना गया। इस प्रसंग से जीव और शरीर के परस्पर सम्बन्ध की प्रक्रिया का बोध करवाया गया है। "शरीर और मन के सम्बन्ध की समस्या दार्शनिक जगत् में एक गुत्थी बनी हुई है। इस प्रकरण से इसका सहज समाधान हो जाता है। मन का संचालन शरीर-जनित वीर्य से होता है। वीर्य के बिना मन गतिशील नहीं होता और वीर्य की उत्पत्ति शरीर के बिना नहीं हो सकती है। वीर्य मन का संचालक है तथा उसका उत्पत्ति स्रोत शरीर है अत: वीर्य के माध्यम से शरीर और मन का सम्बन्ध हो जाता है। इस प्रक्रिया से शरीर और मन के सम्बन्ध को सहज ही समझा जा सकता है। योग (मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति) मोहकर्म के उदय से जुड़कर प्रमाद बन जाता है। इसलिए प्रमाद का उत्पत्ति स्रोत योग को माना गया है। शक्ति के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती अत: योग का संचालक वीर्य है। वीर्य शक्ति रूप है, उसका कोई आधार स्थल, उत्पत्ति-स्थल होना चाहिए। शरीर वीर्य का उत्पत्ति स्थल है। शरीर स्वरूपत: अचेतन है, अत: उसमें वीर्यजनकत्व रूप स्वाभाविक शक्ति नहीं है। वह शक्ति उसे जीव के सम्बन्ध से प्राप्त होती है। अत: इस समूची प्रक्रिया में जीव का प्राधान्य है।'' इससे स्पष्ट हो जाता है कि कर्म का कर्ता जीव है। कर्मफलभोग दार्शनिक क्षेत्र में कर्म वेदन के विषय में तीन धारणाएं प्रचलित हैं-अज्ञेयवाद, ईश्वराधीन और कर्मवाद। कुछ दार्शनिक मानते हैं कि सुख-दु:ख के फल भोग का हेतु अज्ञात है, यह अज्ञेयवाद है। न्यायदर्शन के अनुसार ईश्वर की सहायता के बिना जीव को कर्म अपना 1. सूयगडो 2/4 का अमुख पृ. 274 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/141.......पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च । 3. वही, 1/14:2-145.......पमादे किं पवहे! जोगपवहे। जोए किं पवहे? वीरियप्पवहे। वीरिए किं पवहे? सरीरप्पवहे। परीर किंपवहे ? जीवप्पवहे। 4. भगवई (खण्ड-1) पृ. 82 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 जैन आगम में दर्शन फल नहीं दे सकते हैं।' कर्म जड़ होने के कारण अपना फल स्वयं नहीं दे सकते जैसे कि जड़ कुल्हाड़ी किसी चेतन व्यक्ति के द्वारा चलाए बिना स्वयं नहीं काट सकती।' ईश्वर कर्मफलाध्यक्ष है। कर्म का फल देने वाला कोई होना चाहिए। जैसे चोरी करने वाला चोर अपने आप उसका फल नहीं भुगतता। कोई न्यायाधीश होता है, दंड-नायक होता है, जो उसे दण्डित करता है, फल देता है। वैसे ही सारे जगत् को अच्छे और बुरे कर्म का फल देने वाला ईश्वर होता है। वह जीव को अपने कर्मानुसार अच्छे या बुरे फल देता रहता है। जीव में कर्मफल भोग की शक्ति जैनदर्शन कर्मवादी दर्शन है। सुख-दु:ख का फल अपने किए हुए कर्मों के द्वारा प्राप्त होता है। कर्म करने और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। यह कर्मवाद है। जैन-दर्शन का मन्तव्य है कि कर्मफल के भोग के लिए किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं है। कर्म जड़ हैं, वे यथोचित्त फल कैसे दे सकते हैं? यह प्रश्न है? यह ठीक है कि कर्म पुद्गल यह नहीं जानते कि अमुक आत्मा ने यह कार्य किया है, अत: उसे यह फल दिया जाए, परन्तु आत्मक्रिया के द्वारा जो शुभाशुभ कर्म-पुद्गल स्कन्ध आकृष्ट होते हैं, उनके संयोग से आत्मा की वैसी ही परिणति हो जाती है, जिससे आत्मा को उसके अनुसार फल मिल जाता है। कर्मफलदानशक्ति का निर्धारण जैनदर्शन के अनुसार कर्मबंध के समय ही कर्मफल-दान शक्ति (विपाक) का निर्धारण हो जाता है। उस फल विपाक की शक्ति के द्वारा ही जीव को कर्म का शुभाशुभ फल प्राप्त होता है। जीव कर्म करने के समय स्वतंत्र है किंतु उसके उदयकाल में परतंत्र है। जैसे कोई पुरुष वृक्ष पर चढ़ने में स्वतंत्र हैं, किंतु प्रमाद-वश नीचे गिरते समय वह परतंत्र है। कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। ऋण देने में ऋणदाता और ऋण लौटाने में ऋण लेने वाला बलवान होता है। कर्मफल भोग के समय जीव कर्म के अधीन हो जाता है। जीव द्वारा कृत शुभाशुभ कर्म अपनी विपाक शक्ति के द्वारा ही शुभाशुभ फल से संयुक्त हो जाते हैं। 1. न्यायभाष्य (संपा. गंगनाथ झा, पूना, 1939) 4/1/21 ईश्वर, कारणं पुरुषकर्माफल्यस्य दर्शनात् 2. न्यायवार्तिक (संपा. वी.पी. द्विवेद, बनारस, 1916) 4/1/21 3. गाथा (संपा. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा, लाडनूं, 1993) 16/43 कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो।। 4. वही, 16/44 कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माई। कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 199 कालोदाई अणगार की जिज्ञासा कालोदाई अनगार के द्वारा पापफलविपाक एवं कल्याणफलविपाक सम्बन्धी प्रश्न के समाधान से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है- "कालोदायी अनगार ने पूछा-भंते! जीवों के पापकर्म पाप का फल विपाक कैसे देते हैं ?'' कालोदायी को समाहित करते हुए भगवान् महावीर ने कहा- “कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मिट्टी की हांडी में पकाया हुआ मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन करता है। वह भोजन प्रारम्भ में अच्छा लगता है। उसके पश्चात् अपने अन्तर्निहित नियम से परिणत होता है, तब उसके रूप, वर्ण, गंध आदि विकृत बन जाते हैं और वह दु:खद होता है, सुख देने वाला नहीं होता। कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह ही पाप प्रवृत्तिकाल में अच्छे लगते हैं पर जब वे अपने अन्तर्निहित नियम से विपरिणत होते हैं, तब उनके रूप, वर्ण, गंध आदि विकृत बन जाते हैं। वह दु:खद होता है, सुख देने वाला नहीं। कालोदायी! इस प्रकार जीवों के पापकर्म पाप फलविपाक देते हैं। जीवों के कल्याण कर्म कल्याण फल विपाक देने वाले होते हैं। उनकी भी यही प्रक्रिया है। कर्मफलदान के नियम शुभ, अशुभ कर्म का तदनुसार फल उनमें अन्तर्निहित कर्म फलदान के नियम से ही प्राप्त हो जाता है। उसके लिए कर्म फलाध्यक्ष के रूप में ईश्वर की स्वीकृति आवश्यक नहीं है। कर्म के कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व में जीव स्वयं उत्तरदायी है। कर्म के फल वेदन की एक स्वयंकृत व्यवस्था है। कर्मबंध के समय उसकी स्थिति और फल देने की क्षमता का निर्धारण हो जाता है। जैसे ही स्थिति का परिपाक होता है, वैसे ही कर्म विपाकाभिमुखी होकर उदय में आ जाता है। जिस कर्म का उदय होता है उसी का वेदन होता है। जिसका उदय नहीं होता, उसका वेदन भी नहीं होता है। जीव के सत्ता रूप में तो अनन्त कर्म परमाणु चिपके हुए हैं किंतु उन सबका एक साथ फल भोग नहीं होता जो कर्मपरमाणु फल देने के योग्य बन गए हैं वे ही उदय में आकर अपना फल देते हैं, अन्य नहीं देते। यह कर्मफलयोग की व्यवस्था है। कर्मफल में असंविभाग जैन-परम्परा के अनुसार जीव स्वकृत कर्म का ही भोग करता है। किसी की भी कर्मफलभोग में सहभागिता नहीं हो सकती। शुभ-अशुभ किसी भी प्रकार के कर्म का हस्तान्तरण नहीं किया जा सकता। जो कर्म को करता है वही उसके फल का भोग करता है। यह जैन-परम्परा का सर्वमान्य सिद्धान्त है। भगवान् महावीर ने कहा जीव स्वकृत दु:खों का 1. अंगपुत्ताणि 2, (भगवई) 7/224 2. वही, 7.226 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ही भोग करता है । परकृत एवं उभयकृत कर्म का वेदन नहीं किया जा सकता ।' व्यक्ति मोह के वशीभूत होकर स्वयं के लिए, ज्ञातिजनों के लिए, अपनों के लिए विभिन्न प्रकार के दुष्कर्म करता है किंतु उस कटु कर्म के फल भोग के समय मित्र, बन्धु-बांधव उसका साथ नहीं निभाते हैं। उत्तराध्ययन में इस तथ्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है - " ज्ञाति, मित्र, पुत्र और बांधव व्यक्ति का दु:ख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है क्योंकि कर्ता का अनुगमन करता है। " " संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो सामुदायिक कर्म करता है, उस कर्म के फलभोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते उसका भाग नहीं बंटाते हैं । " जैन परम्परा में 'श्राद्ध' आदि परम्परा मान्य नहीं है । श्राद्धकाल में प्रदत्त भोजन पितरों के पास पहुंचता है - इस मान्यता को जैन अस्वीकार करता है । यद्यपि जैन परम्परा में भी यह माना जाता है कि संयमी व्यक्ति को दान से व्यक्ति के निर्जरा तथा साथ में पुण्य कर्म का बंध होता है किंतु साधु के पुण्य कर्म का फल उसे प्राप्त हो जाता है, यह जैन को मान्य नहीं है । जैनदर्शन का यह सुनिश्चित मन्तव्य है कि प्राणी के मंगल अमंगल, सुख-दुःख, लाभ-हानि आदि सारी परिस्थितियां स्वयंकृत कर्म के कारण हैं। आत्मा ने पूर्व में जैसे कर्म किए हैं उसी के अनुसार शुभ-अशुभ फल प्राप्त होता । यदि दूसरे के दिए हुए कर्म से सुखदु:ख आदि की प्राप्ति हो तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जाते हैं। अपने किए हुए कर्म के अतिरिक्त आत्मा को कोई कुछ नहीं दे सकता । ' जैन आगम में दर्शन सुख का संविभाग भी अमान्य जैन परम्परा के साहित्य में स्थान-स्थान पर यह उल्लेख प्राप्त है कि जीव के दुःख को कोई नहीं बंटा सकता । सुख को बंटा सकता है या नहीं ? इस सम्बन्ध में कोई वक्तव्य प्राप्त नहीं है? क्या इस स्थिति में ऐसा माना जा सकता है कि पाप कर्म के फलभोग में तो संविभाग नहीं होता किंतु पुण्यकर्म के फल में संविभाग हो सकता है, जैसा कि बौद्ध परम्परा मानती है कि पुण्य की परिणामना हो सकती है। इस जिज्ञासा के संदर्भ में यह वक्तव्य है कि कर्म के फल जो कुछ भी प्राप्त होता है वह सारा दुःख रूप ही है भले ही लौकिक दृष्टि पुण्य के भोग को 1. अंगसुत्ताणि 2, ( भगवई ) 17 / 61 गोयमा । अत्तकडं दुक्खं वेदेंति, 2. उत्तरज्झयणाणि 13 / 23 4. 3. वही, 4/ 4 संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उवेंति ॥ (अमृतकलश 1) परमात्मा द्वात्रिंशिका (ले. अमितगति, चूरू, 1998) 30-31 स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा । निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्याऽपि ददाति किंचन । नो परकडं दुक्खं वेदेति, नो तदुभयकडे दुक्खं वेदेंति । न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणुहोई दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म || Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 201 सुख माना जाता हो। अध्यात्म की दृष्टि से कर्म के उदय से प्राप्त होने वाला सब कुछ दु:ख रूप ही है। भगवती सूत्र में कर्म निर्जरा को सुख कहा है- 'जे निज्जिण्णे से सुहे'' अध्यात्म की दृष्टि से वास्तविक सुख तो कर्म की निर्जरा ही है। निर्जरा के द्वारा ही आत्मा कर्म की गुरुता से हल्की होती है। ज्ञानी व्यक्ति के लिए सब कुछ (भौतिक पदार्थ) दु:ख रूप हो है-दु:खमेव सर्वं विवेकिनः। संसार एवं अध्यात्म की दृष्टि में सुख की अवधारणा में भेद है। संसार में जिसको सुख माना जाता है वस्तुत: वह दु:ख ही है अत: दु:ख में हिस्सा नहीं बंटा सकते । इस वक्तव्य का तात्पर्य यही है कि प्राणी के कर्मजनित शुभ-अशुभ फलभोग में किसी की भी सहभागिता नहीं हो सकती। प्राणी अपने कर्मफल को न तो किसी को दे सकता है और न ही दूसरों से वह ले सकता है। कर्म का कर्तृत्व जीव का है वैसे ही कर्म का भोक्तृत्व भी जीव का ही है। अन्य का संविभाग इसमें नहीं है। आश्रव : कर्म आकर्षण का हेतु क्रियात्मक शक्ति-जनित कम्पन के द्वारा आत्मा और कर्म-परमाणुओं का संयोग होता है। इस प्रक्रिया को आश्रव कहा जाता है। आत्मा के साथ संयुक्त कर्मयोग्य परमाणु कर्म रूप में परिवर्तित होते हैं। इस प्रक्रिया को बंध कहा जाता है। बंध : आश्रव एवं निर्जरा का मध्यवर्ती बंध आशव और निर्जरा के मध्य की स्थिति है। आश्रव के द्वारा बाहरी पौद्गलिक धाराएं शरीर में आती हैं। निर्जरा के द्वारा वे फिर शरीर से बाहर चली जाती हैं। जीव और कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों के सम्बन्ध को जैन कर्म सिद्धान्त की परिभाषा में बंध कहा जाता है। बंध के प्रकार बंध के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं- 1. प्रकृति, 2. स्थिति, 3. अनुभाग एवं 4. प्रदेश ।' 1. प्रकृति बंध - स्थिति, रस और प्रदेश बन्ध के समुदाय को प्रकृतिबंध कहा जाता है।' इस परिभाषा के अनुसार शेष तीनों बंधों के समुदाय का नाम ही प्रकृतिबंध है। प्रकृति का अर्थ है अंश या भेद । ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकृतियों का जो बंध होता है, उसे प्रकृतिबंध कहा जाता है अथवा प्रकृति का एक अर्थ स्वभाव भी है। पृथक्-पृथक् कर्मों में जो ज्ञान आदि को आवृत्त करने का स्वभाव है, वह प्रकृति बंध है।' 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 7/160 2. पातञ्जलयोगसूत्र 2/15 3. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 309 4. ठाणं 4/290, चउविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहां-पगति बंधे, ठिति बंधे, अणुभावबंधे, पदेस बंधे। 5. पञ्चसंग्रह, गाथा 432 स्थानांगवृत्ति, पत्र 220 कर्मण: प्रकृतयः- अंशा भेदा ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ, तासां प्रकृतेर्वा अविशेषितस्य कर्मणो बन्ध: प्रकृतिबन्धः। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन 2. स्थितिबंध - जीवगृहीत कर्म-पुद्गलों की जीव के साथ रहने की काल मर्यादा को स्थिति बंध कहा गया है। 202 3. अनुभाव बंध - कर्म पुद्गलों की फल देने की शक्ति को अनुभाव बंध कहा जाता है । 4. प्रदेशबंध - कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों का जीव के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसे प्रदेशबंध कहा जाता है। मोदक का उदाहरण प्राचीन आचार्यों ने इन बंधों का स्वरूप मोदक के दृष्टांत से समझाया है। विभिन्न वस्तुओं से निष्पन्न होने वाले कोई मोदक वातहर, कोई कफहर या पित्तहर होते हैं। इसी प्रकार कोई कर्म ज्ञान आवृत्त करता है, कोई व्यामोह उत्पन्न करता है और कोई सुख-दुःख उत्पन्न करता है । यह प्रकृति बंध है । कोई मोदक दो दिन तक विकृत नहीं होता, कोई चार दिन तक विकृत नहीं होता । इसी प्रकार कुछ कर्म आत्मा के साथ थोड़े समय तक रहते हैं, कुछ दीर्घकाल तक रहते हैं। यह स्थितिबंध है । कोई मोदक अधिक मधुर होता है, कोई कम मधुर होता है। इसी प्रकार कोई कर्म तीव्र रसवाला होता है, कोई मंद रस वाला होता है। यह अनुभावबंध है । कोई मोदक छटांक - भर का होता है, कोई पाव का। इसी प्रकार कोई कर्म अल्प परमाणु समुदाय वाला होता है, कोई अधिक परमाणु समुदाय वाला होता है यह प्रदेश बंध है । प्रकृति बंध के भेद कर्म के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अन्तराय-ये आठ भेद हैं।' ये आठों तथा इनके उत्तर भेद सारे प्रकृति बंध के भेद हैं। सामान्यत: ज्ञानावरणीय कर्म की पांच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठावीस, आयुष्य की चार, नाम की दो, गोत्र की दो तथा अन्तराय की पांच उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख प्राप्त होता है । स्थानांग में इन आठों ही कर्मों की दो-दो प्रकृत्तियों का ही उल्लेख है । अन्तराय कर्म के दो भेद स्थानांग में अन्तराय कर्म की जिन दो प्रकृतियों का उल्लेख हुआ है उससे इस कर्म की व्यापकता का अवबोध होता है । अन्तराय कर्म की दानान्तराय आदि जो पांच प्रकृतियों 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/477 2. ठाणं 2/424431 Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 203 का उल्लेख प्राप्त होता है वह इस कर्म के उदाहरण मात्र है।' ठाणं में वर्णित अन्तराय की दो प्रकृतियों से अन्तराय कर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण अवगति प्राप्त होती है। ठाणं में अन्तराय कर्म के निम्नलिखित भेद प्राप्त होते हैं - ___ 1. प्रत्युत्पन्न विनाशित- इसका कार्य है वर्तमान में प्राप्त वस्तु को विनष्ट करना, उपहत करना। 2.पिधत्ते आगामि पथ-इसका कार्य है भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करना। इसका तात्पर्य है जीवके अभ्युदय या निश्रेयस की प्राप्ति के सहायक तत्त्वों की उपलब्धि में जो अवरोध उपस्थित होता है उस अवरोध का कारण अन्तराय कर्म है। वर्तमान में दान, लाभ, भोग आदि का अन्तराय कर्म के भेदों के रूप में उल्लेख बहुतायत में प्राप्त है। इन दो भेदों की अवगति अति न्यून है। वस्तुत: विमर्श करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्तराय कर्म के ये दो प्रकार प्रधान हैं। इनके परिपार्श्व में ही अन्य प्रकारों का निरूपण सहज ही हो जाता है। कर्म की अवस्था ___ कर्म की सामान्यत: दस अवस्थाएं मानी जाती हैं- 1. बंध, 2. सत्ता, 3. उदय, 4. उदीरणा, 5. उद्वर्तन, 6. अपवर्तन, 7. संक्रमण, 8. उपशमन, 9. निधत्ति एवं 10. निकाचना। 1. जीव और कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध को बंध कहा जाता है। 2. कर्म-पुद्गलों की अनुदित अवस्था को सत्ता कहा जाता है। 3. कर्मों के विपाक काल को उदय कहा जाता है। 4. अपवर्तना के द्वारा निश्चित समय से पहले कर्मों को उदय में लाने को उदीरणा कहा जाता है। 5. कर्मों की स्थिति एवं अनुभाव की जो वृद्धि होती है, उसे उद्वर्तना कहा जाता है। 6. कर्मों की स्थिति एवं अनुभाव की जो हानि होती है, उसे अपवर्तना कहा जाता है। 7. सजातीय कर्म प्रकृतियों के एक दूसरे में परिणमन को संक्रमण कहा जाता है। शुभ प्रकृति का अशुभ विपाक के रूप में और अशुभ प्रकृति का शुभ प्रकृति के रूप में परिणमन इसी कारण से होता है। इसकी विस्तृत चर्चा आगे की जाएगी। 1. ठाणं 2/431 का टिप्पण, पृ. 149 2. ठाणं 2/43। अंतराइए कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पड़प्पण्णविणासिए चेव, पिहति य आगामिपहं चेव। जैन सिद्धान्त दीपिका 4/5 बंध-उद्वर्तना-अपवर्तना-सत्ता-उदय-उदीरणा-संक्रमण-उपशम-निधत्तिनिकाचनास्तदवस्थाः। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 जैन आगम में दर्शन 8. मोहकर्मको उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना के अयोग्य करने को उपशमन कहा जाता है। 9. उद्वर्तना एवं अपवर्तना के सिवाय शेष छह करणों के अयोग्य अवस्था को निधत्ति कहते हैं। 10. जिस कर्म का उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरण, संक्रमण और निधत्तन न हो सके उसे निकाचित कहा जाता है। कर्म का परिवर्तन कर्म की इन दस अवस्थाओं के माध्यम से कर्म परिवर्तन का सिद्धान्त स्पष्ट हो रहा है। भगवान महावीर के दर्शन में कर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है किन्तु वह सर्वेसर्वा नहीं है। विशिष्ट पुरुषार्थ के द्वारा उसमें भी परिवर्तन संभव है। यह जैन दर्शन की विशिष्ट स्वीकृति है। जीव अपनी स्वाभाविक पारिणामिक भाव की शक्ति के द्वारा अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति की ओर गतिशील रहता है। जीव द्वारा कृत क्रिया से बंधे हुए कर्मों का जीव की ही विशिष्ट क्रिया के द्वारा उनमें परिवर्तन संभव है। जैन दर्शन में कर्म परिवर्तन का महत्वपूर्ण स्थान हैं। कर्म की दस अवस्थाओं में एक का नाम है-संक्रमण । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबंध के इन चारों ही प्रकारों का संक्रमण संभव है। अशुभ का उदय शुभ में एवं शुभ का उदय अशुभ में परिणत हो सकता ह। जैसे कोई व्यक्ति साता वेदनीय का भोग कर रहा है, उस समय अशुभ कर्म की प्रबलता हो जाए तो साता वेदनीय असाता में संक्रान्त हो जाता है। भगवती में प्राप्त संवृत्त एवं असंवृत्त अनगार का प्रसंग संक्रमण के सम्बन्ध में विशेष मननीय है। असंवृत्त-संवृत्त अनगार का उदाहरण असंवृत्त अनगार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ बन्धन बद्ध करता है। अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश परिमाण वाली करता है। संवृत्त अनगार के इससे विपरीत होता है अर्थात् गाढ़ बंधन शिथिल, दीर्घकाल का अल्पकाल तीव्ररस का मंद रस बहुप्रदेश परिमाण अल्पप्रदेश परिमाण हो जाता है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पांच इन्द्रियों के वशीभूत होकर जीव सात कर्म प्रकृतियों के शिथिल बंध को सघन ह्रस्वकाल स्थिति को दीर्घकाल, मंदानुभाव को तीव्र विपाक एवं अल्पप्रदेशाग्र को बहुप्रदेशाग्र करता है। कर्म-परिवर्तन प्रकृति, स्थिति, अनुभाव एवं प्रदेश कर्म की इन चार अवस्थाओं 1. भगवई (खण्ड-1) (भगवतीवृत्ति 1/2 4) यथा कस्यचित् सवेधमनुभवतोऽशुभकर्मपरिणतिरेवंविधा जाता येन यदेव सद्वेद्यमसद्वेद्यतया संक्रामतीति । 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/45, 47 3. वही, 12/22-25 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 205 का होता है। अशुभ और शुभ-दोनों प्रकार की भावधारा के साथ कर्म की अवस्था में परिवर्तन होता रहता है। कर्मवाद का सामान्य नियम कर्मवाद का सामान्य नियम है- सुचीर्ण कर्म का शुभ फल होता है और दुश्चीर्ण कर्म का अशुभ फल होता है। जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फल भुगतना पड़ता है। यह कर्मवाद का सामान्य सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त का संक्रमण सिद्धान्त में अतिक्रमण होता है।' बंधनकाल का शुभकर्म संक्रमण के द्वारा विपाककाल में अशुभ हो जाता है तथा बंधनकाल का अशुभकर्म शुभकर्म पुद्गलों की प्रचुरता के संक्रान्त होकर विपाककाल में शुभ हो जाता है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव आयुष्य कर्म की इन चार उत्तर प्रकृतियों का तथा मोह कर्म के मुख्य दो भेद-दर्शनमोह एवं चारित्रमोह का परस्पर संक्रमण नहीं होता है। भगवान् महावीर ने कर्म के सम्बन्ध में अनेक नवीन अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है। कर्म को बदला जा सकता है। यह जैन कर्म सिद्धान्त की मौलिक उद्भावना है। आज विज्ञान जगत् में कुछ अभिनव प्रयोग हो रहे हैं। लिंग परिवर्तन की घटनाएं आम हो रही हैं। पुरुष का महिला एवं महिला का पुरुष रूप में परिवर्तन चिकित्सकीय पद्धति से हो रहा है। कर्म-सिद्धान्त की भाषा में वह नाम कर्म की प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण हुआ है। ऐसे ही क्लोनिंग, टेस्ट ट्यूब बेबी आदि से सम्बंधित प्रश्नों का समाधान कर्मवाद के आलोक में भी खोजा जा सकता है। कर्मवाद और पुरुषार्थ दर्शन जगत में कर्म एवं पुरुषार्थ की अवधारणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कुछ दार्शनिक जगत का नियामक ईश्वर को स्वीकार करते हैं। ईश्वर के जगत कर्तृत्व का सिद्धान्त उन्हें मान्य है। प्राणी की सम्पूर्ण अवस्थाएं ईश्वर नियंत्रित होती है। सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक अवस्थाएं ईश्वर प्रेरित है। ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।। अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयो ।' जैन दर्शन में जगत कर्ता के रूप में ईश्वर का स्वीकार नहीं है किन्तु इस दर्शन ने कर्म 1. ठाणं 4/5 0 3, चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा सुभे नाममेगे सुभविवागे, सुभे नाममेगे असुभविवागे, असुभे नाममेगे सुभविवागे, असुभे नाममेगे असुभविवागे। 2. जैन सिद्धान्त दीपिका 4/5 सूत्र का पाद टिप्पण - आयुषः प्रकृतीनां दर्शनमोह-चारित्रमोहयोश्च मिथः संक्रमणा न भवति। 3. स्याद्वादमंजरी, उद्धृत कारिका 6 पृ. 30. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन को स्वीकार किया है। वैयक्तिक विविधताओं का हेतु कर्म को स्वीकार किया है। वैयक्तिक विविधताओं का हेतु कर्म है। यहां पर भी एक प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्म ही यदि सभी वस्तुओं का नियामक है तो ईश्वर और कर्म में अन्तर क्या रहा । ईश्वरवादियों के यहां ईश्वर सर्वेसर्वा है वहीं कर्मवादियों के यहां कर्म सर्वेसर्वा है। नाम मात्र का ही अन्तर रहा। इस संदर्भ में यह मननीय है कि जैन दर्शन कर्म की शक्ति को असीम नहीं मानता कर्म भी सापेक्ष शक्ति सम्पन्न ही है। भगवान महावीर ने पुरुषार्थवाद का प्रतिपादन किया है। कर्म पुरुषार्थकृत है किन्तु पुरुषार्थ कर्मकृत नहीं है। जीव अपने उत्थान आदि के द्वारा जैसे कर्मो को बांधता है वैसे ही उनको तोड़ भी सकता है। भगवान महावीर के दर्शन में पुरुषार्थ एवं कर्मवाद का समन्वय है। उनकी अपनी-अपनी सीमा है । प्रयत्न के द्वारा कृत कर्मों को बदला जा सकता है। उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा एवं संक्रमण ये पुरुषार्थ द्वारा कर्म परिवर्तन के स्पष्ट निदर्शन हैं। जीव अपने विशेष पुरुषार्थ के द्वारा प्रकृति, स्थिति अनुभाव एवं प्रदेश इन चारों में परिवर्तन कर सकता है । किन्तु पुरुषार्थ के द्वारा निकाचित कर्मों को नहीं तोड़ा जा सकता । उनका भोग अवश्यंभावी है । पुरुषार्थ एवं कर्मवाद परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं किन्तु अनेकान्त दृष्टि से उनके कार्यक्षेत्र की सीमा का बोध होने से दोनों की एक साथ स्वीकृति तर्कगम्य है । पुरुषार्थ और कर्म सापेक्ष हैं । उदीरणा 206 बन्ध की प्रक्रिया से कर्म आत्मा से संलग्न होते हैं। कर्म बंधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नहीं करते। एक निश्चित समयावधि बाद वे कर्म फलदान के योग्य बनते हैं। वह समय सीमा पूर्ण होते ही वे उदय में आ जाते हैं। यह कर्म के उदय की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसमें न पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती है किन्तु उदीरणा में समय से पूर्व कर्म को उदय में लाया जाता है अतः उदीरणा के लिए विशेष पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। निश्चित समय से पहले कर्मों का उदय होता है, उसे उदीरणा कहते हैं । उदीरणा कर्म के आठ करणों में पांचवा करण है।' इसमें अपवर्तना की अपेक्षा रहती है। कर्म दो प्रकार से उदय में आ सकते हैं । ( 1 ) एक तो स्वाभाविक रूप से । (2) उदीरणा के द्वारा कर्म का उदय । पञ्चसंग्रह में सहज उदय को संप्राप्ति उदय एवं उदीरणा उदय को असंप्राप्ति उदय कहा गया है।' अयथाकाल विपाक को तत्त्वार्थवार्तिक में उदीरणा उदय कहा है।' उदीरणा सब कर्मों की नहीं हो सकती। उसी कर्म की उदीरणा होती है, जो उदीरणा योग्य बन जाता है। उपशम, निधत्ति और निकाचना ये तीन अवस्थाएं उदीरणा के अयोग्य हैं ।' साधना के क्षेत्र में उदीरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 12/22-25 2. कर्मप्रकृति, गाथा 2 बंधणसंकमणुव्वट्टणा य अववट्टणा उदीरणया । उवसामणा निहत्ती निकायणा चत्ति करणाई || 3. पञ्चसंग्रह (श्वे. ) गाथा 253 संपत्तिए य उदये पओगओ दिस्सई उईरणा सा । 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक (ले. आचार्य अकलंक, दिल्ली, 1993) II 9 / 36 / 9 अयथाकाल - विपाक उदीरणोदयः । 5. कर्म प्रकृति (ले. शिवशर्म सूरि, बीकानेर, 1982) गाथा 2 की टीका पृ. 48-49 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा साधक अपनी साधना के द्वारा उदीरणा के माध्यम से कर्म भोग करके शीघ्रता से अपने लक्ष्य की निकटता को प्राप्त कर सकता है। महावीर - गौतम का संवाद गौतम ने भगवान से पूछा - भंते! 1. जीव उदीर्ण कर्म पुद्गलों की उदीरणा करता है ? 2. अनुदीर्ण कर्म पुद्गलों की उदीरणा करता है ? 3. जीव अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा योग्य कर्म पुद्गलों की उदीरणा करता है ? 4. जीव उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म पुद्गलों की उदीरणा करता है ? भगवान ने कहा- गौतम ! 1. जीव उदीर्ण की उदीरणा नहीं करता। 2. जीव अनुदीर्ण की उदीरणा नहीं करता । 3. जीव अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा - योग्य की उदीरणा करता है । 4. जीव उदयानन्तर पश्चात्कृत कर्म की उदीरणा नहीं करता । ' नोकर्म की निर्जरा कर्म का ही उदय होता है, कर्म की ही वेदना होती है। इसी संदर्भ में गौतम ने प्रश्न उपस्थित किया भंते ! क्या जो वदेना है वह निर्जरा है ? जो निर्जरा है वह वेदना है ? भगवान ने कहा गौतम यह अर्थ संगत नहीं है । वेदना कर्म की होती है, निर्जरा नोकर्म की होती है । ' जब उदय में आए हुए कर्म अपना फल देकर निवीर्य बन जाते हैं उनको नोकर्म कहते हैं। निर्जरा उनकी ही होती है । वेदना और निर्जरा एक नहीं है, भिन्न-भिन्न है । ' तत्त्वार्थ सूत्र में वेदना और निर्जरा को एक माना गया है । ' वेदना और निर्जरा के सम्बन्ध में तत्त्वार्थ एवं भगवती की अवधारणा में भिन्नता परिलक्षित है । यद्यपि यह स्पष्ट ही है कि वेदना के बाद ही निर्जरा होती है । तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी में वेदना एवं विपाक को निर्जरा के पर्यायवाची मानकर भी उसमें भेद किया है । वेदना अनुभव रूप है । उसका स्वादन विपाक है तथा जिन कर्मों का रस अनुभूत कर लिया है उनका आत्मप्रदेशों से परिशाटन / अलग हो जाना निर्जरा है ।' भाष्यानुसारिणी का विश्लेषण भगवती की अवधारणा का ही अनुगमन है । भगवती में वेदना एवं निर्जरा दो काही उल्लेख है जबकि तत्त्वार्थभाष्य एवं उसकी टीका में इन दो के अतिरिक्त विपाक का 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/156 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 7/75 गोयमा । कम्मं वेदणा, नोकम्मं निज्जरा.......... 3. वही 7/75 जा वेदणा न सा निज्जरा जा निज्जरा न सा वेदणा । . 207 4. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य 9 / 7 (निर्जरानुप्रेक्षा) निर्जरा, वेदना, विपाक इत्यनर्थान्तरम् । 5. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका 9 / 7 तत्र वेदना अनुभव: तस्या स्वादनं विपचनं विपाकः, आत्मप्रदेशभ्योऽनुभूत रसकर्मपुद्गलपरिशाटना । . निर्जरा Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 जैन आगम में दर्शन भी उल्लेख है। विपाक, वेदना एवं निर्जरा की मध्यवर्ती अवस्था है जिसका समावेश वेदना में हो सकता है। चलित-अचलित कर्म कर्म की बन्ध, उदीरणा, वेदना, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्ति, निकाचना एवं निर्जरा रूप अवस्थाओं के विशेष विमर्श के समय भगवती सूत्र में चलित एवं अचलित कर्म की चर्चा हुई है। कर्मों की इन अवस्थाओं में बन्ध, उदीरणा आदि अवस्थाओं में कर्म-पुद्गल की कैसी अवस्था रहती है ? वेचलित होते हैं अथवा अचलित होते हैं ? इसका सापेक्ष वर्णन भगवती में हुआ है। जीव अपनी प्रवृत्ति द्वारा कर्म-परमाणुओं को आकर्षित करता है। वे आकर्षित कर्म पुद्गल स्कन्ध आत्मा से संयुक्त हो जाते हैं, स्थित हो जाते हैं वे अचलित कर्म कहलाते हैं और जो उस स्थिरावस्था को छोड़कर पुनः प्रकम्पित होते हैं, उनको चलित कर्म कहा गया है।' कर्म की अवस्थाओं के संदर्भ में चलित और अचलित शब्द का प्रयोग सापेक्ष है। बंध, उदय, वेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्तन और निकाचन जीव प्रदेशों से अचलित कर्म का होता है तथा निर्जरा जीव प्रदेशों से चलित कर्म की होती है।' जीव जब कर्म पुद्गलों का ग्रहण कर रहा है प्रस्तुत विवेचन के अनुसार वह कर्म की बंध अवस्था नहीं है किंतु गृहीत होने के पश्चात् जब वे जीव-प्रदेशों में स्थित होते हैं तब ही उसे बंध अवस्था कहा जाता है। सामान्यत: बन्ध, उदय, वेदन, अपवर्तन आदि के समय कर्म-पुद्गलों के चलित होने की अवस्था का भान होता है किंतु भगवती सूत्रकार इसे अचलित कर्म कह रहे हैं। इसका तात्पर्य यह प्रतीत हो रहा है कि कर्म-पुद्गलों में प्रकम्पन होने का अर्थ यहां चलित नहीं है। चलित उसी अवस्था को कहा जाएगा जिसमें कर्म-पुद्गलों का आत्मा से विसम्बन्ध हो जाएगा। जब तक कर्म-पुद्गल जीव प्रदेशों से संयुक्त हैं भले उनमें प्रकम्पन हो रहा हो वे अचलित कर्म ही कहलाएंगे। स्वप्रदेशावगाही पुद्गलों का ग्रहण जैन परम्परा के अनुसार कर्म चतु:स्पर्शी पुद्गल होते हैं। जो कर्मवर्गणा के रूप में सम्पूर्ण लोक में फैले हुए हैं। जीव अपनी शुभाशुभ प्रवृत्ति से उनको आकृष्ट करके कर्मरूप में परिणत करता है। कर्म वर्गणा के परमाणु सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं किंतु उन सब कर्म परमाणुओं 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/28-31 2. भगवई (खण्ड-1) पृ. 356 (भगवती वृत्ति 1/28 - 32) जीवप्रदेशेभ्यश्चलितं-तेष्वनवस्थानशीलं तदितरत्त्वचलितम् 3. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/31 संग्रहणी गाथा-बंधोदयवेदोयट्टसंकमे तह निहत्तणनिकाए। अचलिकम्मं तु भवे, चलियं जीवाउ निजरए।। 4. गाथा 16/16 कम्मगसरीरे चउफासे Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 209 का ग्रहण जीव नहीं कर सकता है। जीव के द्वारा वे ही कर्म-पुद्गल गृहीत होते हैं जो कर्म पुद्गल उसके आत्म प्रदेशों पर अवस्थित हैं अर्थात् जिन आकाश प्रदेशों में जीव के आत्म प्रदेश अवगाहित हैं उन्हीं आकाश प्रदेशों पर अवगाहित कर्म परमाणुओं का ही जीव ग्रहण कर सकता है। अनन्त एवं परम्पर आकाशप्रदेशों पर अवस्थित का वह ग्रहण नहीं कर सकता।' कार्मण वर्गणा सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है, इस हेतु से जहां भी आत्म-प्रदेश अवगाहित हैं वहां सर्वत्र कर्म-परमाणु उपस्थित हैं। जीव सभी आत्म प्रदेशों पर स्थित कर्म परमाणुओं का ग्रहण करे ही यह आवश्यक नहीं है वह कभी एक, दो या अनेक आत्म प्रदेशों पर स्थित कर्म परमाणुओं का भी ग्रहण करता है। कभी सभी आत्म-प्रदेशों पर स्थित कर्म-परमाणुओं का ग्रहण करता है। किन्तु उन कर्म-पुद्गलों का ग्रहण सभी आत्म-प्रदेशों के द्वारा ही होगा।' ऐसा नहीं होता है कि जिन आत्म प्रदेशों पर स्थित कर्म पुद्गल को जीव ग्रहण करता है वे ही आत्म प्रदेश उनको ग्रहण करते हैं। कर्म ग्रहणकाल में सभी आत्म प्रदेशों की सहभागिता होती है। कर्म प्रकृति में भी यह तथ्य प्रतिपादित हुआ है। जीव का स्वभाव मानकर भी इसकी व्याख्या भगवती वृत्तिकार ने की है। एक काल में जितने कर्म पुद्गलों का ग्रहण करना है उनका एक साथ ही जीव ग्रहण करता है। भगवती में कर्म ग्रहण प्रक्रिया में 'सव्वेणं सव्वे' का सिद्धान्त प्रतिपादित है अर्थात् कम ग्रहण काल में सारे आत्म प्रदेश एक साथ उस काल में गृहीत होने वाले सारे पुद्गलों को एक साथ ग्रहण करते हैं। आगे पीछे उनका ग्रहण नहीं होता है। कर्मबंध की समानता या विषमता संसार में शरीर की अपेक्षा से छोटे और बड़े दोनों ही प्रकार के प्राणी हैं। कुंथु आदि बहुत छोटे शरीर और हाथी आदि बहुत बड़े शरीर वाले प्राणी हैं। इस संदर्भ में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इन छोटे और बड़े जीवों की हिंसा में कर्मबंध समान होगा या भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा।' आगम के व्याख्याकारों ने इस प्रश्न को विभिन्न प्रकार से समाहित करने का प्रयत्न किया है। सूत्रकृतांगचूर्णि में निर्देश है कि अहिंसा की समीक्षा करने वाले प्रस्तुत प्रसंग में 1. अंगसुत्ताणि ? (भगवई) 6/186 आयसरीररवेनोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति, नो अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले आहारेंति, नो परंपरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारेति। 2. वही 1/11 .........सब्वेणं सव्वे कडे। 3. कर्मप्रकृति 21, एगमवि गहणदव्वं, सव्वप्पणयाए जीवदेसम्मि। सव्वप्पणया सव्वत्थ वावि सव्वे गहणखंधे।। भगवती वृत्ति ।/119 जीवस्वाभाव्यात् सर्वस्वप्रदेशावगाढतदेकसमयबन्धनीयकर्मपुद्गलबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां व्यापार इत्यत उच्यते-सर्वात्मना। 5. वही, 1/।। 9--सर्वं तदेककालकरणीयं कांक्षामोहनीयं कर्म। 6. सूयगडो 2/5/6 जे केई खुड्डुगा पाणा अदुवा संति महालया। सरिसं तेहिं वेरं ति असरिसं ति य णो वए। Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 जैन आगम में दर्शन अवक्तव्यवाद का प्रयोग करे।' चूर्णिकार ने इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- यदि छोटे और बड़े-दोनों प्रकार के जीवों के वध में कर्मबंध एक जैसा बतलाया जाए तो बड़े जीवों की हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है। यदि भिन्न प्रकार का बतलाया जाए तो छोटे जीवों की हिंसा करने में उन्मुक्तता का समर्थन होता है। इसलिए इस विषय में समान या असमान कर्मबंध कहना धर्मसंकट है। प्रस्तुत प्रसंग में अहिंसा की समीक्षा करने वाले को अवक्तव्य का प्रयोग करना चाहिए। हर प्रश्न का समाधान भाषा के द्वारा नहीं दिया जा सकता । आचार-मीमांसा के ऐसे प्रश्नों का समाधान भाषागम्य नहीं है। चूर्णिकार इस अभिमत के संपोषक हैं। कर्मबंध : अध्यवसाय तीव्रता-मंदता सूत्रकृतांग के टीकाकार प्रस्तुत प्रश्न का समाधान वधक के तीव्र एवं मन्द अध्यवसाय के आधार पर देते हैं। सूत्रकृतांग के टीकाकार का अभिमत है कि वध्यप्राणी के आधार पर यदि कर्मबंध होता है तब तो छोटे प्राणी के वध में थोड़ा कर्मबंध और बड़े प्राणी के वध में ज्यादा कर्मबंध होगा। किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है। कर्मबंध का सम्बंध वध्यप्राणी से ही नहीं है उसका सम्बन्ध वध करने वाले के अध्यवसाय से भी है। इस आधार पर यदि कोई प्राणी तीव्र अध्यवसायों से छोटे प्राणी का भी वध करता है तो वह महान् कर्मों का बन्ध करता है और यदि मंद अध्यवसाय से अकाम रहता हुआ बड़े प्राणी का भी वध करता है तो उसके अल्पकर्मों का बन्ध होता है। वध्य के छोटे या बड़े के आधार पर ही कर्म का बंध नहीं होता, किंतु कर्मबंध में वधक का तीव्र या मन्द अध्यवसाय हेतु बनता है। जानते हुए या अनजान में विपुलशक्ति या अल्पशक्ति के साथ जो वध किया जाता है-ये भी कर्मबंध में कारणभूत बनते हैं। इसलिए कर्मबंध की विचारणा में वध्य और वधक दोनों पर विचार करना अपेक्षित है।' एक तर्क है कि जीव सब समान हैं। छोटे-बड़े सबमें आत्मप्रदेशों की समानता है। इसलिए उनके वध में समान कर्मबन्ध होना चाहिए। वृत्तिकार के अनुसार यह अभिमत युक्तिसंगत नहीं है। आत्मा अमर है। वह कभी नहीं मरती। उसकी हिंसा नहीं की जा सकती। हिंसा का जहां कथन होता है वहां प्राणियों की इन्द्रियों का हनन, श्वासोच्छ्वास का हनन विवक्षित होता है। इसलिए कर्मबन्ध में अध्यवसाय ही मुख्यकारण है। तीव्र अध्यवसाय एवं मन्द अध्यवसाय में कृत हिंसा से कर्मबंध एक जैसा नहीं होगा। उसमें आनुपातिक अन्तर अवश्य रहता है। व्यवहार में भी हम देखते हैं कि डॉक्टर किसी रोगी का ऑपरेशन करता है, उसकी भावना रोगी को रोगमुक्त करने की है। रोगी शल्यक्रिया के समय कष्ट का अनुभव करता या अकस्मात् रोगी का प्राणान्त भी हो जाता है। इसमें डॉक्टर प्राण के व्यपरोपण या कष्ट प्रदान 1. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृष्ठ 405 2. सूयगडो 2 2/6-7 का टिप्पण 3. वही, पृ. 304 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 211 के कारण कर्मबन्ध का भागी है या नहीं यह सैद्धान्तिक दृष्टि से विमर्शनीय है। व्यवहार में तो डाक्टर को दोषी नहीं माना जाता है। ___ इसके विपरीत एक व्यक्ति रज्जु को सर्प मानकर उसके टुकड़े-टुकड़े करता है तो भी वह हिंसा के कर्मबन्ध का भागी होता है, क्योंकि उसका अध्यवसाय क्लिष्ट है। हिंसा के भाव से युक्त है। इसलिए कर्मबंध की प्रक्रिया में अध्यवसाय की मंदता, तीव्रता एवं मध्यस्थता बड़ा कारण बनती है। इस प्रसंग में तन्दुल मत्स्य का उदाहरण ज्ञातव्य है।' कांक्षा मोहनीय विमर्श सामान्यत: कांक्षामोहनीय कर्म को मोहनीय कर्म का एक उपभेद माना जाता है। भगवती सूत्र में उल्लेख है कि श्रमण-निर्ग्रन्थ ज्ञानान्तर, दर्शनान्तर, चरित्रान्तर, लिंगान्तर, प्रवचनान्तर, प्रवचनी अन्तर, कल्पान्तर, मार्गान्तर, मतान्तर, भंगान्तर, नयान्तर, नियमान्तर और प्रमाणान्तर - इन तेरह अंतरों से कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं।' यहां सहज की एक प्रश्न उपस्थित होता है कि श्रमण मिथ्यात्व की सीमा का अतिक्रमण कर सम्यक्त्व के साथ व्रत की भूमिका पर आरूढ़ है। श्रमणत्व का प्रारम्भ ही छठे गुणस्थान से होता है। मिथ्यात्व की स्थिति प्रथम एवं तृतीय गुणस्थान तक ही है फिर वे कांक्षामोहनीय का वेदन कैसे करते हैं ? भगवती के अनुसार जैन मुनि भी कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करते हैं । वेदन के पांच कारण बतलाए गए हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, भेद और कलुष । एक ही विषय में अनेक निरूपण, वितर्क और विकल्प सामने आते हैं, तब कांक्षामोहनीय का वेदन शुरु हो जाता है। श्रीमद् जयाचार्य ने कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का अर्थ मिथ्यात्व मोहनीय किया है। उनका तर्क है कि जिस समय कांक्षामोहनीयकर्म का वेदन होता है तब मिथ्यात्व आ जाता है। श्रमणनिर्ग्रन्थ कांक्षामोहनीय का वेदन करते हैं - इस प्रसंग में कांक्षामोहनीय की अवधारणा विमर्शनीय है। प्रस्तुत तेरह 'अंतरों' में तत्त्वश्रद्धा का प्रश्न नहीं है। यह विभिन्न विचारों के प्रति होने वाली आकांक्षा है। आचार्य भिक्षु के अनुसार तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित तत्त्वों में विपरीत श्रन्द्रा करने से मिथ्यात्व आ जाता है, किंतु अन्य विषयों में विपरीत श्रद्धा करने से असत्य का दोष लगता है, पर सम्यक्त्व का नाश नहीं होता है।' 1. सूयगडो 2, पृ. 304 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/170 गोयमा ! तेहिं तेहिं नाणंतरेहिं, दसणंतरेहिं, चरित्तंतरेहि लिंगंतरेहिं पवयणंतरेहिं पावयणंतरेहिं कप्पंतरेहिं मग्गंतरेहिं मतंतरेहिं भंगंतरेहिं णयंतरेहिं नियमंतरेहिं पमाणंतरेहिं संकिता कंखिता, वितिकिच्छिता भेदसमावन्ना कलुससमावन्ना एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेदति। 3. भगवई (खण्ड -1) पृ. 89 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 जैन आगम में दर्शन आचार्य भिक्षु ने 'ज्ञान-मोह' शब्द की मीमांसा में लिखा है कि ज्ञानमोह से ज्ञान में व्यामोह उत्पन्न होता है, वह ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है, मोहनीय कर्म का उदय निश्चित रूप से ही नहीं है।' इस आधार पर प्रस्तुत कांक्षामोहनीय का सम्बन्ध भी ज्ञानमोह की भांति ज्ञानावरण से माना जा सकता है। 'कसायपाहुड' में बतलाया गया है कि गणधर के संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय होने पर उनके संशय को दूर करना दिव्यध्वनि का स्वभाव है।' आनन्द श्रमणोपासक के अवधिज्ञान के सम्बन्ध में गौतम को शंका, कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न हुई थी। तायस्त्रिंश देवों के विषय में भी गौतम शंकित, कांक्षित और विचिकित्सित हुए थे। इन दोनों संदर्भो से यह स्पष्ट फलित होता है कि शंका, कांक्षा और विचिकित्सा का सम्बन्ध ज्ञानावरण के उदय से भी है। कांक्षामोहनीय : स्वरूप भिन्नता सम्यक्त्व के पांच अतिचार हैं। उनमें प्रथमतीन हैं-शंका, कांक्षा और विचिकित्सा।' इनका सम्बन्ध दर्शनमोह से है। निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि जहां शंका, कांक्षा और विचिकित्सा मूल तत्त्व से सम्बद्ध होते हैं, वहां दर्शनमोह का वेदन होता है और जहां वे अन्य विषयों से सम्बद्ध होते हैं, वहां ज्ञानमोह का वेदन होता है। तेरह अंतरों के प्रसंग में कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का सम्बन्ध ज्ञानमोह से प्रतीत होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि कांक्षामोहनीय नामक कर्म ज्ञानावरणीय एवं मोहनीय- इन दोनों ही कर्मों से सम्बंधित है। ज्ञानावरणीय एवं मोहनीय कर्म के उपभेद कांक्षामोहनीय इस नाम का साम्य तो है किंतु इनका स्वरूप सर्वथा भिन्न प्रकार का है जिसका स्पष्ट अवबोध उपर्युक्त चर्चा से हो जाता है। कर्म का वेदन : व्यक्त एवं अव्यक्त ___ कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन पृथ्वीकाय आदि अविकसित चेतना वाले एकेन्द्रिय जीवों सेलेकर चारों गतियों के जीवों के होता है।' पृथ्वी आदि के जीवों की चेतना अविकसित होती है। उनमें बौद्धिक, मानसिक और वाचिक विकास नहीं होता । इस अवस्था में उनमें कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कैसे सम्भव हो सकता है ? यह प्रश्न स्वाभाविक है। इस प्रश्न 1. इन्द्रियवादी की चौपाई ढाल 10 गाथा 33 नाणमोह चाल्यो सूतर मझै, ते ज्ञान में उपजे व्यामोह। ते ज्ञानावरणी रा उदा थकी ते मोह निश्चै नहीं होय। 2. कसाय पाहुड, प्रथम अधिकार गाथा ।, पृ. 1 2 6 संसयविवज्जासाणज्झवसायभावगयगणहरदेवं पडि वट्टमाणसहावा। 3. उवासगदशा 1/79, 80 4. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 10/49 उवासगदशा 1/79, 80, सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समयरिव्वा, तं जहा--संका, कंखा, वितिगिच्छा......... 6. कांक्षा मोहनीय की उपर्युक्त चर्चा भगवई (खण्ड-1) पृ. 89 पर आचार्यश्री महाप्रज्ञ द्वारा की गई है। 7. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1/16 3-168 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 213 कोस्वयं भगवतीकार ने भी उपस्थित किया है। इसके समाधान में उन्होंने लिखा है-पृथ्वीकाय के जीवों में बौद्धिक, मानसिक और वाचिक विकास नहीं होता। वे नहीं जानते कि हम कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन कर रहे हैं, फिर भी उसका वेदन करते हैं। इस समाधान से यह फलित होता है कि वेदन के दो प्रकार हैं- व्यक्त और अव्यक्त । अविकसित जीवों के कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन अव्यक्त होता है। वह इन्द्रिय गम्य नहीं है। भगवती में इस संदर्भ में 'तमेव सच्चंणीसंकं' यह साक्ष्य उद्धृत किया है।' जिस तथ्य का अवबोध प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणों से प्राप्त नहीं होता है वहां पर आगम प्रमाण से तथ्य को प्रमाणित किया जाता है। भारतीय दर्शन में शब्द प्रमाण को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। अतीन्द्रिय पदार्थ की अवगति का मुख्य साधन शब्द प्रमाण ही है। जो तथ्य प्रत्यक्ष एवं अनुमान से ज्ञात नहीं होते उनको जानने का एकमात्र साधन आगम है। इसी प्रकार की अवगति के लिए ही आगम का वैशिष्ट्य है। वेद के वैशिष्ट्य को भी इसी आधार पर विवेचित किया गया है। मोहनीय कर्म के बावन नाम समवायांग में मोहनीय कर्म के बावन नामों का उल्लेख है। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय मोहनीय कर्म के अवयव हैं। अवयवों में अवयवी का अथवा खण्ड में समुदय का उपचार कर इन चारों कषायों के नामों को मोहनीय के नाम रूप में उल्लिखित किया है। इनमें क्रोध के दस, मान के ग्यारह, माया के सतरह और लोभ के चौदह नाम गिनाए हैं। उन सबका योग बावन होता है। वे नाम निम्न हैं-क्रोध, कोप, रोष, अक्षमा, संज्वलन, कलह, चांडिक्य, भंडन और विवाद । मान, मद, दर्प, स्तम्भ, आत्मोत्कर्ष, गर्व, पर-परिवाद, उत्कर्ष, अपकर्ष, उन्नत और उन्नाम। माया, उपधि, निकृति, वलय, गहन, नूम, कल्क, कुरुक, दम्भ, कूट, जैह्य, किल्विषिक, अनाचरण, गूहन, वंचन, परिकुंचन और साचियोग। लोभ, इच्छा, मूर्छा, कांक्षा, गृद्धि, तृष्णा, मिथ्या, अभिध्या, कामाशा, भोगाशा, जीविताशा, मरणाशा, नंदी और राग। मोहनीय कर्म के भेदों एवं उपभेदों को ही उसके नाम के रूप में उल्लिखित किया गया है। 1. भगवई (खण्ड-!) पृ. 87-88 2. ऋग्वेद संहिता, सायणभाष्य, उपोद्घात, पृ. 26 पर उद्धृत, (वाराणसी, 1997) प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न बुद्धयते। एनं विदन्ति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता।। 3. समवाओ 521 मोहणिज्नस्स णं कम्मस्स बावन्नं नामज्जा पण्णत्ता, तं जहा-कोहे, रोसे............ 4. समवाओ पृ. 218 (टिप्पण) Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 जैन आगम में दर्शन मोह के तीन प्रकार स्थानांग में ज्ञानमोह, दर्शनमोह एवं चारित्रमोह के भेद से मोह को तीन प्रकार का कहा गया है।' वृत्तिकार नेज्ञानमोह का अर्थज्ञानावरण का उदय और दर्शनमोहका अर्थसम्यक् दर्शन का मोहोदय किया है। यहां मोह का अर्थ आवरण नहीं किंतु दोष है। ज्ञानमोह होने पर प्राणी का ज्ञान अयथार्थ हो जाता है। दर्शनमोह होने पर उसका दर्शन/श्रद्धा भ्रान्त हो जाती है तथा चारित्रमोह होने पर आचार मूढ़ता हो जाती है। चेतना में मोह या मूढ़ता उत्पन्न करने का कार्य ज्ञानावरण नहीं किंतु मोहकर्म करता है। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय एवं चरित्रमोहनीय दर्शनमोहकर्म के उदय से दर्शनमोह एवं चारित्रमोहकर्म के उदय से चारित्रमोह होता है। ज्ञानावरण का उदय ज्ञानमोह का कारण है। मोह शब्द का प्रयोग दर्शन एवं चारित्र के साथ तो होता है किंतु यहां पर ज्ञान के साथ भी हुआ है जो विशेष मननीय है। दर्शन एवं चारित्र के उदय से जीव की दृष्टि एवं आचरण विकृत हो जाता है। वह न तो तत्त्व का यथार्थ श्रद्धान कर सकता है न ही उसका आचरण लक्ष्यानुगामी होता है। ज्ञानमोह का प्रयोग इन दो के साथ करने का कारण यह भी प्रतीत होता है कि श्रद्धा के लिए पूर्व में तत्त्व का ज्ञान भी आवश्यक है। यदि तत्त्व का ज्ञान मिथ्या है तो श्रद्धा सम्यक् नहीं हो सकती है। दर्शन मोह का अपनयन ज्ञानमोह के अपनयन की अपेक्षा भी रखता है। ज्ञान जब यथार्थ होता है तब दृष्टि का परिष्कार भी हो जाता है, दर्शन के परिष्कार से आचरण परिष्कृत हो जाता है अत: संभव ऐसा लगता है आगमकार इन तीनों में एक क्रम देख रहे हैं। इनका परस्पर कार्यकारण भाव भी अभिव्यञ्जित हो रहा है। ज्ञान की यथार्थता से दर्शन विशुद्धि एवं दर्शन विशुद्धि से आचारविशुद्धि । स्थानांग के दूसरे स्थान में दो प्रकार के मोह का निरूपण हुआ है - ज्ञानमोह और दर्शनमोह। यहां भी आगमकार चारित्रमोह को छोड़ देते हैं किंतु ज्ञानमोह का उल्लेख अवश्य करते हैं इससे भी ज्ञानमोह और दर्शनमोह में कोई सम्बन्ध प्रतीत होता है। जब तक तत्त्व की सही समझ नहीं होगी तब तक उसमें यथार्थ श्रद्धा भी कैसे हो सकती है ? यद्यपि परम्परा में यह मान्य है कि दर्शन के सम्यक् होने से ही ज्ञान सम्यक् होता है। दर्शन की विशुद्धता से पूर्व ज्ञान भी सम्यक् नहीं होता है, यह वक्तव्य भी निरपेक्ष नहीं है। एक विशेष भूमिका की प्राप्ति के बाद दर्शन की विशुद्धता से ज्ञान की विशुद्धता होती है-यह वक्तव्य समीचीन है किंतु इस भूमिका की प्राप्ति में ज्ञानमोह का आंशिक रूप से हटना भी आवश्यक प्रतीत होता है। भगवान् महावीर ने दशवैकालिक में ज्ञान को प्रधानता प्रदान की है। वहां पर आचार को ज्ञानावलम्बी 1. ठाणं 3/178 तिविहे मोहे पण्णत्ते, तं जहा–णाणमोहे, दंसणमोहे, चरित्तमोहे । 2. स्थानांगवृत्ति, पृ.64 ज्ञांन मोहयति- आच्छादयतीति ज्ञानमोहो ज्ञानावरणोदय:, एवं दंसणमोहे चेव,सम्यग्दर्शन मोहोदय इति। 3. ठाणं, 149 (टिप्पण) 4. उत्तरज्झयणाणि 3 3/8 मोहणिज्ज पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा। 5. ठाणं 2/422 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 215 माना गया है।' यद्यपि वहां पर दर्शन का उल्लेख नहीं हुआ है किंतु आचारपक्ष में ज्ञान का प्राधान्य स्पष्ट है। वैसे ही दर्शन की विशुद्धि में दर्शन मोहनीय का विलय उपादान कारण है, वहां ज्ञानावरणीय के विलय को निमित्त कारण माना जा सकता है। आयुष्य का बंध कब और कैसे? आयुष्य कर्म जीव को नियत गति में प्रतिबद्ध किए हुए रखता है। जैसे बेड़ी से बंधा हुआ आदमी नियत स्थान से प्रतिबद्ध रहता है, वैसे ही आयुष्य के पुद्गल नरक आदि किसी एक गति से प्राणी को प्रतिबद्ध करते हैं। आयुष्य कर्म का बंध जीवन में एक बार होता है तथा उसके बंधने का समय भी निर्धारित होता है। देव, नारक तथा असंख्येय वर्षजीवी मनुष्य और तिर्यञ्च वर्तमान जीवन का आयुष्यछहमाहशेष रहने पर अगले जन्म का आयुष्य बांधते हैं। निरुपक्रम आयु वाले मनुष्य और तिर्यञ्च वर्तमान भव की 1/3 भाग आयु शेष रहने पर अगले भव का आयुबंध करते हैं। सोपक्रम आयु वाले जीव वर्तमान भव का 1/3 भाग आयुष्य शेष रहने पर अथवा उत्तरोत्तर तीसरे भाग का तीसरा भाग (छठा, नौवां, सत्ताईसवां) शेष रहने पर आयुबंध करते हैं। जैन कर्म सिद्धान्त का आयुष्य के बंधन का यह निर्धारित क्रम है। आयुष्यकर्म के सहयायीबंध आयुष्यकर्म के साथ ही जाति, गति, स्थिति, प्रदेश, अनुभाग एवं अवगाहना-इन छह का बंध और हो जाता है। इन छहों का आयुष्य के साथ निधत्त हो जाता है। निधत्त का अर्थ है कर्म का निधेक रूप में बंध होना। एक साथ जितने कर्म-पुद्गल जिस रूप में भोगे जाते हैं, उस रूप-रचना का नाम निषेक है।' आचार्य महाप्रज्ञ ने कर्म-पुद्गलों की एक काल में उदय होने योग्य रचना विशेष को निषेक कहा है। जिस समय आयुष्य कर्म का बंध होता है, तब वह जाति, गति आदि छहों के साथ निधत्त-निषिक्त होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आयुष्य के साथ हो इनका बंध हुआ एवं उनका भोग भी एक साथ ही होगा। अमुक आयु का बंध करने वाला जीव उसके साथ-साथ एकेन्द्रिय आदि पांच जातियों में से किसी एक जाति का, नरक आदि चार गतियों में से एक गति का, काल-मर्यादा का, अवगाहना-औदारिक या वैक्रिय शरीर में से किसी एक शरीर तथा आयुष्य के प्रदेशों-- परमाणु संचयों का और उसके अनुभाग-विपाक शक्ति का भी बंध करता है। समवायांग में छह प्रकार के आयुष्य बंध के 1. दसवेआलियं 4/10 पढमं नाणं तओ दया। 2. उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य वृति पत्र 641 3. आवश्यक चूर्णि (पूर्वभाग) पृ.366 4. ठाणं, 6/116 5. (क) समवायांग वृति पत्र, 147, निषेकश्च प्रतिसमयं बहुहीनहीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थं रचना। (ख) भगवति वृति 6-34 कर्मनिषेको नाम कर्मदलिकस्य अनुभवनार्थं रचना विशेष:। 6. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैनदर्शन : मनन और मीमांसा, पृ. 313 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 जैन आगम में दर्शन उल्लेख में जातिनामनिधत्तआयुष्क आदि का ही उल्लेख किया है।' इस उल्लेख का तात्पर्य उपर्युक्त चर्चा से स्पष्ट ही है कि इन छहों का आयुष्य के साथ बंध एवं भोग होता है। पातञ्जल योगसूत्र में भी जाति, आयु, भोग-इन तीनों का एक साथ उल्लेख हुआ है।' आयुष्यकर्म एवं आकर्ष की व्यवस्था आयुष्य बंध के साथ होने वाले जाति, गति आदि का बन्ध एक आकर्ष से लेकर आठ आकर्ष तक हो सकता है। आकर्ष का अर्थ है-कर्म-पुद्गलों का ग्रहण। जब आयुष्य बंध का अध्यवसाय तीव्र होता है तो एक ही आकर्ष से जातिनामनिषिक्त आयुष्य आदि का बंध हो जाता है। यदि आयुष्य बंध का अध्यवसाय मंद, मंदतर, मंदतम होता है तो दो-तीन से लेकर आठ आकर्ष तक हो जाते हैं। अध्यवसाय के तारतम्य के आधार पर आकर्षों की न्यूनाधिकता होती है। भगवती में कर्मबंध के प्रसंग में 'सव्वेणं सव्वे' का सिद्धान्त प्रतिपादित है। इसका तात्पर्य है सम्पूर्ण आत्म प्रदेशों से एक काल में जितने कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करना है उनका एक साथ ग्रहण किया जाता है, उनका आंशिक ग्रहण नहीं होता है। आकर्ष का सिद्धान्त इस प्रसंग में विमर्शनीय है। एक साथ कितने कर्मों का बंध? जैन कर्म सिद्धान्त में ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्म माने गए हैं। उन आठ कर्मों में एक साथ जीव कितने कर्मों का बंध कर सकता, इसका विमर्श भी प्राप्त होता है। भगवती में कहा गया-जीव एक साथ सात, आठ, छह और एक कर्म का.बंध करता है। जिस जीव ने आयुष्य कर्म का बंध कर लिया है वह सात कर्मों का बंध एक साथ करता रहता है। आयुष्य कर्म का बंध एक बार होता है। जिस समय वह बंधता है तब जीव के आठ कर्म का एक साथ बंध होता है। कर्मबंध एवं गुणस्थान आयुष्य कर्म का बंध तीसरे गुणस्थान को छोड़कर पहले से सातवें गुणस्थान तक होता है। सातवें गुणस्थान में भी आयुष्य कर्म का बंध प्रारम्भ नहीं हो सकता, यदि छठे गुणस्थान में आयुष्य का बंध प्रारम्भ हो गया और उस बंधन के मध्य ही जीव को सातवां समवाओ, पइण्णग्गसमवाओ 176 2. पातञ्जलयोगसूत्र 2/13 सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः । 3. समवायांग वृति, पत्र 148 आकर्षो नाम कर्मपुद्गलोपादानं। 4. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/118 5. वही, 40/2 जीवा किं सत्तविहबंधगा? अट्ठविहबंधगा? छव्विहबंधगा? एगविहबंधगा वा? गोयमा! सत्तविहबंधगा वा जाव एगविहबंधगा वा। 6. झीणी चर्चा, (ले. जयाचार्य, लाडनूं, 1985) ढाल 17/4 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 217 गुणस्थान आ गया तब आयुष्यकर्म बंध की पूर्णाहूति सातवें में हो सकती है। दसवें गुणस्थान में आयुष्य एवं मोहकर्म को छोड़कर शेष छह कर्मों का बंध होता है। समवायांग सूत्र में उल्लेख है कि दसवें गुणस्थान में कर्म की सतरह प्रकृतियों का बंध होता है। वेसतरह प्रकृतियां आयुष्य एवं मोह को छोड़कर अन्य छह कर्मों से ही सम्बंधित है। भगवती में एक साथ छह कर्मों के बंध का उल्लेख है। किंतु छह कर्म की कितनी एवं कौन-सी प्रकृतियां का बंध होता है, यह उल्लेख नहीं है। इसका उल्लेख समवायांग में हुआ है। समवायांगवृत्ति में भी यह तथ्य प्रतिपादित हुआ है। दशम गुणस्थानवी जीव एक सौ बीस कर्म प्रकृतियों में से केवल सतरह प्रकृतियों का बंध करता है। अवशिष्ट एक सौ तीन प्रकृतियों का पूर्ववर्ती गुणस्थान में बंध की अपेक्षा से व्यवच्छेद हो जाता है। इन सतरह प्रकृतियों में भी सोलह प्रकृतियों का बंध इसी दसवें गुणस्थान में व्यवच्छिन्न हो जाता है-ज्ञान की पांच, दर्शन की चार, अन्तराय की पांच, उच्चगोत्र और यशकीर्ति । केवल सातवेदनीय कर्म प्रकृति का बंध मात्र रह जाता है।' मोहनीयकर्म के उदय में असातवेदनीय कर्म का बंध होता है। मोहनीय के उपशम या क्षय में केवल सातवेदनीय का ही बंध होता है। ग्यारहवें गुणस्थान से तेरहवें गुणस्थान में एकमात्र सात वेदनीय कर्म का ही बंध होता है। चौदहवें गुणस्थान में कर्म का बंध होता ही नहीं है। उपर्युक्त वर्णन से कर्मबंध की निम्न अवस्थाएं बनती हैं 1. एक साथ आठ कर्मों का बंध । 2. एक साथ सात कर्मों का बंध। 3. एक साथ छह कर्मों का बंध। 4. एक साथ एक ही कर्म का बंध । 5. अबंध, किसी कर्म का बंध नहीं होता। इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि एक साथ दो, तीन, चार एवं पांच कर्मों का बंध हो ही नहीं सकता है। कर्म बंध की यह स्थिति जीव के गुणस्थान के आधार पर है। अमुक गुणस्थानवी जीव, अमुक कर्म का बंध करेगा, यह प्रस्तुत विश्लेषण से स्पष्ट है। आठों कर्मों के बन्ध के निमित्त भगवती में आठों कर्मों का पृथक्-पृथक् कर्मशरीर के रूप में वर्णन किया है। ज्ञानावरणीय 1. समवायांगवृत्ति, पत्र 34, सूक्ष्मसम्पराय: उपशमक: क्षपको वा सूक्ष्मलोभकषायकिट्टिकावेदको भगवान् - पूज्यत्वात् सूक्ष्मसम्परायभावे वर्तमान:-तत्रैव गुणस्थानकेऽवस्थित: नातीतानागतसूक्ष्मसम्परायपरिणाम इत्यर्थः, ससदश कर्मप्रकृतिनिबध्नाति विंशत्युत्तरे बन्धप्रकृतिशतेऽन्या न बध्नातीत्यर्थः, पूर्वतरगुणस्थानकेषु बंधं प्रतीत्य तासां व्यवच्छिन्नत्वात्, तथोक्तानां सप्तदशानां मध्यादेका साताप्रकृतिरुपशान्तमोहादिषु बन्धमाश्रित्यानुयाति, शेषा: षोडशेहैव व्यवच्छिद्यन्ते, यदाह-नाणं पूतराय 10 दसगं देसण चत्तारि 14 उच्च 15 जसकित्ती 16। एया सोलसपयडी सुहमकसायंमि वोच्छिन्ना सूक्ष्मसम्परायात्परे न बध्नन्तीत्यर्थ:। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 जैन आगम में दर्शन कर्मशरीर प्रयोग बंध से लेकर अन्तराय कर्मशरीर प्रयोगबन्ध तक आठ कर्मशरीर प्रयोग बंध होते हैं।' इन आठों ही कर्मशरीर के बंध के कारण भी पृथक्-पृथक् हैं। ज्ञान-प्रत्यनीकता, ज्ञान निहवन, ज्ञानान्तराय, ज्ञानप्रद्वेष, ज्ञानाशातना एवं ज्ञानविसंवादन के निमित्त से ज्ञानावरणीय कर्मशरीर प्रयोग बंध नाम के कर्म के उदय से ज्ञानावरणीय कर्मशरीर का प्रयोग बंध होता है अर्थात् ज्ञान प्रत्यनीकता आदि हेतुओं के साथ ज्ञानावरण का उदय होने से ही पुन: ज्ञानावरण का बंध होता है। इसका तात्पर्य है- ज्ञान प्रत्यनीकता आदि निमित्त कारण है एवं ज्ञानावरण का उदय एक अपेक्षा से उपादान कारण है। इसी प्रकार आठों ही कर्मों के बंध में निमित्त कारणों के साथ-साथ उन-उन कर्मों के उदय से ही वे कर्म पुन: बंधते हैं। अर्थात् ज्ञानावरण का बंध तब ही होगा जब ज्ञानावरण का उदय हो। यद्यपि यह कहा जाता है कि जीव के एक साथ निरन्तर सात या आठ कर्मों का बंध हो रहा है। यह वक्तव्यता भी सापेक्ष है। उन कर्मों के बंध के समय थोड़ी भागीदारी तो सब कर्मों की होगी किंतु प्रधानता उसी कर्म की होगी जिसके उदय के कारण कर्मबंध हो रहा है। कर्मों का अधिक हिस्सा उसी कर्म को प्राप्त होगा जिसके कारण कर्म का बंध हो रहा है। भगवती में वर्णित आठों कर्म के बंध के निमित्तों का वर्णन उत्तरवर्ती साहित्य में भी विस्तार से हुआ है। भगवती में वर्णित कर्मबंध के कारणों के परिप्रेक्ष्य में व्यक्ति की आचार संहिता का निर्माण करना महत्त्वपूर्ण हो सकता है। व्यक्ति का वार्तमानिक आचार-व्यवहार उसके भविष्य का निर्धारक होता है। भगवती में वर्णित कर्मबंध के हेतुओं पर जब विमर्श करते हैं तो अधिकांश हेतु मनुष्य के आचार-व्यवहार से ही जुड़े हुए हैं। इनको और अधिक विस्तृत दायरे में देखना चाहें तो समनस्क जीवों तक इसका विस्तार किया जा सकता है। कर्म का बन्ध तो समनस्कअमनस्क सभी के होता है। अमनस्क जीवों में तो इन निमित्तों का व्यवहार परलिक्षित नहीं है फिर उनके इन कर्मों को बंध का हेतु क्या बनता होगा? संभव ऐसा लगता है कि अमुकअमुक कर्म का उदय ही उस-उस कर्म के बंध का मुख्य कारण है। कर्मों का उदय तो सभी जीवों के होता है अत: उनसे कर्म का बंध हो जाता है। जैसा कि भगवती में कहा गया है कि ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का उदय भी उन-उन कर्मों के बन्ध का कारण है।' कर्म का अबाधाकाल सामान्यत: कर्मों की दो अवस्थाएं होती हैं-उदयावस्था एवं अनुदयावस्था । कर्म जब तक उदय में नहीं आते तब तक जीव पर उनका कोई प्रभाव नहीं होता। वे मात्र जीव से चिपके रहते हैं। कर्म का बंध होते ही उसमें फल देने की शक्ति नहीं होती है। एक निश्चित समय 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8 / 4 1 9 कम्मासरीरपयोगबंधे.......अट्ठविहे पत्ते, तं जहा - नाणावरणिज्नकम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। . 2. वही, 8/420-433 3. वही, 8/420-433 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 219 सीमा के बाद हो उनमें फल देने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है। उससे पहले कर्म का अवस्थान मात्र होता है। उसे कर्मशास्त्रीय भाषा में 'अबाधाकाल' कहा जाता है। कर्मउदय के निमित्त काल मर्यादापूर्ण होने पर कर्म का वेदन या भोग प्रारंभ होता है। कर्म अपनी उदयावस्था में ही शुभ-अशुभ फल प्रदान करने में समर्थ होते हैं। कर्म का परिपाक एवं उदय अपने आप भी होता है तथा अन्य बाहरी निमित्त मिलने पर भी होता है। कर्म का उदय सहेतुक एवं निर्हेतुक उभय प्रकार का है।' स्थानांग में क्रोध, अहंकार, माया एवं लोभ को अपनी उत्पत्ति के निमित्तों की अपेक्षा से चार-चार प्रकार का बताया है 1. आत्म प्रतिष्ठित-जो अपने ही निमित्त से उत्पन्न होता है। 2. पर-प्रतिष्ठित-जो दूसरों के निमित्त से उत्पन्न होता है। 3. तदुभय प्रतिष्ठित-जो स्व और पर दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है। 4. अप्रतिष्ठित-जो केवल क्रोध (अहंकार, माया एवंलोभ) वेदनीय के उदय से उत्पन्न होता है। स्वयं के प्रमाद से इहलोक एवं परलोक सम्बन्धी हानि को देखकर जो क्रोध आदि कषाय पैदा होते हैं वे आत्मप्रतिष्ठित कहलाते हैं। दूसरे के द्वारा कृत आक्रोश आदि के कारण जो क्रोध आदि उत्पन्न होते हैं वे पर-प्रतिष्ठित कहलाते हैं। जिस क्रोध के उदय में स्व एवं पर दोनों निमित्त बनते हैं वह तदुभय प्रतिष्ठित है तथा जिसमें स्वयं का प्रमाद एवं पर का अक्रोश आदि निमित्त नहीं बनता केवल क्रोधवेदनीय आदि कर्मों के उदय से जो होता है वह अप्रतिष्ठित कहलाता है। यद्यपि यह चौथा भेद जीव प्रतिष्ठित तो है फिर भी वर्तमान में स्वयं के प्रमाद आदि के निमत से उदय में नहीं आया है अत: इसे अप्रतिष्ठित कहा गया है। विभिन्न निमित्तों से उत्पन्न होने के कारण क्रोध आदि के भेद कर दिए गए हैं। यह कारण में कार्य का उपचार है। वस्तुत: कार्यरूप क्रोध तो एक जैसा ही होता है। उसमें कोई विभेद नहीं होता। क्रोध आदि के चार प्रकारों में प्रथम तीन भेद सहेतुक कर्म के उदय के निदर्शन हैं एवं चौथा भेद निर्हेतुक कर्मोदय का उदाहरण है। कर्म पर अंकुश __ जैनदर्शन में कर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है फिर भी उसकी निरंकुश सत्ता नहीं मानी 1. स्थानांगवृत्ति, पृ. 129 "उक्तं च-सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च कम्माणि फलविपाकेषु"। 2. ठाणं 4/76-79 3. स्थानांगवृत्ति, पृ. 129 आत्मापराधे नै हिकामुष्मिकापायदर्शनादात्मविषय आत्मप्रतिष्ठित: परेणाक्रोशादिनोदीरित: परविषयो वा परप्रतिष्ठित: आत्मपरविषय उभयप्रतिष्ठित: आक्रोशादिकारणनिरपेक्ष: केवलं क्रोधवेदनीयोदयाद् यो भवति सोऽप्रतिष्ठितः। 4. स्थानांगवत्ति, पृ. 129 अयं च चतुर्थभेदो जीवप्रतिष्ठितोऽपि आत्मादिविषयेऽनुत्पन्नत्वादप्रतिष्ठित उक्तः। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 जैन आगम में दर्शन गई है। कर्म के क्रियाकलापों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि परिस्थितियां नियंत्रित करती रहती हैं। कर्मउदय के निमित्तों की विविधता प्रज्ञापना में कर्म के अनुभाव के संदर्भ में गति, स्थिति, भव, पुद्गल एवंपुद्गल परिणाम इन हेतुओं का उल्लेख हुआ है।' यथा* गति-हेतुक-उदय-नरक गति में असाता का उदय तीव्र हो जाता है। यदि जीव उस समय अन्य गति में होता है तो इतना तीव्र असाता का उदय नहीं होता। कर्म उदय की तीव्रता में नरक गति हेतु बन गई है। * स्थिति-हेतुक-उदय-मोहकर्म की सर्वोत्कृष्ट स्थिति में मिथ्यात्व मोह का तीव्र उदय होता है। यह स्थिति हेतुक विपाक-उदय है। भव-हेतुक-उदय-दर्शनावरणीय कर्म का उदय चारों गतियों के जीवों के होता है। इस कर्म के उदय से नींद आती है किंतु नींद मनुष्य और तिर्यञ्च दो को ही आती है। देव एवं नारक को नींद नहीं आती है, यह भव (जन्म) हेतुक विपाकउदय है। गति, स्थिति एवं भव के निमित्त से कई कर्मों का अपने आप उदय हो जाता है। पुद्गल-हेतुक-उदय-किसी ने पत्थर फेंका, चोट लगी, असाता वेदनीय का उदय हो गया, यह दूसरों के द्वारा किया हुआ असात-वेदनीय का पुद्गल-हेतुक-विपाक उदय है। किसी ने गाली दी, क्रोध आ गया-यह क्रोध वेदनीय पुद्गलों का सहेतुक विपाक उदय है। * पुद्गल-परिणाम के द्वारा होने वाला उदय-भोजन किया, वह अजीर्ण हो गया। उससे रोग पैदा हो गया। यह असात वेदनीय का पुद्गल-परिणाम से होने वाला उदय है। * मदिरा पी, उन्माद छा गया। ज्ञानावरण का उदय हुआ। यह पुद्गल परिणमन हेतुक-विपाक-उदय है। ऐयापथिकी और साम्परायिकी क्रिया कर्मबंध दो प्रकार का होता है-ईर्यापथिक और साम्परायिक। केवल काययोग के 1. पण्णवणा 23/13........सयं वा उदिण्णस्स परेण वा उदीरियस्स तदुभएण वा उदीरिजमाणस्य गतिं पप्प ठितिं पप्प भवं पप्प पोग्गलं पप्प पोग्गलपरिणामं पप्प, 2. महाप्रज्ञ आचार्य, जैन दर्शन मनन और मीमांसा प. 314-315 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 221 कारण होने वाला कर्मबंध ऐपिथिकी क्रिया कहलाता है तथा कषाय के कारण होने वाला कर्मबंध साम्परायिकी क्रिया है।' ऐापथिकी क्रिया का स्वरूप गमनमार्ग में होने वाली क्रिया ऐर्यापथिकी कहलाती है। इसका प्रवृत्तिलभ्य अर्थ केवल (कषायशून्य) योग से होने वाली क्रिया किया गया है। भगवती के वृत्तिकार ने 1/444 के सूत्र की व्याख्या में इसे केवल काययोग जन्य माना है तथा 3/148 की व्याख्या में इसे 'योग' निमित्तक कहा है। अर्थात् प्रथम वक्तव्य में केवल काययोग के कारण होने वाले कर्मबन्ध को ऐापथिकी क्रिया कहा है जबकि द्वितीय वक्तव्य में योगमात्र (मन, वचन, काया) से होने वाले बन्ध को ऐर्यापथिकी क्रिया कहा है। उपर्युक्त वक्तव्य पर विमर्श करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ऐपिथिक बन्ध काययोग से ही होता है क्योंकि वचनयोग एवं मनयोग पर तो साधक का नियंत्रण होता है। काययोग पर उतना अनुशासन संभव नहीं है। अत: जहां योग का उल्लेख किया है उसे काययोग ही समझना चाहिए। वीतराग के तीनों योग है किंतु वहां प्रमुखता काययोग की ही परिलक्षित हो रही है। अवीतराग प्राणी के साम्परायिकी क्रिया होती है और वीतराग के ऐापथिकी क्रिया होती है। सकषायी जीव के साम्परायिक बंध होता है। अकषायी के होने वाले कर्मबंध का नाम ईर्यापथिक है। जो संवृत्त अनगार आयुक्त दशा में (दत्तचित्त होकर) चलता है, खड़ा होता है, बैठता है, लेटता है, वस्त्र, पात्र, कम्बल और पाद-प्रोञ्छन लेता अथवा रखता है। उस संवृत्त अनगार के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती है तथा भावितात्मा अनगार के भी ऐापथिकी क्रिया होती है। इसी प्रकार यथासूत्र विचरण करने वाले के ईर्यापथिकी क्रिया होती है तथा उत्सूत्र विचरण करने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है।' भगवती वृत्ति, 1/444 'इरियावहिय' ति ईर्या-गमनं तद्विषयः पन्था-मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी, केवलकायद्योगप्रत्यय कर्मबंध इत्यर्थः। संपराइयं च त्ति संपरैति-परिभ्रमति प्राणी भवे एभिरिति संपराया कषायास्तत् प्रत्यया या सा साम्परायिकी, कषायहेतुक: कर्मबन्ध इत्यर्थः । 2. वही, 3/148 ईरियावहिय ति ईर्यापथो-गमनमार्गस्तत्र भवा ऐयापथिकी केवलयोगप्रत्ययेति भावः । 3. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई)1/126 जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा वोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं इरियावहिया किरिया क नइ, जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा भवंति, तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ। 4. (क) वही, 7/125 संवुडस्स णं अणगारस्स आउत्तं गच्छमाणस्स जाव णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ। (ख) वही, 18/159 5. (क) वही, 7/126 अहासुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ। (ख) वही. 18/160 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 ऐर्यापथिकी क्रिया के प्रकार है भगवती में ही ईर्यापथिकी एवं साम्परायिकी क्रिया के विभिन्न स्वरूप प्राप्त इर्यापथिकी क्रिया को चार प्रकार से बताया गया है केवल काययोग के कारण होने वाला कर्मबंध, अकषायी के होने वाला कर्मबंध, जैन आगम में दर्शन 1. 2. 3. यथासूत्र विचरण करने वाले के होने वाला कर्म बंध, 4. दत्तचित्त होकर क्रिया करने वाले संवृत्त एवं भावितात्मा अनगार के होने वाला कर्मबंध । 1 साम्परायिकी क्रिया के प्रकार साम्परायिक क्रिया के दो प्रकार हैं- 1. कषाय से होने वाला कर्मबंध, 2. उत्सूत्र विचरण करने से होने वाला कर्मबंध | भगवती के प्रथम शतक में ईर्यापथिकी का सम्बन्ध मात्र काययोग से माना है। उसी सूत्र के सातवें शतक में उसका सम्बन्ध अकषाय से/कषाय राहित्य से तथा यथासूत्र विहरण से माना है । अठारहवें शतक में यह भी उल्लेख है कि भावितात्मा अनगार के ईर्यापूर्वक चलते हुए यदि जीव वध होता है तो भी उसके साम्परायिक क्रिया नहीं होती, ईर्यापथिकी क्रिया होती है।' भगवती सूत्र में ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया की चर्चा अनेक कोणों से की गई है। एर्यापथिकी क्रिया में होने वाला कर्मबंध 2 साम्परायिकी एवं ईयापथिकी क्रिया के संदर्भ में विशेष विमर्श प्रस्तुत करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है कि ' - जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न होते हैं, उसके ऐर्यापथिकी क्रिया होती है जिसके ये व्युच्छिन्न नहीं होते हैं, उसके साम्परायिकी क्रिया होती है । ' इस सूत्र के आधार पर यह सिद्धान्त स्थापित हुआ है - अवीतराग के साम्परायिकी क्रिया होती है और वीतराग के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है । वीतराग के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है - यह निश्चित सिद्धान्त है । अवीतराग के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है या नहीं होती, यह विमर्शनीय है । सिद्धसेनगणि ने अकषाय के दो प्रकार किए हैं- वीतराग और सराग। वीतराग अकषाय के तीन प्रकार हैं- उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली । कषाय का उदय न हो उस अवस्था में संज्वलन कषाय वाला भी अकषाय होता है। वह सराग अकषाय है। इसके समर्धन में उन्होंने 1. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई), 18 / 159 अणगारस्स णं भावियप्पणो पुरओ दुहओ जुगमायाए पेहाए रीयं रीयमाणस्स पायस्स अहे कुक्कुडपोते वा वट्टपोते वा कुलिंगच्छाएं वा परियावज्जेज्जा. तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो संपराइया किरिया कज्जइ । 2. भगवई (खण्ड- 2) पृ. 333, 69 70 ( प्रस्तुत ग्रन्थ के पाठक की सुविधा के लिए प्राचीन उद्धरण जो भगवई भाष्य में उद्धृत हैं वे दिए हैं ।) 3. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई), 7 / 126 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 223 ओघनियुक्ति की डेढ़ गाथा उद्धृत की है।' ओघनियुक्ति की वृत्ति में द्रोणाचार्य ने लिखा है- जो मुनि ज्ञानी है, अप्रमत्त है, उसके काययोग से कोई प्राणी मर जाता है, उसके साम्परायिक कर्म का बंध नहीं होता है, ईर्याप्रत्ययिक कर्म का बंध होता है।' सूत्रकार ने क्रोध, मान, माया और लोभ के लिए 'व्युच्छिन्न' तथा 'अव्युच्छिन्न' शब्द का प्रयोग किया है। यहां क्षीण' शब्द का प्रयोग नहीं है। व्युच्छिन्न शब्द विमर्शनीय है। पतञ्जलि ने क्लेश की चार अवस्थाएं बतलाई हैं-प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार । क्लेश समय-समय पर विच्छिन्न होता रहता है। वह सदा लब्धवृत्ति अथवा उदित अवस्था में नहीं रहता।' अभयदेवसूरि ने भी 'वोच्छिन्न' का अर्थ 'अनुदित' किया है। इन व्युच्छिन्न और अव्युछिन्न पदों के आधार पर ओघनियुक्तिकार और सिद्धसेनगणी का मत विमर्श योग्य है। ऐपिथिकी क्रिया का सम्बन्ध केवल गमनमार्ग से नहीं है अपितु उसका सम्बन्ध जीवन-व्यवहार के लिए होने वाली क्रियाओं से हैं। ऐापथिकी क्रिया में होने वाले कर्मबन्ध की प्रक्रिया का निर्देश भगवती सूत्र में प्राप्त है। इस क्रिया के प्रथम समय में कर्म का बंध और स्पर्श होता है। कर्म-प्रायोग्य परमाणु-स्कन्धों का कर्म रूप में परणिमन होना ‘बद्ध-अवस्था' है। जीव प्रदेशों के साथ उनका स्पर्श होना ‘स्पृष्ट-अवस्था' है। द्वितीय समय में बद्ध कर्म का वेदन होता है, तृतीय समय में उसकी निर्जरा हो जाती है। सूत्रकार ने वाक्यान्तर में द्वितीय समय की अवस्था को 'उदीरिया वेइया' इन दो शब्दों के द्वारा निर्दिष्ट किया है। इसका तात्पर्य है कि कर्म का उदय और वेदन-ये दोनों अवस्थाएं द्वितीय समय में होती है। जिस समय में बंध होता है, उस समय में उदय नहीं होता। इसलिए उदय दूसरे समय में होता है।' ऐर्यापथिकी क्रिया से बचने वाले कर्म की स्थिति दो समय की है। जयाचार्य ने भी दो समय की स्थिति का उल्लेख किया है।' तत्त्वार्थभाष्यकार ने इसकी स्थिति एक समय की मानी है। वृत्तिकार के अनुसार वेद्यमान कर्म-समय ही स्थिति-काल है।' 1. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी वृत्ति 6/5 अकषायो वीतराग: सरागश्च। तत्र वीतरागस्त्रिविध उपशान्तमोह एक: क्षीणमोहकेवलिनौ च कात्स्ये नोन्मूलितकर्मकदम्बकौ, सराग: पुन: संज्वलनकषायवानपि अविद्यमान उदयोऽकषय एव मन्दानुभावत्वमनुदराकन्या निर्देशवत्, अतश्चोपपन्नमिदं -उच्चालियम्मि पाए, इरियासमियस्स संकमट्ठाए। वावग्नेज्ज कुलिंगी, मरेज्ज जोगमासज्ज (ओघनियुक्ति गा. 747) न य तस्स तन्निमित्तो बंधो सुहमो वि देसितो समए। (ओधनियुक्ति गा. 749) 2. ओघनियुक्ति पृ. 499 पातञ्जल योगदर्शन 2/8 विच्छिद्य विच्छिद्य तेन तेनात्मना पुन: समुदाचरन्तीति विच्छिन्ना कथम्? रागकाले क्रोधस्यादर्शनात्, न हि रागकाले क्रोधस्समुदाचरिति, रागश्च क्वचिद् दृश्यमानो न विषयान्तरे नास्ति, नैकस्यां स्त्रियां चैत्रो रक्त इत्यन्यासु स्त्रीषु विरक्त इति, किंतु तत्र रागो लब्धवृत्तिरन्यत्र भविष्यवृत्तिरिति। भगवती वृत्ति, 6/292 वोच्छिन्नेति अनुदिताः। 5. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 3/148 6. उत्तरज्झयणाणि 29/72 ताव य इरियावहियं कम्मं बंधइ, सुहफरिसं दुसमयठिइयं । 7. झीणी चर्चा, ढाल 17/26 घणा समय स्थिति संपराय, बे समय इरियावहि..... 8. तत्त्वार्थभाष्य 6/5 अकषायस्येर्यापथस्यैवैक समयस्थिते। 9. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका 6/5 वेद्यमानकर्मसमयो मध्यमः स एव स्थितिकाल: । आद्यो बंधसमयस्ततीय: परिशाटनसमय इति। 3. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन सिद्धसेनगणी और द्रोणाचार्य के मतानुसार सराग के भी कषाय व्युच्छिन्न अवस्था में ऐर्यापथिकी क्रिया हो सकती है।' 224 प्रस्तुत सूत्रों की रचना से भी कुछ प्रश्न उभरते हैं 1. अनायुक्त - प्रमत्त अवस्था में चलने वाले अनगार के साम्परायिकी क्रिया होती है। कोई अनगार आयुक्त- अप्रमत्त अवस्था में चलता है, उसके भी साम्परायिकी क्रिया होती है, तो फिर गौतम के प्रश्न और महावीर के उत्तर का तात्पर्य क्या है ? यथासूत्र - आगम-निर्दिष्ट विधि के अनुसार चलने वाले के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है। उत्सूत्र - आगम-निर्दिष्ट विधि के प्रतिकूल चलने वाले के साम्परायिकी क्रिया होती है। क्या सभी सराग अनगार उत्सूत्र ही चलते हैं ? ये प्रश्न सिद्धसेनगणी के मत पर विचार करने के लिए संप्रेरित करते हैं । आचार्य महाप्रज्ञ ने सिद्धसेन एवं द्रोणाचार्य के मत को विमर्श योग्य स्वीकार करके तथा अनायुक्त एवं यथासूत्र के सम्बन्ध में प्रश्न उपस्थित करके भी स्पष्ट रूप से अपने अभिमत को प्रस्तुत नहीं किया है, किंतु प्रकारान्तर से उनका अभिमत सिद्धसेन की अवधारणा को सम्पुष्ट करता हुआ प्रतीत हो रहा है, जो कि समीचीन भी है। 2. - भगवती में स्पष्ट रूप से उल्लेख है कि भावितात्मा अनगार एवं आयुक्त संवृत्त अनगार के ऐर्यापथिकी क्रिया होती है । भगवती के भावितात्मा एवं संवृत्त अनगार वीतराग ही हो यह आवश्यक नहीं है। यदि संवृत्त अनगार वीतराग ही होता तो उसका आयुक्त विशेषण क्यों दिया जाता ? क्योंकि वीतराग तो सदैव आयुक्त ही होता है । अत: प्रस्तुत प्रसंग में वर्णित संवृत्त अनगार वीतराग का वाचक प्रतीत नहीं हो रहा है। भगवती में ही बकुश निर्ग्रन्थ के पांच प्रकारों में दो प्रकार - संवृत्त बकुश एवं असंवृत्त बकुश है।' बकुश तो निश्चय ही वीतराग नहीं है । अत: ऐर्यापथिकी क्रिया के संदर्भ में आगत संवृत्त अनगार शब्द वीतराग भिन्न अनगार का वाचक प्रतीत हो रहा है। उसी प्रकार भावितात्मा शब्द का प्रयोग भी ऐर्यापथिकी के संदर्भ वीतराग के लिए हुआ हो, संभव कम लगता है । वीतराग के होने वाली ऐर्यापथिकी क्रिया से केवल सात वेदनीय कर्म का ही बंध होता है । यदि वीतराग इतर अकषायी सराग के ऐर्यापथिकी क्रिया मानी जाए तो उसके कितने और कौन-से कर्म का बंध होगा । यह प्रश्न विमर्शनीय होगा। क्योंकि वीतराग अवस्था से पूर्व सात-आठ कर्मों का बंध एवं छह कर्मों (दसवें गुणस्थान में) का बंध स्वीकार किया गया है। कर्मवेदन की सापेक्षता संसारी जीवों के प्रतिक्षण कर्म का बंध होता रहता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 25/280 बउसे णं भंते । कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा - पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा - आभोगबउसे, अणाभोगबड्से, संवुडबउसे, असंवुडबउसे, अहासुहुमबउसे नामं पंचमे । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 225 ही कर्मों की कर्ता एवं विकर्ता (तोड़ने वाली) है। यहां विकर्ता शब्द विशेष मननीय है। जीव अपने पुरुषार्थ के द्वारा कृत कर्मों को तोड़ सकता है। भगवान महावीर पुरुषार्थ के प्रवक्ता थे। उनकी स्वीकृति है कि जीव अपने ही पुरुषार्थ से कर्मों को बांधता है तो उनको तोड़ भी सकता है एवं उनमें परिवर्तन भी ला सकता है। कृत कर्मों का भोग अवश्यंभावी है।' यह कर्मवाद का सामान्य सिद्धान्त है। यदि इस सिद्धान्त को सर्वथा निरपेक्ष स्वीकार करें तो धार्मिक/ आध्यात्मिक क्रिया की कोई उपयोगिता ही नहीं रह जाएगी। धार्मिक पुरुषार्थ का प्रयोजन भी यही है कि अतीत कृत कर्म को वर्तमान पुरुषार्थ से समाप्त कर दे। कर्म को बदला जा सकता है अतः कर्म भोग का सिद्धान्त सापेक्ष है। कृत कर्म को भोगना ही पड़ता है इसका सम्बन्ध प्रदेश कर्म के साथ है, अनुभाग कर्म के वेदन में भजना है उसका वेदन जीव करता भी है और पुरुषार्थ के द्वारा उसमें परिवर्तन भी ला सकता है। भगवती में कहा गया प्रदेशकर्म का भोग अवश्यमेव करना होता है। अनुभाग का कुछ वेदन करते भी हैं और नहीं भी करते हैं। तपस्या के द्वारा कर्म की निर्जरा करो- इसका आधार अनुभाग-कर्म के वेदन का विकल्प ही है।' अर्थात् अनुभाग कर्म का अनुभव कुछ करते भी हैं और नहीं भी करते हैं। जो तपस्या आदि अनुष्ठान करते हैं वे उदीरणा, उद्वर्तना, अपवर्तना आदि के द्वारा अनुभाग कर्म को परिवर्तित या निष्क्रिय कर देते हैं। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि प्रदेशकर्म का वेदन अनिवार्य है तथा अनुभाग कर्म के वेदन में अनिवार्यता नहीं है। उसका वेदन हो भी सकता है, नहीं भी होता है। वेदनाएवं निर्जरा जैन दर्शन में कर्म पर विविध पहलुओं से विमर्श किया गया है। सामान्यतः यह कहा जाता है कि जितनी अधिक वेदना होगी उतनी ही निर्जरा होगी, यह अवधारणा भी सापेक्ष है। वेदना अधिक एवं निर्जरा कम तथा वेदना कम एवं निर्जरा अधिक हो सकती है। यह तथ्य भगवती में उल्लिखित है। श्रमण-निर्ग्रन्थ के अल्पवेदना होने पर भी महानिर्जरा होती है। इसका हेतु है कर्म का शिथिलीकृत स्वरूप । छठी एवं सातवीं नारकी के नैरयिकों के महावेदना होती है पर महानिर्जरा 1. उत्तरज्झयणाणि 4/3 कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि। 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/190 तत्थ-णं जंणं पदेसकम्मं तं नियमा वेदेई। तत्थ णं जंणं अणभागकम्म तं अत्थेगइयं वेदेइ, अत्थेगइयं णो वेदेइ। 3. (क) दसवेआलियं, प्रथम चूलिका, सूत्र 18 पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुब्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्वंताणं वेयइत्ता मोक्खो नत्थि अवेयइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता (ख) आयारो 2/16 3 धुणे कम्मसरीरगं (ग) दसवेआलियं 6/67 खति अप्पाणममोहदंसिणो तवे रया संजम अज्जवे गुणे। धुणंति पावाई पुरे कडाई, नवाइ पावाइं न ते करेंति।। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 जैन आगम में दर्शन नहीं होती,' इसका कारण है उनके कर्मगाढ होते हैं । महावेदना और महानिर्जरा का यह सामान्य नियम है। अल्पवेदना और महानिर्जरा यह इसका अपवादसूत्र है। निर्जरा का मूल हेतु हैप्रशस्त अध्यवसाय एवं शुभयोग । निर्जरा की न्यूनता या अधिकता अध्यवसाय पर ही निर्भर है। वेदनाको सहने में यदि समभाव है तो निर्जरा महान् होगी। यदि समभाव नहीं है तो महावेदना होने पर भी अल्पनिर्जरा ही होगी। वेदना एवं निर्जरा के उदाहरण भगवती में वेदना एंव निर्जरा के संदर्भ में चार उदाहरण प्राप्त हैं1. प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार महावेदना को समभाव से सहन करता है, इसलिए उसके महानिर्जरा होती है। 2. छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक महावेदना कोसमभाव से सहन नहीं करते, इसलिए उनके अल्प निर्जरा होती है। 3: शैलेशी अवस्था प्रतिपन्न अनगार के वेदना अल्प होती है किंतुसमभाव अधिकतम होता है, इसलिए अल्पवेदना की अवस्था में भी महानिर्जरा होती है। 4. अनुत्तर विमान के देवों के वेदना भी अल्प और निर्जरा भी अल्प होती है।' आचार्य महाप्रज्ञ ने इन उदाहरणों का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जिनमें निर्जरा करने का प्रयत्न होता है, उनके अविपाकी निर्जरा होती है। वे उदीरणा कर अविपक्व कर्मों को उदय में लाकर निर्जीर्ण कर देते हैं। प्रतिमा प्रतिपन्न अनगार और शैलेशी प्रतिपन्न अनगारये दो इस कोटि के उदाहरण हैं। छठी-सातवीं पृथ्वी के नैरयिक और अनुत्तरविमान के देवये विपाकी निर्जरा के उदाहरण हैं। उनमें निर्जरा का प्रयत्न नहीं होता। अशुभ और शुभकर्म उदयावली में प्रविष्ट होकर अपना फल देकर निवृत्त हो जाते हैं।' वेदना एंव निर्जरा की प्रस्तुत विवेचना से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो आगत कष्ट हैं उनको समभावपूर्वक सहन करने से महानिर्जरा होती है तथा अविपाकी कर्म को उदीरणा के द्वारा उदय में लाकर समभावपूर्वक सहन करना साधना का विशिष्ट प्रयोग है। इससे प्रचुर कर्म निर्जरण होता है। सिद्धान्त को उदाहरण के द्वारा सरल बनाकर समझाना भगवती की रचनाशैली की विशेषता है। प्रस्तुत प्रसंग में वस्त्र, अहरण आदि विभिन्न उदाहरण देकर महानिर्जरा, महावेदना आदि की अवधारणा को स्पष्ट किया है।' 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 6/4 2. भगवई (खण्ड-2) पृ. 233 3. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 6/16 4. भगवई (खण्ड-2), पृ. 225 5. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 6/4 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 227 कर्मबन्ध एवं मोक्ष की कारणभूत क्रिया सूत्रकृतांग सूत्र में कर्मबन्ध और मोक्ष की कारणभूत तेरह क्रियाओं का उल्लेख हुआ है।' अर्थदंड, अनर्थदण्ड आदि प्रथम बारह क्रियाएं कर्मबंध की हेतु है तथा कर्मबंध से मुक्त होने की क्रिया का नाम ईर्यापथिक है। अर्थदण्ड आदि बारह क्रियाओं से पापकर्म का बंध होता है। यद्यपि ई-पथिकी क्रिया पुण्य कर्मबंध की कारण है फिर भी वह शुभयोगात्मक होने के कारण आचरणीय है। बारह क्रियाएं अशुभयोगात्मक है अत: सर्वथा अनाचरणीय है। उनसे संसार भ्रमण बढ़ता है। तेरहवीं ईर्यापथिकी क्रिया में प्रवृत्ति करने वाले के संसार-भ्रमण का उच्छेद हो जाता है। भगवती में आरम्भिकी आदि पांच क्रियाओं का उल्लेख हैं। वे क्रियाएं कर्मबंध का हेतु होने से संसार भ्रमण करवाने वाली हैं। स्थानांगमें बहत्तर क्रियाओं का निर्देश है। तत्त्वार्थसूत्र में पच्चीस क्रियाओं का प्रतिपादन है। कर्मबंध की दृष्टि से क्रिया के सभी प्रकारों का ऐापथिकी और साम्परायिकी इन दो क्रियाओं में समावेश हो जाता है। जीवन निर्वाह के लिए प्राणी प्रवृत्ति करता है। प्रवृत्ति के मुख्य प्रेरक तत्त्व अप्रत्याख्यान, आकांक्षा और प्रेयस् हैं। प्रवृत्ति के परिणाम ईर्यापथिक और साम्परायिक कर्मबंध है। प्रवृत्ति के मुख्य तीन प्रकार हैं- कायिक, वाचिक और मानसिक। उनके प्रभेद अनेक हैं। योग से अयोग दशा को प्राप्त करने पर ही जीव सर्वथा कर्ममुक्त हो सकता है। क्रियामुक्ति होने से ही कर्म मुक्ति संभव है। कर्म का पौद्गलिकत्व जैन दर्शन के अनुसार कर्म दो प्रकार के हैं-द्रव्य एवं भाव । भावकर्म जीव की रागद्वेषात्मक परिणति है। जीव की इस राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति से जिन कर्म पुद्गलों का आकर्षण होता है, वे पौद्गलिक होते हैं। भगवती में प्रश्न उपस्थित किया गया कि प्राणातिपात आदि अठारह पापों में कितने वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं ? समाधान के प्रसंग में इन अठारह पापों में पांच वर्ण (कृष्ण, नील, रक्त, पीत, श्वेत), दो गंध (सुगंध, दुर्गंध), पांच रस (तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल एवं मधुर) एवं चार स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रुक्ष) होने का उल्लेख हुआ है। पुद्गल के वर्ण, गंध, रस एवं स्पर्श ये ही चार गुण माने गए हैं।' कर्म-परमाणु सूक्ष्म हैं। अनन्त प्रदेशी कर्म स्कन्ध ही आत्मा से संयुक्त हो सकते हैं। ये स्कन्ध भी चतु:स्पर्शी ही 1. सूयगडो, 2/2/2 सूत्रकृतांगचूर्णि, पृष्ठ 336 इमेहिं बारसहि किरियट्टाणेहिं बज्झति, मुच्चति तेरसमेणं। 3. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई)1/80 4. ठाणं 2/2-37 5. तत्त्वार्थसूत्र 66 6. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 12/102-107 7. तत्त्वार्थसूत्र 5/23 स्पर्शरसगन्धवर्णवन्त: पुद्गलाः। 8. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/482 Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 जैन आगम में दर्शन होते हैं। बादर पुद्गल स्कन्ध अष्टस्पर्शी होते हैं। ऐन्द्रियिक ज्ञान के विषय बादर पुद्गल स्कन्ध ही बन सकते हैं। कर्म-परमाणु इन्द्रिय-स्तर पर ग्राह्य नहीं है। विशिष्ट अतीन्द्रिय ज्ञान से तो इनका अवबोध सम्भव है। कदाचित् विज्ञान के विशिष्ट उपकरणों के भी यह दृश्य बन सकते हैं, यह सम्भावना की जा सकती है। कर्म एवं पुनर्जन्म दार्शनिक जगत् में आत्मवाद एवं पुनर्जन्म के संदर्भ में कुछ मान्यताएं प्रचलित हैं1. आत्मा है पुनर्जन्म नहीं है। 2. पुनर्जन्म है आत्मा नहीं है। 3. आत्मा एवं पुनर्जन्म दोनों ही नहीं हैं। 4. आत्मा एवं पुनर्जन्म दोनों ही हैं। ईसाई एवं इस्लाम धर्म आत्मा की सत्ता को तो स्वीकार करते हैं किन्तु क्रमिक पुनर्जन्म की सत्ता स्वीकार नहीं करते। बौद्धदर्शन अनात्मवादी है, फिर भी वह कर्मवाद एवं पुनर्जन्मवाद के सिद्धान्तको चित्तसंतति के आधार पर स्वीकार करता है | चार्वाक दर्शन, आत्मा, परमात्मा, पुनर्जन्म आदि किसी भी अतीन्द्रिय पदार्थ की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है। अन्य भारतीय दर्शन आत्मा, परमात्मा एवं पुनर्जन्म इन तीनों की सत्ता स्वीकार करते हैं। इन दर्शनों ने आत्मा की त्रैकालिक सत्ता को स्वीकार किया है। यद्यपि आत्म स्वरूप के सम्बन्ध में उनमें परस्पर मतैक्य नहीं है किंतु आत्मा की त्रैकालिक स्वीकृति वे सब एक स्वर से करते हैं। आचारांग में कहा गया- “जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झो तस्स कओ सिआ"। जिसका पूर्व एवं पश्चात् नहीं होता उसका मध्य भी कैसे होगा? आगमकार तत्त्वप्रतिपादन में युक्ति का अवलम्बन प्राय: नहीं लेते हैं। किंतु आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि में आचारांगकर्ता इस महत्त्वपूर्ण तर्क का आश्रय ले रहे हैं। आत्मा वर्तमान में है, इससे स्पष्ट होता है कि आत्मा का पूर्व में अस्तित्व था तथा भविष्य में उसका अस्तित्व रहेगा। आत्मा की त्रैकालिक सत्ता की स्वीकृति पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। ___ दर्शन का प्रादुर्भाव पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म सम्बन्धी विचारणा से होता है। आचारांगसूत्र के प्रारम्भ में ही यह जिज्ञासा है - 'अत्थि मे आया ओववाइए, णत्थि मे आया ओववाइए? मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है या नहीं है। दिशा, विदिशाओं में अनुसंचरण करने वाला कौन है? 'के अहं आसी के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि' मैं अतीत में कौन था? यहां से च्युत होकर भविष्य में कहाँ जाऊंगा। 'कौन हूं, आया कहां से, और जाना है कहां?' इस प्रकार की जिज्ञासाएं दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि हैं। 1. आयारो 4/46 2. वही 1/1 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 229 पुनर्जन्म भारतीय चिन्तन का सर्वमान्य सिद्धान्त रहा है। सभी चिन्तकों ने इस सिद्धान्त की पुष्टि में अपने प्रज्ञा बल का समायोजन किया है। भारतीय दृष्टि से पुनर्जन्म का मूल कारण कर्म है। और कर्म के कारण ही जन्म-मरण होता है-'रागोयदोसोविय कम्मबीयं, कम्मं च जाइमरणं वयन्ति।' अविद्या, वासना, अदृष्ट आदि कर्म के ही पर्यायवाची शब्द हैं। विभिन्न भारतीय दर्शनों में पुनर्जन्म उपनिषद् दर्शनने पुनर्जन्म को स्वीकृति दी है। उपनिषद् का घोष है - 'सस्यमिवपच्यते मृत्यः, सस्यमिव जायते पुनः' डॉ. राधाकृष्णन सर्वपल्ली ने कहा—'पुनर्जन्म में विश्वास कमसे कम उपनिषदों के काल से चला आ रहा है। वेदों और ब्राह्मणों के काल का यह स्वाभाविक विकास है और इसे उपनिषदों में स्पष्ट अभिव्यक्ति मिली है।' वेदान्त दर्शन के प्रमुख आचार्य निम्बार्क ने पुनर्जन्म एवं उसके कारणों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि आत्मा अजर, अमर एवं अविनाशी है। जब तक जीव अविद्या से आवृत्त है। तब तक जन्म मरण का चक्र चलता रहता है। अविद्या निवृत्ति के पश्चात् पुनर्जन्म का अभाव हो जाता है। सांख्य योग दर्शन __ सांख्य दार्शनिकों के अनुसार आत्मा को अपने पूर्वकृत कर्म के फलस्वरूप दुःख के उपभोग हेतु बार-बार शरीर धारणा करना पड़ता है। 'आत्मनो भोगायतनशरीरं' शरीर भोग का आयतन है। लिङ्ग शरीर के द्वारा आत्मा एक भव से दूरे भव में जाकर शरीर धारणा करती रहती है। जब तक विवेक ख्याति नहीं होती तब तक यह चक्र चलता रहता है। पातञ्जल योग भाष्य में भी कहा है कि - 'सति मूले तद् विपाको जात्यायुर्भोगः । जब तक क्लेश रहते हैं तब तक जाति, आयु एवं भोग के रूप में उनके विपाक को भोगना पड़ता है। न्याय-वैशेषिक ये भी आत्मा को त्रिकालवर्ती मानते हैं। आत्मा के नित्य होने जन्मान्तर की सिद्धि होती है। पूर्वकृत कर्मभोग के लिए आत्माको पुनर्जन्मकरनापड़ताहै-'पूर्वकृतफलानुभवनात् तदुत्पत्तिः।'अदृष्ट के कारण जीव संसार में परिभ्रमण करता रहता है। मीमांसा यज्ञ आदि कर्मकाण्ड में विश्वास करने वाला मीमांसा दर्शन भी पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। आत्मा, परलोक आदि में उसका विश्वास है । यज्ञ से अदृष्ट नाम का तत्त्व पैदा होता है और वह सम्पूर्ण जीवन व्यवस्था का नियामक होता है। गीता गीता को सब उपनिषदों का सार कहा गया है। भारतीय संस्कृति का गीता महिमामण्डित ग्रन्थ है। उसमें पुनर्जन्म का तत्व स्पष्ट रूप से प्रतिपादित हुआ है। ग्रन्थकार कहते हैं Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 जैन आगम में दर्शन - 'जातस्य हि ध्रुवं मृत्यु ध्रुवं जन्म मृतस्य च।' जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु एवं मृत का जन्म निश्चित रूप से होता है। जैसे मनुष्य पुराने कपड़ों को छोड़कर नवीन वस्त्र धारण करता है, वैसे ही यह आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण कर लेती है। वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही ।। जिस प्रकार इस शरीर में बाल्य, यौवन एवंबुढ़ापा आता है। वैसे ही आत्मा को देहान्तर की प्राप्ति होती है। धीर पुरुष वैसी स्थिति में मोहित नहीं होता। बौद्ध बौद्ध दर्शन को अनात्मवादी माना जाता है। क्योंकि उसने आत्मा की स्वतंत्र सत्ता न मानकर सन्तति प्रवाह के रूप में उसका अस्तित्व स्वीकार किया है। इस दर्शन में भी पुनर्जन्म का सिद्धान्त स्वीकृत है। भगवान बुद्ध ने अपने पैर में चुभने वाले कांटे को पूर्वजन्म में किए हुए प्राणीवध का विपाक माना है-- इत एकनवतिकल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः । तेन कर्म विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ।। जैन जैन दर्शन आत्मवादी-कर्मवादी दर्शन है। कर्मवाद की अवधारणा में पुनर्जन्म सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान् महावीर ने कहा- राग और द्वेष कर्म के बीज हैं तथा कर्म जन्म मरण का मूल कारण है। पुनर्जन्म कर्म युक्त आत्मा के ही हो सकता है। अकर्मा आत्मा जन्म-मरण की परम्परा से मुक्त होती है। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को पुष्ट करते हुए कहा है कि बालं शरीरं देहतरपुव्वं इंदिया इमत्ताओ। जुवदेहो बालादिव स जस्स देहो स देही त्ति ।। जिस प्रकार युवक का शरीर बालक की उत्तरवती अवस्था है वैसे ही बालक का शरीर पूर्वजन्म के बाद में होने वाली अवस्था है।इसका जो अधिकारी है, वही आत्मा है। जातिस्मृति ज्ञान पूर्वजन्म का पुष्ट प्रमाण है। भगवान् महावीर अपने शिष्यों को संयम में दृढ़ करने के लिए जाति-स्मृति करवा देते थे। मेघकुमार जब संयम से च्युत होने लगा तब भगवान् ने उसको पूर्वजन्म का स्मरण करवा दिया। जैन आगमों में आगत 'पोट्ट-परिहारं' शब्द भी पुनर्जन्म सिद्धान्त का संवाहक है। गोशालक को उत्तरित करते हुए भगवान ने कहा था कि ये तिल पुष्प के बीज मरकर पुनः इसी पौधे की फली में फलित होंगे। भगवती, आचारांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में विपुल मात्रा में पूर्वजन्म के निदर्शन उपलब्ध है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि में पुनर्जन्म पाश्चात्य दार्शनिकों ने भी पुनर्जन्म के बारे में विचार किया है। प्राचीन यूनान के महान दार्शनिक पाइथागोरस के अनुसार साधुत्व की अनुपालना से आत्मा का जन्म उच्चतर लोक में होता है और दुष्ट आत्माएं निम्न योनियों में जाती है । 231 सुकरात का मन्तव्य था कि मृत्यु स्वप्नविहीन निद्रा और पुनर्जन्म जागृत लोक के दर्शन का द्वार है। प्लेटो ने भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। प्लेटो के शब्दों में -The soul always wears her garment a new. The soul has a natural strength which willholdout and be born many times. दार्शनिक शोपनहार के शब्दों में पुनर्जन्म एक असंदिग्ध तत्त्व है । विज्ञान जगत में पुनर्जन्म की अवधारणा दार्शनिक जगत में पुनर्जन्म चर्चा का विषय रहा ही है, आधुनिक विज्ञान के क्षेत्र में भी उस पर विमर्श हो रहा है। सामान्यतः पदार्थ की ठोस, द्रव, गैस एवं प्लाज्मा ये चार अवस्थाएं होती है । सोवियत रूस के वैज्ञानिक श्री वी.एस. ग्रिश्चेंको ने पदार्थ की पांचवी अवस्था की खोज की है, जो जैव- प्लाज्मा (प्रोटोप्लाज्मा, बायोप्लाज्मा) कहलाती है । ग्रिश्चेंको के अनुसार जैव - प्लाज्मा में स्वतंत्र इलेक्ट्रॉन और प्रोटोन होते हैं जिनका नाभिक से कोई सम्बन्ध नहीं होता। इनकी गति बहुत तीव्र होती है। यह मानव की सुषुम्ना नाड़ी में एकत्रित रहता है। प्रोटोप्लाज्मा से सम्बन्धित अनेकों तथ्य इन्होंने प्रस्तुत किए हैं। प्रोटोप्लाज्मा से सम्बन्धित निष्कर्षों के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में प्रचलित सूक्ष्म शरीर की अवधारणा जैव- प्लाज्मा से बहुत साम्य है। प्रोटो प्लाज्मा की तुलना प्राण तत्त्व से की जा सकती है । वैज्ञानिकों के अनुसार प्रोटो-प्लाज्मा शरीर की कोशिकाओं में रहता है। मरने के बाद यह तत्त्व शरीर से अलग हो जाता है। वही तत्त्व जीन में परिवर्तित हो जाता है। बच्चा जब जन्म लेता है, तब बायोप्लाज्मा पुनः जन्म ले लेता है। शरीर जल जाता है, प्रोटोप्लाज्मा नहीं जलता यह आकाश में व्याप्त हो जाता है। जैन दृष्टि के अनुसार इसे सूक्ष्म शरीर कहा जा सकता है। सूक्ष्म शरीर चतुःस्पर्शी होने से द्रव, गैस, ठोस आदि रूप नहीं होता। यह सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म शरीर के संसर्ग से युक्त आत्मा ही पुनर्जन्म लेती है । प्रोटोप्लाज्मा की अवधारणा से आत्मा की अमरता एवं पुनर्जन्म ये दोनों ही सिद्धान्त स्पष्ट होते हैं । वैज्ञानिकों के अनुसार जब प्रोटो-प्लाज्मा का कण स्मृति पटल पर जागृत हो जाता है तब शिशु को अपने पूर्वजन्म की घटनाएं याद आने लगती है। जैन दर्शन के अनुसार पूर्वजन्म की स्मृति सूक्ष्म शरीर में संचित रहती है और निमित्त प्राप्त कर उद्भूत हो जाती है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 जैन आगम में दर्शन परामनोविज्ञान एवं पुर्नजन्म परा-मनोविज्ञान के क्षेत्र में पुर्नजन्म पर बहुत अन्वेषण हो रहा है। परा-मनोविज्ञान विज्ञान की ही एक शाखा है। इसमें पुनर्जन्म आदि सिद्धान्तों का अन्वेषण निरन्तर गतिशील है। योरोपएवं अमेरिका जैसे नितान्त आधुनिक एवं मशीनी देशपुनर्जन्म का आधार खोजने में लगे हैं। वर्जीनिया विश्वविद्यालय के परा-मनोविज्ञान विभागके अध्यक्ष डॉ.ईआनस्टीवेन्सन ने पूर्वजन्म की स्मृति सम्बन्धी अनेक तथ्यों का आकलन किया है। अपनी अनवरत शोध के पश्चात् अपना स्पष्ट मत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि पुनर्जन्म सम्बन्धी अवधारणा यथार्थ है। पुनर्जन्म का आधार दार्शनिक दृष्टि का मूल आधार पुनर्जन्मवाद है एवं पुनर्जन्मवाद के चार स्तम्भ हैं 1. आत्मवाद, 2. लोकवाद, 3. कर्मवाद एवं, 4. क्रियावाद । भगवान् महावीर आत्मवादी थे। उन्होंने अनुभव तथा साक्षात्कार को प्रधानता दी । वे जानते थे कि तर्क के द्वारा स्थापित पक्ष प्रतितर्क से निराकृत हो जाता है, किन्तु साक्षात्कार किया हुआ तत्त्व सैंकड़ों तर्कों से भी खण्डित नहीं होता। इसलिए भगवान् ने साक्षात्कार के मार्ग को मुख्यता दी। जिसको पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है, वह वस्तुवृत्त्या आत्मवादी होता है। उसको आत्मा के अस्तित्व में शंका नहीं रहती। आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व की स्वीकृति होने पर लोकवाद, कर्मवाद एवं क्रियावाद का स्वीकार होना स्वाभाविक है। __ 'जैसे मैं हूं' इसी तरह अन्य प्राणी भी हैं। लोक के भीतर ही जीवों का अस्तित्व है। जीव, अजीव लोकसमुदाय है। इस प्रकार मानने वाले कोलोकवादी कहा जाता है। आत्मवादी लोकवादी भी होगा। जाति-स्मृति से आत्मा और पुद्गल के सम्बन्ध का भी ज्ञान होता है। आत्मा का पुद्गल (कर्म) के योग से ही दिशा-अनुदिशाओं में संचरण होता है। पुद्गल (कर्म) स्वयं आत्मा के द्वारा आकृष्ट किए हुए हैं। 'अपना किया हुआ कर्म अपने को ही भुगतना होता है'- यह कर्मवाद की स्वीकृति है- आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्रिया के द्वारा ही होता है। जब तक आत्मा में राग-द्वेष जनित प्रकम्पन विद्यमान हैं, तब तक उसका कर्म परमाणुओं के साथ सम्बन्ध होता रहता है। इसलिए कर्मवाद, क्रियावाद का उपजीवी है।' जाति स्मृति से इन तथ्यों का साक्षात्कार हो जाता है। व्यक्ति सच्चाई को आत्मसात् कर लेता है। तब उसका आचरण सम्यक् हो जाता है। 1. मंगलप्रज्ञा, समणी, आर्हती दृष्टि (चूरू, 1998) पृ.- 38-42 2. आयारो 1/5 से आयावाई, लोगावाई, कम्मावाई, किरियावाई 3. आचारांगभाष्य पृ. 24-25 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 233 उद्गम की जिज्ञासा सभी शास्त्रों का प्रारम्भ प्राय: किसी-न-किसी जिज्ञासासे होता है। ब्रह्मसूत्र का प्रारम्भ सृष्टि के मूल कारण की जिज्ञासा से हुआ। मीमांसासूत्र का प्रारम्भ धर्म अर्थात् कर्तव्य की जिज्ञासा से हुआ-अथातो धर्मजिज्ञासा। सांख्य दर्शन का प्रारम्भ दु:ख निवृत्ति के उपायों की जिज्ञासा से हुआ है। वैसे ही आचारांग सूत्र का प्रारम्भ भी साधक अपने मूल उद्गम को जानने की इच्छा से करता है। मैं कहां से आया हूं। आचारांग का प्रवक्ता पुनर्जन्म के अस्तित्व में संदिग्ध नहीं है। उसका संकेत पुनर्जन्म के अस्तित्व के संदर्भ में विद्यमान अज्ञान की ओर है। उसका अभिमत है कि बहुत से व्यक्तियों को यह ज्ञान ही नहीं है कि उनकी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है अथवा पुनर्जन्म नहीं लेने वाली है। पूर्वजन्म की ज्ञप्ति के हेतु आचारांग में पूर्वजन्म को जानने के तीन हेतुओं का निर्देश हुआ है - 1. स्वस्मृति, 2. परव्याकरण 3. दूसरों के पास से सुनना।' 1. स्वस्मृति - जाति स्मृति के उत्पन्न होने का एक हेतु है - स्वस्मृति । स्वयं अपने आप अपने पूर्व जन्म की स्मृति हो जाने को स्वस्मृति कहते हैं। बहुत से ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनको बाल्यावस्था में ही अपने पूर्वजन्म का ज्ञान होता है। 2. पर व्याकरण- किसी (आप्त) ज्ञानी व्यक्ति के साथ प्रश्नोत्तरपूर्वक विचार-विमर्श से किसी को पूर्व जन्म की स्मृति हो जाती है। पर का अर्थ है जिन। जिन केवली होते हैं। त्रिकालवित् होते हैं। उनके द्वारा पूर्वजन्म की स्मृति भी करवा दी जाती है। जैसे भगवान महावीर ने मेघकुमार को पूर्वजन्म का बोध करवाकर पुनः उसे संयम में स्थिर कर दिया था। 3. अन्य के पास श्रवण- विशिष्ट ज्ञानी के द्वारा निरूपित तथ्य को सुनकर किसी को पूर्वजन्म का ज्ञान हो जाता है। पूर्वजन्मस्मृति के हेतु कुछ व्यक्तियों को पूर्वजन्म की स्मृति जन्मजात नहीं होती लेकिन निमित्त मिलने पर वह उबुद्ध हो जाती है। 1. ब्रह्मसूत्रम् (संपण. उदयवीर शास्त्री, दिल्ली, 1991) 1/1/1 अथातो ब्रह्मजिज्ञासा 2. मीमांसादर्शनम् (संपा. उदयवीर शास्त्री, दिल्ली, 1991) 1/1/1 3. सांख्यकारिका, श्लोक, 1 दु:खत्रयाभिधाताज्जिज्ञासा तदपघातके हेतौ 4. आयारो ।/1 5. वही, 1/3 सेनं पुण जाणेज्जा-सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा। 6. आचारांग निर्युक्त, गाथा 66 परवइवागरणं पुण जिणवागरणं जिणा परं नत्थि । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 जैन आगम में दर्शन आचारांग-भाष्य में पूर्वजन्म की स्मृति के तीन कारणों की मीमांसा हुई है।1. मोहनीय कर्म का उपशम, 2. अध्यवसान शुद्धि (लेश्या विशुद्धि), 3. ईहापोहमार्गणागवेषणाकरण। 1.उपशान्त मोहनीय-मोहनीय कर्म के विशिष्ट प्रकार के उपशम से भी जाति-स्मृति पैदा हो सकती है। उत्तराध्ययन के 'नमिपव्वज्जा' अध्ययन में ऐसा उल्लेख मिलता है उवसंतमोहणिज्जो, सरईपोराणियंजाइं। उसकामोह उपशांतथा जिससे उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो गई। 2. अध्यवसान शुद्धि-मृगापुत्रने साधु को देखकर जाति-स्मृति प्राप्त की। इस प्रसंग में मोहनीय के उपशम और अध्यवसान-शुद्धि का एक साथ उल्लेख है साहुस्स दरिसणे तस्स, अज्झवसाणम्मि सोहणे। मोहंगयस्स संतस्स, जाईसरणं समुप्पन्नं ।। उत्तरा. 19/7 साधु के दर्शन और अध्यवसाय पवित्र होने पर 'मैंने ऐसा कहीं देखा है' - इस विषय में (मृगापुत्र) सम्मोहित हो गया, चित्तवृत्ति सघनरूप में एकाग्र हो गई और विकल्प शान्त हो गए। इस अवस्था में उसे पूर्वजन्म की स्मृति हो आई। 3. ईहा-अपोह-मार्गणा-गवेषणा-ईहा, अपोह, मार्गणा एवं गवेषणा--ये चार पद 'जातिस्मृति' की प्रक्रिया को प्रकट करते हैं। आचारांग भाष्य में इस विवेचना के प्रसंग में मेघकुमार का उदाहरण प्रस्तुत किया है "जैसे ही मेघकुमार ने मेरुप्रभ हाथी का नाम सुना, वहां उसकी ईहा (पूर्वस्मृति के लिए प्रारम्भिकमानसिकचेष्टा) प्रवृत्त हुई। उस हाथी को जानने के लिए चित्त में कुछ आन्दोलन शुरु हुआ। उसके बाद अपोह हुआ–'क्या मैं हाथी था? यह तर्कणा (मीमांसा) करते हुए वह मार्गणा में प्रविष्ट हुआ। अपने अतीत का अन्वेषण करने के लिए वह अपने द्वारा अनुभूत अतीत की सीमा में प्रवेश कर गया। अतीत का चिंतन करते-करते उसने गवेषणा प्रारम्भ की। जैसे आहार की अन्वेषणा में प्रवृत्त गाय पूर्व प्राप्त आहार के स्थान को प्राप्त कर लेती है वैसे ही गवेषणा करते हुए मेघकुमार को एकाग्र-अध्यवसाय से हाथी के रूप में अपने जन्म की स्मृति उपलब्ध हो गई। सुश्रुत संहिता में कहा गया है कि पूर्वजन्म में शास्त्राभ्यास के द्वारा भावित अन्त:करण वाले मनुष्य को पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है भावित: पूर्वदहेषु सततं शास्त्रबुद्धयः । भवन्ति सत्त्वभूयिष्ठा: पूर्वजातिस्मरा नराः। सुश्रुत संहिता, शारीरस्थान 2/57 1. आचारांग भाष्यम् सूत्र 1/1-4 पृ. 21 2. वही, पृ. 22 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 235 जाति-स्मृति की उभयरूपता जाति स्मरण ज्ञान दो प्रकार का होता है-सनिमित्तक और अनिमित्तक । कुछ मनुष्यों कोतदावरणीय (जातिस्मृति को आवृत्त करने वाले) कर्मों का क्षयोपशम होने से जाति-स्मरण ज्ञान होता है, वह अनिमित्तक है। बाह्य निमित्तों से उपलब्ध होने वाला जाति-स्मरण ज्ञान सनिमित्तक है। पुनर्जन्मके हेतु आचारांग ने माया और प्रमाद को पुनर्भव का हेतु माना है। मायावी एवं प्रमादी व्यक्ति जन्म-मरण के चक्र का विच्छेद नहीं कर सकता। जिस पुरुष का चित्त विषय और कषाय से संस्कारित है, उसे मायावी कहा जाता है। मायावी व्यक्ति के परिणामों की शुद्धि नहीं होती। प्रमादी पुरुष उचित आचरण नहीं कर सकता। इसलिए वह बार-बार जन्म ग्रहण करता है। मोह को भी पुनर्जन्म का कारण माना जाता है। मोह से मूढ मनुष्य बार-बार जन्म-मरण को प्राप्त होता है। आत्मा का अस्तित्व जन्म-मरण का हेतु नहीं है। जन्म-मरण का हेतु मोह है।' मोह, माया, प्रमाद के कारण जीव के जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है। ___ भारतीय चिन्तन के अनुसार कर्म पुनर्जन्म का मूल है। राग और द्वेष कर्म के मूल हैं।' भावकर्म से द्रव्यकर्म, द्रव्यकर्म से भाव कर्म का प्रादुर्भाव होता रहता है। अनिगृहीत क्रोध, मान, माया एवं लोभ आदि कषाय पुनर्जन्म के मूल को सिंचन देते हैं कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्डमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइं पुणब्भवस्स।' कर्म का नाश हुए बिना पुनर्जन्म की श्रृंखला समाप्त नहीं हो सकती। कारण कर्म है। अत: कर्म का नाश आवश्यक है। आचारांग आदि शास्त्र बार-बार कर्म शरीर को नष्ट करने का निर्देश देते हैं 'मुणी मोणं समादाय, धुणे कम्मसरीरगं'' कर्म एवं पुनर्जन्म का परस्पर सघन सम्बन्ध है। अध्यात्म का सर्वोच्च लक्ष्य है-दु:ख मुक्ति एवं स्वभावप्राप्ति । उसकी उपलब्धि जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने से ही मिल सकती है। उस मुक्ति की प्राप्ति कर्म के सर्वथा नाश से ही संभव है। 1. आचारांग भाष्य सूत्र 1-4, पृ. 22 2. आयारो 3/14, माई पमाई पुणरेइ गभं। 3. वही, 5/7 मोहेण गब्भं मरणाति एति । उत्तरज्झयणाणि 32/7 5. दसवेआलियं 8/39 6. आयारो 2/163 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 जैन आगम में दर्शन पूर्वजन्म की स्मृति से आत्मा से सम्बंधित सदेह का निवारण जैनदर्शन की आचार-मीमांसा का आधारभूत तत्त्व आत्मा है। आत्म स्वीकृति शून्य आचार अध:पतन करवाने वाला होता है। आत्मा की स्वीकृति जैनदर्शन में है। आत्मा का अवबोध हो जाने से वह स्वीकृति अनुभव के स्तर पर आ जाती है। आत्मा के बोध का एक स्पष्ट लक्षण है--पूर्वजन्म । जब पूर्वजन्म या पुनर्जन्म ज्ञात हो जाता है तब आत्मा के विषय में संदेह नहीं रहता। भगवान् महावीर श्रुत से अधिक साक्षात्कार में विश्वास करते हैं | जातिस्मृति की अवधारणा इस विश्वास को संपुष्ट करती है। प्राचीन समय में धर्म में श्रद्धा, आस्था को स्थिर रखने के लिए गुरु उसे जातिस्मृति करवा दिया करते थे। इस संदर्भ में मेघकुमार का उदाहरण हमारे सामने है। महावीर ने मेघकुमार को जाति-स्मृति करवा दी थी। जाति-स्मृति की प्रक्रिया क्या थी, वह वर्तमान में स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं है किंतु वर्तमान में भी जाति-स्मृति के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। उनकी यथार्थता भी असंदिग्ध है। परामनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्य करने वाले लोग इस दिशा में गम्भीरता से अन्वेषण कर रहे हैं। चूंकि विज्ञान प्रयोग पर आधारित प्रक्रिया है। जिसका पुनर्जन्म होता है वह आत्म-तत्त्व अमूर्त है, जो सीधा विज्ञान के अन्वेषण का विषय नहीं बन पा रहा है। अमूर्त ऐन्द्रियिक ज्ञान का विषय नहीं बन सकता। किंतु संसारी आत्मा तैजस एवं कार्मण शरीर से युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त भी है। तैजस शरीर अष्टस्पर्शी पुद्गल स्कन्ध है। वह विज्ञान के उपकरणों का विषय बन सकता है। यदि ऐसा हुआ तो इस क्षेत्र में अभिनव ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं का उद्घाटन हो सकेगा। जातिस्मृति सबको क्यों नहीं होती? पूर्वजन्म की स्मृति सभी प्राणियों को नहीं होती है-ऐसा क्यों होता है ? इस संदर्भ में तन्दुलवेयालिय प्रकरण में समाधान उपलब्ध है। वहां कहा गया है-जन्म और मृत्यु के समय जो दु:ख होता है, उस दु:ख से सम्मूढ़ होने के कारण व्यक्ति को पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती जायमाणस्स जं दुक्खं मरमाणस्स वा पुणो, तेण दुक्खेण समूढो जाई सरइ नप्पणो।' जाति-स्मृति के लाभ स्मृति संस्कारों के उद्बुद्ध होने से होती है। जाति-स्मरण ज्ञान भी स्मृति का एक प्रकार है। पूर्व जन्म के संस्कार भी विशिष्ट निमित्त को प्राप्त करके ही जागृत होते हैं। विशिष्ट निमित्त के अभाव में संस्कार जागरण नहीं होता। संस्कार जागरण के बिना स्मृति सम्भव 1. अंगसुत्ताणि 3, (नायाधम्मकहाओ) 1/190 2. उत्तरज्झयणाणि 14/19 नो इंदियग्गेज्झ अमुत्तभावा 3. तन्दुलवेयालियं, पइण्णयं (संपा. प्रो. सागरमल जैन, उदयपुर, 1991) 39 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा नहीं है। आत्मा त्रैकालिक है । साक्षात्कार के अभाव में यह मात्र श्रद्धागम्य है । जाति स्मृति होने पर यह श्रद्धा का विषय नहीं रहता, अनुभूत सत्य बन जाता है । पूर्वजन्म की श्रृंखला को देखकर व्यक्ति के मन में अध्यात्म के प्रति सहज ही आकर्षण उत्पन्न हो जाता है। उसका आचार-व्यवहार सहज एवं संतुलित बन जाता है । मृत्यु के पश्चात् किसी भी योनि में जन्म पुनर्जन्म के सिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि मनुष्य मृत्यु के पश्चात् फिर मनुष्य भी हो सकता है तथा नरक, तिर्यञ्च या देव किसी भी गति में उत्पन्न भी हो सकता है । वैसे ही तिर्यञ्च गति के जीव पुनः तिर्यञ्च गति में अथवा देव, नरक मनुष्य गति में पैदा हो सकते हैं। नारक जीव मरकर मनुष्य या तिर्यञ्च गति में पैदा होते हैं वे नरक गति से सीधे देवगति में नहीं जा सकते एवं नरक से नरक में भी पैदा नहीं हो सकते। उसी प्रकार देव दवेगति से च्युत होकर मनुष्य या तिर्यञ्च बनते हैं । पुन: देव से देव नहीं बन सकते तथा नरक में भी नहीं जाते, ऐसी जैनदर्शन की मान्यता है । भगवती सूत्र में ऐसे अनेक प्रसंग प्राप्त होते हैं । शालवृक्ष की चर्चा के प्रसंग में कहा गया शालवृक्ष यहां से नष्ट होकर पुन: शालवृक्ष के रूप में राजगृह में उत्पन्न होगा, वहां से च्युत होकर महाविदेह में उत्पन्न होकर सब दुःखों को नष्ट करेगा । ' उसी प्रकार कार्तिक सेठ के प्रसंग में कहा गया है कि कार्तिक सेठ मरकर दो सागरोपम स्थिति वाले शक्र के रूप में उत्पन्न हुआ ।' प्रस्तुत प्रथम उदाहरण में तिर्यञ्च से तिर्यञ्च गति तथा तिर्यञ्च से मनुष्य गति में गमन का उल्लेख है तथा दूसरे उदाहरण में मनुष्य गति से देव गति में जाने का उल्लेख है । ऐसे अन्य अनेक उदाहरण आगम में उपलब्ध हैं अतः जिनकी यह मान्यता है कि मनुष्य मरकर मनुष्य ही होता है, स्त्री मरकर स्त्री ही होती है जैनदर्शन इस मान्यता को स्वीकार नहीं करता । जैन आगमों में पुनर्जन्म की स्वत: सिद्ध सिद्धान्त के रूप में स्वीकृति है । आगमों में तर्क के द्वारा इस सिद्धान्त को स्थापित करने का प्रयत्न नहीं किया है। जैन आगमों में पुनर्जन्म से सम्बंधित सैंकड़ों सैंकड़ों नियमों का उल्लेख हुआ है। यद्यपि आगम उत्तरवर्ती मध्यकालीन जैन ग्रंथों में पुनर्जन्म को तर्क से सिद्ध करने के प्रयत्न किए गए हैं। जो तात्कालिक परिस्थितियों के अनुकूल ही है। आज परामनोवैज्ञानिक इस क्षेत्र में गम्भीर अन्वेषण कर रहे हैं। ज्ञानदर्शन का भवान्तरगमन आत्मा की त्रैकालिक सत्ता है । संसारावस्था में वह एक जन्म से दूसरे जन्म में अपने कर्मों के अनुसार परिभ्रमण करती है । आगम साहित्य में यह चर्चा भी उपलब्ध है कि आत्मा 237 - 1. अंगसुतापि 2, (भगवई) 14 / 101-104 2. वही, 18 /54 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 जैन आगम में दर्शन जब एक भव को छोड़कर दूसरे भव में जाती है तब अपने साथ क्या ले जा सकती और क्या नहीं ले जा सकती है? इसी संदर्भ में गौतम ने भगवान् से पूछा-भन्ते ! क्या (कोई) ज्ञान इस जन्म तक ही सीमित रहता है? क्या ज्ञान अगले जन्म में साथ जाता है ? क्या ज्ञान वर्तमान तथा भावी जन्म दोनों में विद्यमान रहता है ? गौतम को समाहित करते हुए महावीर ने कहा- गौतम ! (कोई) ज्ञान इस जन्म तक भी सीमित रहता है, अगले जन्म में भी साथ जाता है, वर्तमान जन्म और भावी जन्म-दोनों में भी विद्यमान रहता है। गौतम ने इसी प्रकार दर्शन, चारित्र, तप और संयम के संदर्भ में भी यही प्रश्न उपस्थित किए। भगवान् ने इन प्रश्नों के समाधान में कहा- ज्ञान और दर्शन (सम्यक्त्व)-ये दोनों इस जन्म तक ही सीमित रह सकते हैं और अगले जन्म में भी जा सकते हैं किन्तु चारित्र, तप और संयम-इन तीनों का भवान्तर गमन नहीं होता। ये एहभविक ही होते हैं। आत्मा के साथ नहीं जाते।' आचार्य महाप्रज्ञ ने इस संदर्भ में अपना विमर्श प्रस्तुत करते हुए लिखा है- “एक जन्म से दूसरे जन्म के मध्य में ज्ञान सत्तारूप में रहता है, अभिव्यक्त नहीं होता। वह शरीर रचना के पश्चात् नाड़ीतंत्र की रचना के बाद अभिव्यक्त होता है। उदाहरण के लिए जाति-स्मृति (पूर्वजन्म की स्मृति) को लिया जा सकता है। इन्द्रिय और मन से होने वाले ज्ञान का आधारभूत कोश कर्म-शरीर है। स्थूल शरीर के नाड़ीतंत्र या मस्तिष्क में उनके संवादी कोशों की रचना होती है। जिस आत्मा में दो इन्द्रियों के विकास की सत्ता है, उसके दो इन्द्रियों की रचना होगी। इसी प्रकार तीन, चार और पांच इन्द्रियों की रचना भी सूक्ष्म शरीर के कोशों के आधार पर ही होगी। नाड़ीतंत्र या मस्तिष्क में ज्ञानकोशों की रचना की तरतमता का आधार भी कर्मशरीरगत कोश ही बनते हैं। इसे सूत्र के रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-जिस आत्मा के ज्ञानावरण कर्म का जितना क्षयोपशम होता है, उसके उतने ही कोश कर्म-शरीर में निर्मित हो जाते हैं और उसके संवादी कोश नाड़ीतंत्र या मस्तिष्क में निर्मित होते हैं। इस सारे दार्शनिक चिंतन को ध्यान में रखते हुए भगवान् ने कहा- 'ज्ञान परभविक भी होता है।' जैसे हमारे मस्तिष्क में वर्तमान जन्म के स्मृति कोश होते हैं वैसे ही पूर्वजन्म के स्मृतिकोश होते हैं या नहीं, यह एक जटिल प्रश्न है। आज के शरीर शास्त्री और मनोवैज्ञानिक उनकोशों को खोज नहीं पाए हैं किंतुकर्मशास्त्रीय दृष्टि से जिसमें पूर्वजन्म की स्मृति की संभावना है, उसमें उन कोशों की विद्यमानता की सम्भावना भी की जा सकती है। मस्तिष्क का बहुत बड़ा भाग मौन क्षेत्र (Silent area) या अन्धकार क्षेत्र (Dark area) है। हो सकता है उस क्षेत्र में वे स्मृतिकोश उपलब्ध हो जाए।' 1. अंगसुत्ताणि 2, भगवई 1/39-43 2. भगवई (खण्ड-I) 1/39-43 का भाष्य Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा 239 चारित्र एवंतपके भवान्तर गमन का निषेध ज्ञान एवं दर्शन को ऐहभविक, पारभविक, उभयभविक माना गया है। चारित्र, तप एवं संयम को केवल ऐहभविक ही माना गया है क्योंकि उनका अनुगमन नहीं होता है। वृत्तिकार के अनुसार चारित्र अनुष्ठान रूप होता है और अनुष्ठान शरीर में ही सम्भव है।' चारित्र की तरह ही संयम एवं तप भी अनुष्ठानात्मक हैं अत: ये भी इसी तर्क से ऐहभविक सिद्ध होते हैं। चारित्र, तप और संयम-तीनों ही आचारात्मक हैं। चारित्र एवं संयम पर्यायवाची के रूप में भी प्रयुक्त होते हैं। तप चारित्र का ही एक प्रकार है। मोक्षमार्ग के प्रसंग में जहां मोक्षमार्ग के चार घटक तत्त्वों का उल्लेख है वहां तप का परिगणन चारित्र से अलग हुआ है जहां तीन ही घटक तत्त्वों का उल्लेख है वहां तप का अन्तर्भाव चारित्र में ही हो गया है। निष्कर्ष ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र-तीनों ही विशुद्धि रूप हैं। ज्ञान ज्ञानवरणीय कर्म का क्षय, क्षयोपशम है तथा दर्शन, दर्शनमोहनीय एवं चारित्र, चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम है। ज्ञान एवं दर्शन जब अनुगमनशील है तब चारित्र की अनुगमनशीलता क्यों नहीं है यह समालोच्य है। इस जन्म में जो ज्ञान सीखा है, वह उस रूप में तो अगले जन्म में जाता हुआ प्रतीत नहीं होता। यथा यहां कोई व्यक्ति डॉक्टर या इंजीनियर है तो अगले जन्म में यह ज्ञान जैसा यहां था वैसा ही अगले जन्म में होना सम्भव नहीं है। इसका तात्पर्य यही है कि विशुद्धि रूप ज्ञान का ही अनुगमन हो रहा है। चारित्र कोरा अनुष्ठानात्मक ही नहीं होता। वह चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम रूप भी है। ज्ञान विशुद्धि यदि अनुगमनशील है तो चारित्र विशुद्धि के अनुगमन में क्या बाधा हो सकती है ? एक डॉक्टर मनुष्य मरकर यदि पुन: मनुष्य बनता है और पुन: डॉक्टर बनना चाहता है तो उसे डॉक्टरी अध्ययन करना ही होगा उसी प्रकार एक चारित्र का पालक मरकर अन्य स्थान में जाता है तो नये सिरे से उसे चारित्र के नियमों को स्वीकार करना होता है। अत: ज्ञान, दर्शन का अनुगमन एवं चारित्र, संयम एवं तप का अननुगमन यह एक सापेक्ष वक्तव्य ही प्रतीत हो रहा है। पुनर्जन्म एवं आयुष्य कर्म पुनर्जन्म का सम्बन्ध वैसे तो सभी कर्मों से है किंतु उसका मुख्य हेतु आयुष्य कर्म उपलक्षित होता है। जिसके उदय से जीव प्राणधारण करता है वह आयुकर्म है। स्थानांगसूत्र में आयुपरिणाम के नौ प्रकार प्रज्ञप्त हैं-गति परिणाम, गतिबंधन परिणाम, स्थिति परिणाम, 1. भगवती वृत्ति 1/41 अनुष्ठानरूपत्वात् चारित्रस्य शरीराभावे च तदयोगात्। 2. उत्तरज्झयणाणि 28/2 नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। एस मग्गो त्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं।। 3. तत्त्वार्थसूत्र । । सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । 4. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका 8/23, पृ. 172 आयुर्जीवनं-प्राणधारणं यदुदयाद् भवति तदायुः। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन स्थिति बंधन परिणाम, ऊर्ध्व गौरव परिणाम, अधो गौरव परिणाम, तिर्यक् गौरव परिणाम, दीर्घ गौरव परिणाम एवं ह्रस्व गौरव परिणाम ।' स्थानांग के वृत्तिकार ने परिणाम के तीन अर्थ किए हैं - स्वभाव, शक्ति और धर्म | 2 240 अगले जीवन के आयुष्य का निर्धारण होता है तब उसके साथ ही जीव किस गति में जाएगा ? वहां उसकी स्थिति कितनी होगी? वह ऊंचा, नीचा, तिरछा कहां जाएगा ? वह दूरवर्ती क्षेत्र में जाएगा या निकटवर्ती क्षेत्र में इत्यादि बातों का भी निर्धारण हो जाता है । आयुष्य कर्म के नौ परिणामों के द्वारा भी पुनर्जन्म के साथ इस कर्म का मुख्य सम्बन्ध है, यह स्पष्ट हो जाता है 1. गति परिणाम - इसके माध्यम से जीव मनुष्य आदि गति को प्राप्त करता है। 2. गतिबन्धन परिणाम - इसके माध्यम से जीव प्रतिनियत गतिकर्म का बंध करता है, जैसे- जीव नरकायु स्वभाव से मनुष्यगति, तिर्यक्गति नामकर्म का बंध करता है, देवगति और नरकगति का बंध नहीं करता । 3. स्थिति परिणाम - इसके माध्यम से जीव भव सम्बंधी स्थिति (अन्तर्मुहुर्त से तेंतीस सागर तक) का बन्ध करता है । 4. स्थिति बंधन परिणाम - इसके माध्यम से जीव वर्तमान आयु के परिणाम से भावी आयुष्य की नियत स्थिति का बन्ध करता है, जैसे- तिर्यग् आयुपरिणाम से देव आयुष्य का उत्कृष्ट बंध अठारह सागर का होता है। 5. ऊर्ध्वगौरव परिणाम - गौरव का अर्थ है गमन । इसके माध्यम से जीव ऊर्ध्वगमन करता है । 6. अधोगौरव परिणाम - इसके माध्यम से जीव अधोगमन करता है। 7. तिर्यग् गौरव परिणाम- इसके माध्यम से जीव को तिर्यग् गमन की शक्ति प्राप्त होती है । 8. दीर्घ गौरव परिणाम - इसके माध्यम से जीव लोक से लोकान्त पर्यन्त दीर्घगमन करता है । 9. ह्रस्व गौरव परिणाम - इसके माध्यम से जीव ह्रस्व गमन (थोड़ा गमन ) करता है । आयुष्य कर्म के पुद्गल परमाणु जीव में ऊंची-नीची, तिरछी-लम्बी और छोटी-बड़ी गति करने की शक्ति उत्पन्न करते हैं । 1. ठाणं 9/40 2. स्थानांगवृत्ति, पत्र 453 परिणाम: -स्वभावः शक्तिः धर्म इति । 3. ठाणं टिप्पण, 9/40, पृ. 882 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ममीमांसा आयुष्य का बन्ध पूर्वजन्म में हो जाता है, किन्तु उसका वेदन नए जन्म के साथ ही प्रारम्भ होता है । इस आधार पर कहा जा सकता है कि सुख-दुःख और आयु के वेदन में नया नियामक की भूमिका निभाता है। आयुष्य कर्म है तो जन्म है, जन्म है तो आयुष्य कर्म का भोग है। ये परस्पर जुड़े हुए हैं। पातञ्जल योगसूत्र में भी यह तथ्य अभिव्यक्त हुआ है'सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगा:' । ' पुनर्जन्म : स्वत: चालित व्यवस्था पुनर्जन्म की व्यवस्था स्वत: चालित है। वह ईश्वर आदि किसी शक्ति के परतंत्र नहीं है । स्वकृत कर्म के फल विपाक के अनुसार ही जीव नरक आदि नाना स्थानों में उत्पन्न होता है। जब कर्मों से भारी बनता है तब वह अधोगामी गतियों में उत्पन्न होता है एवं जब कर्म के भार से हल्का होता है तब ऊर्ध्वगामी विशिष्ट गतियों में उत्पन्न होता है । जीव जब सर्वथा कर्ममुक्त हो जाता है तब उसका संसार परिभ्रमण समाप्त हो जाता है । पुनर्जन्म की श्रृंखला टूट जाती है । अध्यात्म साधना का मूल उद्देश्य पुनर्जन्म की श्रृंखला को तोड़कर आत्म-स्वभाव में अवस्थित होना ही है । मुक्त जीव की गति जीव जब कर्ममुक्त हो जाता है तब वह मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। कर्म की बंधावस्था संसार में था । कर्म के कारण उसमें गति हो रही थी। जब जीव कर्ममुक्त हो जाता है तब उसकी गति होती है या नहीं होती ? होती है तो कैसे होती है ? यह जिज्ञासा स्वाभाविक है। भगवती में अकर्म की गति का वर्णन प्राप्त है। कर्म रहित जीव भी लोकान्त तक गति करता है । गौतम ने भगवान् से पूछा - भंते! क्या अकर्म (कर्ममुक्त) की भी गति होती है । भगवान् ने इसका सकारात्मक उत्तर दिया है। " 241 अधिकांश भारतीय दर्शनों ने आत्मा को व्यापक माना है। इसलिए वहां मुक्त आत्मा की गति का कोई प्रश्न ही नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा शरीर - व्यापी है।' वह शरीर का त्याग मनुष्य लोक में करती है वहां से ऊर्ध्वगमन करके लोकान्त में जाकर स्थित हो जाती है ।' धर्मास्तिकाय का उससे आगे अभाव होने से वह अलोक में नहीं जा सकती। 1. पातञ्जल योगदर्शन 2 / 13 2. अंगसुत्ताणि 2, ( भगवई ) 9 / 125-132 3. वही, 7/10 अत्थि णं भंते! अकम्मस्स गती पण्णायति हंता अत्थि ।। 4. वही, 7/155 5. उत्तरज्झयणाणि 36/56 अलोए पडिहया सिद्धा लोयग्गे य पइट्टिया । इहं बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्झई ॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 मुक्त जीव की गति के चार हेतु शरीर मुक्त आत्मा की गति के संदर्भ में भगवती में चार हेतु प्रस्तुत किए गए हैं। 1. निस्संगता 2. बन्धन - छेदन 3. निरिन्धनता 4. पूर्वप्रयोग 1. निस्संगता - कर्मों के संग से मुक्त होने से आत्म निस्संग, निर्लेप बन जाती है । जैसे लेपमुक्त तुम्बा पानी के ऊपर आ जाता है वैसे ही आत्मा कर्म मुक्त होकर ऊपर चली जाती है । जैन आगम में दर्शन 2. बन्धन छेदन - कर्म बंध का छेद होते ही जीव अपनी स्वाभाविक ऊर्ध्वगति से लोकान्त तक चला जाता है । बंधन छेदन को फली और एरण्ड फल के दृष्टान्त से समझाया गया है । 3. निरिन्धनता - निरिन्धनता को समझाने के लिए भगवती में धूम का उदाहरण दिया गया है । ' तत्त्वार्थ सूत्र में इस हेतु का प्रयोग नहीं हुआ है । यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्र प्रदत्त तथागति परिणाम' से इसकी तुलना की जा सकती है। 4. पूर्वप्रयोग - कर्म मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन का एक हेतु पूर्व प्रयोग माना गया है । यद्यपि वर्तमान में वह कर्म मुक्त है। किन्तु पूर्व अवस्था की अपेक्षा मुक्त आत्मा की गति होती है । उमास्वाति ने भी मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति के चार हेतुओं का उल्लेख किया है । " भगवती में प्राप्त निरिन्धनता हेतु के स्थान पर यहां पर 'तथागतिपरिणाम' का उल्लेख हुआ है जिसकी हमने ऊपर चर्चा की है। मुक्त आत्मा की स्वाभाविक ऊर्ध्वगति है किन्तु उसको भी गति सहायक तत्त्व धर्मास्तिकाय की अपेक्षा रहती है अत: मुक्त आत्मा लोकान्त में ही स्थित हो जाती है। अलोक में धर्मास्तिकाय का अभाव होने के कारण अलोक में मुक्तआत्माओं की गति नहीं होती है । इस समस्त विवरण से यह स्पष्ट है कि जैनागमों में कर्म का विश्लेषण अत्यन्त सूक्ष्म एवं विस्तृत है । इस विश्लेषण को श्वेताम्बर परम्परा के कर्मग्रंथों तथा दिगम्बर परम्परा के करणानुयोग के ग्रंथों में चालू रखा गया। जैन की समस्त आचारमीमांसा के केन्द्र में कर्म ही है । अत: कर्म को इतना महत्त्व देना स्वाभाविक है। अगले अध्याय में आचार की मीमांसा करते समय कर्मबन्ध से मुक्ति की प्रक्रिया का हम वर्णन करेंगे । 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 7 / 10-15 2. वही, 7/13 3. वही, 7/14 4. तत्त्वार्थसूत्र 10/6 5. तत्त्वार्थसूत्र 10/6 पूर्वप्रयोगाद्, असंगत्वाद्, बन्धच्छेदात्, तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः । 000 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा आचार की परिभाषा आचार का शाब्दिक अर्थ है-आचरण। जिसका आचरण किया जाए वही आचार है। 'आचर्यते इति आचार:'। आङ् उपसर्गपूर्वक चर-गतौ धातु से भाव में घञ् प्रत्यय करने से आचार शब्द निष्पन्न होता है। जो आचरण, व्यवहार, रीति-रिवाज आदि का वाचक है । गत्यर्थक चर धातु से निष्पन्न होने से इसमें ज्ञानार्थकता भी अन्तर्निहित है, अत: सम्यक् ज्ञान सहित उत्कृष्ट आचरण ही आचार है। शिष्ट व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण ज्ञान-दर्शन आदि के आसेवन की विधि को आचार कहा जाता है।' वेश-धारण आदि बाह्य क्रिया-कलाप को भी टीकाकारों ने आचार कहा है। आचार शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता रहा है, यथा-धर्म, नीति, कर्तव्य, नैतिकता आदि। मानव के कर्तव्यों के रूप में जिन बातों का अथवा जिन नियमों का होना आवश्यक है, वे सब नियम आचार में समाहित हो जाते हैं। स्थानांग वृत्ति में आचार शब्द के आचरण, व्यवहार एवं आसेवन ये तीन अर्थ उपलब्ध होते हैं।' आचारांग के भाष्य ने परिज्ञा, विरति अथवा संयम को आचार कहा है। आचार की यह व्यापक स्वीकृति है। इसमें ज्ञान एवं आचरण दोनों का समावेश हो गया है। ज्ञ एवं प्रत्याख्यान के भेद से परिज्ञा दो प्रकार की है। इस प्रकार जानना और छोड़ना ये दोनों साथ मिलकर ही आचार को पूर्णता प्रदान करते हैं। आचार का स्वरूप भारतीय दर्शन में धर्म, आचार, नीति आदि शब्द परस्पर पर्यायवाची रूप में प्रयुक्त होते रहे हैं। धर्म शब्द का प्रयोग व्यापक क्षेत्र में हुआ है। सामाजिक कर्तव्यों को भी धर्म की 1. नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति, पृ. 75, शिष्टाचरितो ज्ञानाद्यासेवनविधिः। 2. उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य वृत्ति, पत्र 499, आचारो-वेषधारणादिको बाह्यः क्रियाकलापः। 3. (क) स्थानांग वृत्ति, पत्र 64, आचरणमाचारोव्यवहारः। (ख) वही, पत्र 325, आचरणमाचारोज्ञानादिविषयासेवनेत्यर्थः। 4. आचारांग भाष्यम्, । का आमुख पृ. 15, आचार:-परिज्ञा विरति: संयमो वा। 5. आचारांगटीका, पृ. 7 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन 2 अभिधा से अभिहित किया गया वहीं चारित्र को धर्म का लक्षण बताया गया ।' अपने स्वरूप में रमण करने को चारित्र कहा गया है। स्वरूपे चरणं चारित्रम् | इसका तात्पर्य हुआ अपने स्वभाव में स्थित रहना ही चारित्र है। इसलिए यह भी कहा गया - वत्थुसहावो धम्मो । ' वस्तु का स्वभाव ही धर्म है । वस्तुतः स्वभाव में रहना ही आचार है। जिन उपायों से जीव अपने स्वभाव में रमण करता है वे सारे उपाय आचार के अन्तर्गत परिगणित होते हैं। अहिंसा, संयम एवं तप धर्म के स्वरूप हैं वे ही आचार के साधक तत्त्व हैं। 244 आचार व्यक्ति का क्रियात्मक पक्ष है तथा विचार उसका ज्ञानात्मक पक्ष है। ज्ञान का प्रकटीकरण जब क्रिया में होता है तब वह आचार बन जाता है। ज्ञान स्व-संवेद्य है। आचार पर संवेद्य भी है । व्यक्ति के अच्छे या बुरे का मापन ज्ञान से नहीं होता, उसके आचरण से होता है । व्यावहारिक मनोविज्ञान का मूल आधार व्यक्ति का आचार ही है । समता या समभाव आत्मा का स्वभाव है और विषमता उसका विभाव है। विभाव से स्वभाव की दिशा में अथवा विषमता से समता की ओर ले जाना वाला आचरण ही सदाचार है। जैन धर्म के अनुसार सदाचार या दुराचार का शाश्वत मानदण्ड समता एवं विषमता है। स्वभाव दशा से फलित होने वाला आचरण सदाचार है और विभाव दशा या पर-भाव से फलित होने वाला आचरण दुराचार है। आचरण की देशकालानुसारिता जैन दर्शन के अनुसार सदाचार का शाश्वत मानदण्ड कर्मबंधन से मुक्ति ही है। जो भी आचरण जीव को कर्म मुक्ति की दिशा में ले जाता है, वह सद् आचरण है। कर्मबंधन की ओर ले जाने वाला आचरण असद् आचरण है । देश, काल, परिस्थिति के अनुसार आचरण के बाह्य साधनों में परिवर्तन हो सकता है। परिस्थिति विशेष में सद् आचरण एवं असद् आचरण के स्वरूप में पर्याप्त अन्तर आ जाता है। जैसे सामान्य स्थिति में आत्म हत्या दुराचार है किंतु शीलरक्षा हेतु किया जाने वाला देहोत्सर्ग सदाचार की कोटि में परिगणित है । देश, काल, परिस्थिति के अनुसार सदाचार दुराचार बन जाता है, दुराचार सदाचार बन जाता है। जैन विचारणा का यह स्पष्ट अभिमत है कि आचार के जो प्रारूप सामान्यतया बन्धन के कारण हैं, वे ही परिस्थिति विशेष में मुक्ति के कारण बन जाते हैं और मुक्ति के साधन बंधन के कारण बन जाते हैं। "जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा" ।' आचार एवं अनाचार पर विचार करते समय आचार्य उमास्वाति ने भी देश, काल, परिस्थिति को प्रधानता दी है। एकान्त रूप से न तो कोई कर्म आचरणीय होता है और न ही अनाचरणीय । इसी अवधारण को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है - 1. प्रवचनसार, (ले. आचार्य कुन्दकुन्द, बम्बई, 1955 ) 1/7, चारित्तं खलुधम्मो । 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 478 3. दसवे आलियं, 1 / 1, धम्मो मंगलमुक्किद्वं अहिंसा संजमो तवो। 4. आयारो, 4/12 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 245 _ "देशं कालं पुरुषमवस्थामुपघातशुद्धपरिणामान्। प्रसमीक्ष्य भवति कल्प्यं नैकान्तात्कल्प्यते कल्प्यम्॥" किसी कार्य की आचरणीयता और अनाचरणीयता देश, काल, व्यक्ति, परिस्थिति और मन:स्थिति पर निर्भर होती है। महाभारत में भी इसी दृष्टिकोण का समर्थन हुआ है य एव धर्म: सोऽधर्मो देशकाले प्रतिष्ठितः। आदानमनृतं हिंसा धर्मो व्यावस्थिक स्मृतः॥ वस्तुत: सदाचार के मानदण्डों में परिवर्तन दैशिक और कालिक आवश्यकता के अनुरूप होता रहता है। मनु ने काल के आधार पर सतयुग, कलयुग आदि के आचरण में भिन्नता स्वीकार की है। जैन विचारकों ने सदाचार यानैतिकता के परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील अथवा सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों पक्षों पर प्रभूत विचार किया है। ज्ञान एवं आचरण जीवन विकास एवं समाज को स्थिर सम्पन्न बनाने के लिए आचार की नितान्त आवश्यकता होती है। मानव के कर्तव्य के रूप में जिन बातों का अथवा जिन नियमों का होना आवश्यक है, वे सब नियम आचार में समाहित हो जाते हैं। आचार सभी भारतीय, पाश्चात्य चिंतकों के विमर्श का विषय रहा है। सुकरात, प्लेटो एवं अरस्तू के दर्शन में नीति को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। सुकरात ने ज्ञान को सर्वोच्च शुभ माना है-"Virtue is Knowledge"' किंतु आचार मीमांसा के क्षेत्र में सुकरात की यह अवधारणा पूर्ण रूपसेसमर्थित नहीं हो पाईक्योंकि आचरणशून्य ज्ञान पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकता। कोरे ज्ञान से व्यक्ति का आचरण ठीक हो ही जाए यह आवश्यक नहीं है अपितु व्यवहार में इसके विपरीत भी देखा जाता है। महाभारत में दुर्योधन कहता है-मैं धर्म को जानता हूं किंतु उस ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है तथा अधर्म को भी जानता हूं किंतु उससे निवृत्त नहीं हो पा रहा हूं जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्मं न च मे निवृत्तिः। ज्ञान के सही होने पर आचरण की शुद्धता अनिवार्य नहीं है अत: सुकरात का वक्तव्य आचार के क्षेत्र में अपर्याप्त माना जाता है The Socratic formula'virtue is knowledge'is found to be an inadequate explanation of the moral lifeofman. Knowledge of what is right is not coinci 1. प्रशमरितप्रकरण, (ले. उमास्वाति, अगास, 1950) गाथा 146 2. शान्तिपर्व, 37/8 3. मनुस्मृति, 1/85, अन्ये कृतयुगे धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे। अन्ये कलियुगे नृणां युगहासानुरूपतः॥ 4. Encyclopedia of Religion and Ethics. P. 405 5. शांतिपर्व Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 जैन आगम में दर्शन dent with doing it, forman, while knowing the right course, is found deliberately choosing the wrongone. Desire tends toruncounter to the dictates of the reason....Hencemere intellectual instructionisnotsufficienttoensurerightdoing.' बुद्धि और इच्छा के मध्य संघर्ष चलता रहता है। बुद्धि सही एवं गलत का निर्णय करती है किंतु इच्छा यथार्थ को छोड़कर अयथार्थ के मार्ग पर अग्रसर हो जाती है। ऐसी अवस्था में इच्छा को संयमित करना आवश्यक होता है जीवन के प्रारम्भ में अच्छी आदत के निर्माण के लिए बाह्य नियंत्रण की आवश्यकता होती है बाद में वह व्यक्ति के जीवन का अंग बन जाती है। बुद्धि और इच्छा में सामंजस्य आवश्यक है। इच्छा को किस प्रकार बुद्धि के अनुकूल बनाया जाए। इसका प्रशिक्षण आवश्यक है। अरस्तु ने बुद्धि एवं इच्छा के सामंजस्य के सिद्धान्त को आचार के क्षेत्र में विकसित किया। उनका अभिमत है "Inthecaseofthecontinentandofthe incontinent manalike, he says, "wepraise the reason or the rational part, foritexhorts them rightly and, urges them to do what is best, but there is plainly present in them another Principle besides the rational one, which fights and struggles against the reason. For just as a paralysed limb, when you will to move it to the right, moves on the contrary to the left, so is with the soul, the incontinent man's impulses run counter to his reason. Again he speaks of the faculty ofappetite orofdesire in genral which partakes ofreason in a manner-that is, in so far as it listens to reason and sub mits to its sway.......Further,alladviceandallrebukeandexhortation testifies that the irrational part is in some way amenable to reason." ___Moralvirtue, forAristotle,isahabitofchoiceorpurpose,purposebeing desire following upon deliberation. Aright purpose then involves both true reasoningandright desire. Hence the finalendofmoral discipline is thereform, and not the suppression, of desire.' ज्ञान के अनुसार आचरण, नीतिदर्शन कामहत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। ज्ञान के बिना आचरण अन्धा है तथा आचरण के बिना ज्ञान पंगु है। सांख्य दर्शन में जिस प्रकार प्रकृति एवं पुरुष के सम्बन्ध को अन्धपंगुवत्' माना गया है वैसे ही आचार-मीमांसा के क्षेत्र में ज्ञान और आचार का सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। जैन दर्शन के अनुसार आचार की पृष्ठभूमि ज्ञान है। पहले ज्ञान फिर आचार-पढमं नाणं तओ दया। भगवान् महावीर के आचार-शास्त्र का 1. Encyclopaedia of Religion and Ethics. P. 405 2. Ibid, P. 406, The imposition of commands, by exercising the child in self-restraint and by inducing a habit of obedience, is the great means by which the early training of the will is ef fected, and the foundation of moral habit and good character established. 3. Encyclopedia of Religion and Ethics. P. 405 सांख्यकारिका, श्लोक 21, पवन्धवदुभयोऽपि......। 5. दसवे आलियं, 4/10 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा सूत्र है - ज्ञानं प्रथमो धर्मः । ज्ञान के बिना आचार का निर्धारण नहीं हो सकता । ज्ञानी मनुष्य ही आचार और अनाचार का विवेक करता है तथा अनाचार को छोड़कर आचार का पालन करता है । सत्यासत्य का विवेक ज्ञान पर निर्भर करता है । सूत्रकृतांग में भी यही तथ्य प्रतिपादित हुआ है। पहले बंधन को जानो फिर उसको तोड़ो।' बंधन क्या है ? उसके हेतु क्या है? उसे तोड़ने के उपाय क्या है ? इन सबको जानने पर ही बंधन को तोड़ा जा सकता है। यह दृष्टि न केवल ज्ञानवाद है और न केवल आचारवाद है। यह दोनों का समन्वय है । I सार की खोज मनुष्य की मनीषा का चिरंतन प्रयत्न है । जिसमें पोषकशक्ति है, स्नेह है, सरसता है, मधुरता है वह सार है। दूध पोषक है। मनुष्य उससे संतुष्ट नहीं हुआ। उसने सार की खोज की और नवनीत मिल गया । छिलके में पोषक शक्ति है । मनुष्य उससे संतुष्ट नहीं हुआ । आम के सार को प्राप्त किया, मधुरता प्रत्यक्ष हो गई । ज्ञान विवेक शक्ति का उद्घाटक है किंतु मनुष्य इतने मात्र से संतुष्ट नहीं हुआ। वह ज्ञान के सार तत्त्व के अन्वेषण में लगा रहा। ज्ञान के सार की खोज में आचार हस्तगत हो गया । ज्ञान का सार आचार है ।' आचार के अभाव में ज्ञान अधूरा है। मार्क्स ने कहा -दर्शन आदमी को ज्ञान देता है पर बदलता नहीं, इसलिए ऐसा दर्शन चाहिये जो समाज को बदल सके । पश्चिमी दार्शनिकों ने तत्त्वज्ञान और आचार को विभक्त कर दिया अत: मार्क्स की यह टिप्पणी स्वाभाविक है । भगवान् महावीर ने कोरा दर्शन नहीं दिया अपितु जीवन में आचरित दर्शन प्रदान किया । ज्ञान प्रथम आवश्यकता है । जानने के बाद आचरण करना आवश्यक है । आचार का आधार : आत्मज्ञान कोई भी क्रिया की जाती है तो एक प्रश्न उपस्थित होता है कि इस प्रकार की क्रिया क्यों की जा रही है ? इसका हेतु क्या है ? आधार क्या है ? आधार का निश्चय हुए बिना कोई आचार संहिता नहीं बन सकती । सबसे पहले आधार का अन्वेषण आवश्यक होता है। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों के आचार का आधार आत्मा ही है । अनात्मवाद के आधार पर बनने वाली आचार संहिता एक प्रकार की होगी और आत्मवाद के आधार पर बनने वाली आचारसंहिता दूसरे प्रकार की होगी। जैन दर्शन की आचार संहिता का आधार आत्मा है । अतः आचार-निर्धारण से पूर्व आत्मा का अवबोध होना आवश्यक है। आचारांग का प्रारम्भ आत्मजिज्ञासा से ही होता है। एक प्रश्न हो सकता है - क्या आत्मा को जाना जा सकता है ? भगवान् महावीर इसका उत्तर हां में देते हैं। आत्मा को जाना जा सकता है। उसको जानने के तीन हेतुओं का उल्लेख आचारांग में है 4_ 1. सूयगडो, 1/1/1, बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा । 2. आवश्यक नियुक्ति, गाथा 87 3. आयारो, 1/1 4. वही, 1/3, सेज्जं पुण जाणेज्जा-सहसम्मुइयाए, परवागरणेणं, अण्णेसिं वा अंतिए सोच्चा......। 247 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 जैन आगम में दर्शन (1) साधना करते-करते अतीन्द्रिय ज्ञान विकसित हो सकता है। उससे आत्म साक्षात्कार हो सकता है। (2) यदि साधना करने पर भी अपनीमति विकसितन होतो प्रयत्ननहीं छोड़ना चाहिए। जब यह ज्ञात हो जाए अमुक व्यक्ति अतीन्द्रिय ज्ञान से सम्पन्न है, उसके पास जाकर-मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं? इत्यादि प्रश्न पूछने चाहिए। (!) किसी व्यक्ति को अतीन्द्रिय ज्ञानी से मिलने का अवसर मिला हो, वैसे व्यक्ति से सम्पर्क कर उन प्रश्नों का समाधान करना चाहिए। तीन माध्यमों से अपने अस्तित्व के बारे में जानने का प्रयत्न करना चाहिए। जब अपने ६ "त्व का बोध हो जाता है तब आगे की रेखाएं स्पष्ट हो जाती हैं। जैसे ही आत्मा है, मैं हूं, मैं चेतन्य हूं, मैं पहले भी था और बाद में भी होऊंगा, यह स्पष्ट हो जाता है तब आचारशास्त्र की अनेक समस्याओं का समाधान हो जाता है। आत्मा पर श्रदा करना भी ॐ त्म-ज्ञान की प्रथम भूमिका है। जब तक आत्मसाक्षात्कार नहीं होता तब तक श्रद्धापूर्वक आत्मा के अस्तित्व की स्वीकृति आचार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है। आत्मा के त्रैकालिक अस्तित्व की स्वीकृति एवं संसारावस्था में कर्म के कारण उसका परिभ्रमण हो रहा है, जब यह तथ्य अवगत हो जाता है तो साधना का प्रा. म्भ हा जाता है। जैन दर्शन के आचार के केन्द्र बिन्दु में आत्मा है। आत्मा संसारावस्था में कर्म से आबद्ध है अत: उसका अनुसंचरण हो रहा है। आत्मा के अनुसंचरण को समाप्त करने के लिए उसे कर्ममुक्त करना आवश्यक है। इस अवधारणा के साथ ही जैन-आचार का मूल आधार कर्मवाद है। जैन आचार पर समग्रता से दृष्टिपात करते हैं तो प्राप्त होता है कि कर्म की अवधारणा के अनुसार ही आचार का निर्धारण हुआ है। साधु जब दीक्षा स्वीकार करता है, उस समय उसका प्रथम संकल्प होता है-सव्वं सावज्जोगंपच्चक्खामि । सम्पूर्ण पापकारी प्रवृत्तियों को छोड़ने के संकल्प के साथ ही उसकी श्रमणत्व की साधना प्रारम्भ हो जाती है। धु-श्रावक सबके करणीय-अकरणीय का विवेक कर्म सिद्धान्त पर ही आधारित है। जिस।त्ति से कर्म का आश्रवण होता है वह प्रवृत्ति हेय है। पापकर्म सर्वथा हेय ही है। अकरणि... विकम्म। संचित कर्म का नाश एवं नए कर्म का उपार्जन जिसके द्वारा नहीं होता हो, वह कार्य साधक के लिए करणीय है। आत्मा की त्रैकालिकता जैन दर्शन में मान्य है। कर्मों के कारण संसारावस्था में आत्मा का स्वाभाविक शुद्ध स्वरूप प्राप्त नहीं है। आत्मा की यह अशुद्धि कर्म के कारण है जो संसार में परिभ्रमण का कारण बनती है। आत्मा के बद्ध रूप में उपलब्ध होने से यह स्पष्ट हो जाता है 1. श्रमण प्रतिक्रमण (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1 993), पृ. 2 2. आयारो, 1/174 3. वही, 4/46, जस्स नत्थि पुरा पच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया? Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा कि कर्म है एवं उसकी कारणभूत क्रिया है जिससे आत्मा का संसार में अनुसंचरण हो रहा है । इसलिए आचारांग में आचार के आधार के रूप में चार वादों का उल्लेख है । आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद एवं क्रियावाद' का आचार-मीमांसा के संदर्भ में मूल्यांकन करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण होगा । आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार ये चारों वाद सम्पूर्ण आचार-शास्त्र के आधार हैं। इस अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है कि सबसे पहला तत्त्व है - आत्मा, आत्मा के ज्ञात हो जाने पर यह ज्ञात हो जाता है कि लोक है। लोक का अर्थ है - पुद्गल । पुद्गल दृश्य है । लोक्यते इति लोक: जो दृष्ट होता है, वह लोक है। पुद्गल देखा जाता है, इसलिए उसे लोक कहा गया है। जो आत्मा को जान लेता है, वह पुद्गल को जान लेता है। जो आत्मवादी है, वह लोकवादी है । आत्मा भी हो और पुद्गल भी हो, किंतु यदि उनमें कोई सम्बन्ध न हो तो न आत्मा पुद्गल को प्रभावित कर सकती है और न पुद्गल आत्मा को प्रभावित कर सकता है । यदि केवल चेतन ही होता अथवा केवल पुद्गल ही होता तो परिभ्रमण का कोई हेतु ही नहीं होता किंतु कर्म नाम का तीसरा तत्त्व आत्मा एवं पुद्गल के सम्बन्ध का परिचायक है । यह कर्म ही आत्मा के संसार - परिभ्रमण का हेतु है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध का सेतु है - क्रिया । अक्रिय अवस्था में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकत' । जैसे-जैसे कषाय क्षीण होते हैं, अक्रिया की स्थिति आने लगती है, तब आत्मा और क.. का सम्बन्ध क्षीण होने लगता है। जब चौदहवें गुणस्थान पूर्ण अक्रिया की स्थिति घ " जाती है, तब सारे सम्बन्ध नष्ट हो जाते हैं । 2 रत्नत्रय : मोक्षमार्ग 249 कर्म आत्मा के मौलिक गुणों का आच्छादन एवं घात करते हैं, फलस्वरूप आत्मविस्मृति हो जाती है और अनन्त संसार में परिभ्रमण होता रहता है। आचार-मीमांसीय तत्त्व इस विजातीय सम्बन्ध को तोड़ने का प्रयत्न करते हैं। सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूप रत्नत्रय के परम प्रकर्ष के द्वारा वह विजातीय सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तथा आचार का परम शुभ रूप मोक्ष प्राप्त हो जाता है । सम्यक् दर्शन ज्ञान एवं चारित्र रूप रत्नत्रय समन्वित रूप से मोक्ष का मार्ग है । ' निश्रेयस् की प्राप्ति रत्नत्रय का अनुपालन करने से ही संभव है। जैन आचार में ज्ञान एवं चारित्र / आचरण को समान रूप से महत्त्व प्राप्त है। दोनों संयुक्त होकर ही मोक्षाराधना के हेतु बन सकते हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए आचार का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है । सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान एवं क्रिया दोनों ही फलवान् नहीं बन सकते।' अतः आध्यात्मिक आरोहण 1. आयारो, 1 / 5, से आयावई, लोगवई, कम्मावाई, किरि वाई । 2. महाप्रज्ञ, आचार्य, मनन और मूल्यांकन, (चूरू, 1983 ) पृ. 5 3. तत्त्वार्थाधिगम, सूत्र 1 / सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । 4. (अमृतकलश I) आराधना, (ले. जयाचार्य, चूरू, 1998) 8 / 4, जे समकित बिण म्हैं, चारित्र नीं किरिया रे । बार अनन्त करी, , पिण काज न सरिया रे । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन आगम में दर्शन के लिए सम्यक् दर्शन का होना प्राथमिक अनिवार्यता है । सम्यक्दर्शन की प्राप्ति के साथ ही ज्ञान स्वत: ही सम्यक् बन जाता है। उसके लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती । समीचीन ज्ञान की पूर्णता चारित्र से प्राप्त होती है। ज्ञान की समग्रता साधना के बिना संभव नहीं है । इसलिए मुक्ति का अनन्तर कारण चारित्र / आचार ही है। दर्शन एवं ज्ञान को क्रम की दृष्टि से परम्पर कारण कहा जा सकता है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में मोक्षमार्ग के निरूपण प्रसंग में इनका जो क्रम रखा है उससे इनकी परम्पर एवं अनन्तर कारणता का बोध हो जाता है । 250 ज्ञान, दर्शन और चारित्र का त्रिवेणी संगम प्राणिमात्र में होता है, पर उससे साध्य सिद्ध नहीं होता। ये तीनों यथार्थ और अयथार्थ- दोनों प्रकार के होते हैं। श्रेयस् की साधना यथार्थ दर्शन, ज्ञान और चारित्र से होती है । साधना की दृष्टि से सम्यक् दर्शन का स्थान पहला है, सम्यक् ज्ञान का दूसरा और सम्यक् चारित्र का तीसरा । दर्शन के बिना ज्ञान, ज्ञान के बिना चारित्र, चारित्र के बिना कर्म-मोक्ष और कर्म-मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं हो सकता।' जब ये तीनों पूर्ण होते हैं तब साध्य सध जाता है। आत्मा कर्म मुक्त हो परमात्मा बन जाती है। जैन दर्शन भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग - इन तीनों को संयुक्त रूप में मोक्ष का मार्ग मानता है । सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र को क्रमश: भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग कहा जा सकता है । उत्तराध्ययन में मोक्ष मार्ग के रूप में तप का भी उल्लेख हुआ है । ' तप का अन्तर्भाव चारित्र में ही हो जाता है। त्रिरत्न एवं अष्टांग मार्ग बौद्ध दर्शन में वर्णित निर्वाण प्राप्ति के अष्टांग मार्ग की तुलना जैन सम्भत त्रिरत्न से की जा सकती है। बौद्ध दर्शन ने अष्टअंग युक्त निर्वाण मार्ग का उल्लेख किया है जिसे अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है। वे आठ अंग निम्न हैं 1. सम्यक् दृष्टि 2. सम्यक् संकल्प 3. सम्यक् वचन 4. सम्यक् कर्मान्त 5. सम्यक् आजीव 6. सम्यक् व्यायाम - 1. उत्तरज्झयणाणि, 28 / 30, नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ 2. वही, 28 / 2, नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा । एस मग्गो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 251 7. सम्यक् स्मृति और 8. सम्यक् समाधि ।' जैन दर्शन में वर्णित मोक्ष-मार्ग के तीन घटक तत्त्वों से इनकी काफी समानता परिलक्षित हो रही है। जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्परा में सम्यक् दर्शन/सम्यक् दृष्टि मोक्ष मार्ग के प्रथम घटक तत्त्व के रूप में स्वीकृत हैं। सम्यक् संकल्प की समानता सम्यक् ज्ञान के साथ है। सम्यक् चारित्र में बौद्ध वर्णित अन्य छह अंगों का समावेश हो जाता है। बौद्ध दर्शन में चारित्र के अंगों का विस्तार कर दिया, यदि हम आचार के अंगों का विस्तार करें तो छह से भी अधिक उसके प्रकार हो सकते हैं अत: जैन मोक्ष मार्ग के घटक तत्त्व के रूप में सम्यक् चारित्र का ही उल्लेख किया गया है। उसके उपभेदों का उल्लेख नहीं किया, जैसा कि बौद्ध दर्शन में किया गया है। आचार के भेद आचार आसेवनात्मक होता है। सामान्यत: आचार का सम्बन्ध चारित्र के साथ ही जोड़ा जाता है। किंतु जैन परम्परा में आचार की अवधारणापर व्यापक विचार हुआ है। उसका सम्बन्ध कोरे चारित्र के साथ ही नहीं है किंतु ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य - इन सबके साथ है। जैन परम्परा के अनुसार आचार पांच प्रकार का है-1. ज्ञानाचार 2. दर्शनाचार 3. चारित्राचार 4. तप आचार 5. वीर्याचार ।' ज्ञानाचार आचार अभ्यासात्मक होता है। उसका आसेवन किया जाता है। मनुष्य का क्रियात्मक पक्ष ही आचार है। ज्ञानाचार का तात्पर्य श्रुतज्ञान विषयक आचरण है। यद्यपि मति आदि पांच ज्ञान हैं किंतु व्यवहारात्मक ज्ञान केवल श्रुतज्ञान ही है। मति, अवधि, मन:पर्यवएवं केवलज्ञान ये चार ज्ञान असंव्यवहार्य है। हमारा सारा व्यवहार श्रुतज्ञान के आधार पर ही चलता है। श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष ज्ञान शब्दातीत हैं, अत: वे अपने स्वरूप का विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। असमर्थता के कारण ही अनुयोगद्वार में इनको स्थाप्य कहा है। चूर्णिकार एवं टीकाकार के अनुसार स्थाप्य का अर्थ असंव्यवहार्य है। जिसका दूसरों के लिए उपयोग हो सके वह व्यवहार्य होता है। श्रुतज्ञान शब्दात्मक है इसलिए वह संव्यवहार्य और लोकोपकारक है। श्रुतज्ञान का आदान-प्रदान हो सकता है अत: ज्ञानाचार श्रुतज्ञान से ही सम्बन्धित है। ज्ञानाचार के आठ प्रकार हैं:1. संयुत्तनिकाय (संपा. भिक्षु जगदीश काश्यप, नालन्दा, 1959) (2-3 निदानवग्गो खन्धवग्गो च) 14/28 पृ. 142 2. ठाणं,5/147,पंचविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा-णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे। 3. अणुओगदाराई, सूत्र ? 4. (क) अनुयोगद्वार चूर्णि, पृ. 2, 'ठप्पाइं' ति असंववहारियाई ति वुत्तं भवति। (ख) अनुयोगद्वार मलधारीयावृत्ति, पत्र 3, 'ठप्पाई ति स्थाप्यानि-असंव्यवहार्यानि। 5. दशवैकालिकनियुक्ति, गा. 88, काले विणये बहुमाणे उवहाणे तहा अनिण्हवणे। वंजण-अत्थ तदुभए अट्ठविहो नाणमायारो।। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 जैन आगम में दर्शन 1. काल-स्वाध्याय आदि का जो काल निर्दिष्ट हो उसको उसी काल में करना। 2. विनय-ज्ञानप्राप्ति के प्रयत्न में विनम्र रहना। 3. बहुमान-ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनुराग। 4. उपधान-श्रुतवाचन के समय किया जाने वाला तप। 5. अनिलहवन-अपने वाचनाचार्य का गोपन न करना। 6. व्यंजन-सूत्र का वाचन करना। 7. अर्थ-अर्थबोध करना। 8. सूत्रार्थ सूत्र और अर्थ का बोध करना।' ज्ञान के अतिचार आचार का उल्लंघन अतिचार होता है और 'अतिचार' का वर्जन आचार |जो अनुष्ठान जिस विधि से करना होता है उसका अन्यथा प्रकार से करना अथवा न करना उस अनुष्ठान का अतिचार होता है। ज्ञान आदि पंचाचारों के भी अतिचार का वर्णन जैन साहित्य में उपलब्ध है। आवश्यक में ज्ञान के चौदह अतिचारों का उल्लेख है - 1. व्याविद्ध-आगम पाठ को आगे-पीछे करना। 2. व्यत्यानेडित-मूल पाठ में अन्य पाठ का मिश्रण करना। 3. हीनाक्षर-अक्षरों को न्यून कर उच्चारण करना। 4. अत्यक्षर-अक्षरों को अधिक कर उच्चारण करना। 5. पदहीन-पदों को कम कर उच्चारण करना। 6. विनयहीन-विराम-रहित उच्चारण करना। 7. घोषहीन-उदात्त आदि घोष रहित उच्चारण करना। 8. योगहीन-सम्बन्ध रहित उच्चारण करना। 9. सुष्ठदत्त-योग्यता से अधिक ज्ञान देना। 10. दुष्ठु-प्रतीच्छित-ज्ञान को सम्यक् भाव से ग्रहण न करना। 11. अकाल में स्वाध्याय करना। 12. स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय न करना। 13. अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करना। 14. स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न करना। 1. निशीथभाष्य, गा. 9-20 2. आवश्यक (नवसुत्ताणि) 4/8, .......वाइद्धं वच्चामेलियं, हीणक्खरं....... Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 253 ज्ञान के चौदह अतिचारों में से प्रथम आठ का सम्बन्ध तो मुख्यतया पाठ के उच्चारण से है। प्राचीन काल में सम्पूर्ण ज्ञान स्मृति में ही सुरक्षित होता था। वैसी स्थिति में उस ज्ञान की सुरक्षा अमुक प्रकार के उच्चारण के दोषों से बचने से ही संभव थी अत: चौदह में से आठ अतिचार मात्र पाठ के उच्चारण से सम्बन्धित स्वीकृत किए गए। नवां अतिचार ज्ञान के दाता से तथा दसवां ज्ञान के गृहीता से जुड़ा हुआ है। ग्यारहवां एवं बारहवां काल से तथा तेरहवां, चौदहवां ज्ञान प्राप्ति की बाह्य स्थितियों से जुड़ा हुआ है। ज्ञान के जिन आठ आचारों का उल्लेख हुआ है उनमें से 'काल' के अतिचार का ग्रहण तो इन चौदह अतिचारों में हुआ है किंतु अन्य का सीधा उल्लेख नहीं है, फिर भी इतना तो स्पष्ट ही है कि जिन ज्ञान के आचारों का उल्लेख हुआ है उनके विपरीत आचरण करने का समावेशज्ञान के अतिचारों में हो जाएगा। भले इसके लिए ज्ञान के अतिचारों की संख्या में वृद्धि करनी पड़े। दर्शनाचार सम्यक्त्व विषयक आचरण को दर्शनाचार कहा जाता है। सम्यक् दर्शन का अर्थ हैसत्य की आस्था, सत्य की रुचि। सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता है- (1) नैश्चयिक और (2) व्यावहारिक। नैश्चयिक सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध केवल आत्मा की आन्तरिक शुद्धि या सत्य की आस्था से होता है। व्यावहारिक सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध संघ, गणया सम्प्रदाय से भी होता है।' दर्शनाचार के भी आठ प्रकार हैं: 1. नि:शंकित 2. निष्कांक्षित 3. निर्विचिकित्सा 4. अमूढदृष्टि 5. उपबृंहण 6. स्थिरीकरण ?. वात्सल्य और 8. प्रभावना। 1.नि:शंकित नि:शंकिता दर्शनाचार का प्रथम भेद है। शंका का अर्थ संदेह एवं भय दोनों ही होता है। शान्त्याचार्य, हरिभद्र आदि ने शंका का अर्थ 'संदेह' किया है।' कुन्दकुन्दाचार्य ने इसका अर्थ भय किया है। इस संदर्भ में नि:शंकित के दो अर्थ फलित होते हैं-(1) जिनभाषित तत्त्वों में संदेह रहितता अर्थात् निश्शंकता। (2) भयमुक्तता। सम्यग्दृष्टि को अदेग्ध और अभय होना ही चाहिए। 1. उत्तरज्झर आणि 2, 31 टिप्पण, पृ. 159 2. वही, 2, 28/31 निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठीय। उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ॥ 3. (क) उत्तराध्ययन, बृहद् वृत्ति, पत्र 5 6 7, शङ्कनं शङ्कितं-देशसर्वशंकात्मकं तस्याभावो नि:शंकितम्। (ख) श्रावकधर्मप्रकरण वृत्ति, पत्र 20, भगवदर्हत्प्रणीतेषु धर्माधर्मकाशादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिमान्द्यादिभ्योऽनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः । 4. समयसार, गाथा 2 2 8, सम्मदिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हातम्हा हु णिस्संका।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 जैन आगम में दर्शन 2.निष्कांक्षित परमत की वांछा नहीं करना निष्कांक्षित है। कांक्षा के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं-(1) एकान्त दृष्टि वाले दर्शनों के स्वीकार की इच्छा और' (2) धर्माचरण के द्वारा सुख समृद्धि पाने की इच्छा। सम्यक्दृष्टि कांक्षा के इन दोनों प्रकारों से दूर रहता है। 3.निर्विचिकित्सा विचिकित्सा के भी दो अर्थ मिलते हैं-(1) धर्म के फल में संदेह और' (2) जुगुप्साघृणा । सम्यग्दृष्टि इन दोनों प्रकार की विचिकित्सा से दूर रहता है। स्वामी समन्तभद्र के अनुसार स्वभावत: अपवित्र किंतु रत्नत्रयी से पवित्र शरीर में ग्लानि न करना, गुणों में प्रीति करने का नाम निर्विचिकित्सा है। आचार्यश्री तुलसी ने निर्विचिकित्सा को परिभाषित करते हुए लिखा है निव्वितिगिच्छा संदेहत्याग, निज साध्य-साधना के फल में ।' 4.अमूढदृष्टि जिसकी दृष्टि मोहित नहीं होती उसे अमूढदृष्टि कहते हैं। मूढता का अर्थ है--मोहमयी दृष्टि । स्वामी समन्तभद्र ने मूढता को तीन भागों में विभक्त किया है (1) लोक-मूढता-नदी-स्नान में धार्मिक विश्वास। (2) देव-मूढता-राग-द्वेष-वशीभूत देवों की उपासना। (3) पाषण्ड-मूढता-हिंसा प्रवृत्त साधुओं का पुरस्कार ।' आचार्य हरिभद्र के अनुसार एकांतवादी तीर्थकों की विभूति देखकर जो मोहित नहीं होता है, उसे अमूढदृष्टि कहा जाता है। 1. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, (ले. अमृतचन्द्राचार्य, अगास, वि.सं. 2 0 2 2 ) 2 4, इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । एकांतवाददूषितपरसमयानपि च नाकांक्षेत्।। 2. तत्त्वार्थाधिगम, सूत्र 7/23 वृत्ति, इहपरलोकभोगाकांक्षणं कांक्षा। 3. प्रवचनसारोद्वार, (ले. नेमिचन्द्र सूरि, बम्बई, वि.सं. 1978) 268 पत्र 64. विचिकित्सा-मतिविभ्रम: युक्त्यागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति सम्मोहः। 4. वही, 2 68 पत्र 64, यद्वा विद्वज्जुगुप्सा-मलमलिना एते इत्यादि साधुजुगुप्सा। 5. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, (ले. स्वामी सम्मन्तभद्र, बम्बई, 1982) 1/13, स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सा॥ आचार बोध, 14 (अमृतकलश 2) 7. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, 1/22-24 श्रावकधर्मविधिप्रकरण, श्लोक 58-60, इड्डीओणेगविहा, विज्जाजणिया तवोमयाओ य । वेउब्वियलद्धिकया, नहगमणाई य दतॄणं ।। पूयं च असणपणाइवत्थपत्ताइएहिं विविहेहिं। परपासंडत्थाणं सक्कोलयाईणं दट्टणं । धिज्जाईयगिहीणं पासत्थाईण वापि दट्टणं। यस्सन मुज्झइ दिट्ठी अमूढदिढेि तयं बिंति॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 5. उपबृंहण सम्यग्दर्शन की पुष्टि करने को उपबृंहण कहा जाता है। वसुनन्दि ने उपबृंहण के स्थान पर 'उपगूहन' शब्द के प्रयोग को स्वीकार किया है।' आचार्य अमृतचन्द्र ने उपगूहन को उपबृंहण का ही एक प्रकार माना है। अपने मृदुता आदि आत्म-२ -गुणों की वृद्धि करना तथा पराए दोषों का निगूहन करना - ये दोनों ही उपबृंहण के अंग हैं । ' 6. स्थिरीकरण धर्म मार्ग या न्याय मार्ग से विचलित हो रहे व्यक्तियों को पुन: उसी मार्ग में स्थिर करना 'स्थिरीकरण' कहलाता है । ' 255 7. वात्सल्य मोक्ष के कारणभूत धर्म, अहिंसा और साधर्मिकों में वत्सलभाव रखना, उनकी यथायोग्य प्रतिपत्ति रखना, साधर्मिक साधुओं को आहार, वस्त्र आदि देना, गुरु, ग्लान, तपस्वी, शैक्ष, अतिथि साधुओं की विशेष सेवा करना वात्सल्य कहलाता है। 1 8. प्रभावना तीर्थ की उन्नति हो वैसी चेष्टा करना, रत्नत्रयी से अपनी आत्मा को प्रभावित करना तथा जिनशासन की महिमा बढ़ाना प्रभावना नाम के दर्शन का आठवां आचार है । ' आठ प्रकार के व्यक्ति प्रभावक माने जाते हैं 1. प्रवचनी - द्वादशांगीधर, युगप्रधान आगमपुरुष । 2. धर्मकथी - धर्मकथा - कुशल । 3. वादी - वाद - विद्या में निपुण । 4. नैमित्तिक-निमित्तविद् । 5. तपस्वी तपस्या करने वाले । 6. 7. 8. 1. वसुनंदि श्रावकाचार, (ले. आचार्य वसुनन्दि, बनारस, 1952 ) गाथा 48, णिस्संका... 2. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 27, धर्मोऽभिवर्धनीयः, सदात्मनो मार्दवादिभावनया । परदोषनिगूहनमपि विधेयमुपबृंहणगुणार्थम् ॥ विद्याधर- प्रज्ञप्ति आदि विद्याओं के पारगामी । सिद्ध-सिद्धि प्राप्त । कवि कवित्व शक्ति सम्पन्न । " 3. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, 1 / 16, दर्शनाच्चरणाद्वापि, चलतां धर्मवत्सलैः । प्रत्यवस्थापनं प्राज्ञैः स्थितिकरणमुच्यते ॥ 4. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति, पत्र 567, वत्सलभावो वात्सल्यं साधर्मिकजनस्य भक्तपानादिनोचितप्रतिपत्तिकरणम् । 5. वही, पत्र 567 प्रभावना च तथा तथा स्वतीर्थोन्नतिहेतुचेष्टासु प्रवर्त्तनात्मिका । 6. योगशास्त्र, 2 / 16 वृत्ति, पत्र 65, पावयणी धम्मकही वाई नेमित्तिओ तवस्सी य । विज्जा सिद्धो अ कई अट्टेव पभावगा भणिया || उवगूहण । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 स्थैर्य, प्रभावना, भक्ति, जिनशासन में कौशल और तीर्थ सेवा - ये पांच सम्यक्त्व के भूषण कहे जाते हैं ।' स्थैर्य, प्रभावना और भक्ति क्रमश: स्थिरीकरण, प्रभावना और वात्सल्य हैं। जिनशासन में कौशल और तीर्थ सेवा को भी वात्सल्य का उपभेद माना जा सकता है । सम्यग्दर्शन के आठों अंग सत्य की आस्था के परम अंग हैं । कोई भी व्यक्ति शंका (संदेह या भय) कांक्षा, (आसक्ति या वैचारिक अस्थिरता) विचिकित्सा (घृणा या निंदा) मूढ दृष्टि (अपनी नीति के विरोधी विचारों के प्रति सहमति) से मुक्त हुए बिना सत्य की आराधना नहीं कर सकता और उसके प्रति आस्थावान भी नहीं रह सकता । स्व सम्मत धर्म या साधर्मिकों का उपबृंहण, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना किए बिना कोई व्यक्ति सत्य की आराधना करने में दूसरों का सहायक नहीं बन सकता। इस दृष्टि से दर्शनाचार के ये आठों अंग बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । चारित्राचार जो कर्म संचय को रिक्त करता है वह चारित्र कहलाता है. -..... एयं चयरित्तकरं, चारित्तं होइ आहियं । जिससे मुक्ति की प्राप्ति होती है उसे चारित्र कहा जाता है । चारित्र का लक्षण है-सत् आचरण में प्रवृत्ति और असत् आचरण से निवृत्ति ।' चारित्र के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। वस्तुत: वह एक ही है। चारित्र के पांच भेद विशेष दृष्टि से किए गए हैं। सर्व सावद्य प्रवृत्ति का त्याग किया जाता है, वह सामायिक चारित्र है। छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र इसी के विशेष रूप हैं ।' समिति - गुप्ति रूप आचरण को चारित्राचार कहा जाता है । चारित्राचार के आठ प्रकार हैं- पांच समिति एवं तीन गुप्तियों का प्रणिधान | S समिति का अर्थ है - सम्यक् प्रवर्तन । सम्यक् और असम्यक् का मापदण्ड अहिंसा है । जो प्रवृत्ति अहिंसा से संवलित है वह समिति हैं। समितियां पांच हैं ' 6_ जैन आगम में दर्शन 1. ईर्या समिति - गमनागमन सम्बन्धी अहिंसा का विवेक । भाषा समिति - भाषा सम्बन्धी अहिंसा का विवेक । एषणा समिति- आहार, वस्त्र आदि के ग्रहण और परिभोग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक । 2. 3. 1. योगशास्त्र, 2 / 16, स्थैर्यं प्रभावना भक्तिः कौशलं जिनशासने । तीर्थसेवा च पंचास्य, भूषणानि प्रचक्षते । । 2. उत्तरज्झयणाणि, 28 / 33 3. उत्तराध्ययन, बृहद्वृत्ति पत्र 556, चरन्ति गच्छन्त्यनेन मुक्तिमिति चारित्रम् | चारित्रं.......सदसत्क्रियाप्रवृत्तिनिवृत्तिलक्षणम् । 4. तत्त्वार्थवार्तिक, 9 / 18, सर्वसावद्यनिवृत्तिलक्षणसामायिकापेक्षया एकं व्रतं, भेदपरतंत्रच्छेदोपस्थापनापेक्षया पंचविधं व्रतम् । 5. दशवैकालिकनिर्युक्ति, गाथा 89, पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समितीहिं तिहिं य गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अद्वविहो होइ णायव्वो । 6. उत्तरज्झयणाणि, 24 / 1, पंचेव य समिईओ । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 257 4. आदानसमिति-दैनिक व्यवहार में आनेवाले पदार्थों के व्यवहार सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। 5. उत्सर्ग समिति-उत्सर्ग सम्बन्धी अहिंसा का विवेक। इन पांच समितियों का पालन करने वाला मुनि जीवाकुल संसार में रहता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता। जिस प्रकार दृढ़ कवचधारी योद्धा बाणों की वर्षा होने पर भी नहीं बींधा जा सकता, उसी प्रकार समितियों का सम्यक् पालन करने वाला मुनि साधु-जीवन के विविध कार्यों में प्रवर्तमान होता हुआ भी पापों से लिप्त नहीं होता। गुप्ति का अर्थ है-निवर्तन । वे तीन प्रकार की हैं - 1. मनोगुप्ति-असत् चिन्तन से निवर्तन। 2. वचनगुप्ति-असत् वाणी से निवर्तन । 3. कायगुप्ति-असत् प्रवृत्ति से निवर्तन। जिस प्रकार क्षेत्र की रक्षा के लिए बाड़, नगर की रक्षा के लिए खाई या प्राकार होता है, उसी प्रकार श्रामण्य की सुरक्षा के लिए, पाप के निरोध के लिए गुप्ति है। ___ पांच समितियां चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं और तीन गुप्तियां सब अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिए है।' जीवन-यात्रा के लिए प्रवृत्ति अपेक्षित होती है और अशुभ से बचने के लिए निवृत्ति अपेक्षित होती है। समिति एवं गुप्ति की साधना से मुनि के जीवन में संतुलन बना रहता है। उसका जीवन निर्वाह सम्यक् रूप से होता रहता है। सामायिक, छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र हैं। उनका अभ्यासात्मक स्वरूप समिति एवंगुप्ति है। चारित्र कीअनुपालनाइन आठ आचारोंसेहोती है। यद्यपियहसमिति-गुप्त्यात्मक आचार मुनि जीवन से जुड़ा हुआ है तथापि कोई भी व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार उनका यथोचित पालन कर सकता है। तपआचार ___ भारतीय साधना-पद्धति में तपस्या का प्रमुख स्थान रहा है। जैन और वैदिक मनीषियों 1. मूलाराधना, (ले. शिवार्य, सोलापुर, 1 9 6 5) 6/1200, एदाहिं सदा जुत्तो समिदीहिं जगम्मि विहरमाणे हु। हिंसादिहिं न लिप्पइ, जीवणिकायाउले साहू। 2. वही, 6/1202, सरवासे वि पडते जह दढकवचोण विज्झदि सरेहिं। तह समिदीहिंण लिप्पई, साधू काएस इरियंतो।। 3. उत्तरज्झयणाणि, 24/1,तओ गुत्तीओ आहिया। 4. मूलाराधना, 6/1189, छेत्तस्स वदी णयरस्स,खाइया अहव होइ पायारो। तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स। 5. उत्तरज्झयणाणि, 24/26, एयाओ पंच समिईओ, चरणस्सय पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 जैन आगम में दर्शन ने उसे साधना का अपरिहार्य अंग माना है। तपस्या कर्म निर्जरण का मुख्य साधन है। इससे आत्मा पवित्र होती है। जैन साधना के अनुसार तपस्या का अर्थ काय-क्लेश या उपवास ही नहीं है। स्वाध्याय, ध्यान, विनय आदि सब तपस्या के ही प्रकार हैं। काय-क्लेश और उपवास अकरणीय नहीं है और उनकी सबके लिए कोई समान मर्यादा भी नहीं है। अपनी रुचि और शक्ति के अनुसार जो जितना कर सके उसके लिए उतना ही विहित है। - जैन परम्परा में बारह प्रकार के तप आचार का उल्लेख हुआ है। पूजा-प्रतिष्ठा की आकांक्षा से रहित, अदीनभाव से बारह प्रकार के बाह्य और आभ्यन्तर तप का आचरण करना तप आचार है बारसविहम्मि वि तवे सब्भिंतर बाहिरे कुसलदिढे। _ अगिलाए अणाजीवी णायव्वो सो तवायारो॥' कर्मशरीर को तपाने वाला अनुष्ठान तथा कर्मक्षय का असाधारण हेतु, तप कहलाता है। जो आठ प्रकार की कर्म ग्रन्थियों को तपाता है-उनका नाश करता है, वह तप है। जैन दर्शन के अनुसार तपस्या के दो प्रकार हैं-बाह्य एवं आभ्यन्तर । बाह्य तप के छह प्रकार हैं-अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, कायक्लेश एवं प्रतिसंलीनता। 1-2. अनशन और अवमोदरिका से भूख और प्यास पर विजय पाने की ओर गति होती है। 3 - 4.भिक्षाचर्या और रस-परित्याग से आहार की लालसा सीमित होती है। जिह्वा की लोलुपता मिटती है और निद्रा, प्रमाद आदि को प्रोत्साहन नहीं मिलता है। 5. काय-क्लेश सेसहिष्णुता का विकास होता है। देह में उत्पन्न दु:खों को समभाव से सहने की वृत्ति बनती है। 6. प्रतिसंलीनता से आत्मा की सन्निधि में रहने का अभ्यास बढ़ता है। बाह्य तप के आसेवन से देहाध्यास छूट जाता है। देहासक्ति साधना का विघ्न है। बाह्य तप का आसेवन इस देह के प्रति होने वाले ममत्व को कम करता है। आभ्यंतर तप के छह भेद हैं- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान एवं व्युत्सर्ग । बाह्य तपका आचरणभी आभ्यन्तर तपके उपबृंहण के लिए किया जाता है। आचार्य महाप्रज्ञजी ने आभ्यन्तर तप से होने वाले लाभों का उल्लेख किया है1. प्रायश्चित्त से अतिचार-भीरुता और साधना के प्रति जागरूकता विकसित होती है। 1. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 90 2. दशवैकालिक चूर्णि, पृ. 15 (जिनदासमहत्तर) तवोणाम तावयति अट्टविहं कम्मगंठिं नासेति त्ति वुत्तं भवइ। 3. उत्तरज्झयणाणि, आमुख 30वां अध्ययन पृ. 219 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 259 2. विनय से अभिमान मुक्ति और परस्परोपग्रह का विकास होता है। 3. वैयावृत्त्य से सेवाभाव पनपता है। 4. स्वाध्याय से विकथा त्यक्त हो जाती है। 5. ध्यानसेएकाग्रता, एकाग्रतासेमानसिक विकास एवंमन तथा इन्द्रियों पर नियंत्रण पाने की क्षमता बढ़ती है और अन्त में उनका पूर्ण निरोध हो जाता है। 6. व्युत्सर्ग से शरीर, उपकरण आदि पर होने वाले ममत्व का विसर्जन होता है।' यद्यपि तप चारित्र का ही एक प्रकार है। फिर भी मोक्षमार्ग में इसका विशिष्ट स्थान है। यह कर्म क्षय करने का असाधारण हेतु है अत: इसका पृथक् उल्लेख किया गया है। तप का उद्देश्य कोई भी क्रिया की जाती है तो उसका कोई-न-कोई उद्देश्य होता है। प्रश्न उपस्थित होता है, तप का आसेवन क्यों करना चाहिए। सूत्रकार इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहते हैं 1. इहलोक (वर्तमान जीवन की भोगाभिलाषा) के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। 2. परलोक (पारलौकिक भोगाभिलाषा) के निमित्त तप नहीं करना चाहिए। 3. कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक के लिए तप नहीं करना चाहिए। 4. निर्जरा के अतिरिक्त अन्य किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए।' इसका तात्पर्य यही हुआ कि जिन-प्रवचन में आत्म-शुद्धि के लिए ही आचार उपादेय है। आत्म-शुद्धि के अतिरिक्त अन्य किसी भी हेतु से किया जाने वाला आचरण जैन-दर्शन में कर्ममुक्ति का साधक नहीं माना गया है। वीर्याचार वीर्य अर्थात् शक्ति । साधक को अपनी शक्ति का संगोपन नहीं करना चाहिए। भगवान् महावीर ने कहा- णो णिहेज्न वीरियं । अर्थात् अपनी शक्ति का संगोपन मत करो। साधना के क्षेत्र में उसका उपयोग आवश्यक है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप में अपनी शक्ति को नियोजित करना ही वीर्याचार है। दशवैकालिक नियुक्ति में कहा-अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तपकी आराधना में पराक्रम करना वीर्याचार है। वीर्याचार के छत्तीस 1. उत्तरज्झयणाणि, आमुख 30वां अध्ययन, पृष्ठ 220 2. उत्तराध्ययन वृत्ति, पत्र 5 5 6 (शान्त्याचार्य) चारित्रभेदत्वेऽपि तपस: पृथगुपादानमस्त्यैव क्षपणं प्रत्यसाधारण हेतुत्वमुपदर्शयितुम्। 3. दसवेआलियं, 9/4/6........ नन्नत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठज्जा। 4. आयारो,5/41 स्थानांग वृत्ति, प. 64, वीर्याचारस्तु ज्ञानादिष्वेव शक्तेरगोपनंतदनतिक्रमश्चेति । 6. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा 91, अणिगृहितबल-विरिओ परक्कमति जो जहुत्तमाउत्तो। झुंजइ य जहाथामणायव्वो वीरियायारो॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 जैन आगम में दर्शन प्रकार बताए गए हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप के सारे भेद मिलाने से छत्तीस होते हैं तथा वे ही वीर्याचार के प्रकार हैं। इस संदर्भ में यह स्मरणीय है कि शक्ति के अभाव में ज्ञान आदि का आसेवन नहीं हो सकता। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम है, किंतु अन्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं है तो ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम कार्यकारी नहीं बन सकता। उसका उपयोग तभी हो सकता है जब साथ में अन्तराय का भी क्षयोपशम हो । सभी क्षयोपशम के साथ अन्तराय का क्षयोपशम हो तो ही वे अपना कार्य कर सकते हैं। अत: अन्तराय का क्षयोपशम महत्त्वपूर्ण है। वीर्य अन्तराय के क्षयोपशम से ही प्राप्त होता है। वीर्याचार का अर्थ है-जो शक्ति प्राप्त हुई है उसका उपयोग करना । उसको कार्यकारी बनाना । जो शक्ति को प्राप्त करके भी आलस्य या प्रमाद के कारण उसका सही उपयोग नहीं करता वह वीर्याचार के पालन में स्खलित हो जाता है। फलस्वरूप अपने मार्ग से च्युत हो जाने के कारण अपने इष्ट लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। जो शक्ति का संगोपन नहीं करता, वह वीर्याचार का पालन सम्यक् प्रकार से करता है। ध्यान, स्वाध्याय, तप आदि में संलग्न शक्ति साधक को उच्च आदर्श की ओर प्रस्थित करती है। साधना के विभिन्न प्रकार हैं। उनका संक्षेप में निर्देश यहां काम्य है। धुत की साधना 'धुत' प्राचीन भारतीय साधना पद्धति का प्रचलित शब्द था तथा भारत के सभी धर्मों में इसकोसम्मानजनक स्थान प्राप्त था।जैन परम्परामें 'आचारांग' जैसे प्राचीन ग्रन्थ में इसका निरूपण है।' बौद्ध धर्म के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'विसुद्धिमग्ग' में तेरह धुताङ्गों का उल्लेख है। भागवत में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है। अवधूत परम्परा का मूल 'धुतवाद' में खोजा जा सकता है, ऐसा आचार्य महाप्रज्ञ जी का अभिमत है।' धुत का अर्थ है-प्रकम्पित और पृथक्कृत । धुतवाद कर्म-निर्जरा का सिद्धान्त है। . जिन-जिन हेतुओं से कर्मों की निर्जरा होती है उन सबकी धुतसंज्ञा होती है।' धुत लक्ष्य को प्राप्त करने की साधना पद्धति है। संयम एवं मोक्ष की आराधना के लिए नि संगता एवं कर्मविधूनन अनिवार्य है। आसक्ति एवं कर्म ये दोनों साधक को पथच्युत करने में पर्याप्त हैं अतएव इनका विधूनन एवं अपनयन अपेक्षित है। स्थूल शरीर का निर्माण सूक्ष्म शरीर के कारण होता है। यदि सूक्ष्म शरीर को नष्ट कर दिया जाए तो स्थूल शरीर अपने आप ही समाप्त हो जाएगा। धुताचार की साधना करने वाला महर्षि वर्तमानदर्शी होता है, इसलिए वह कर्मशरीर काशोषण कर उसे क्षीण कर डालता है। 1. आचारांग के छठे अध्ययन का नाम ही 'धुतवाद' है। 2. विसुद्धिमग्गगो (पठमो भागो) (संपा. डॉ. खेतधम्मो, वाराणसी, 1969) 1/2, पृ. 144, तेरसधुतांगानि भागवत (आचारांग भाष्य में उद्धृत, पृ. 297) 4. आचारांगभाष्यम् छठे अध्ययन का आमुख, पृ. 298 आचारांगभाष्यम् 6 का आमुख, पृ. 297,धुतवादोऽस्ति कमनिर्जराया: सिद्धान्त: । यैहेतुभि: कर्मणां निर्जरा जायते ते सर्वेऽपि धुतसंज्ञकानि भवन्ति । 6. आयारो, 3/60, विधूत-कप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 261 आचारांग के समय में 'धुतवाद' की साधना बहु-प्रचलित थी, इसका आभास आचारांग के छठे अध्ययन तथा अन्यत्र विकीर्ण रूप से प्राप्त 'धुत' के सूत्रों से हो जाता है। 'धुतवाद' नामक अध्ययन के नियुक्तिकार ने पांच उद्देशक बताये हैं, जिनमें पांच धुतों का वर्णन है - 1. निजकधुत-स्वजन के प्रति होने वाली ममत्व चेतना का प्रकम्पन। 2. कमंधुत-कर्म पुदगलों का प्रकम्पन । 3. शरीर-उपकरण धुत-शरीर और उपकरणों के प्रति होने वाली ममत्व चेतना का प्रकम्पन। 4. गौरवधुत-ऋद्धि, रस और साता-इस गौरवत्रयी का प्रकम्पन । 5. उपसर्गधुत-अनुकूल और प्रतिकूल भावों से उत्पन्न चेतना का प्रकम्पन। कर्मबन्ध का प्रमुख हेतु है -- ममत्वभाव । शरीर, उपकरण और स्वजन-ये ममत्वचेतना को पुष्ट करते हैं। धुत साधना का यही प्रयोजन है कि उन संयोगों का परित्याग करना जिससे ममत्वचेतना पुष्ट होती है। ममत्वचेतना का परित्याग आत्मज्ञान से हो सकता है। जो आत्मप्रज्ञ नहीं हैं वे अवसाद का अनुभव करते हैं । धुत से आत्मप्रज्ञा का जागरण होता है। आत्मप्रज्ञा के सुस्पष्ट होने पर ही शरीर के प्रति होने वाली आसक्ति क्षीण होती है। तप के अनेक प्रकार उपदिष्ट हैं। जिससे कर्मों का प्रकम्पन अथवा निर्जरा होती है उसे तय कहा जा सकता है। इससे यह फलित होता है कि जहां विशिष्ट तितिक्षा, लाघव और तप-ये तीनों सम्यक् प्रकार से प्राप्त हो जाते हैं, वहां धुत की साधना होती है। साधना मार्ग पर अग्रसर साधक को स्वजन विचलित करना चाहते हैं। प्रव्रज्या के समय आक्रन्दन से अथवा विषण्ण बनते हुए उसको रोकने का प्रयत्न करते हैं किन्तु आत्मसाधक उनको छोड़ देता है। यह स्वजन परित्याग धुत है।' कर्म विधूनन की प्रधानता उपकरण एवं शरीर के प्रति ममत्व भाव होना सहज है। ये सब ममत्व चेतना को पुष्ट करते हैं। ममत्व चेतना संसार-वृद्धि का हेतु बनती है, अतएव ममत्व चेतना का परित्याग ही धुत साधना का प्रयोजन है। गौरव, अहंकार एवं मद व्यक्ति को अभिभूत कर देते हैं। इनके द्वारा आत्मप्रज्ञा परास्त हो जाती है। ऋद्धि, रस एवं सात के गौरव से साधक उन्मत्त हो जाता 1. आचारांग नियुक्ति, गाथा 2 49,250, पढमे नियगविहुणणा कम्माणं बितियए तइयगंमि । उवगरणसरीराणं चउत्थए गारवतिगस्स।। उवसग्गा सम्माण य विहूआणि पंचमंमि उद्देसे। दव्वधुयं वत्थाई भावधुयं कम्मअट्ठविहं ।। 2. आचारांग भाष्य पृ. 297 3. वही,6/26-29 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 जैन आगम में दर्शन है। आत्म-श्लाघा करने में संलग्न वह आचार्य की अवमानना करने लगता है। रस-गौरवयुक्त व्यक्ति आहार-शुद्धि का ध्यान नहीं रखते। ऐसे व्यक्तियों को अपना व्रत खंडित करने में भी संकोच नहीं होता है। साता गौरव वाले अपने साधुत्व को विस्मृत करके शरीर विभूषा में सम्पृक्त हो जाते हैं। उनका आत्म-साधना का लक्ष्य धूमिल हो जाता है। इन सभी विधूननों में कर्म विधूनन ही प्रधान है। वस्तुत: स्वजन, उपकरण, शरीर आदि विधूननों का पर्यवसान कर्म विधूनन में होता है। कर्म-विधूनन प्रधान है अत: साधक को इसके लिए प्रयत्न करना अपेक्षित है। कर्मविधूनन के अनेक साधन हैं, उनमें एक साधन है-एकत्व-अनुप्रेक्षा। इससे कर्मविधूनन सम्पादित होता है। इसी तथ्य को प्रस्तुत करते हुए आचारांग कहता है कि साधक सब संगों का त्याग कर ऐसी अनुप्रेक्षा करे-मेरा कोई भी नहीं है, इसलिए मैं अकेला हूं “अइअच्च सव्वतो संगंण महं अत्थित्ति इति एगोहमंसि।। आहार संयम की साधना काम-तृष्णा पर विजय पाने के इच्छुक साधक को रस-परित्याग करना अपेक्षित है। रसों का प्रकामसेवन नहीं करना चाहिए। इससे धातुएं उद्दीप्त होती हैं और काम-भोग साधक को पीड़ित करते रहते हैं। रसों के अधिक सेवन से देहाध्यास भी बढ़ता है तथा वह मोक्षसाधना में बाधक है। देहाध्यास काय-क्लेश के द्वारा नष्ट किया जा सकता है। काय-क्लेश सहनशक्ति की क्रमिक वृद्धि के साथ-साथ शील, समाधि एवं प्रज्ञा को परिपक्व करता है। आचारांग कहता है-"जैसे-जैसे शरीर कृश होता है एवं मांस-शोणित सूखते हैं वैसे-वैसे प्रज्ञा का उदय पुष्ट होता है। प्रज्ञा के पुष्ट होने पर वैराग्य की पुष्टि होती है, वैराग्य की पुष्टि के साथ-साथ साधक अरति को अभिभूत कर सकता है 'विरयं भिक्खु रीयंतं, चिररातोसियं, अरती तत्थ किं विधारए ?'' चिरकाल से प्रव्रजित संयम में उत्तरोत्तर गतिशील विरत भिक्षुको क्या अरति अभिभूत कर पाती है ? उपर्युक्त साधना का संवादी उल्लेख बौद्ध साधना में भी प्राप्त होता है। 'मार' को सम्बोधित करके बुद्ध कह रहे हैं-"खून के सूखने पर पित्त और कफ सूखते हैं, मांस के क्षीण होने पर चित्त अधिकाधिक प्रसन्न होता है, अर्थात् श्रद्धा का उन्मेष होता है, श्रद्धा का उन्मेष होने पर स्मृति, समाधि एवं प्रज्ञा पुष्ट होती है। उत्तमोत्तम वेदना की अधिवासना के साथसाथ काम-तृष्णा पर पूर्ण विजय प्राप्त होती है एवं आत्मा परम शुद्धि में प्रतिष्ठित होती है।' 1. आयारो, 6/38 2. उत्तरज्झयणाणि, 32/10, रसा पगामं न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं। दितंच कामा समभिवंति, दुमंजहा साउफलं व पक्खी। 3. आयारो, 6/67, आगयपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति. पयणए य मंससोणिए। 4. आयारो, 6/70 5. सुत्तनिपात पधानसुत्त 9/11 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 263 प्रज्ञा का उदय करना साधक का लक्ष्य है। तपस्या के माध्यम से प्रज्ञा का उन्मेष होता है। तपस्या (धुत) साधना है, साध्य नहीं। 'धुत' साधना की पद्धति है। 'धुत' की उत्कृष्ट स्थिति महापरिज्ञा है। अन्तर्मन के मोह का विवेक करना महापरिज्ञा है। महापरिज्ञा महाधुत है, यह भी साधन है, साध्य नहीं, इसका पर्यवसान मोक्ष में होता है जो आचारांग के आठवें अध्ययन का विषय है। शस्त्र परिज्ञा से लेकर विमोक्ष पर्यन्त सम्पूर्ण साधना-पद्धति भगवान् महावीर के जीवन में फलित हुई जिसकासाक्ष्य आचारांगका उवहाण' अध्ययन हैजोअन्तिम अध्ययन है। आचारांग में 'धुत' की साधना का सांगोपांग वर्णन है किंतु इसके अतिरिक्त अन्य जैन साधना के ग्रन्थों में इसका वर्णन उपलब्ध नहीं है। यद्यपि साधना के विभिन्न प्रकारों का वर्णन अन्यत्र भी उपलब्ध है किंतु 'धुत' नाम से नहीं, ऐसा क्यों हुआ यह अन्वेषणीय है। ब्रह्मचर्य की साधना अध्यात्म-साधना के क्षेत्र में ब्रह्मचर्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ब्रह्मचर्य का एक अर्थ है-ब्रह्म में रमण । प्रस्तुत प्रसंग में ब्रह्मचर्य से हमारा अभिप्राय इन्द्रिय विषय विरति तथा मैथुन विरति से है। आचारांग में मैथुन के लिए ग्राम्यधर्म शब्द का प्रयोग हुआ है।' साधक जब इस 'ग्राम्यधर्म' (वासना) से पीड़ित हो जाता है, तब उस पीड़ा को कैसे दूर किया जाए? इसके उपायों का उल्लेख आगम साहित्य में उपलब्ध है। काम-वासना का उदय दो प्रकार का होता है-सनिमित्तक और अनिमित्तक।जो कामवासना का उदय बाह्य वस्तुओं के कारण होता है, वह सनिमित्तक है। जो आन्तरिक कारणों से होता है, वह अनिमित्तक है। सनिमित्तक काम-वासना का उदय तीन प्रकार का है1. शब्द श्रवण से होने वाला। 2. रूप दर्शन से होने वाला। 3. पूर्वभुक्त भोगों की स्मृति से होने वाला। अनिमित्तक भी तीन प्रकार का है1. कर्म के उदय से होने वाला। 2. आहार के कारण होने वाला। 3. शरीर के कारण होने वाला। स्थानांग में काम संज्ञा उत्पत्ति के चार कारण निर्दिष्ट हैं - 1. आयारो,5/78, ..........उब्बाहिज्जमाणे गामधम्मेहिं। 2. निशीथभाष्यचूर्णि, गाथा 516, सई वा सोऊणं, दळु सरितुंव पुव्वभुत्ताई। सणिमित्तऽणिमित्तं पुण उदयाहारे सरीरे य॥ 3. ठाणं, 4/581,चउहिं ठाणेहिं मेहणसण्णा समुप्पज्नति,तं जहा-चितमंससोणिययाए, मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोवओगेणं। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 जैन आगम में दर्शन 1. मांस, शोणित के उपचय से। 2. मोहनीय कर्म के उदय से। 3. मैथुन की बात सुनने से उत्पन्न मति के कारण एवं 4. मैथुन का सतत चिंतन करते रहने से। काम वासना के उदय का सम्बन्ध वीर्य के उपचय से और वीर्य के उपचय का सम्बन्ध आहार से है। आगम-साहित्य में काम-वासना पर विजय पाने के उपायों का वर्णन हुआ है। जो निम्न हैं 1. मुनि निर्बल भोजन करे अर्थात् उड़द, छाछ आदि का भोजन करे। 2. कम खाए। 3. ऊर्ध्वस्थान (मुख्यत: सर्वांगासन) कर कायोत्सर्ग करे। 4. ग्रामानुग्राम विहरण करे। 5. आहार का विच्छेद (अनशन) करे।' 6. मांस और रक्त का अपचय करे।' आचारांग भाष्य में इन उपायों का विस्तार से वर्णन हुआ है-"ऊर्ध्वस्थान की अवस्था में दोनों नेत्रों को नासाग्र या भृकुटि पर स्थिर करे अथवा बार-बार उन पर स्थिर करे। इस क्रिया से अपानवायु दुर्बल होती है और प्राणवायु प्रबल । अपानवायु की प्रबलता से कामांग सक्रिय होता है और प्राणवायु की प्रबलता से वह निष्क्रिय हो जाता है।" ___ अपने इष्टमंत्रपूर्वक समवृत्तिश्वासप्रेक्षा की पच्चीस आवृत्तियां करने से भी काम-वासना उपशांत होती है। जैसे द्वेषात्मक प्रकृति वाले मनुष्य का बैठे रहना हितकारी होता है, वैसे ही रागात्मक प्रकृति वाले मनुष्य का खड़े रहना या गमन करना हितावह होता है। इसलिए ग्रामानुग्राम विहरण करना ब्रह्मचर्य का उपाय है । ब्रह्मचर्य की साधना से सम्बन्धित उपर्युक्त विवेचन आचारांग भाष्य में उपलब्ध है। जिसका यहां संग्रहण किया गया है।' अनुप्रेक्षा/अनुचिंतन के प्रयोग भी ब्रह्मचर्य की साधना के लिए महत्त्वपूर्ण है। दशवैकालिक में कहा गया-“समदृष्टि पूर्वक विचरते हुए भी यदि कदाचित् मन संयम से बाहर निकल जाए तो यह विचार करे कि 'वह मेरी नहीं है और न ही मैं उसका हूं, मुमुक्षु उसके प्रति होने वाले विषय-राग को दूर करे। ऐसे ही अन्य उपायों का भी वर्णन उपलब्ध होता है। 1. आयारो, 5/79-83 2. वही, 4/4 3, विगिंच मंससोणियं । 3. आचारांगभाष्यम्, पृ. 273 4. दसवेआलियं, 2/4 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 265 आसन की साधना जैन साधना पद्धति में आसन का प्रयोग विहित है। स्वयं भगवान् महावीर ने आसन की साधना की थी। भगवान् आसन में बैठकर ध्यान करते थे।' भगवान् महावीर की साधना काल के मुख्य आसन-उत्कुटुक आसन, वीरासन, गोदोहिका आसन अथवा ऊर्ध्व आसन आदि। आसन जैन साधना पद्धति के मुख्य अंग रहे हैं। 'कायक्लेश' नामक तप आसन से ही सम्बन्धित है।' श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए भगवान् महावीर ने विशेष आसनों का वर्णन किया है। जो निम्न हैं - 1.स्थानायतिक-जिस आसन में सीधा खड़ा होना होता है उसका नाम स्थानायतिक है। स्थान (आसन) तीन प्रकार के होते हैं-ऊर्ध्वस्थान, निषीदन-स्थान और शयन-स्थान। स्थानायतिक ऊर्ध्वस्थान का सूचक है। इसमें कायोत्सर्ग मुद्रा से युक्त होकर, दोनों बाहुओं को घुटनों की ओर झुकाकर खड़ा होना होता है। 2. उत्कटुकासनिक-उकडू बैठना। 3. प्रतिमास्थायी-बैठी या खड़ी प्रतिमा की भांति स्थिरता से बैठने या खड़ा रहने को प्रतिमा कहा गया है। यह काय-क्लेश तप का एक प्रकार है। इसमें उपवास आदि की अपेक्षा, कायोत्सर्ग, ध्यान आदि की प्रधानता होती है। स्थानांग टीकाकार ने प्रतिमा का अर्थ कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित रहना किया है।' 4. वीरासन-सिंहासन पर बैठने से शरीर की जो स्थिति होती, उसी स्थिति में सिंहासन के निकाल लेने पर स्थित रहना वीरासन है। यह कठोर आसन है। इसकी साधना वीर मनुष्य ही कर सकता है। इसलिए इसका नाम 'वीरासन' है।' 5. नैषधिक-इसका अर्थ है, बैठने की विधि | इसके पांच प्रकार हैं।' इसी प्रकार दण्डायतिक, लगंडशायी आदि अनेक प्रकार के आसनों का उल्लेख आगम-साहित्य में हुआहै। जैन साधना पद्धति में ध्यान, आसन, कायोत्सर्ग आदिको प्रारम्भ से ही बहुत महत्त्व दिया गया है। 1. आयारो, 9/4/14, अवि झाति से महावीरे, आसणत्थे अकुक्कुए झाणं। 2. आचारांगभाष्यम्, पृ. 442 3. ठाणं, 1/49, सत्तविधे कायकिलेसे पण्णत्ते. तं जहा-ठाणातिए........ 4. ठाणं, 5/42,43,50 टिप्पण,पृ. 618-621 5. स्थानांग वत्ति, प. 298, प्रतिमया-एकरात्रिक्यादिकया कायोत्सर्गविशेषेणैव तिष्ठतीत्यैवंशीलो य: स प्रतिमास्थायी। 6. वही, पत्र 298 7. ठाणं,5/56 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 जैन आगम में दर्शन प्रतिमा की साधना जैन साधना पद्धति में प्रतिमा' की विशिष्ट साधना का वर्णन प्राप्त होता है। उस पर विमर्श करना प्रस्तुत प्रसंग में काम्य है। तपस्या के विशेष मानदण्ड को अथवा साधना के विशेष नियम को प्रतिमा कहते हैं। स्थानांग टीका में प्रतिमा का अर्थ प्रतिपत्ति, प्रतिज्ञा या अभिग्रह किया गया है। साधना की भिन्न-भिन्न पद्धतियां और उनके भिन्न-भिन्न मानदण्ड होते हैं। उन सबका प्रतिमा के रूप में वर्गीकरण किया गया है। स्थानांग में प्रतिमा के बारह प्रकारों का उल्लेख है-1. समाधि 2. उपधान 3. विवेक 4. व्युत्सर्ग 5. भद्रा 6. सुभद्रा 7. महाभद्रा 8. सर्वतोभद्रा 9. क्षुद्रक प्रस्रवण 10. महत् प्रस्रवण 11. यवमध्याचन्द्र एवं 12. वज्रमध्याचन्द्र । इनमें से कुछ प्रतिमाओं के अर्थ उपलब्ध हैं, उपलब्ध अर्थ भी मूलग्राही है, यह कहना की कठिन है। कुछ भी अर्थ-परम्परा विस्मृत ही हो चुकी है। अभयदेवसूरि ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है। उन्होंने सुभद्रा प्रतिमा के विषय में लिखा है कि उसका अर्थ उपलब्ध नहीं है। प्रशस्तभावलक्षण वाली समाधि प्रतिमा है। उसके दो भेद हैं- श्रुतसमाधि प्रतिमा और सामायिकादि चारित्र समाधि प्रतिमा।' उपधान प्रतिमा-उपधान का अर्थ है-तपस्या । भिक्षु की बारह और श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं को उपधान प्रतिमा कहा जाता है। विवेक प्रतिमा भेदज्ञान की प्रक्रिया है। इस प्रतिमा के अभ्यासकाल में आत्मा और अनात्मा का विवेचन किया जाता है। इसका अभ्यास करने वाला क्रोध, मान, माया और लोभ की भिन्नता का अनुचिंतन करता है। ये आत्मा के सर्वाधिक निकटवर्ती अनात्म तत्त्व हैं। इनका भेदज्ञान पुष्ट होने पर वह बाह्यवर्ती संयोगों की भिन्नता का अनुचिंतन करता है। बाह्य संयोग के मुख्य तीन प्रकार हैं-(1) गण (2) शरीर (3) भक्तपान । विवेक प्रतिमा की तुलना आचार्य महाप्रज्ञ जी ने विवेक ख्याति से की है। महर्षि पतंजलि ने इसे हानोपाय बतलाया है।' समवायसूत्र में उपासक के लिए ग्यारह और भिक्षु के लिए बारह प्रतिमाएं निर्दिष्ट हैं।' उसी आगम में वैयावृत्त्य कर्म की 91 एवं 92 प्रतिमाओं का बिना नाम-निर्देश के उल्लेख I. (क) स्थानांगवृत्ति, पत्र 64, प्रतिमा प्रतिपत्ति: प्रतिज्ञेतियावत् । (ख) वही, पत्र 1 95, प्रतिमा-प्रतिज्ञा अभिग्रहः । ठाणं, 2/243 - 248, टिप्पण, पृ. 12 5 (स्थानांगवृत्ति, पत्र 65, सुभद्राऽप्येवंप्रकारैव सम्भाव्यते, अदृष्टत्वेन तु नोक्तेति।) 3. स्थानांग वृत्ति, पत्र 64 4. वही, पत्र 64 5. ठाणं, टिप्पण, 2/24 3 - 248 पृ. 133 6. योग दर्शन, 2/2 6, विवेकख्यातिरविप्लवा हानोपाय:। 7. समवाओ, 11/1, 12/1 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 2 67 हुआ है।' जैन आगमों में प्रतिमाओं के उल्लेख तो प्राप्त हैं किंतु उनकी विशिष्ट साधना विधि सम्यक् प्रकार से उपलब्ध नहीं है। अंतगडदसाओ में एक रात्रि की महाप्रतिमा का उल्लेख मिलता है। दसाओ में 'महाप्रतिमा' नाम निर्दिष्ट नहीं है। वहां एकरात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा का उल्लेख है।' एक रात्रिकी भिक्षु-प्रतिमा और एकरात्रिकी महाप्रतिमा में केवल नाम का भेद है स्वरूप भेद नहीं है। भगवान् महावीर ने तेले में एकरात्रिकी महाप्रतिमा स्वीकार की थी। एकरात्रिकी भिक्षु प्रतिमा भी तेले में स्वीकार की जाती है। भगवान् महावीर ने सानुलष्ठि ग्राम के बाहर जाकर भद्राप्रतिमा की। उसकी विधि के अनुसार भगवान् ने प्रथम दिन पूर्व दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। रातभर दक्षिण दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। दूसरे दिन पश्चिम दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। दूसरी रात्रि को उत्तर दिशा की ओर अभिमुख होकर कायोत्सर्ग किया। इस प्रकार षष्ठ भक्त के तप तथा दो दिन-रात के निरन्तर कायोत्सर्ग द्वारा भगवान् ने भद्रा-प्रतिमा सम्पन्न की। भगवान् महावीर ने साधना काल में ध्यान, तप आदि के विशिष्ट प्रयोग किए थे। जिनकी सूचना उपर्युक्त संदर्भो से हो रही है। आचार्य महाप्रज्ञ ने स्थानांग टिप्पण में इन प्रतिमाओं का विशद विवेचन किया है।' विस्तार के लिए वे स्थल द्रष्टव्य हैं। एकलविहार प्रतिमा एकलविहार प्रतिमा का अर्थ है-अकेला रहकर साधना करने का संकल्प । जैन परम्परा के अनुसार साधक तीन स्थितियों में अकेला रह सकता है - 1. एकाकीविहार प्रतिमा स्वीकार करने पर। 2. जिनकल्प प्रतिमा स्वीकार करने पर। 3. मासिक आदि भिक्षु प्रतिमाएं स्वीकार करने पर। हर कोई व्यक्ति इस प्रतिमा को स्वीकार नहीं कर सकता। विशिष्ट योग्यता सम्पन्न अनगार ही इसे स्वीकार कर सकते हैं। स्थानांग में प्रतिमा स्वीकार की योग्यता के आठ अंगों का उल्लेख हुआ है। वे अंग निम्न हैं1. समवाओ, 91/1, 92/2 2. अंगसुत्ताणि 3, अंतगडदसाओ, (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, वि.सं. 20 31) 3/8/ 88 3. दसाओ, 1/33 4. आवश्यकनियुक्ति, गाथा 495, सावत्थी वासं चित्ततवो साणुलट्ठि बहिं। पडिमाभद्द महाभद्द सव्वओभद्द पढमिआ चउरो।। 5. ठाणं, पृ. 132-137 6. स्थानांगवत्ति, पत्र 416, एकाकिनो विहारो-ग्रामादिचर्या स एव प्रतिमाभिग्रह: एकाकिविहार-प्रतिमा जिनकल्पाप्रतिमा मासिक्यादिका वा भिक्षुप्रतिमा। (उद्धृत ठाणं, टिप्पण, पृ. 823) 7. ठाणं,8/1 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 जैन आगम में दर्शन 1. श्रद्धावान्-अपने अनुष्ठानों के प्रतिपूर्ण आस्थावान । ऐसे व्यक्ति का सम्यक्त्व और चारित्र मेरु की भांति अडोल होता है। 2. सत्य-पुरुष-सत्यवादी । ऐसा व्यक्ति अपनी प्रतिज्ञा के पालन में निडर होता है, सत्याग्रही होता है। 3. मेधावी-श्रुतग्रहण की मेधा से सम्पन्न । 4. बहुश्रुत-जघन्यत: नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु को तथा उत्कृष्टत: असम्पूर्ण दस पूर्वो को जानने वाला। 5. शक्तिमान् तपस्या, सत्त्व, सूत्र, एकत्व और बल इन पांच तुलाओं से जो अपने आपको तोल लेता है, उसे शक्तिमान् कहा जाता है। 6. अल्पाधिकरण-उपशान्त कलह की उदीरणा तथा नए कलहों का उद्भावन न करने वाला। 7. धृतिमान-अरति और रति में समभाव रखने वाला तथा अनुलोम और प्रतिलोम उपसर्गों को सहने में समर्थ। 8. वीर्य-सम्पन्न स्वीकृत साधना में सतत उत्साह रखने वाला।' वर्तमान में जैन परम्परा में एकल विहार प्रतिमा का प्रावधान नहीं है, प्राचीन काल में विशिष्ट अर्हता सम्पन्न व्यक्ति इसे स्वीकार करते थे। साधना के क्षेत्र में साधक हमेशा विशिष्ट प्रयोग करते रहे हैं। उन प्रयोगों से अपनी आत्मा को भावित कर विशिष्ट अर्हताओं का अर्जन भी उन्होंने किया है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है अत: अमुक प्रकार की ही साधना करनी होगी, ऐसा कोई नियम नहीं है, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, धृति, बल आदि के आधार पर बाह्य साधना के प्रकारों में विभेद होता रहा है किंतु आत्म-विकास का मुख्य हेतु आन्तरिक विशुद्धि ही है, यह सिद्धान्त सर्वत्र सर्वकाल में मान्य रहा, फलस्वरूप जैन आचार क्रियाकाण्ड की एकांगी कठोरता से बचा रहा। तब ही असोच्चा केवली,' पन्द्रह प्रकार के सिद्ध ' आदि की अवधारणा जैन परम्परा में बनी रही। विशुद्धि मुक्ति का द्वार जैन परम्परा में बंधन मुक्ति के लिए आत्म-विशोधि को ही मुख्य माना गया है। बाह्य परिवेश मुक्ति में बाधक नहीं है। कोई व्यक्ति किसी भी देश, परिवेश में मुक्त हो सकता है। आत्मिक शुद्धि के लिए कोई भी बाह्य परिस्थिति बाधक नहीं बनती। 1. स्थानांगवृत्ति, पत्र 416 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 9/9-32 3. ठाणं, 1/214-228 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 269 सत्य देश, काल, व्यक्ति, परिवेश आदि की सीमाओं में आबद्ध नहीं है। तीर्थसिद्ध आदि पन्द्रह प्रकार के सिद्धों की अवधारणा इसी सत्य को निर्देशित कर रही है। आगम युग में यह सत्य अनेक स्थलों पर अभिव्यंजित है किन्तु दर्शन युग में इस सत्य की उन्मुक्तता के स्वर क्षीण पड़ जाते हैं। सिद्धों में आत्मा का पूर्ण विकास हो चुका है, अत: आत्मिक विकास की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। किन्तु उनकी पूर्वावस्था को आधार बनाकर सिद्धों के पन्द्रह भेद किए जाते हैं। जो यहां विशेष मननीय है1. तीर्थसिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना के पश्चात् तीर्थ में दीक्षित होकर सिद्ध होते हैं, जैसे ऋषभदेव के गणधर आदि। 2. अतीर्थसिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना के पहले सिद्ध होते हैं, जैसे मरुदेवी माता। तीर्थंकर सिद्ध-जो तीर्थंकर के रूप में सिद्ध होते हैं, जैसे-ऋषभ आदि। 4. अतीर्थंकर सिद्ध-जो सामान्यकेवली के रूप में सिद्ध होते हैं। 5. स्वयंबुद्धसिद्ध-जो स्वयं बोधि प्राप्त कर सिद्ध होते हैं। 6. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो किसी एक बाह्य निमित्त से प्रबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं। 7. बुद्धबोधितसिद्ध-जो आचार्य आदि के द्वारा बोधि प्राप्त कर सिद्ध होते हैं। 8. स्त्रीलिंगसिद्ध-जो स्त्री शरीर से सिद्ध होते हैं। 9. पुरुषलिंगसिद्ध-जो पुरुष शरीर से सिद्ध होते हैं। 10. नपुंसकलिङ्गसिद्ध-जो कृत नपुंसक शरीर से सिद्ध होते हैं। 11. स्वलिङ्गसिद्ध-जो जैन साधु के वेश में सिद्ध होते हैं। 12. अन्यलिङ्गसिद्ध-जो निर्ग्रन्थेतर भिक्षु के वेश में सिद्ध होते हैं। 13. गृहलिङ्गसिद्ध-जो गृहस्थ के वेश में सिद्ध होते हैं। 14. एकसिद्ध-जो एक समय में एक सिद्ध होता है। 15. अनेकसिद्ध-जो एक समय में दो से लेकर उत्कृष्टत: एक सौ आठ तक एक साथ सिद्ध होते हैं। जैन आगम की पन्द्रह प्रकार के सिद्धों की अवधारणा जैन दर्शन की व्यापकता का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। मुक्ति पर किसी जाति, वर्ण, लिंग, सम्प्रदाय का एकाधिकार नहीं है। श्रमणसंघ में दीक्षित हो या नहीं, विभिन्न अतिशय युक्त तीर्थंकर हो या सामान्य रूप में साधना का जीवन जीने वाला, स्त्री हो या पुरुष, गृहस्थ हो या तापस, प्रत्येक अवस्था में जीव पुरुषार्थ के द्वारा सर्वोच्च अवस्था को प्राप्त कर सकता है। आन्तरकि निर्मलता को प्रधानता देने वाला यह सूत्र जैन दर्शन की विशाल दृष्टि का परिचायक है। 1. ठाणं, 1/214-228 2. वही, टिप्पण पृ. 29-30 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 जैन आगम में दर्शन असोच्चा केवली जैन दर्शन की 'असोच्चा केवली' की अवधारणा भी इसी तथ्य को संपुष्ट करती है कि आध्यात्मिक चरम विकास का हेतु बाह्य परिवेश नहीं है किंतु आन्तरिक निर्मलता ही है। भगवती में असोच्चाकेवली का एक लम्बा प्रकरण उपलब्ध है। जिसमें उनके परम आध्यात्मिक विकास की सूचना प्राप्त है। कुछ व्यक्ति केवलीप्रज्ञप्त धर्म को केवली, केवली के श्रावक आदि से नहीं सुनते हैं फिर भी वे केवलीप्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त कर सकते हैं तथा बोधि को प्राप्त कर गृहस्थ धर्म को छोड़कर अनगार धर्म में प्रव्रजित हो जाते हैं तथा ब्रह्मचर्य, संयम, संवर से युक्त होकर मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यव एवं केवलज्ञान को उत्पन्न कर सकते हैं।' असोच्या केवली की साधना असोच्चा केवली अर्थात् जिसने अपने विकास की राह का स्वयं निर्माण किया है। अध्यात्म क्षेत्र में उपलब्ध सहयोग के बिना भी वह अपनी साधना की विशिष्ट प्रक्रिया से उस अन्तिम, इच्छित मंजिल को प्राप्त कर लेता है। भगवती में अश्रुत्वा पुरुष के आध्यात्मिक आरोहण के सोपानों का वर्णन विस्तार से उपलब्ध है। निरन्तर बेले का तप, ऊर्ध्वबाहु करके सूर्याभिमुखी आतापना, प्रकृति की भद्रता, प्रकृति उपशांतता, क्रोध आदि कषायों की अल्पता, मृदुमार्दव संपन्नता आदि गुणों के द्वारा प्राप्त विशुद्धि से विभंगज्ञान को प्राप्त करता है। सूक्ष्म सत्यों कोजानने की शक्ति सेवह सम्यक्त्व तक पहुंच जाता है और उसका विभंग अज्ञान अवधिज्ञान में परिणत हो जाता है। क्रमश: ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का क्षय कर केवली प्रज्ञप्त धर्म को किसी से न सुनकर भी स्वत: ही उसे प्रास कर मुक्तावस्था को प्रास हो जाता है। जैन धर्म की यह अवधारणा भी इसी तथ्य को निर्देशित कर रही है कि कोई व्यक्ति अमुक धर्म का श्रवण करे, उस धर्म से सम्बन्धित व्यक्तियों के संपर्क में आए, आत्म-शुद्धि के लिए इनकी कोई अनिवार्यता नहीं है। "हमारे धर्म में आओ तब ही मुक्ति होगी" जैन इस अवधारणा का संपोषक नहीं है। उसका आग्रह इतना ही है कि किसी देश, वेश, परिवेश में रहे किंतु कषाय-मुक्ति आवश्यक है। कषायमुक्ति: किन मुक्तिरेवकषाय यदि है तो जैनधर्म में रहने से भी मुक्ति नहीं होगी कषाय यदि नहीं है तो अन्य स्थान से भी मुक्ति हो जायेगी। क्रियावाद कर्मबन्ध की हेतुभूत प्रवृत्ति को क्रिया कहते हैं। ' क्रिया के बिना कर्मबन्ध नहीं हो सकता। कृत, कारित और अनुमति के भेद से क्रिया के तीन प्रकार हैं। भूत, भविष्य एवं वर्तमान 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 9/9-32 2. वही, 9/33 3. भगवती वृत्ति, 3/134, करणं क्रिया कर्मबन्धननिबन्धा चेष्टा। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 271 के भेद से उसके नौ विकल्प बन जाते हैं। आचारांग में संक्षेप में इन क्रियाओं का उल्लेख हुआ है।' क्रिया कर्म-पुद्गलों का आश्रवण करती है, इसलिए इसका दूसरा नाम आश्रव है।' आगम साहित्य में क्रियाकेतीन वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं। प्रथम वर्गीकरणसूत्रकृतांग का है, उसमें क्रिया के तेरह प्रकार निर्दिष्ट हैं। दूसरा वर्गीकरण स्थानांग का है। वहां पर मुख्य और गौण भेद से क्रिया के बहत्तर प्रकारों का उल्लेख है। भगवती के अनेक स्थानों पर क्रियाओं का उल्लेख है।' प्रज्ञापना का बाईसवां पद क्रियापद है। क्रिया का तीसरा वर्गीकरण तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध है। वहां पच्चीस क्रियाओं का निर्देश है। कर्म-बंध किस-किस प्रकार से हो सकता है, इसका अवबोध क्रियाओं के माध्यम से हो जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में क्रियाओं की सूचना मात्र देना अभीप्सित था, अत: विस्तार नहीं किया गया है। विस्तार के इच्छुक व्यक्ति तद्-तद् स्थानों का अवलोकन कर सकते हैं। क्रिया से बचने वाला कर्मबन्ध से बच जाता है। क्रिया आश्रव है। आश्रव मोक्ष का बाधक तत्त्व है। अक्रिया अर्थात् संवर। संवर मोक्ष का साधक तत्त्व है। अत: आचार के अनुपालन से साधक क्रिया का त्याग कर अक्रिया की ओर प्रस्थान करता है। अक्रिया की पूर्णता प्राप्त हो जाने पर उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में अक्रिया का अर्थ निष्क्रियता नहीं किंतु हिंसा से निवृत्ति है। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति सामान्यतः जैन धर्म को निवृत्तिवादी दर्शन कहा जाता है, इस अवधारणा में सत्यांश है किन्तु यह सर्वथा सत्य नहीं है। पूर्ण निवृत्ति या अक्रिया की स्थिति तो चौदहवें गुणस्थान में ही आ सकती है तथा उस गुण स्थान का समय अत्यल्प है। उसके अनन्तर मोक्ष अवश्यंभावी है। सामान्य जीवन-व्यवहार चलाने के लिए प्रवृत्ति की आवश्यकता है। जैन धर्म कोरा निवृत्तिवादी नहीं है। एक सीमा तक उसे प्रवृत्ति भी माना है। उसमें दोनों का समन्वय है। साधना पथ पर आरूढ़ साधक के लिए भगवान महावीर ने गुप्ति के साथ समिति का भी प्रावधान किया है। संन्यस्त होते ही शिष्य पूछता है- अब मैंने एक नई जीवन शैली का स्वीकरण कर लिया है, जीवन यात्रा का भी मुझे निर्वहन करना है, आप मेरा मार्ग दर्शन करें कि मैं कैस अपने व्यवहार को संचालित करूं, जिससे मेरे पाप कर्म का बंध न हो।' शिष्य को समाहित करते हुए गुरु कहते हैं कि - अब से तुम अपनी जीवन यात्रा को यतना (संयम) पूर्वक संचालित करो। तुम्हारे पाप कर्म का बंध नहीं होगा। प्रवृत्ति एवं निवृत्ति में भी विवेक 1. आयारो, 1/6, अकरिस्सं चहं, कारवेसु चहं, करओ यावि समणुण्णे भविस्सामि । 2. आचारांगभाध्यम्, 1/6 पृ. 26, क्रिया कर्मपुद्गलानास्रवति, तेन अस्या अपरनाम आश्रवो विद्यते। 3. सूयगडो, 2/2/2 4. 8. ठाणं, 2/2-37 5. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1/60-100, 364-372 इत्यादि 6. तत्त्वार्थाधिगम, सूत्र 6/6 7. दशवैकालिक 4/7 कहं चरे? कहं चिठे? कहमासे? कहं सए? कहं भुजंतो भासंतो, पावं कम्मन बंधई।। 8. वही, 4/8 जयं चरे जयं चिठे जयमासे जयं सए। जयंभुंजंतो भासंतो, पांवं कम्मनबंधई॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 जैन आगम में दर्शन आवश्यक है। कहां, किसका प्रयोग हो, इसका ज्ञान आवश्यक है। यह ज्ञान होने पर साधना का पथ सुगम हो जाता है। आचार में तटस्थता हिंसा अकरणीय है। अहिंसा सर्वदा अनुपालनीय है, यह आचार का सार्वभौमिक सिद्धांत है किन्तु अनेक बार ऐसी स्थिति पैदा होती है कि इस सिद्धान्त को परिस्थिति विशेष के कारण वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता। आचार के क्षेत्र में ऐसी समस्या उपस्थित होती रही है। जीवन का व्यवहार बहुत जटिल है, इसलिए अहिंसक को कहीं वक्तव्य और अवक्तव्य, कहीं वचन और कहीं मौन का सहारा लेना पड़ता है। सब समस्याओं को एक ही प्रकार से समाहित नहीं किया जा सकता। सूत्रकृतांग में ऐसी समस्याओं को उपस्थापित कर उनका समाधान देने का प्रयत्न किया गया है। 'प्राणी वध्य है' अहिंसक को ऐसा नहीं कहना चाहिए किंतु किसी समस्या के संदर्भ में 'यह अवध्य है' यह कहना भी व्यवहार-संगत नहीं होता, इसलिए ऐसी परिस्थिति में अहिंसक को मौन रहना चाहिए। कोई व्यक्ति सिंह आदि हिंस्र पशुओं को मारने का विचार कर मुनि के पास आता है और पूछता है-मैं इन्हें मारूं या न मारूं ? 'उन्हें मारो' ऐसा कहा ही नहीं जा सकता और वे हिंस्र पशु अनेक मनुष्यों को मार रहे हैं, उपद्रव कर रहे हैं, इसलिए 'मत मारो'--यह कहना भी व्यवहार संगत नहीं होता। इस अवस्था में अहिंसा के लिए मौन रहना ही श्रेय होता है। शीलांकाचार्य ने वध्य और अवध्य कहने के प्रसंग में मौन रहने के कारण को प्रस्तुत करते हुए कहा है- चोर, परदारिक आदि वध्य हैं-यह कहने से हिंसा कर्म का अनुमोदन होता है और 'अवध्य' कहने पर चोरी आदि का अनुमोदन होता है, इसलिए अहिंसक ऐसे प्रसंग में मौन रहे। इसी प्रकार सिंह, बाघ, बिल्ली आदि हिंस्र जंतुओं को मारते हुए देख मध्यस्थता का अवलम्बन ले।' आगमों में स्थान-स्थान पर आचार-व्यवहार के संदर्भ में वाणी संयम का उपदेश प्राप्त है। यह व्यक्ति की एक प्रकार की सहज मनोवृत्ति है कि वह अपने से इतर को विशुद्ध स्वीकार नहीं करता। इसकी यह मानसिकता अवधारणा होती है कि मेरे द्वारा स्वीकृत साधना पथ ही 1. सूयगडो (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1986) 2/5/30, पृ. 307-308 2. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 411, वज्झं पाणाति मणसावि ण सम्मतं किमुत वक्तुं ? कम्मुणा वा कर्तुं अतोन वक्ति वध्या: प्राणिन:, अथ अवज्झा, कथं न वाच्यं ? नन्वेतदपि लोकविरुद्धमेव, ..........यदि कश्चित सिंहमृगमार्जारादीक्षुद्रजन्तुजिघांसुब्रूयात्-भो साधो किमेतान् क्षुद्रजंतून् घातयामि उत मुंचामीति, तत्र न वक्तव्यं मुंच मुंचेति, ते हि मुक्ता अनेकानां घाताय भविष्यन्ति, एवं चौरमच्छवद्धबंधादयो न वक्तव्या मुंच घातयेति वा । 3. सूयगडो 2, पृ. 308 (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 256, वध्याश्चौरपरदारिकादयोऽवध्या वा तत्कर्मानुमतिप्रसङ्गादित्येवंभूतां वाचं स्वानुष्ठानपरायण: साधुः परव्यापारनिरपेक्षो न निसृजेत्, तथा हि सिंहव्याघ्रमार्जारादीन्परसत्त्वव्यापादनपरायणान् दृष्टवा माध्यस्थ्यमवलम्बयेत्।) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 273 श्रेष्ठ है अन्य तो ऐसे ही मिथ्या भ्रम में घूम रहे हैं। उनकी यह मानसिक अवधारणा वाणी में अभिव्यक्त होकर समस्या भी उत्पन्न कर देती है। सूत्रकृतांग में इस मनोवृत्ति पर प्रहार करते हुए निर्देश दिया है कि "संयत आत्मा वाले साधुजीवी भिक्षु दिखाई देते हैं, फिर भी ये मिथ्याजीवी हैं--ऐसी दृष्टि धारण न करे।' अनेकांत दर्शन का प्रवक्ता एवं समर्थक निंदात्मक भाषा का प्रयोग नहीं करता। किसी के उपरोध पर नहीं जीने वाले क्षान्त, दान्त और जो जितेन्द्रिय होते हैं, कुतूहल तथा अट्टहास का वर्जन करने वाले होते हैं, उनको मिथ्याजीवी कहना वाणी का असंयम है। वे संन्यासी चाहे स्वयूथिक हों या अन्ययूथिक, उनके विषय में ये बेचारे बाल तपस्वी हैं, सब कुछ मिथ्या-आचरण और लोक विरुद्ध व्यवहार करते हैं-ऐसा नहीं कहना चाहिए। साधु को यह प्रशिक्षण दिया गया कि वह परचिंता छोड़कर श्रेष्ठ ध्यान में अपने मन को नियोजित करें किंतु विवाद हिंसा को उत्पन्न करने वाले व्यवहार का सर्वथा वर्जन करें। कोई किसी को दान दे रहा है। उस समय साधु का व्यवहार कैसा होना चाहिए इसका निर्देश भी सूत्रकृतांग में प्राप्त है। किसी ब्राह्मण या भिक्षु को भोजन करवाने में धर्म है या नहीं ? पुण्य है या नहीं ? इनका उत्तर अस्ति-नास्ति में मुनि नहीं दे। दान के लिए जो त्रस और स्थावर प्राणी मारे जाते हैं, उनके संरक्षण के लिए 'पुण्य है' यह न कहे। जिनके लिए उस प्रकार का अन्न-पान बनाया जाता है, उन्हें उसकी प्राप्ति में विघ्न होता है, इसलिए 'पुण्य नहीं है' यह भी न कहे। जो दान की प्रशंसा करते हैं वे प्राणियों की वध की इच्छा करते हैं। जो उसका प्रतिषेध करते हैं वे उनकी वृत्ति का छेद करते हैं। जो धर्म या पुण्य है या नहीं है-ये दोनों नहीं कहते वे कर्म के आगमन का निरोध कर निर्वाण को प्राप्त होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जहां वर्तमान में दान की प्रवृत्तियां चल रही हों, उन्हें लक्षित कर धर्म या पुण्य होता है या नहीं होता, इस प्रकार का प्रश्न करे तब मुनि को मौन रहना चाहिए। यह उसका वाणी का विवेक है। दक्षिणा देने से प्रतिलाभ (दाता को पुण्य) होता है अथवा नहीं होता है, मेधावी ऐसा न कहें, शांतिमार्ग की वृद्धि करें।' सूत्रकृतांग चूर्णिकार ने इस विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा हैपात्र को श्रद्धापूर्वक इष्ट या अनिष्ट वस्तु का दान देने पर महान् फल होता है। अपात्र को दिया हुआ दान वध के लिए होता है। फिर भी अहिंसक को अस्ति-नास्ति-दोनों प्रकार के वचन से बचना चाहिए । नास्ति (प्रतिलाभ नहीं होता) कहने पर अन्तराय का दोष लगता है और 1. सूयगडो 2/5/31, दीसंति णिहुअप्पाणो भिक्खुणो साहुजीविणो। एए मिच्छोवजीवित्ति इति दिट्ठिण धारए। 2. वही, 2 पृ. 30 8 (सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 2 5 6, ते न कस्यचिदुपरोधविधानेन जीवन्ति, तथा क्षान्ता दान्ता जितक्रोधा: सत्यसंधा दृढवता युगान्तरमात्रदृष्ट यः....मिथ्यात्वोपजीविन इत्येवं दृष्टिं न धारयेत्नैवंभूतमध्यवसायं कुर्यान्नाप्येवंभूतां वाचं निसृजेद् यथैते मिथ्योपचारप्रवृत्ता मायाविन इति। .......ते च स्वयूथ्या वा भवेयुस्तीर्थान्तरीया वा तावुभावपिन वक्तव्यौ साधुना।) 3. सूयगडो, ।/11/16-21 4. सूयगडो,,2/5/32, दक्खिणाए पडिलंभो अत्थि वाणत्थि वा पूणो।ण वियागरेज्न मेहावी, संतिमग्गंच बूहए। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274 जैन आगम में दर्शन अस्ति (प्रतिलाभ होता है) कहने पर अधिकरण-हिंसा का अनुमोदन होता है। इसलिए ऐसे प्रसंग में पुण्य होता है या पुण्य नहीं होता-दोनों अवक्तव्य हैं। सिद्धान्त निरूपण के समय जो जैसा है, वैसा स्पष्ट किया जा सकता है किंतु वर्तमान काल में दान देने के प्रसंग पर मुनि मौन रहे, शांतिमार्ग का आलंबन ले, इस प्रकार का व्यवहार करे जिससे प्रश्नकर्ता भी उपशान्त हो जाए और शासन की अनुपालना भी हो जाए।' सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने इस तथ्य को व्याख्यायित करते हुए कहा है कि स्वतीर्थिक अथवा अन्यतीर्थिक को दान या ग्रहण के प्रति जो लाभ होता है उसमें भी ऐकान्तिक भाषा न बोले। दान का निषेध करने पर अन्तराय की संभावना होती है और भिक्षु के मन में विपरीत भावना उत्पन्न हो सकती है। दान का अनुमोदन करने पर हिंसा का प्रसंग होता है। इसलिए अस्ति-नास्ति-दोनों उसके लिए अवक्तव्य है। वह विधि-निषेध को छोड़कर निरवद्य वचन बोले।' हिंसा के प्रमुख कारण हिंसा में प्रवृत्त होने के राग-द्वेष आदि आन्तरिक कारण तो हैं ही। आन्तरिक कारण के अभाव में बाह्य कारण हिंसा के उत्प्रेरक नहीं हो सकते। जैन-दर्शन ने उपादान के साथ निमित्त के प्रभाव को भी स्वीकार किया है। आचारांग जैसे प्राचीन ग्रन्थ में भी हिंसा करने के निमित्त कारणों का उल्लेख हुआ है। हिंसा सप्रयोजन एवं निष्प्रयोजन दोनों प्रकार की होती है। सप्रयोजन हिंसा के कितने कारण हो सकते हैं, इसका उल्लेख करते हुए आचारांग में कहा गया वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जाम, मरण और मोचन के लिए, दु:ख-प्रतिकार के लिए मनुष्य कर्म समारम्भ करता है। जिजीविषा-समस्त जीव जगत की प्रमुख एवं प्रथम इच्छा - जिजीविषा है। विद्वान से लेकर जातमात्र कीड़े में भी इसको देखा जा सकता है। जिजीविषा हिंसा का बहुत बड़ा कारण बनती है। __ लोकैषणा-जब परमार्थ की चेतनाजागृतनहीं होती, केवलइन्द्रिय और मन की परिधि में ही चेतना का विकास होता है, तब मन में प्रशंसा, बड़प्पन, पूजा, प्रतिष्ठा की भावना पनपती है। यह लोकैषणा सदा बनी रहती है। इस लोकैषणा के कारण वे लोग हिंसा करते हैं। धर्म की मिथ्या धारणा-धर्म के साथ जो हिंसा जुड़ती है, उसके दो कारण हैं-जन्ममरण से मुक्ति और दु:ख से मुक्ति । बहुत से धार्मिकों ने महावीर के समय में भी तंत्र के आदि के प्रयोग चालू किए। पशु-बलि की बात तो मान्य थी ही, नर-बलि की भी बात मान्य हो गई। उसका आधार यही बनता था कि इन प्रक्रियाओं से शक्ति की उपासना होती है, देवता 1. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 4 1 2, 4 1 3, (उधृत सूयगडो 2, पृ. 309) 2. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 2 5 7, ........तद् दाननिषेधेऽन्तरायसंभवस्तद्वैचित्यं च, तद् दानानुमत वप्यधिकरणोद्भव इत्यतोऽस्ति दानं नास्ति वेत्येवमेकान्तेन न ब्रूयात्, कथं तर्हि ब्रूयादिति.........निरवद्यमेव ब्रूयात्। 3. सूयगडो, 2/2/2 4. आयारो, 1/10, इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 275 संतुष्ट होते हैं। देवताओं को तृप्त करते-करते, उनका अनुग्रह प्राप्त करते-करते संसार से भी मुक्ति पाई जा सकती है। इस संसार-मुक्ति और दु:ख-मुक्ति के लिए भी उस समय बहुत सारे लोग हिंसा करते थे। व्यथा-शमन-केवल इन्द्रिय और मन की तृसि के लिए लगा हुआ व्यक्ति आर्त बनता है। जब वह आर्त होता है तब प्रव्यथित रहता है। अपनी व्यथा को मिटाने के लिए वह दूसरों को दु:ख देता है, दूसरों का वध करता है। आतुरता भी हिंसा का कारण बनती है।' आचारांग ने हिंसा के कुछ निमित्तों को गिनवाया है उनके आधार पर उस समय की धार्मिक मान्यताओं का तथा मनुष्य की मौलिक मनोवृत्तियों का ज्ञान होता है। आज हिंसा के निमित्तों की एक लम्बी सूची प्रस्तुत की जा सकती है। संक्षेप में कषाय ही हिंसा का मूल कारण है। अत: कषाय-शमनही हिंसा के समाप्त होने का कारण बनता है। कषाय-मुक्ति की साधना को प्रस्तुत करना ही आचार-शास्त्र का मुख्य लक्ष्य है। शस्त्र विमर्श वध या हिंसा के साधन को शस्त्र कहा जाता है। वह दो प्रकार का होता है-द्रव्य शस्त्र और भावशस्त्र। ठाणं में दस प्रकार के शस्त्र का उल्लेख है।' अग्नि, विष, लवण, स्नेह, क्षार, अम्ल, दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काया एवं अविरति । इनमें अग्नि आदि प्रथम छह द्रव्य शस्त्र हैं एवं शेष चार भाव शस्त्र हैं। अविरति सबसे बड़ा शस्त्र है। अविरति पर नियंत्रण होने से अन्य शस्त्रों पर स्वत: नियंत्रण हो जाएगा। सबसे पहले शस्त्र का निर्माण हमारे भाव या मस्तिष्क में होता है। आचारवान वह होता है जो अविरति के शस्त्र से दूर रहता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने नि:शस्त्रीकरण को आचार कहा है। उनके शब्द हैं-"नि:शस्त्रीकरण का नाम है आचार।" यद्यपि आचार की यह सापेक्ष परिभाषा है किंतु आज के संदर्भ में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। जब तक भाव का, मस्तिष्क का नि:शस्त्रीकरण नहीं होगा तब तक विश्वयुद्ध के खतरे को टाला नहीं जा सकता। यदि भाव में नि:शस्त्रीकरण हो जाए तो बाह्य शस्त्र अधिक खतरा पैदा नहीं कर सकते। भगवान् महावीर ने जैन श्रावकों के लिए जो व्रतों की आचार संहिता दी, उसका एक सूत्र है- जैन श्रावक शस्त्रों का निर्माण नहीं करेगा। शस्त्रों के पुों का संयोजन भी नहीं करेगा। इसके साथ ही अविरति रूप भाव शस्त्र जो असंयममय है उस पर नियंत्रण करने का संदेश दिया है। अविरति ही मुख्य शस्त्र है उसका नियमन आवश्यक है। जैन आचार उसके नियमन पर विशेष बल देता है। - - 1. आयारो, 1/14, आतुरा परितावेति । 2. स्थानांगवृत्ते, पृ. 328, शस्यते-हिंस्यते अनेनेति शस्त्रं, शस्त्रं-हिंसक वस्तु. तच्च द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । 3. ठाणं, 10/93, दसविधे सत्थे पण्णत्ते, तंजहा सत्थमग्गी विसंलोणं सिणेहो खारमंबिलं। दुप्पउत्तोमणो वाया, काओ भावो य अविरती।। महाप्रज्ञ, आचार्य, अस्तित्व और अहिंसा, (लाडनूं, 1990) पृ. 5 5. अंगसत्ताणि 3 (उवासगदसाओ) 1/39 ...........संजुत्ताहिकरणे। 4. महाजरा Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 जैन आगम में दर्शन आचार का प्रमुख अंग अपरिग्रह आचार के क्षेत्र में अहिंसा का घोष उच्च स्वर से अनुगुंजित है किन्तु अपरिग्रह की आवाज अत्यन्त क्षीण हो गई है। जबकि सच्चाई यह है कि आचार का प्रमुख अंग अपरिग्रह है। अधिकांश हिंसा भी परिग्रह के कारण होती है। जैन आगम साहित्य में आचार के संदर्भ में अहिंसा और अपरिग्रह दोनों का उल्लेख हुआ है। कर्म-बंध के मुख्य हेतु दो हैं- आरम्भ और परिग्रह। राग-द्वेष, मोह आदि भी कर्मबंध के हेतु है किन्तु वे भी आरम्भ और परिग्रह के बिना नहीं होते। इन दोनों में भी परिग्रह गुरुतर कारण है। परिग्रह के लिए ही आरम्भ किया जाता है।' जम्बू ने आर्य सुधर्मा से पूछा-भगवान् महावीर की वाणी में बंधन क्या है और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? सुधर्मा ने उत्तर दिया-परिग्रह बंधन है, हिंसा बन्धन है। बंधन का हेतु है-ममत्व । प्रस्तुत प्रसंग में बंधन के हेतु के रूप में पहला स्थान परिग्रह को दिया गया, हिंसा को उसके बाद में रखा गया है। इससे भी स्पष्ट है कि प्राणातिपात आदि पांच आश्रवों में भी परिग्रह को गुरुतर कारण माना गया है। हिंसा के लिए परिग्रह नहीं होता अपितु परिग्रह के लिए हिंसा होती है। हिंसा कार्य है परिग्रह कारण है। आज हिंसा को समस्या माना जा रहा है, उसके शमन के उपाय खोजे जा रहे हैं किंतु उसके कारण पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। कारण समाप्त हुए बिना कार्य समाप्ति की व्यवस्था निरापद नहीं हो सकती। अग्र एवं मूल दोनों पर ध्यान देना आवश्यक है। हिंसा की समस्या का समाधान अपरिग्रह के आलोक में ही खोजा जा सकता है। आगम में अपरिग्रह को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। साधु के पंचमहाव्रतों में तथा श्रावक के व्रतों में अपरिग्रह को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हैं। यद्यपि गृहस्थ का अपरिग्रह एवं मुनि का अपरिग्रह एक नहीं है। मुनि सर्वथा अपरिग्रही होता है। गृहस्थ का अपरिग्रह व्रत इच्छा-परिमाण है। जैन दार्शनिकों ने बड़ी ही सूक्ष्मता से अपरिग्रह व्रत के अतिचारों का निरूपण किया है ताकि व्यावहारिक जीवन में अपरिग्रह की साधना में व्यक्ति को दिशा-निर्देश प्राप्त हो सके। क्षेत्र-वास्तु, हिरण्य-सुवर्ण, धन-धान्य, दासी-दास एवं कुप्य-भांड के प्रमाणों का अतिक्रमण करना इच्छा-परिमाण के अतिचार हैं।' व्रती गृहस्थ इन अतिचारों से बचने का सलक्ष्य प्रयत्न करता है। आर्थिक समस्याओं का समाधान अपरिग्रह व्रत के आचरण से प्राप्त हो सकता है। 2. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 21, 22, उक्तं हि-"आरम्भपरिग्र हौ बन्धहेतू' येऽपि च रागादय: तेऽपि नारम्भपरिग्रहावन्तरेण भवन्तीति, तेन तावेव वा गरीयांसाविति..., तत्रापि परिग्रहनिमित्तं आरम्भ: क्रियत इति कृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमुपदिश्यते। 3. सूयगडो, 1/1/2-3 4. वही, 1/1/4 5. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 2 2, पंचण्हं वा पाणातिवातादिआसवाणं परिग्गहो गुरुअतरो त्ति कातुं तेण पुव्वं परिग्गहो वुच्चति। 6. आयारो, 3/34, अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे। 7. ठाणं, 5/1,2 8. उपासकदशा 1/28 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 277 वास्तविक परिग्रह तो मूर्छा है।' मूर्छा का अर्थ है किसी भी वस्तु में ममत्व का भाव । यह ममत्व की चेतना रागवश होती है। इसी चेतना के कारण अर्जन, संग्रह आदि के लिए प्राणी प्रयत्नशील रहता है। अपरिग्रह के जागरण के लिए मूच्र्छा-त्याग अनिवार्य है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार समग्र जागतिक दु:खों का मूल कारण तृष्णा है। जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसका मोह समाप्त हो जाता है और जिसका मोह समाप्त हो जाता है उसके दु:ख भी नष्ट हो जाते हैं।' मूर्छा/आसक्ति ही परिग्रह है। आसक्ति का ही दूसरा अभिधान लोभ है और लोभ को सर्वगुणों का विनाशक कहा गया है।' अहिंसा का सामाजिक आधार अपरिग्रह अनाग्रहया अनेकांत अहिंसा का वैचारिक आधार है। इसी प्रकार अहिंसा का सामाजिक आधार अनासक्ति या अपरिग्रह है। व्यक्तिगत जीवन में जिसे अनासक्ति कहते हैं, सामाजिक जीवन में वही अपरिग्रह हो जाता है। व्यक्तिगत जीवन में आसक्ति दो रूपों में अभिव्यक्त होती है-परिग्रह-भाव और भोग-भावना, जिनके वशीभूत होकर व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार आसक्ति तीन रूपों में बाह्य-स्तर पर अभिव्यक्त होती है 1. अपहरण या शोषण 2. आवश्यकता से अधिक परिग्रह 3. भोग। केवल हत्या या रक्तपात ही हिंसा नहीं है, परिग्रह भी हिंसा ही है क्योंकि हिंसा के बिना परिग्रह असंभव है। संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन होता है और इस रूप में परिग्रह हिंसा है। अपरिग्रह बाह्य अनासक्ति है, अनासक्ति आन्तरिक अपरिग्रह है। अपरिग्रह के विकास के लिए अनासक्ति का विकास आवश्यक है। जैन आगम संविभाग की चर्चा करते रहे हैं। संविभाग को आध्यात्मिक साधना का आवश्यक अंग माना है। वर्तमान में आचार्य तुलसी ने विसर्जन चेतना को जगाने का सघन प्रयत्न किया। आचार्य महाप्रज्ञ न केवल अध्यात्म के लिए अपितु स्वस्थ सामाजिक जीवन जीने के लिए विसर्जन को अनिवार्य मानते हैं। उनका मानना है कि "हिंसा से भी अधिक जटिल है परिग्रह की समस्या। वर्तमान समस्या को देखते हए अपरिग्रह पर अधिक बल देना जरूरी है। 'अहिंसा परमोधर्म:' के साथ-साथ 'अपरिग्रह, परमो धर्म:' इस घोष का प्रबल होना जरूरी है। अहिंसा और अपरिग्रह का एक जोड़ा है, उसे काट दिया गया। उसे वापस जोड़कर ही हम समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। जिस दिन 'अहिंसा परमो धर्म:' के साथ 'अपरिग्रह: परमो धर्म:' का एक स्वर बुलन्द होगा, आर्थिक 1. दसवेआलियं, 6/20, मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। 2. उत्तरज्झयणाणि 32/8 3. वही, 8/37, लोहो सव्वविणासणो। 4. सिंह, रामजी, जैन दर्शन : चिंतन-अनुचिंतन, (लाडनूं, 1993) पृ. 84 5. दसवेआलियं, 9/2/22, असंविभागी न ह तस्स मोक्खो । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 जैन आगम में दर्शन समस्या को एक समाधान उपलब्ध हो जाएगा।'' इसलिए अपरिग्रह का विचार और आचार केवल परमार्थ साधना का विषय नहीं है अपितु व्यक्तिगत जीवन के सच्चे सुख एवं स्वस्थ समाज-संरचना के लिए आवश्यक है। जैन आचार की विशेषता भगवान् महावीर के आचार-दर्शन का आधार समता है। समियाए धम्मे। समता से भिन्न धर्म नहीं हो सकता । जो समतावान होता है, वह पापकारी प्रवृत्ति नहीं करता है। वास्वत में राग-द्वेष रहित कर्म ही आचार है। जिस किसी व्यक्ति के व्यवहार में राग-द्वेष की जितनी प्रबलता होगी उसका आचार एवं व्यवहार उतना ही अधिक दूषित होगा। इसलिए आचार की उच्चता के लिए समत्व में प्रतिष्ठित होना आवश्यक है। समता दो प्रकार की है-स्वनिश्रित और परनिश्रित । राग और द्वेष के उपशमन के द्वारा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में संतुलित अनुभूति करना-स्वनिश्रित समता है। सब प्राणी सुख के इच्छुक और दु:ख के विरोधी हैं, इसलिए कोई भी वध के योग्य नहीं है, यह आत्मतुला परनिश्रित समता है। स्वनिश्रित समता की सिद्धि के लिए भगवान् ने कषाय के उपशमन का उपदेश दिया पर निश्रित समता की सिद्ध के लिए प्राणातिपात आदि पापों से विरत होने का उपदेश दिया। समता के इन दो रूपों को निश्चय समता एवं व्यवहार समता भी कह सकते हैं। स्वनिश्रित समता नैश्चयिक समता है और परनिश्रित समता व्यावहारिक है। समता के इन दो रूपों सेदो प्रकार के प्रभाव परिलक्षित हो रहे हैं। समता का स्वाश्रित रूप आत्मशुद्धि परक है तथा पराश्रित रूपजीवन शुद्धि पर आधारित है। इन दो रूपों से व्यक्ति एवं समाज दोनों का शुद्धिकरण साथ-साथ चल रहा है जो अत्यंत अपेक्षित है। जैन आचार का यह वैशिष्ट्य है कि वह निश्चय और व्यवहार में संतुलन बनाए हुए हैं। फलस्वरूप आत्माराधना समाज के विकास में सहयोगी बन जाती है। संसारी जीव कर्मों से बंधा हुआ है अत: वह कर्म करता है और उसका फल अनुभव करता है। आत्मा और कर्म का अनादिकालीन योग जन्म-मरण का चक्र है। यह निश्चयनय से अनात्मिक है। आत्मा का स्वभाव नहीं है। जो अनात्मिक होता है, वह अध्यात्म दृष्टि से दु:ख है। दु:ख हेय होता है और सुख उपादेय । आचारांग क्रोध से लेकर दु:ख तक की श्रृंखला को छिन्न करने का आदेश देता है।' दु:ख का मूल कषाय है। कषाय के बीज का उन्मूलन होने से दु:ख स्वयं उन्मूलित हो जाता है। कषाय के कृश होने पर समता प्रादुर्भूत होती है। समता ही आचार का हृदय है। दूसरे सारे आचार के तत्त्व इसी का आश्रय लेकर प्राणवान् बनते हैं। जैन आचार की पूर्व भूमिका ज्ञान है। ज्ञान शून्य आचार को वहां कोई महत्त्व प्राप्त नहीं 1. महाप्रज्ञ, आचार्य, अस्तित्व और अहिंसा, पृ. 6 3 2. आयारो, 5/40 3. वही, 3/28, .......समत्तदंसी ण करेति पावं । 4. आचारांगभाष्यम्, उपोद्घात, पृ. 6 5. आयारो, 3/8 4, से मेहावी अभिनिवट्टेज्जा कोहं च माणं च मायं च लोहं च पेज्जं च दोसंच मोहं च गन्भं च जम्म चमारंच नरगं च तिरियं च दुक्खं च। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार मीमांसा 279 है। अहिंसा की अनुपालना ज्ञानपूर्वक ही सम्भव है। जैनागम इस तथ्य से भलीभांति अवगत थे तथा पुरजोर इस सिद्धांत को उच्चरित भी कर रहे थे-"जो जीव को नहीं जानता, अजीव को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा"। अर्थात् अज्ञानी के लिए संयम का आचरण भी संभव नहीं है। पहले यह ज्ञान कर लेना आवश्यक है कि जीव क्या है ? अजीव क्या है? यह जानने के बाद ही अहिंसा की अनुपालना सरलता एवं सहजतासे हो सकती है। 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' ज्ञान एवं क्रिया का समन्वय ही परम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। मोक्ष की प्राप्ति न केवल ज्ञान से हो सकती है और न ही कोरे आचरण से। दोनों की युति अत्यन्त अपेक्षित है। ज्ञान का फलित अहिंसा वही ज्ञान सम्यक् होता है जिसकी पूर्णताअहिंसा में हो। जिस ज्ञान से हिंसा की उत्प्रेरणा मिलती हो, हिंसा की साधन-सामग्री विकसित होती हो, वह ज्ञान नहीं, ज्ञानाभास है। संसार परिभ्रमण का हेतु है। वास्तविक ज्ञानी तो वही है जो समता एवं अहिंसा की अनुपालना करता है। सूत्रकृतांग में कहा है-"ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है। इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि ज्ञान का सार अहिंसा है। अहिंसा ही परम आचार है। यह समता के आधार पर विकसित होती है। जैसे मुझे दु:ख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को दु:ख अप्रिय है। इस समता का अनुभव जितना विकसित होता है उतनी ही अहिंसा विकसित होती है। सब प्राणियों को आत्मवत् समझना अहिंसा की पराकाष्ठा है। जैन परम्परा में आचारांगको आचार-शास्त्र की दृष्टि से मूर्धन्य स्थान प्राप्त है। आचारांग आत्म-जिज्ञासा से प्रारम्भ होता है और आत्म जिज्ञासा ही आचार शास्त्र का आधारभूत तत्त्व है। भगवान् महावीर ने जिस अहिंसात्मक जीवन शैली का निरूपण किया उसका आधार आत्मा है। जिसका आत्मा में विश्वास है उसका अहिंसा में विश्वास है। आत्माद्वैत की स्वीकृति जैन-दर्शन जीव एवं पुद्गल दोनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है । तथा आत्मा की अनेकता भी उसे मान्य है। अनन्त आत्माओं का पृथक्-पृथक् स्वतंत्र अस्तित्व भी है। वे किसी परम सत्ता का अंश नहीं है। आत्म-नानात्व की स्वीकृति के बावजूद अहिंसा के प्रसंग में आचारांग आत्माद्वैत का प्रतिपादन करता है। हिंस्य एवं हिंसक में एकता का प्रतिपादन कर वह अहिंसा की शाश्वत प्रतिष्ठा करना चाहता है। क्रूरता स्व के प्रति नहीं होती पर के प्रति होती है, जब पर कोई है ही नहीं तब क्रूरता का प्रादुर्भाव भी नहीं हो सकता। जिसको तूं मारना 1. दशवकालिक, 4/12, जो जीवे विन याणाइ, अजीवे विन याणई। जीवाजीवे अयाणतो कहं सोनाहिइ संजमं ।। 2. सूयगडो, 1/1/8 5, एयं खुणाणिणो सारं जंण हिंसइ कंचणं। अहिंसा समयं चेव एयावंतं वियाणिया॥ 3. आयारो, 2/63.सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा। 4. ठाणं, 2/। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 जैन आगम में दर्शन चाहता है, वह तू ही है।' जिसको तू मारना चाहता है, वह तेरे से भिन्न नहीं है। क्या तूं उसकी घात करता हुआ स्वयं की घात नहीं कर रहा है ? जहां द्वैत की या पर की अनुभूति होती है, वहां हनन, पीड़न का प्रसंग आता है, इसलिए आचारांग आत्मा के स्वरूपगत अद्वैत का उपदेश दे रहा है। संग्रहनय की अपेक्षा से अद्वैत भी वास्तविक है। जैन आगमों में आत्म-शुद्धि के साथ ही साथ जीवनशुद्धि पर भी समान बल है। अहिंसा की अनुपालना आत्म-शुद्धि के लिए आवश्यक है वैसे ही समाज के लिए संतुलित संरचना के लिए भी आवश्यक है। जिस समाज में अनावश्यक रूप से एक-दूसरे का उत्पीड़न, ताड़न, परिताप एवं निग्रह होगा उस समाज में आतंक, तनाव, विग्रह की समस्याओं का साम्राज्य होगा। आचारांग इस यथार्थ से अवगत है। वह मनुष्य की पारस्परिक सौहार्दपूर्ण अवस्था को बनाए रखना चाहता है। आचारांग का निम्न वक्तव्य इस तथ्य का साक्षी है। “जिसे तू आज्ञा में रखना चाहता है, वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है वह तू ही है।'' आचारांग तात्कालिक समाज व्यवस्था में फैले दुराचार को समाप्त करना चाहता है। उस समय के समाज में दासप्रथा थी, जिसको आचारांग समीचीन नहीं मानता था। उस पर वह प्रहार कर रहा है। आचारांग का याह वक्तव्य उसकी व्यवहार-शुद्धि की अवधारणा की ओर भी इंगित कर रहा है। आचार से पूर्व विचार/दृष्टि का यथार्थ होना आवश्यक है। विचार यदि सम्यक नहीं है तो सम्यक् आचार की परिकल्पना नहीं की जा सकती। बन्धन-मुक्ति के उपायों के क्रम में आचारशुद्धि से भी प्रथम स्थान विचार शुद्धि को प्राप्त है-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:।' दर्शनविशुद्धि आचारशुद्धि की पूर्व शर्त है। आचार समस्याओं का समाधायक तब ही बन सकता है जब वह विचारशुद्धि की भित्ति पर अवस्थित हो । भगवान् महावीर का आचार आत्म-प्रधानया अध्यात्म-प्रधान था इसलिए वर्तमान यग में भी उसकी प्रासंगिकता बनी हुई है। वर्तमान जीवन की अनेक समस्याओं का समाधान महावीर के आचार दर्शन में खोजा जा सकता है। नि:शस्त्रीकरण, इच्छा परिमाणव्रत, भोगपभोग की सीमा, अहिंसा, अनेकान्त आदि आचार के सूत्रों में युद्ध, हिंसा, आग्रह, आर्थिक विषमता आदि प्रश्नों के उत्तर निहित हैं। __ सत्य त्रैकालिक होता है। उसकी उपयोगिता हर काल और हर समय में बनी रहती है। जैन आगमों में प्रतिपादित आचार शाश्वत का संगायक है अत: उसमें वर्तमान अपेक्षाओं की सम्पूर्ति करने की क्षमता भी है। 000 1. आयारो, 5/101 2. वही 5/101 3. तत्त्वार्थसूत्र 1/1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन जैन आगम साहित्य एवं बौद्ध साहित्य में विभिन्न मतवादों का उल्लेख प्राप्त है।' उपनिषदों में भी यत्र-तत्र विभिन्न मतवादों का उल्लेख है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद आदि की चर्चा है।' मैत्रायणी उपनिषद् में कालवाद की स्पष्ट मान्यता प्रचलित है।' भगवान महावीर के युग में मतवादों की बहुलता थी। दृष्टिवाद नाम के बारहवें अंग में 36 3 दृष्टियों का निरूपण और निग्रह किया जाता है, ऐसा धवला में उल्लेख है एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिषष्ट्युत्तराणं प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते।' दृष्टिवाद के सम्बन्ध में “समवायांग एवं नंदी में इस प्रकार का उल्लेख नहीं है फिर भी दृष्टिवाद नाम से ही प्रमाणित होता है कि उसमें समस्त दृष्टियों-दर्शनों का निरूपण है। दृष्टिवादद्रव्यानुयोग है।तत्त्वमीमांसा उसका मुख्य विषय है। इसलिए उसमें दृष्टियों का निरूपण होना स्वाभाविक है।'' भगवान महावीर के युग में 3 6 3 मतवादथे-यह समवायगत सूत्रकृतांग के विवरण" तथा सूत्रकृतांगनियुक्ति' से ज्ञात होता है किन्तु उन मतवादों तथा उनके आचार्यों के नाम वहां उल्लिखित नहीं है। जैन परम्परा के आदि साहित्य में ये भेद तत्कालीन मतवादों के रूप में संकलित कर दिए गए थे किंतु उत्तरवर्ती साहित्य में उनकी परम्परागत संख्या प्राप्त रही, उनका प्रत्यक्ष परिचय नहीं रहा। उत्तरवर्ती व्याख्याकारों ने इन मतवादों को गणित की प्रक्रिया 1. (क) सूयगडो, 1/1 अध्ययन, 12वां, सूयगडो 2/1 (ख) सामनफलसुत्त (दीघनिकाय) 2. श्वेताश्वतर उपनिषत्, 1/2, 6/। 3. मैत्रायणी उपनिषत्, 6/14,15 4. षट्खंडागम, प्रथम खंड, धवला पृ. 108 5. सूयगडो 1, भूमिका पृ. 22 6. समवाओ, पड़ण्णगसमवाओ, सूत्र 90 सूत्रकृतांग नियुक्ति,गा. 1190,असितिसय किरियाणं अक्किरियाणच होति चुलसीति अण्णाणिय सतट्ठीवेणइयाणं च बत्तीसा॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 जैन आगम में दर्शन से समझाया है। किंतु वह प्रक्रिया मूलस्पर्शी नहीं लगती। ऐसा प्रतीत होता है कि 36 3 मतों की मौलिक अर्थ-परम्परा विच्छिन्न होने के पश्चात् उन्हें गणित की प्रक्रिया के आधार पर समझाने का प्रयत्न किया गया है। उस वर्गीकरण से दार्शनिक अवधारणा का सम्यक् बोध नहीं हो पाता है। दार्शनिक विचारधारा के संदर्भ में समवसरण की अवधारणा जैन आगम साहित्य में चार समवसरणों का उल्लेख है। उनमें इन 3 6 3 मतवादों का समाहार हो जाता है। सूत्रकृतांग प्रथम श्रुतस्कन्ध के बारहवें अध्ययन का नाम ही समवसरण है तथा उसका प्रारम्भ इन चार समवसरणों के उल्लेख से ही होता है चत्तारि समोसरणाणिमाणि पावादुया जाइं पुढो वयंति। किरियं अकिरियं विणयं ति तइयं अण्णामाहंसु चउत्थमेव ॥' जहां अनेक दर्शनों या दृष्टियों का समवतार होता है, उसे समवसरण कहते हैंसमवसरंति जेसु दरिसणाणि दिट्ठीओ वा ताणि समोसरणाणि ।' क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद एवं विनयवाद ये चार समवसरण हैं। नियुक्ति में अस्ति के आधार पर क्रियावाद, नास्ति के आधार पर अक्रियावाद, अज्ञान के आधार पर अज्ञानवाद और विनय के आधार पर विनयवाद का प्रतिपादन किया है।' क्रियावाद __चार समवसरणों में एक है-क्रियावाद । क्रियावाद और अक्रियावाद का चिंतन आत्मा को केन्द्र में रखकर किया गया है। क्रियावादी आत्मा का अस्तित्व मानते हैं। आत्मा है, वह पुनर्भवगामी है। वह कर्म का कर्ता है, कर्म-फल का भोक्ता है और उसका निर्वाण होता हैयह क्रियावाद का पूर्ण लक्षण है। क्रियावाद की विस्तृत व्याख्या दशाश्रुतस्कन्ध में मिलती है। उसके अनुसार जो आस्तिक होता है, सम्यग्वादी होता है, इहलोक-परलोक में विश्वास करता है, कर्म एवं कर्मफल में विश्वास करता है। वह क्रियावादी है। दशाश्रुतस्कन्ध के विवेचन से क्रियावाद के चार अर्थ फलित होते हैं-आस्तिकवाद, सम्यग्वाद, पुनर्जन्म और कर्मवाद। सूत्रकृतांग में क्रियावाद के आधारभूत सिद्धान्तों का उल्लेख प्राप्त होता है। वे सिद्धान्त निम्नलिखित हैं1. गोम्मटसार 2, (कर्मकाण्ड) गा. 877-8 88, पृ. 1 2 3 8 - 1 2 4 3 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 30/1 3. सूयगडो, 1/12/1 4. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 256 5. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गा. 118, अत्थि त्ति किरियवादी वदंति, नत्थि त्ति अकिरियवादी य। अण्णाणी अण्णाणं, विणइत्ता वेणइयवादी॥ 6. दशाश्रुतस्कन्ध, 6/7 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 283 (1) आत्मा है (2) लोक है (3) आगति और अनागति है (4) शाश्वत और अशाश्वत है (5) जन्म और मरण है (6) उपपात और च्यवन है (7) अधोगमन है (8) आश्रव और संवर है (9) दु:ख और निर्जरा है।' क्रियावाद में उन सभी धर्म-वादों को सम्मिलित किया गया है जो आत्मा आदि पदार्थों के अस्तित्व में विश्वास करते थे और जो आत्म-कर्तृत्व के सिद्धान्त को स्वीकार करते थे। आचारांग में आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद का उल्लेख है। आचारांग में आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद का पृथक्-पृथक् निरूपण है। यहां क्रियावाद का अर्थ केवल आत्म-कर्तृत्ववाद ही होगा किंतु समवसरण के प्रसंग में आगत क्रियावाद का तात्पर्य आत्मवाद, कर्मवाद आदि सभी सिद्धान्तों की समन्विति से है। क्रियावादीजीवका अस्तित्वमानते हैं। उसका अस्तित्वमानने पर भी वेजीवके स्वरूप के विषय में एकमत नहीं हैं। कुछ जीव को सर्वव्यापी मानते हैं, कुछ उसे अ-सर्वव्यापी मानते हैं। कुछ मूर्त मानते हैं, कुछ अमूर्त मानते हैं, कुछ अंगुष्ठ जितना मानते हैं और कुछ श्यामाक तंदुलजितना | कुछ उसे हृदय में अधिष्ठित प्रदीपकी शिखाजैसामानते हैं। क्रियावादी कर्मफल को मानते हैं।' क्रियावादी को आस्तिक भी कहा जा सकता है। क्योंकि ये अस्ति के आधार पर तत्त्वों का निरूपण करते हैं।' तत्त्वार्थवार्तिक, षड्दर्शन समुच्चय आदि ग्रन्थों में क्रियावादी, अक्रियावादी आदि के कुछ आचार्यों का नामोल्लेख हुआ है।' जो क्रिया को प्रधान मानते हैं। ज्ञान के महत्त्व को अस्वीकार करते हैं। उनको भी कुछ विचारक क्रियावादी कहते हैं।' श्री हर्मन जेकोबी ने वैशेषिकों को क्रियावादी कहा है।' यद्यपि उन्होंने इस स्वीकृति का कोई हेतु नहीं दिया है तथा श्रीमान् जे. सी. सिकदर ने श्रमण निर्ग्रन्थों एवं न्याय-वैशेषिकों को क्रियावाद के अन्तर्गत सम्मिलित किया है। इस समाहार का हेतु उन्होंने आत्म-अस्तित्व 1. सूयगडो, 1/12/20,21 आयारो, 1/5,से आयावाई लोगावाई,कम्मावाई, किरियावाई। सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 256, किरियावादीणं अत्थि जीवो, अत्थित्ते सति केसिंचि श्यामाकतन्दुलमात्र: केसिंचि असव्वगतो हिययाधिट्ठाणो....। 4. स्थानांगवृत्ति, पृ. 179, क्रियां जीवाजीवादिरर्थोऽस्तीत्येवं रूपांवदन्तीति क्रियावादिन: आस्तिका इत्यर्थः । 5. (क) तत्त्वार्थवार्तिक, 8/1 (ख) षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. 13 6. भगवतीवृत्ति, पत्र 944, अन्ये त्वाहु-क्रियावादिनो ये ब्रुवते क्रियाप्रधानं किं ज्ञानेन। 7. Jacobi, Herman, Jaina Sutras, Part II, 1980 Introduction P. XXV........vaiseshika, proper, which is a Kriyavada system. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 एवं आत्म-कर्तृत्व की स्वीकृति को माना है। किंतु ये दोनों मत विमर्शनीय हैं क्योंकि श्रमण निर्ग्रन्थों का प्रस्तुत क्रियावाद में समाहार नहीं हो सकता तथा वैशेषिक की अवधारणा भी सर्वथा क्रियावाद के अनुकूल नहीं है । सूत्रकृतांग चूर्णि में तो उसे स्पष्ट रूप से अक्रियावादी कहा है ' तथा स्थानांग में अक्रियावाद के आठ प्रकार में एक अनेकवादी है। उसके उदाहरण के रूप में आचार्य महाप्रज्ञजी ने वैशेषिक दर्शन का उल्लेख किया है ।" अक्रियावाद जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते उसे अक्रियावादी कहा जाता है । केवल चित्त शुद्धि को आवश्यक एवं क्रिया को अनावश्यक मानने वाले अक्रियावादी कहलाते हैं । वे बौद्ध दार्शनिक हैं । ' सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन में बौद्धों को क्रियावादी कहा गया है ' तथा समवसरण अध्ययन की चूर्णि में बौद्धों को अक्रियावादी कहा गया है।' मुनि जम्बूविजयजी ने अपेक्षाभेद के आधार पर समन्वय करने का संकेत किया है तथा अंगुत्तर निकाय में बुद्ध को अक्रियावादी कहा है, ऐसा भी उन्होंने उल्लेख किया है ।' अक्रियावादी क्रिया अर्थात् अस्तित्व का सर्वथा उच्छेद मानते हैं । उनका अभिमत है कि सभी पदार्थ क्षणिक हैं। किसी भी क्षणिक पदार्थ की दूसरे क्षण तक सत्ता नहीं रहती अत: उसमें क्रिया की सम्भावना ही नहीं है। इसीलिए आत्मा आदि नित्य पदार्थों का अस्तित्व नहीं है। कोकुल, द्विरोमक, काण्ठेवि. प्रमुख अक्रियावादी हैं । " सुगत आदि नियुक्तिकार ने 'नास्ति' के आधार पर अक्रियावाद की व्याख्या की है ।" नास्ति के चार फलित होते हैं 1. आत्मा का अस्वीकार 2. आत्मा के कर्तृत्व का अस्वीकार 3. कर्म का अस्वीकार और 4. पुनर्जन्म का अस्वीकार । 10 Sikdar, J. C., Studies in Bhagawati sutra (मुज्जफरपुर, 1964 ) P. P. 449-450 The Kriyavadins may be identified with the followers of the Nyaya and vaisesika systems along with the Sramana Nirgrantha. 2. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 254, सांख्यवैशेषिका ईश्वरकारणादि अकिरियवादी । 3. ठाणं, 8 / 22 का टिप्पण 1. जैन आगम में दर्शन 4. भगवती वृत्ति पत्र 944, अन्ये त्वाहुः - अक्रियावादिनो ये ब्रुवते किं क्रियया चित्तशुद्धिरेव कार्या, ते च बौद्धा इति । 5. सूयगडो, 1 / 1 /51 6. 7. 8. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 256, ...... .सुण्णवादिणो.. .अकिरियावादिणो । सूयगडंगसुत्तं, (मुनि जम्बूविजय, बम्बई 1978) प्रस्तावना, पृ. 10 ( टिप्पण संख्या 3 ) नत्थि त्ति अकिरियवादी य । षड्दर्शन समुच्चय, पृ. 21 9. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गा. 118, 10. दशाश्रुतस्कन्ध, 6 / 3 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 285 अक्रियावादी को नास्तिकवादी, नास्तिकप्रज्ञ एवं नास्तिकदृष्टि कहा गया है।' स्थानांगवृत्ति में अक्रियावादी को नास्तिक भी कहा गया है। स्थानांग सूत्र में अक्रियावादी के आठ प्रकार बतलाए गए हैं - 1. एकवादी-एक ही तत्त्व को स्वीकार करने वाले। 2. अनेकवादी-धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मानने वाले अथवा सकल पदार्थों को विलक्षण मानने वाले, एकत्व को सर्वथा अस्वीकार करने वाले। 3. मितवादी-जीवों को परिमित मानने वाले। 4. निर्मितवादी-ईश्वरकर्तृत्ववादी। 5. सातवादी-सुख से ही सुख की प्राप्ति मानने वाले, सुखवादी। 6. समुच्छेदवादी-क्षणिकवादी। 7. नित्यवादी-लोक को एकान्त मानने वाले। 8. असत् परलोकवादी-परलोक में विश्वास न करने वाले। स्थानांग में अक्रियावाद का प्रयोग अनात्मवाद एवं एकान्तवाद दोनों अर्थों में हुआ है। इन आठ वादों में छह वाद एकान्तदृष्टि वाले हैं। समुच्छेदवाद तथा असत्परलोकवाद-ये दो अनात्मवाद हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने धन॑श की दृष्टि से जैसे चार्वाक को नास्तिक कहा है, वैसे ही धर्मांश की दृष्टि से सभी एकान्तवादियों को नास्तिक कहा है धयंशे नास्तिको होको, बार्हस्पत्य: प्रकीर्तितः। धर्माशे नास्तिका ज्ञेया: सर्वेऽपि परतीर्थिकाः॥ स्थानांग में प्रस्तुत वादों का संकलन करते समय कौन-सी दार्शनिक धाराएं सामने रही होगी, कहना कठिन है किंतु वर्तमान में उन धाराओं के संवाहक दार्शनिक निम्न है1. एकवादी (1) ब्रह्माद्वैतवादी-वेदान्त। (2) विज्ञानाद्वैतवादी-बौद्ध । (3) शब्दाद्वैतवादी–वैयाकरण । ब्रह्माद्वैतवादी के अनुसार ब्रह्म, विज्ञानाद्वैतवादी के अनुसार विज्ञान और शब्दाद्वैतवादी के अनुसार शब्द पारमार्थिक तत्त्व है, शेष तत्त्व अपारमार्थिक हैं, इसीलिए ये सारे एकवादी हैं। 1. दशाश्रुतस्कन्ध, 6/3 नाहियवादी, नाहियपण्णे. नाहियदिट्टी 2. स्थानांगवृत्ति, पृ. 179, अक्रियावादिनो नास्तिका इत्यर्थः । 3. ठाणं, 8/22 4. नयोपदेश, श्लोक 126 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 जैन आगम में दर्शन 3. 2. अनेकवादी-वैशेषिक अनेकवादी दर्शन है। उसके अनुसार धर्म-धर्मी, अवयव अवयवी भिन्न-भिन्न है।' मितवादी(1) जीवों की परिमित संख्या मानने वाले। इसका विमर्श स्याद्वादमंजरी में किया गया है। (2) आत्मा को अंगुष्ठपर्व जितना अथवा श्यामाक तंदुल जितना मानने वाले। यह औपनिषदिक अभिमत है। (3) लोक को केवल सात द्वीप-समुद्र का मानने वाले। यह पौराणिक अभिमत है। 4. निर्मितवादी-नैयायिक, वैशेषिक आदि लोक को ईश्वरकृत मानते हैं। 5. सातवादी बौद्ध 6. समुच्छेदवादी-प्रत्येक पदार्थ क्षणिक होता है। दूसरे क्षण में उसका उच्छेद हो जाता है। नित्यवादी-सांख्याभिमत सत्कार्यवाद के अनुसार पदार्थ कूटस्थ नित्य है। कारणरूप में प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व विद्यमान है। कोई भी नया पदार्थ उत्पन्न नहीं होता और कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं होता। केवल उनका आविर्भाव तिरोभाव होता है।' 8. असत् परलोकवादी-चार्वाक दर्शन मोक्ष या परलोक को स्वीकार नहीं करता। चूर्णिकार ने सांख्य दर्शन और ईश्वर को जगत्कर्ता मानने वाले वैशेषिक दर्शन को अक्रियावादी दर्शन माना है तथा पंचभूतवादी, चतुर्भूतवादी, स्कन्धमात्रिक, शून्यवादी और लोकायतिक-इन दर्शनों को भी अक्रियावाद के अन्तर्गत परिगणित किया है। वैशेषिक एवं सांख्य दर्शन आत्मवादी है फिर उन्हें अक्रियावादी क्यों कहा गया है ? चूर्णि में इसका समाधान नहीं है। सांख्य दर्शन में आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है और वैशेषिक दर्शन में आत्मा कर्मफल भोगने में स्वतंत्र नहीं है। इसी अपेक्षा से चूर्णिकार ने दोनों दर्शनों को अक्रियावाद की कोटि में परिगणित किया है, ऐसी सम्भावना की जा सकती है। यह आचार्यश्री महाप्रज्ञजी का अभिमत है। अक्रियावादी के 84 भेद माने गए हैं। क्रियावाद की तरह ही इसके भेद भी गणितीय पद्धति के आधार पर ही किए गए हैं। 1. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, श्लोक 4 2. वही, शलोक 29 3. सांख्यकारिका 9 4. सूयगडो (प्रथम) टिप्पण, पृ. 831-33 5. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 254, सांख्या वैशेषिका ईश्वरकारणादि अकिरियावादी। 6. वही, पृ. 256, पंच महाभूतिया चतुब्भूतिया खंधमेत्तिया सुण्णवादिणो लोगाइतिगा य वादि अकिरियावादिणो। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 287 अज्ञानवाद अज्ञानवाद का आधार अज्ञान है। अज्ञानवाद में दो प्रकार की विचारधाराएं संकलित हैं। कुछ अज्ञानवादी आत्मा के होने में संदेह करते हैं और उनका मत है कि आत्मा है तो भी उसे जानने से क्या लाभ ? दूसरी विचारधारा के अनुसार ज्ञान सब समस्याओं का मूल है, इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। अज्ञानवादी कहते हैं-अनेक दर्शन हैं और अनेक दार्शनिक हैं। वे सब सत्य को जानने का दावा करते हैं, किंतु उन सबका जानना परस्पर विरोधी है। सत्य परस्पर विरोधी नहीं होता । यदि उन दार्शनिकों का ज्ञान सत्य का ज्ञान होता तो वह परस्पर विरोधी नहीं होता। वह परस्पर विरोधी है, इसलिए सत्य नहीं है। इसलिए अज्ञान ही श्रेय है।' ज्ञान से लाभ ही क्या है? शील में उद्यम करना चाहिए। ज्ञान का सार है-शील, संवर। शील और तप से स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है। इसलिए अज्ञान ही श्रेयस्कर है। प्राचीनकाल में अज्ञानवाद की विभिन्न शाखाएंथीं। उनमें संजयवेलट्ठिपुत्त के अज्ञानवाद या संशयवाद का भी समावेश होता है। सूत्रकृतांग के चूर्णिकार ने अज्ञानवाद की प्रतिपादन पद्धति के सात और प्रकारान्तर से चार विकल्पों का उल्लेख किया है।' सूत्रकृतांग चूर्णिकार ने मृगचारिका की चर्या करने वाली, अटवी में रहकर पुष्प और फल खाने वाले त्यागशून्य संन्यासियों को अज्ञानवादी कहा है। साकल्य, वाष्कल, कुथुमि, सात्यमुनि, नारायण आदि अज्ञानवाद के आचार्य थे। विनयवाद विनयवाद का मूल आधार विनय है। इनका अभिमत है कि विनय से ही सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। सूत्रकृतांग चूर्णि के अनुसार विनयवादियों का अभिमत है कि किसी भी सम्प्रदाय या गृहस्थ की निंदा नहीं करनी चाहिए। सबके प्रति विनम्र होना चाहिए।' विनयवादियों के बत्तीस प्रकार निर्दिष्ट हैं। देवता, राजा, यति, याति, स्थविर, कृपण; माता एवं पिता-इन आठों का मन, वचन, काय एवं दान से विनय करना चाहिए। इन आठों को चार से गुणा करने पर इनके बत्तीस भेद हो जाते हैं। सूत्रकृतांग चूर्णिकार ने 'दानामा' 'प्राणामा' आदि प्रव्रज्याओं को विनयवादी की बतलाया है।' 1. सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र 35 2. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 255-256 3. वही, पृ.:56,तेसु मिगचारियादयो अडवीए पुप्फ-फलभक्खिणो इच्चादि अण्णाणिया। 4. तत्त्वार्थवार्तिक,8/1 5. सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 206, वेणइयवादिणो भणंति-ण कस्स वि पासंडिणोऽस्स गिहत्थस्स वा जिंदा कायव्वा सव्वस्सेव विणीयविणयेण होयव्वं। 6. वही, पृ. 255, वैनयिकमतं-विनयश्चेतो-वाक्-काय-दानत: कार्य:। सुर-नृपति-यति-ज्ञाति-नृ स्थविरा ध-मातृ-पितृषु सदा ।। 7. वही,.254,वेणइयवादीण छत्तीसा दाणामपाणामादिप्रव्रज्या। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288 जैन आगम में दर्शन दानामा और प्राणामा प्रव्रज्या भगवती सूत्र में दानामा और प्राणामा प्रव्रज्या का स्वरूप निर्दिष्ट है । तामलिप्ति नगरी में तामली गाथापति रहता था। उसने 'प्राणामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। प्राणामा का स्वरूप वहां वर्णित है। 'प्राणामा' प्रव्रज्या ग्रहण करने के पश्चात् वह तामली जहां कहीं इन्द्र-स्कन्ध, रुद्र, शिव, वैश्रमण, दुर्गा, चामुण्डा आदि देवियों तथा राजा, ईश्वर, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, ईभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति, सार्थवाह, कौआ, कुत्ता या चाण्डाल को देखता तो उन्हें प्रणाम करता। उन्हें ऊंचा देखता तो ऊंचे प्रणाम करता और नीचे देखता तो नीचे प्रणाम करता।' पूरण गाथापति ने 'दानामा' प्रव्रज्या स्वीकार की। उसका स्वरूप इस प्रकार हैप्रव्रज्या के पश्चात् वह चार पुट वाला लकड़ी का पात्र लेकर 'बेभेल' सन्निवेश में भिक्षा के लिए गया। जो भोजन पात्र के पहले पुट में गिरता उसे पथिकों को दे देता । जो भोजन दूसरे पुट में गिरता उसे कौए, कुत्तों को दे देता। जो भोजन तीसरे पुट में गिरता उसे मच्छ-कच्छों को दे देता। जो चौथे पुट में गिरता वह स्वयं खा लेता। यह 'दानामा' प्रव्रज्या स्वीकार करने वालों का आचार है। विनय का अर्थ वृत्तिकार शीलांकाचार्य ने भी विनय का अर्थ विनम्रताही किया है। किंतु आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार प्रस्तुत प्रसंग में विनय का अर्थ आचार होना चाहिए। उन्होंने अपने अभिमत की पुष्टि में जैन आगमों के संदर्भ उद्धृत किए हैं। ज्ञाताधर्मकथा में जैन धर्म को विनयमूलक धर्म बतलाया गया है। थावच्चापुत्र ने शुकदेव से कहा-मेरे धर्म का मूल विनय है। यहां विनय शब्द महाव्रत और अणुव्रत अर्थ में व्यवहृत है। बौद्धों के विनयपिटक ग्रन्थ में आचार की व्यवस्था है। विनय शब्द आचार अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है। विनय शब्द के आधार पर विनम्रता और आचार-ये दोनों अर्थ अभिप्रेत हैं। आचार पर अधिक बल देने वाली दृष्टि का प्रतिपादन बौद्ध साहित्य में भी मिलता है। जो लोग आचार के नियमों का पालन करने मात्र से शीलशुद्धि होती है-ऐसा मानते थे, उन्हें 'शीलब्बतपरामास' कहा गया है। केवल ज्ञानवादी और केवल आचारवादी-ये दोनों धाराएं उस समय प्रचलित थीं। ज्ञानवादी जैसे ज्ञान के द्वारा ही 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 3/34 2. वही, 3/102, तएणं तस्स पूरणस्स गाहावइस्स अण्णया कयाइ......सयमेव चउप्पुडयं दारूमयं पडिग्गहगं गहाय मुंडे भवित्ता दाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए। सूत्रकृतांगवृत्ति, प. 213, इदानीं विनयो विधेयः। 4. ज्ञाताधर्मकथा, 1/5/59, तएणंथावच्चापुत्ते.......सुदंसणं एवं वयासी-सुदंसणा। विणयमूलए धम्मे पण्णत्ते। अभिधम्मपिटके धम्मसंगणि (संपा. भिक्षु जगदीश काश्यप, नालन्दा, 1960) पृ. 277, तत्थ कतमो सीलब्बतपरामासो? Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 289 सिद्धि मानते थे, वैसे ही आचारवादी केवल आचार पर ही बल देतेथे। ज्ञानवाद और आचारवाद दोनों एकांगी होने के कारण मिथ्यादृष्टि की कोटि में आते हैं। विनयवाद के द्वारा ऐकान्तिक आचारवाद की दृष्टि का निरूपण किया गया है। विनम्रतावाद आचारवाद का ही एक अंग है, इसलिए उसका भी इसमें समावेश हो जाता है किंतु विनय का केवल विनम्रता अर्थ करने से आचारवाद का उसमें समावेश नहीं हो सकता।' वसिष्ठ पराशर आदि इस दर्शन के विशिष्ट आचार्य थे।' जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया था कि चार वादों के 3 6 3 भेद मात्र गणितीय पद्धति के आधार पर किए हैं। जिसका विस्तार से उल्लेख गोम्मटसार में भी हुआ है। क्रियावादी वस्तु को 'अस्ति' रूप ही मानते हैं। वे वस्तु को स्वरूप एवं पररूप दोनों ही प्रकार से अस्ति रूप मानते हैं। नित्य-अनित्य के विकल्प से भी वस्तु को नित्य मानते हैं। काल, ईश्वर, आत्मा, नियति एवं स्वभाव से जीव, अजीव आदि नौ पदार्थों को स्वत:, परत:, नित्य एवं अनित्य के विकल्पसे 'अस्ति' रूपमानते हैं। इनको परस्पर गुणित करनेसे क्रियावादी के 180 भेद हो जाते हैं।' अक्रियावादी वस्तु को स्वरूप एवं पररूप दोनों ही अपेक्षा से 'नास्ति' कहते हैं। अक्रियावाद में पुण्य, पाप एवं नित्य-अनित्य के विकल्प की योजना नहीं है। जीव आदि सात पदार्थों की काल, ईश्वर आदि के स्वत: परत: से गुणित करने पर उनके सत्तर भेद होते हैं तथा नियति एवं काल की अपेक्षा जीव आदि सात पदार्थ नहीं है, इस गुणन से उनके 14 भेद हो जाते हैं। 70 एवं 14 मिलकर 84 हो जाते हैं। गोम्मटसार के उल्लेख से ज्ञात होता है कि अक्रियावादियों में भी दो प्रकार की अवधारणा थीं एक तो काल आदि पांचों से ही जीव आदि का निषेध करते हैं तथा दूसरे मात्र नियति एवं काल की अपेक्षा से जीव आदि पदार्थों का निषेध करते हैं दोनों का एकत्र समाहार कर लेने से अक्रियावादी के 84 भेद हो जाते हैं।' प्रस्तुत विमर्श से यह भी परिलक्षित हो रहा है कि कालवादी आदि दार्शनिक क्रियावादी एवं अक्रियावादी दोनों ही प्रकार के थे। जो काल आदि के आधार पर जीव आदि पदार्थों का अस्तित्व सिद्ध करते थे वे क्रियावादी हो गए जो इनका इन्हीं हेतुओं से नास्तित्व सिद्ध करते थे वे अक्रियावादी हो गए। अक्रियावादियों ने पुण्य, पाप, नित्यता-अनित्यता आदि विकल्पों को क्यों नहीं स्वीकार किया. यह अन्वेषणीय है। 1. सूयगडो, 1/12 के टिप्पण, पृ. 499 2. षड्दर्शनसमुच्चय, पृ. 29, वसिष्ठपाराशरवाल्मीकिव्यासेलापुत्रसत्यदत्तप्रभृतयः । 3. गोम्मटसार, (कर्मकाण्ड) गाथा 877 से 888 4. वही, गाथा 877, अत्थि सदो परदो विय णिच्चाणिच्चत्तणेणय णवत्था। कालीसरप्पणियदिसहावेहि य तेहि भंगा ह॥ 5. वही, गाथा 878 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 जैन आगम में दर्शन नव तत्त्व का आधार क्रियावादी, अक्रियावादी के भेद नवतत्त्व को आधार बनाकर किए गए हैं। नव तत्त्वों के संदर्भ में इस प्रकार का मात्र वैचारिक प्रस्थान ही रहा होगा, हो सकता है श्रमण निर्ग्रन्थों में इस प्रकार का पारस्परिक विचार होता रहा हो उसका ही उल्लेख इन मतवादों में हो गया हो। इनके वास्तविक प्रस्थानों का अस्तित्व हो, ऐसा संभव नहीं लगता। जीव आदि नव पदार्थों को अस्ति, नास्ति सात भंगों से साथ गुणित करने पर उनके तिरेसठ भेद हो जाते हैं। जीव है, ऐसा कौन जानता, जीव नहीं है ऐसा कौन जानता है, इस प्रकार सभी भंगों के साथ संयोजना की जाती है।' देव, राजा, ज्ञानी, यति, वृद्ध, बालक, माता-पिता का मन, वचन, काया एवं दानसम्मान से विनय करना चाहिए। आठ को चार गुणित करने पर बत्तीस भेद हो जाते हैं।' सूत्रकृतांग सूत्र में क्रियावाद आदि चार वादों का उल्लेख है। ‘महावीरत्थुई' अध्ययन में इन वादों के उल्लेख के साथ यह सूचना दी गई कि महावीर ने इन वादों के पक्ष का निर्णय किया तथा सारे वादों को जानकर वे यावज्जीवन संयम में उपस्थित रहे।' प्रस्तुत वक्तव्य से यह ज्ञात नहीं होता कि महावीर का स्वयं का पक्ष कौन-सा है किंतु सूत्रकृतांग के बारहवें अध्ययन में चार समवसरण का उल्लेख करने के पश्चात् क्रमश: वे अज्ञानवाद, विनयवाद एवं अक्रियावाद की अवधारणा को निराकृत करते हैं तथा अन्त में क्रियावाद की अवधारणा का औचित्य प्रतिपादित करते हैं। इससे ज्ञात होता है कि महावीर क्रियावाद की अवधारणा के पक्षधर हैं। आवश्यक सूत्र में साधक कहता है-मैं अक्रिया का छोड़ता हूं तथा क्रिया को स्वीकार करता हूं।' इससे अभिव्यंजित होता है कि जैनधर्म क्रियावादी है। किंतु क्रिया का यदि केवल आचार अर्थ ही किया जाए तो इसमें पूर्ण जैन दृष्टि समाहित नहीं होती क्योंकि जैनधर्म में ज्ञान और आचार को समान महत्त्व दिया गया है कदाचित् ज्ञानको आचार से अधिक महत्त्व ही दिया गया है। दशवैकालिक का 'पढमं नाणं तओ दया' का वक्तव्य इस तथ्य का साक्षी है। आगम उत्तरवर्ती जैनाचार्यों ने भी ज्ञान एवं चारित्र दोनों को ही मोक्षमार्ग के घटक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है।' 1. गोम्मटसार 2, गाथा 876 2. वही, गाथा 888 3. सूयगडो, 1/6/27 4. सूयगडो, 1/12/1-22 श्रमण प्रतिक्रमण, पृ. 32, अकिरियं परियाणामि किरियं उवसंपज्जामि । 6. दसवेआलियं, 4/10 7. तत्त्वार्थसूत्र, 1/1, "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 291 भगवती में वर्णित समवसरण भगवती सूत्र के तीसवें शतक का नाम ही समवसरण है। वहां पर भी क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी एवं विनयवादी के भेद से चार प्रकार के समवसरणों का उल्लेख है।' वहां पर क्रियावादी आदि प्रत्येक को समवसरण कहा है। भगवती वृत्ति में समवसरण को परिभाषित करते हुए कहा गया-नाना परिणाम वाले जीव कथंचित् समानता के कारण जिन मतों में समाविष्ट हो जाते हैं वे समवसरण कहलाते हैं अथवा परस्पर भिन्न क्रियावाद आदि मतों में थोड़ी समानता के कारण कहीं पर कुछ वादियों का समावेश हो जाता है वे समवसरण हैं। भगवती के प्रसंग में एक बात ध्यातव्य है कि अन्यत्र प्राय: सभी जैन शास्त्रों में इन चारों को मिथ्यादृष्टि कहा किंतु भगवती के प्रस्तुत प्रसंग में क्रियावादियों को सम्यग्दृष्टि माना गया है। भगवती सूत्र में कहा गया अलेश्यी अर्थात् अयोगी केवली क्रियावादी ही होते हैं। जो क्रियावादी होते हैं वे भवसिद्धिक ही होते हैं, अक्रियावादी, अज्ञानवादी एवं विनयवादी भवसिद्धिक एवं अंभवसिद्धिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं। सम्यमिथ्यादृष्टि जीव क्रियावादी एवं अक्रियावादी दोनों ही नहीं होते अपितु अज्ञानवादी अथवा विनयवादी होते हैं। भगवती के उपर्युक्त वचन से यह फलित होता है कि जैन क्रियावादी है। सम्यकदृष्टि एवं क्रियावाद सूत्रकृतांग में भी क्रियावाद के प्रतिपादक की अर्हता में उसके ज्ञानपक्ष को ही महत्त्व दिया है।' ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आगम युग में सम्पूर्ण विचारधाराओं को चार भागों में स्थूल रूप से विभक्त कर दिया और जैन दर्शन का भी समावेश उन्हीं में (क्रियावाद) कर दिया यद्यपि यह सत्य है कि सारे क्रियावादियों की अवधारणा पूर्ण रूप से एक जैसी नहीं थी किंतु कुछ अवधारणाएं उनकी परस्पर समान थी जैसा कि दशाश्रुतस्कन्ध के उल्लेख से स्पष्ट है। उन्हीं कुछ समान अवधारणाओं के आधार पर वे एक कोटि में परिगणित होने लगे। जैसे वैदिक और श्रमण दो परम्पराएं हैं। जैन, बौद्ध श्रमण परम्परा के अंग हैं किंतु इसका यह तात्पर्य नहीं कि श्रमण परम्परा के होने के कारण उनकी सारी अवधारणाएं एक जैसी हो, हां, इतना तो स्पष्ट है कि उनमें कुछ अवधारणाएं समान हैं जिससे वे वैदिक धारा से पृथक् होकर श्रमण 1. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 30/1 2. भगवती वृत्ति, प. 944, समवसरन्ति नानापरिणामा जीवा: कथंचितुल्यतया येषु मतेषु तानिसमवसरणानि। समवस्तयो वाऽन्योन्यभिन्नेषु क्रियावादादि मतेष कथं चित्तुल्यत्वेन क्वचिद् केषांचित् वादिनामवतारा: समवसरणानि। वही, 941, एते च सर्वेऽप्यन्यत्र यद्यपि मिथ्यादृष्टयोऽभिहितास्तथाऽपीहाद्या: सम्यग्दृष्टयो ग्राह्या, सम्यगस्तित्ववादिनामेव तेषां समाश्रयणात् । अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 30/4 5. वही, 30/30 6. वही, 30/6 1. सूयगडो, 1/12/20-22 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 जैन आगम में दर्शन परम्परा में समाहित होते हैं ठीक इसी प्रकार क्रियावाद के संदर्भ में समझना चाहिए। सारे क्रियावादी जैन नहीं हैं यह स्पष्ट है अत: सारे क्रियावादी सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो सकते किंतु जो सम्यग्दृष्टि है वह क्रियावादी है इस व्याप्ति को स्वीकार करने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती। नियुक्ति में कहा भी है -- 'सम्मदिट्ठी किरियावादी।' अर्थात् जो सम्यक्दृष्टि हैं वे क्रियावादी हैं किंतुइस वक्तव्य कोउलटकर नहीं कहा जा सकता कि सारे क्रियावादी सम्यक्दृष्टि होते हैं। चूर्णिकार ने यह भी कहा है कि निर्ग्रन्थों को छोड़कर 3 6 3 में अवशिष्ट सारे मिथ्यादृष्टि हैं। इससे स्पष्ट है कि चूर्णिकाल तक निर्ग्रन्थ धर्म प्रस्तुत क्रियावाद का ही भेद रहा है। आगम उत्तरकालीन साहित्य में इन सारे ही वादों को मिथ्यादृष्टि समझा जाने लगा जैसा कि भगवतीवृत्ति से स्पष्ट है।' यद्यपि टीकाकार भी यह मानने को तो विवश हैं ही कि भगवती में आगत क्रियावाद में सम्यग्दृष्टि का भी ग्रहण है। दार्शनिक परम्परा के ग्रन्थों में तो इनका विवेचन एकान्तवाद के रूप में किया गया है। गोम्मटसार ने इन 3 6 3 मतों को स्वच्छंद दृष्टि वालों के द्वारा परिकल्पित माना है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि उत्तरवर्ती दार्शनिक जैन दर्शन का समाहार प्रस्तुत क्रियावाद में करने के पक्ष में नहीं है। महावीर युग के विभिन्न मतवाद सूत्रकृतांग सूत्र में स्वसमय और परसमय की सूचना है। समवाय और नंदी में इस आशय की स्पष्ट सूचना है-'सूयगडे णं ससमया सूइज्जति, परसमया सूइज्जति, ससमयपरसमया सूइज्जति ।' दृष्टिवाद के पांच प्रकारों में एक है-सूत्र । आचार्य वीरसेन के अनुसार सूत्र में अन्य दार्शनिकों का वर्णन है।' सूत्रकृतांग की रचना उसी के आधार पर की गई, इसलिए इसका ‘सूत्रकृत' नाम रखा गया है। भगवान् महावीर के समय में मुख्य रूप से प्रचलित दार्शनिक मन्तव्यों का उल्लेख सूत्रकृतांग में है। जैसे बौद्ध दर्शन सम्मत ग्रन्थ दीघनिकाय' में तत्कालीन दार्शनिक मन्तव्यों का संकलन किया गया है। भगवान् महावीर और बुद्ध के समय विभिन्न मतवाद प्रचलित थे, यह तथ्य प्रस्तुत ग्रंथों का अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है। सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम 'समय' नामक अध्ययन में, बारहवें समवसरण अध्ययन में तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम तथा षष्ठ अध्ययन में अनेक दार्शनिक 1. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 121 2. सूत्रकृतांग चूर्णि, 2 5 3, तिण्णि तिसट्ठा पावादियसयाणि णिग्गंथे मोत्तूण मिच्छादिट्ठिणो त्ति........। 3. भगवती,वृत्ति पत्र 944 4. तत्त्वार्थ वार्तिक, 8/1 5. गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गाथा 889, सच्छंददिट्टिहिं वियप्पियाणि तेसट्ठिजुत्ताणि सयाणि तिण्णि। पाखंडिणं वाउलकारणाणि अण्णाणि चित्ताणि हरंतिताणि।। 6. (क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू. 88 (ख) नंदी, सूत्र 8 0 कसायपाहुड, भाग । पृ. 1 3 4 सूयगडो, 1/। सम्पूर्ण 9. दीघनिकायान्तर्गत ब्रह्मजालसुत् सामञफलसुत्त। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन मतों का उल्लेख है । आगम रचना की शैली के अनुसार इसमें केवल अन्य दार्शनिकों के सिद्धान्तों का प्रतिपादन और अस्वीकार है । यद्यपि जैन मन्तव्य का वहां पर उल्लेख नहीं किया है किंतु उन सिद्धान्तों की समीक्षा के आधार पर जैन मन्तव्य स्वतः फलित हो जाता है। सूत्रकृतांग में जिन दार्शनिक मतवादों की नामपुरस्सर समीक्षा की गई है हम उनका उल्लेख करेंगे जिससे जैन दर्शन का स्वरूप स्पष्ट हो सके। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से पंचभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद, अफलवाद, नियतिवाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद, कर्मचय- अभाववाद आदि का वर्णन हुआ है । ' 293 सूत्रकृतांग सूत्र का प्रारम्भ 'बुज्झेज्न तिउट्टेज्जा' इस शब्द समूह से हुआ है, जो विशेष मननीय है। बुज्झेज्न अर्थात् जानो और तिउट्टेज्जा तोड़ो । प्रस्तुत वाक्यांश का विश्लेषण ज्ञान एवं आचार के समन्वय के संदर्भ में किया गया है ।' विभिन्न दार्शनिक मतवादों के संदर्भ में इसका अर्थ इस प्रकार भी किया जा सकता है - पहले इन मतवादों को जानो तथा फिर विवेकपूर्वक इनका त्याग कर दो। इस निर्देश से स्वदर्शन स्वीकृति का पथ प्रशस्त हो जाता है । पंचभूतवाद सर्वप्रथम सूत्रकृतांग में पंचभूतवाद की समीक्षा की गई है। कुछ दार्शनिक, पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच महाभूतों को स्वीकार करते हैं तथा इनके विशेष प्रकार के संयोग से आत्मा उत्पन्न होती है तथा इन पांच महाभूतों के विनाश के साथ ही आत्मा का भी विनाश हो जाता है, यह उनका अभिमत है । ' सूत्रकृतांग में यह किसका मत है, इसका उल्लेख नहीं किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में मात्र 'एगेसिं" शब्द का प्रयोग करके यह अभिव्यक्त किया है कि ऐसा कुछ दार्शनिकों का अभिमत है। चूर्णिकार ने भी 'एगेसिं' शब्द से पांच महाभूतवादियों का ही ग्रहण किया है । " शीलांक ने इस मत को बार्हस्पति मत' तथा लोकायतमत भी कहा है।' इससे स्पष्ट है कि बार्हस्पतिमत एवं लोकायतिकमत परस्पर पर्यायवाची हैं। जिसे चूर्णिकार ने पंचमहाभूतवादी कहा है । सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में उन्हें पंचमहाभौतिक कहा गया है। बृहस्पति, लोकायतिक आदि शब्दों का प्रयोग वहां पर नहीं है। 1. सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 29-31 2. सूयगडो, 1/1/1 का टिप्पण.... ज्ञानी मनुष्य ही आचार और अनाचार का विवेक करता है तथा अनाचार को छोड़ आचार का अनुपालन करता है। 'बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा' - इस श्लोकांश में यही सत्य प्रतिपादित हुआ है। पहले बंधन को जानो फिर उसे तोड़ो... यह दृष्टि न केवल ज्ञानवाद की है और न केवल आचारवाद की है यह दोनों का समन्वय है। 3. सूयगडो, 1 / 1 /7-8 4. वही, 1/1/7 5. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 34, एगेसिं णं सव्वेसिं, जे पंचमहब्भूतवाइया तेसिं एव । 6. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 10. बार्हस्पत्यमतानुसारिभिराख्यातानि । 7. वही, पृ. 10, लोकायतिकैस्तु........ । 8. सूत्रकृतांग, 2 / 1 / 23, अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमहब्भूइए त्ति आहिज्जइ । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 जैन आगम में दर्शन वर्तमान में चार्वाक या बृहस्पति के सिद्धान्त-सूत्र मिलते हैं। उनमें पृथिवी, अप, तेज और वायु इन चार भूतों का ही उल्लेख है।' आगमयुग में पंचभूतवादी थे। दर्शनयुगीन साहित्य में चार्वाक सम्मत चार भूतों का ही उल्लेख प्राप्त है किंतु सूत्रकृतांग केटीकाकाल तक पंचभूतों का भी उल्लेख है। वहां आकाश को भी प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञेय माना है। कालान्तर में जब आकाश का प्रत्यक्ष प्रमाण से शेयत्व निषिद्ध हो गया, संभवत: तब से ही चार्वाक पंचभूत से चार भूत की अवधारणा वाला हो गया । वृत्तिकार ने एक स्थान पर यह उल्लेख भी किया है कि कुछ लोकायतिक आकाश को भी भूत मानते हैं। इसलिए भूतपंचक कहना दोषपूर्ण नहीं है, इस वक्तव्य से स्पष्ट हो रहा है कि अधिकांश भूतवादी चार भूतों को मानने के पक्ष में हो चुके थे। भूतों से चैतन्य उत्पन्न होता है और भूतों का विनाश होने पर चैतन्य विनष्ट हो जाता है। यह अनात्मवादियों का सामान्य सिद्धान्त है तथा यह अति प्राचीन अभिमत है। पांच भूतों से भिन्न आत्मा का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। सूत्रकृतांग में आगत इस अभिमत की तुलना पं. दलसुख मालवणिया ने दीघनिकायगत अजितकेशकम्बल के मन्तव्य से की है।' पुरुष अर्थात् आत्मा चार महाभूतों से उत्पन्न है।' आकाश नामक भूत भी इसे मान्य है। बाल और पण्डित शरीर के विनाश के साथ ही विनष्ट हो जाते हैं।' आचार्य महाप्रज्ञ ने अजितकेशकम्बल के सिद्धान्त की तुलना 'तज्जीवतच्छरीरवाद' सेकी है। उन्होंने इस प्रसंग में सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध (2/1/13 - 2 2) में आगत उसके दार्शनिक विचारों का उल्लेख किया है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में किसी दार्शनिक के नाम का उल्लेख नहीं है जैसी कि आगम की शैली रही है किंतु वे विचार अजितकेशकम्बल के हैं यह निर्णय 'दीघनिकाय' में आगत उसके विचारों से तुलना करने से प्राप्त हो जाता है। सूत्रकृतांग में इन विचारों को 'तज्जीवतच्छरीरवादी' कहा गया है।। सूत्रकृतांग में तज्जीवतच्छरीरवादी' की विचारधारा का उल्लेख करते हुए कहा गयापैर के तलवे से ऊपर, शिर के केशाग्र से नीचे और तिरछे चमड़ी तक जीव है-शरीर ही जीव है। ....आग में जला देने पर उसकी हड्डियां कबूतर के रंग की हो जाती है। आसंदी को पांचवीं 1. तत्त्वोपप्लवसिंह, पृ. 1, पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि तत्समुदाये शरीरेन्द्रियविषयसंजा। षड्दर्शन समुच्चय, श्लोक 8 3, पृथ्वी जलं तथा तेजो वायुभूतचतुष्टयम् । 3. सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 10, लोकायतिकैस्तु भूतपंचकव्यतिरिक्तं नात्मादिकं.........। 4. वही, पृ. 10, आकाशं शुषिरलक्षणमिति.........प्रत्यक्षप्रमाणावसेयत्वाच्च । 5. वही, पत्र 11, केषांचिल्लोकायतिकानामाकशस्यापि भूतत्वेनाभ्युपगमात् । 6. मालवणिया, दलसुख, जैन दर्शन का आदिकाल, (Ahmedabad-9, 1980) पृ. 26 7. दीघनिकाय, पृ. 48, (संपा. भिक्षु जगदीश काश्यप, नालन्दा, 1958) चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो। 8. वही, पृ. 48, आकासं इन्दियानि सङ्कमन्ति। 9. वही, पृ. 48, बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति । 10. सूयगडो, 1/1/11-12 का टिप्पण 11. वही, 2/1/22...........तज्जीवतस्सरीरिए आहिए। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन बना उसे उठाने वाले पुरुष गांव में लौट आते हैं।' इन्हीं शब्दों का प्रयोग दीघनिकाय में हुआ है ।' सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के 1 / 11 श्लोक में 'जे बाला, जे य पंडिया' इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। दीघनिकाय (पृ. 48 ) में भी अजितकेशकम्बल के सिद्धान्त विवेचन के मध्य ‘बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति' का उल्लेख हुआ है। उभयत्र बाल एवं पण्डित शब्द प्रयुक्त है । इन तथ्यों के आधार पर इस सिद्धान्त को 'तज्जीवतच्छरीरवाद' कहा जा सकता है यद्यपि यह सुस्पष्ट नहीं है कि पंचमहाभूतवादी और 'तज्जीवतच्छरीरवादी' की अवधारणा में मौलिक अन्तर क्या है ? दोनों का सिद्धान्त एक जैसा ही प्रतीत होता है किंतु सूत्रकृतांग में पृथक् रूप से दोनों का उल्लेख हुआ है अत: इनके सिद्धान्त में मुख्यत: क्या भेद है, यह अन्वेषणीय है । 1 पंचमहाभूतवाद का मत अन्य मत के रूप में सूत्रकृतांग में विवेचित हुआ है इससे स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन के अनुसार इन पंचभूतों से भिन्न स्वतंत्र आत्मा नाम का तत्त्व है। तज्नीवतच्छरीरवाद सूत्रकृतांग में यह सिद्धान्त 'एकात्मवाद' के पश्चात् उल्लिखित है । 'पंचमहाभूत' सिद्धान्त के सदृश होने के कारण हम इसका उल्लेख 'एकात्मवाद' से पहले कर रहे हैं। इस मान्यता के अनुसार प्रत्येक शरीर में पृथक्-पृथक् अखण्ड आत्मा है। इसलिए कुछ अज्ञानी हैं और कुछ पंडित हैं। शरीर ही आत्मा है। वे न परलोक में जाती है, न उनका पुनर्जन्म होता है। पुण्य और पाप नहीं है। इस लोक से अन्य कोई लोक नहीं है। शरीर नाश के साथ ही देही का विनाश हो जाता है ।' सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने इसको 'तज्जीवतच्छरीरवादी' का मत कहा है । वृत्तिकार ने इनको स्वभाववादी भी कहा है । ' वृत्तिकार ने इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा है कि जैसे जलबुबुद् जल से भिन्न कुछ नहीं है वैसे ही भूतों के अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई अन्य तत्त्व नहीं है।' इसी प्रसंग में वृत्तिकार ने कहा है कि जिस प्रकार घूमता हुआ आलात चक्रबुद्धि उत्पन्न कर देता है वैसे ही विशिष्ट प्रकार की क्रिया से युक्त भूतसमुदाय भी जीव का भ्रम उत्पन्न कर देता है ।' अर्थात् जीव जैसी कोई वस्तु पैदा ही नहीं होती मात्र वैसी अवगति भ्रम मात्र ही है इसी प्रसंग मं उन्होंने स्वप्न. मरीचि, गन्धर्वनगर आदि के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं। " अगणिझामिए सरीरे कवोतवण्णाणि अट्ठीणि भवंति । आसंदी पंचमा पुरिसा गा 1. सूयगडो, 2 1 / 15 पच्चागच्छति । 295 2. दीघनिकाय, पृ. 48, आसन्दिपंचमा पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति । कापोतकानि अट्ठीनि भवन्ति । 3. सूयगडो, 1 1/11-12 4. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 14, इति तज्जीवतच्छरीरवादिमतं गतम् । 5. वही, पृ. 14, . इत्येवं स्वभावाज्जगद्वैचित्र्यं । 6. वही, पृ. 14 7. वही, पृ. 14, यथा वाऽलातं भ्राम्यमाणमतद्रूपमपि चक्रबुद्धिमुत्पादयति एवं भूतसमुदायोऽपि विशिष्टक्रियोपेतो जीवभ्रान्तिमुत्पादयति । 8. वही, पृ. 14 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 96 जैन आगम में दर्शन प्रस्तुत उदाहरणों के आलोक में पंचमहाभूतवाद एवं तज्जीवतच्छरीरवाद की भिन्नता का हेतु अन्वेषणीय है। संभव ऐसा लगता है पंचभूतवादी आत्मा नाम के तत्त्व की वास्तविक उत्पत्ति मानते हैं यद्यपि वह आत्मतत्त्व पंचभूतों से अतिरिक्त अस्तित्व वाला नहीं है जबकि 'तज्जीवतच्छरीरवाद' के अनुसार जीव की कोई उत्पत्ति होती ही नहीं भ्रम के कारण ऐसी प्रतीति होने लगती है। एकात्मवाद __ एकात्मवादी दर्शन उपनिषदों का उपजीवी है। सर्वत्र ‘एक ही आत्मा है' । एकात्मवाद की इस अवधारणा का प्रतिपादन सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में हुआ है। जैसे एक ही पृथ्वी स्तूप (मृत्-पिण्ड) नाना रूपों में दिखाई देता है उसी प्रकार सम्पूर्ण लोक एक विज्ञ (ज्ञान-पिण्ड) है, वह नाना रूपों में दिखाई देता है।' वृत्तिकार इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार एक मृत्-पिण्ड सरित, समुद्र, पर्वत, नगर, सन्निवेश आदि का आधारभूत होने से भिन्न-भिन्न दिखाई देता है इसी प्रकार चेतन-अचेतन रूप सम्पूर्ण लोक एकमात्र ज्ञानरूप ही है। इसका यही तात्पर्य है कि ज्ञानवान् एक ही आत्मा पृथ्वी आदि भूतों के रूप में नाना प्रकार की दिखाई दे रही है। सूत्रकृतांग नियुक्ति में इस वाद को 'एकप्पए' एकात्मवाद कहा है। वृत्तिकार इसे 'आत्माद्वैतवाद' से अभिहित करते हैं। परन्तु वहां पर किसी विशेष दार्शनिक के मत के रूप में इसको प्रस्तुत नहीं किया गयाहै किंतुटीका में आगत उद्धरणउपनिषद् साहित्य से सम्बन्धित है अत: इसे उपनिषद्-दर्शन कहा जासकता है। आचार्य महाप्रज्ञने इस अभिमत को उपनिषद् दर्शन माना है। ऐतरेय उपनिषद् का कहना है कि पहले यह जगत् एकमात्र आत्मा ही था। इस मत को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि “सत् एक था।" यह सिद्धान्त ऋग्वेद (1/164/ 46) में प्राप्त होता है। किंतु वह सत् आत्मा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है। एकात्मवाद का सिद्धान्त उपनिषदों में मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद्' में बताया है कि एक मृत्-पिंड के जान लेने पर सब मृण्मय विज्ञात हो जाता है। घट आदि उसके विकार हैं। मृत्तिका ही सत्य है।' । सूयगडो, 1/1/9 सूत्रकृतांगवृत्ति, पत्र 13 सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 29 4. सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 1 3...........इत्यात्माद्वैतवाद: । 5. वही, पृ13 6. एतेरेयोपनिषद् (गोरखपुर, वि.सं. 2025)1/1/1 आत्मा वा इदमेक एवाग्र आसीत् 1. छान्दोग्य उपनिषद्, 6/1/4, यथा सौम्यैकेन मृपिण्डेन सर्वं मुन्मयं विज्ञातं भवति । वाचारम्भणं विकारो नामधेयं, मत्तिकेत्येव सत्यम् ।। 8. सूयगडो, 1/1/9-10 का टिप्पण Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 297 जैन दर्शन के अनुसार एक आत्मा या समष्टि चेतना वास्तविक नहीं है। कोई भी एक आत्मा इस दृश्य जगत्का उपादान कारण नहीं है। आत्माएं अनन्त हैं। उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। प्रत्येक आत्मा का चैतन्य अपना-अपना है।' स्थानांग में ‘एगे आया यह वक्तव्य प्राप्त है किंतु उसका अभिप्राय उपनिषद् मान्य एकात्मवाद को अभिव्यक्त करना नहीं है। वहां पर संग्रह नय की दृष्टि से यह वक्तव्य दिया गया है। अकारकवाद __ आत्मा न कुछ करती है, न दूसरे से कुछ करवाती है। सबके साथ करने कराने की दृष्टि से आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा अकारक है। कुछ लोग ऐसे सिद्धान्त स्थापित करने की धृष्टता करते हैं। वृत्तिकार ने इस मत को सांख्य का बताया है। वृत्तिकार ने आत्मा में कर्तृत्व क्यों नहीं है ? इसके लिए आत्मा की अमूर्तता, नित्यता एवं सर्वव्यापकता को हेतु माना है। सांख्य के अनुसार आत्म अमूर्त, नित्य एवं सर्वव्यापक है। उसमें कर्तृत्व नहीं है। जैनदर्शन के अनुसार आत्मा शरीर-व्यापी है, सर्वव्यापी नहीं है। अमूर्तता एवं नित्यता कर्तृत्व के विरोधी नहीं है। जैन के अनुसार आत्मा परिणामी नित्य है वह निष्क्रिय नहीं है। आत्मष्ठवाद कुछ महाभूतवादी दार्शनिक पांच महाभूत तथा आत्मा को छठा तत्त्व मानते हैं। उनके मतानुसार आत्मा और लोक शाश्वत है। आत्मा और लोक का विनाश नहीं होता। असत् उत्पन्न नहीं होता सभी पदार्थ सर्वथा नियतिभाव को प्राप्त हैं, शाश्वत हैं। सूत्रकृतांग नियुक्ति में इस वाद को “आत्मषष्ठ' कहा गया है। वृत्तिकार ने वेदवादी सांख्य तथा शैवाधिकारियों के मत के रूप में इस वाद को प्रस्तुत किया है।' हर्मन जेकोबी के अनुसार आत्मषष्ठवाद की अवधारणा उससमय (Primitive)अथवा दर्शन की सामान्य अवधारणा थी जिसको आज हम वैशेषिक के नाम से जानते हैं। जेकोबी का 1. सूयगडो, 2/1/51 2. ठाणं, 1/2 3. सूयगडो, 1/1/13 4. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 14 5. वही, पृ. 14, आत्मनश्चामूर्तत्वान्नित्यत्वात् सर्वव्यापित्वाच्च कर्तृत्वानुपपत्तिः। 6. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 7/1 5 8..........हत्थिस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे। 7. सूयगडो, 1/1/15-16 8. सूत्रकृतांगनियुक्ति, गाथा 29........आतच्छट्ठो..........। 9. सूत्रकृतांग वृनि, पृ. 16..........वेदवादिनां सांख्यानां शैवाधिकारिणां च एतद् आख्यातम्। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 जैन आगम में दर्शन यह भी मन्तव्य है कि इस दार्शनिक विचारधारा को पकुधकात्यायन की भी मान सकते हैं जिसका वर्णन बौद्ध साहित्य में प्राप्त है।' __आचार्य महाप्रज्ञजी ने इस संदर्भ में विस्तृत विमर्श किया है। सारांश प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है "........पंचमहाभूत और सात काय-ये दोनों भिन्न पक्ष हैं । इस भेद का कारण पकुधकात्यायन की दो विचारशाखाएं हो सकती हैं और यह भी संभव है कि जैन और बौद्ध लेखकों को दो भिन्न अनुश्रुतियां उपलब्ध हुई हों। आत्मषष्ठवाद पकुधकात्यायन के दार्शनिक पक्ष की दूसरी शाखा है। इसकी संभावना की जा सकती है कि पकुधकात्यायन के कुछ अनुयायी केवल पंचमहाभूतवादी थे। वे आत्मा को स्वीकार नहीं करते थे। उसके कुछ अनुयायी पांच भूतों के साथ-साथ आत्मा को भी स्वीकार करते थे। ......' इस विमर्श के आधार पर कहा जा सकता है कि आत्मषष्ठवाद पकुधकात्यायन का अभिमत है।' अमूल्यचन्द्र सेन ने भी इस अभिमत की तुलना पकुधकात्यायन के साथ की है। क्षणिकवाद बौद्ध ग्रन्थों में पांच स्कन्धों का प्रतिपादन हुआ है-रूपस्कन्ध, वेदनास्कन्ध, संज्ञास्कन्ध, संस्कारस्कंध और विज्ञानस्कन्ध । ये सब क्षणिक हैं। बौद्ध दर्शन स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न, आत्मा को नहीं मानता तथा सहेतुक एवं अहेतुक आत्म भी उसे मान्य नहीं है।' । सूत्रकृतांग एवं उसकी चूर्णि के अनुसार बौद्ध आत्मा को पांच स्कन्धों से भिन्न या अभिन्न दोनों ही नहीं मानते।' बौद्ध अमुक स्थिति नहीं मानते यह उल्लेख तो है किंतु क्या मानते हैं ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं है। दार्शनिक जगत् में उस समय दो दृष्टियां प्रचलित थीं। कुछ दार्शनिक आत्मा को शरीर से भिन्न मानते थे और कुछ दार्शनिक आत्मा और शरीर को एक मानते थे। बौद्ध इन दोनों दृष्टियों से सहमत नहीं थे। आत्मा के विषय में उनका अभिमत 1. Jacobi, Herman, Jaina Sutras, Part II (Motilal Banarsidass Delhi, 1980) Introduction P. XXIV........Atman or soul asasixth to the fivepermanent elements. This seems to have been a primitive or a popular form of the philosophy which we now know under the name of Vaiseshika, To this school of philosophy we must perhaps assign Pakudha Kakkayana of Buddhist record. सूयगडो, 1/1/15-16 का टिप्पण। SEN, Amulayachandra, School and Sects in Jaina Literature, (Visva-Bhaiti Book Shop, 210 cornwallis street Calcutta, 1931) PP. 18-19, we have to compare in this connection the doc trine of Pakudha Kaccayana stated in the Samannaphala Sutta (Digha, I1 P. 56) 4. दीघनिकाय, 10/3/20, रूपक्खन्धो, वेदनाक्खन्धो. संआक्खन्धो. संडारक्खंधो. विआणक्खन्धो। 5. सूयगडो, 1/1/17 6. वही, 1/1/17 7. सूत्रकृतांग चूर्णि, प.40, न चैतेभ्य आत्मान्तर्गतो भिन्नौ वा विद्यते. संवेद्यस्मरणाप्रसङ्गादित्यादि। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 299 था कि वही जीव है और वही शरीर है-ऐसा नहीं कहना चाहिए। जीव अन्य है और शरीर अन्य है-ऐसा भी नहीं कहना चाहिए।' बौद्ध का दृष्टिकोण यह है कि स्कन्धों का भेदन होने पर यदि पुद्गल (आत्मा) का भेदन होता है तो उच्छेदवाद प्राप्त हो जाता है। स्कन्धों का भेदन होने पर यदि पुद्गल (आत्मा) का भेदन नहीं होता है तो पुद्गल शाश्वत हो जाता है। वह निर्वाण जैसा बन जाता है। बौद्ध दर्शन में उच्छेदवाद और शाश्वतवाद दोनों ही सम्मत नहीं है, इसलिए यह नहीं कहना चाहिए कि स्कन्धों से पुद्गल भिन्न हैं और यह भी नहीं कहना चाहिए कि स्कन्धों से पुद्गल अभिन्न हैं। धातुवादी बौद्ध यह मानते हैं कि पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु-इन चार धातुओं से शरीर निर्मित होता है। सूत्रकृतांग में प्राप्त वर्णन से प्राप्त होता है कि उस समय बौद्धों के मध्य भी आत्मा के सम्बन्ध में दो प्रकार की अवधारणाएं थीं। एक आत्मा को पंचस्कन्ध रूप मान रही थी दूसरी के अनुसार वह चार धातु रूप थी। वृत्तिकार ने बौद्ध मान्यता को प्रस्तुत करते हुए कहा है स्कन्ध पांच ही है उनसे अतिरिक्त आत्मा नाम का कोई दूसरा स्कन्ध नहीं है। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु को धारक एवं पोषक होने के कारण धातु कहा गया।' कुछ का मानना है कि जब ये चारों एकाकार में परिणत होकर कायाकार को धारण कर लेती हैं तब वे ही जीव व्यपदेश को प्राप्त कर लेती हैं। वृत्तिकार ने किसी को उद्धृत करते हुए कहा है- "चतुर्धातुकमिदं शरीरं न तद्व्यतिरिक्तं आत्माऽस्तीति'''- यह मत पंचभूतवादी के निकट लग रहा है। क्योंकि वहां पर भी शरीर को ही आत्मा कहा गया है। चतुर्धातुवादी का अतिरिक्त वैशिष्ट्य क्या है यह परिलक्षित नहीं हो रहा है। जैन मान्य आत्म-अवधारणा सूत्रकृतांग में आगत उपर्युक्त वादों का सूक्ष्म दृष्टि से विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि इन वादों में तत्कालीन दर्शनों में मान्य आत्मा की अवधारणा को प्रस्तुत कर जैन दर्शन से इनकी भिन्नता ज्ञापित करने का प्रयत्न किया गया है। चार्वाक, उपनिषद् दर्शन, सांख्य, बौद्ध 1. अभिधम्मपिटकेकथावत्थुपालि, (संपा. भिक्षुजगदीशकाश्यप,नालन्दा, 1961) 1/1/91,92....तंजीवंतंसरीरं ति?न हेवं वत्तव्वे....। अनंजीवं अञ्जसरीरं? न हेवं वत्तव्वे....... ।। 2. वही, 1/1/94, खन्धेसु भिज्जमानेसु, सो चे भिज्नति पुग्गलो। उच्छेदा भवति दिट्ठि, या बुद्धेन विवज्जिता।। खन्धेसु भिज्जमानेसु, नो चे भिज्जति पुग्गलो। पुग्गलो सस्सतो होत्ति, निव्वानेन समसमो ति ।। 3. सूयगडो, 1/1/18 4. सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 17, पंचैव स्कन्धा विद्यन्तेनापर: कश्चिदात्माख्य: स्कन्धोऽस्तीत्येवं प्रतिपादयन्ति। 5. वही, पृ. 18, पृथिवी धातुरापश्च धातुस्तथा तेजो वायुश्चेति, धारकत्वात्पोषकत्वाच्च धातुत्वमेषाम्। 6. वही, पृ. 18,यदैते चत्वारोऽप्येकाकारपरिणतिं बिभ्रति कायाकारतया तदा जीवव्यपदेशमश्नुवते। 7. वही, पृ. 18 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 जैन आगम में दर्शन दर्शन के सिद्धान्त तो वर्तमान में भी तद्प उपलब्ध हैं जिस रूप में सूत्रकृतांग में वर्णित हुए हैं। आत्मषष्ठवाद को वृत्तिकार ने सांख्य तथा शैवाधिकारियों के नाम से प्रस्तुत किया है, किंतु वर्तमान में उपलब्ध उन दर्शनों के साहित्य में ऐसी अवधारणा प्राप्त नहीं है। सम्भवत: उस समय ऐसी अवधारणा रही हो। नैयायिक-वैशेषिक भी आत्मवादी रहे हैं किंतु उनकी आत्मा सम्बन्धी अवधारणा सूत्रकृतांग में उपलब्ध नहीं है। आधुनिक विद्वानों ने 'आत्मषष्ठवाद' को पकुधकात्यायन की विचारधारासेजोड़ने का प्रयत्न किया है यद्यपि निश्चय रूप में इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। उपर्युक्त विवेचन से जैन मान्य आत्मा का जो स्वरूप उभरकर सामने आता है वह इस प्रकार है (1) आत्मा पंचभूतात्मक नहीं है उसका स्वतंत्र अस्तित्व है तथा वह चेतनस्वरूप है। (2) जगत् एकात्मक नहीं है। उसमें नानाजीव है। आत्मा एक ही नहीं है बल्कि अनेक हैं। (3) आत्मा शरीर से भिन्न है। उनका परलोक होता है। वे पुनर्जन्म धारण करती हैं। (4) आत्मा कर्ता है। (5) आत्मा परिणामी नित्य है। (6) आत्मा एकान्तक्षणिक नहीं है। (7) पंचस्कन्ध तथा चतुर्धातुरूप आत्मानहीं है उसका स्वतंत्र अस्तित्व है। वह सहेतुक एवं अहेतुक उभयरूप है। अर्थात् वह द्रव्यपर्यायात्मक है। उसका पर्याय स्वरूप सहेतुक है तथा द्रव्य स्वरूप अहेतुक है। वृत्ति में प्रदत्त सहेतुक एवं अहेतुक की व्याख्या के निष्कर्ष रूप में ऐसा कहा जा सकता है। सूत्रकृतांग के वृत्तिकार ने इन वादों के निराकरण के पश्चात् जैन सम्मत आत्मा का उल्लेख करते हुए कहा है कि आत्मा परिणामी, ज्ञान का आधार, भवान्तरयायी, भूतों से भिन्न, शरीर से भिन्न एवं अभिन्न हैं।' बौद्ध दर्शन ने आत्मा की सहेतुकता एवं अहेतुकता दोनों का ही निराकरण किया है।' जैन ने आत्मा को भिन्न-भिन्न अपेक्षा से सहेतुक एवं अहेतुक उभय प्रकार की माना है। नारक, तिर्यंच, मनुष्य एवं देव रूप में जन्म के उपादानभूतकर्म के द्वारा आत्मा उन-उन पर्यायों को धारण करती है अत: सहेतुक है। नित्य होने के कारण आत्मस्वरूप की प्रच्युति नहीं होती अत: वह अहेतुक भी है।' 1. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 19 2 वही, पृ. 19, एवं च सत्यात्मा परिणामी ज्ञानाधारो भवान्तरयायी भूतेभ्यः कथंचिदन्य एव शरीरेण सहान्योन्यानवेधादनन्योऽपि । सूयगडो, 1/1/17 4. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 19 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 301 नियतिवाद की अवधारणा प्रस्तुति से पूर्व उसकी भूमिका स्वरूपएक श्लोक सूत्रकृतांग में प्राप्त है।' उस श्लोक में प्रदत्त कुछ शब्द विमर्शनीय है। वृत्तिकार ने उस ओर ध्यान आकृष्ट किया भी है। श्लोक में आगत-उववण्णा, पुढो, जिया वेदयंति सुहं दुक्खं .....लुप्पंति ठाणओ । ये वाक्यांश जैन की आत्म-अवधारणा को प्रस्तुत कर रहे हैं तथा इतर दर्शनों का निराकरण भी करते हैं। 1. उववण्णा-इसका अर्थ है कि जीव युक्तियों से सिद्ध है। इस पद के द्वारा पंचभूतवादी तथा तज्जीवतच्छरीरवादी मतों का अपाकरण किया है। पुढो-जीव शरीर की दृष्टि से या नरक आदि भवों की उत्पत्ति की दृष्टि से पृथक् पृथक् है। इससे आत्माद्वैतवाद का निरसन होता है। 3. जिया जीव। इससे पंच स्कन्ध से अतिरिक्त जीव का अभाव मानने वाले बौद्धों का निरसन किया गया है। 4. वेदयन्ति सुहं दुक्खं प्रत्येक जीव सुख-दु:ख का अनुभव करता है। इससे आत्मा के अकर्तृत्व का निरसन किया गया है। अकर्ता और अविकारी आत्मा में सुख दु:ख का अनुभव नहीं होता। 5. अदुवा लुप्पंति ठाणओ-इस पद के द्वारा जीवों का एक भव से दूसरे भव में जाने की स्वीकृति है। जीव को भवान्तरगामी स्वीकार करने से उसकी सर्वव्यापकता का भी प्रकारान्तर से स्वत: निषेध हो जाता है, ऐसी संभावना भी की जा सकती है। सूत्रकृतांग के विश्लेषण से प्राप्त आत्मस्वरूप उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों के लिए आधारभूत बना रहा। इन अवधारणाओं के इर्द-गिर्द वे अपनी आत्म-मीमांसा प्रस्तुत करते रहे हैं। नियुक्तिकार ने सूत्रकृतांग के प्रथम अध्ययन के उद्देशकों के अधिकार की चर्चा की है। प्रथम उद्देशक के छह अर्थाधिकार बताए हैं-पंचभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, अकारकवाद, आत्मषष्ठवाद एवं अफलवाद।' नियुक्ति में अफलवाद का पृथक् उल्लेख है। क्रम के अनुसार इसका सम्बन्ध बौद्धदर्शन के सिद्धान्त से जुड़ जाता है किंतु वृत्तिकार ने पंचभूतवाद से लेकर आत्मषष्ठवाद तक के सारे ही वादों को अफलवाद कहा है। 1. सूयगडो, 1/1/28 2. सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 20 3. सूत्रकृतांगनियुक्ति गाथा, 29,महपंचभूत एकप्पए य तज्जीवतस्सरीरीय। तध य अकारगवादी आतच्छट्ठो अफलावादी ।। 4. सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 19.........पंचभूतात्माद्वैततज्जीवतच्छरीराकारकात्मषष्ठक्षणिकपंचस्कन्धवादिनामफलवा दित्वं वक्तुकाम: सूत्रकार:..... । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 सूत्रकृतांग में आगत तथ्यों का आकलन करने से ज्ञात होता है कि सूत्रकार मुख्यतः आत्मवाद, कर्मवाद एवं सृष्टिवाद के सिद्धान्तों को केन्द्र में रखकर दार्शनिक विचारों की समीक्षा कर रहे हैं । हमने पूर्व में आत्मा संबंधी विचारधाराओं का विश्लेषण किया था अब कर्म के पक्ष-विपक्ष में प्रस्तुत विचारों का वर्णन काम्य है । नियतिवाद जैन आगम में दर्शन नियतिवाद आत्मा की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। आत्मा का पुनर्जन्म मानता है । आत्मा को सुख - दुःख की अनुभूति होती है । वह आत्मा के सुख-दुःख को स्वकृत या परकृत नहीं मानता है अपितु नियतिकृत मानता है। दुःख स्वकृत या परकृत नहीं होते । निर्वाण का सुख एवं संसार के सुख-दुःख भी स्वकृत या परकृत नहीं है अपितु वे नियतिकृत हैं। सभी जीवन स्वकृत सुख-दुःख का वेदन करते हैं और न अन्यकृत सुख - दुःख का वेदन करते हैं । प्राणियों का सुख - दुःख नियतिजनित है । ' नियतिवाद के अनुसार बल, वीर्य, पुरुष पराक्रम आदि सब निरर्थक हैं। सारे जीव अवश, अबल, अवीर्य हैं। नियति के द्वारा ही वे छह अभिजातियों में सुख-दुःख का संवेदन करते हैं ।' नियतिवाद आजीवक सम्प्रदाय का मुख्य सिद्धान्त रहा है। इसके प्रवक्ता मंखलि गोशालक है। जैन आगम साहित्य एवं बौद्ध ग्रन्थों में इसका बहुलता से उल्लेख है । महावीर एवं बुद्ध के काल में यह एक शक्तिशाली विचारधारा थी किंतु काल के प्रवाह में लुप्तप्राय: हो गई । संभवत: इसका समावेश निर्ग्रन्थ धारा में हो गया क्योंकि इसका आचार एवं अधिकांश विचार इस धारा के समान ही थे अत: यह सम्भावना की जा सकती है। नियतिवाद में सुख-दुःख के बंधन, संवेदन एवं प्राणियों की विशुद्धि के संदर्भ में नियति को प्रस्तुत किया गया है। अर्थात् पाप-पुण्य का बन्धन, संवेदन, प्राणियों की विशुद्धि के लिए कोई हेतु या कारण नहीं है वे नियति द्वारा स्वत: होते रहते हैं । उनमें व्यक्ति का पुरुषार्थ कुछ भी नहीं कर सकता । सूत्रकृतांग तथा दीघनिकाय के वर्णन को पढ़ने से ज्ञात होता है कि नियतिवादी कर्म, कर्मफल आदि की मुख्य रूप से चर्चा करते हैं एवं उनको नियतिकृत मानते हैं । नियतिवाद के अनुसार व्रत, तप, ब्रह्मचर्य आदि आचारात्मक साधना का कोई प्रयोजन नहीं है।' क्योंकि उनके द्वारा किसी भी प्रकार का कहीं भी परिवर्तन एवं परिवर्धन नहीं किया जा सकता । जैन दर्शन सर्वथा नियतिवादी नहीं है। वह पुरुषार्थ को प्रधानता देता है। आगम साहित्य 1. सूयगडो, 1 / 1 / 29,30 2. दीघनिकाय (सामञ्ञफलसुत्तं । 9 ) पृ. 47 नत्थि बलं नत्थि विरियं. नियतिसङ्गतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुख - दुःखं पटिसंवेदेन्ति । 3. (क) सूयगडो, 1/1/29-30 (ख) दीघनिकाय, पृ. 47 (सामञ्ञफलसुत्तं) नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं सङ्किलेसाय । अहेतु अपच्चया सत्ता सङ्किलिस्सन्ति । नत्थि हेतु नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया । 4. वही, पृ. 47 .सव्वे जीवा अवशा अबला अविरिया Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन में यह सत्य अनेक स्थलों पर अभिव्यंजित हुआ है । सूत्रकृतांग ने नियतिवाद को पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत किया है इससे फलित होता है कि जैन दर्शन नियतिवादी नहीं है । वह कर्म एवं कर्मफल को स्वकृत मानता है । आचारांग के प्रारम्भ में ही कर्मवाद की मान्यता है ।' भगवती में उत्थान, बल, वीर्य, पराक्रम' को मान्यता प्रदान कर नियतिवाद की अवधारणा को निराकृत किया गया है। अज्ञानवाद का उल्लेख चार समवसरण के प्रसंग में कर दिया गया है। कर्मोपचय कर्म का बंध मन, वचन एवं काया इन तीनों की प्रवृत्ति से होता है, अथवा किसी एक से होता है अथवा इनमें से किसी एक से मुख्य रूप से होता है, इत्यादि प्रश्न दार्शनिकों के मध्य विमर्श के विषय रहे हैं । बौद्ध दर्शन में कर्म - उपचय के संदर्भ में मन की प्रवृत्ति को विशेष महत्त्व दिया गया है। हिंसा - अहिंसा के संदर्भ में प्रस्तुत बौद्ध की अवधारणा से कर्म उपचय के सिद्धान्त की स्पष्टता हो जाती है। बौद्ध दर्शन के अनुसार - (1) सत्त्व है (2) सत्त्व संज्ञा है (3) मारने का चिंतन है और (4) प्राणी मर जाता है - इन चारों का योग होने पर हिंसा होती है, हिंसा से होने वाले कर्म का उपचय होता है। ' सूत्रकृतांग ने बौद्ध मत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि जो जीव को जानता हुआ काया से उसे नहीं मारता अथवा अनजान में किसी को मारता है उसके अव्यक्त पाप का स्पर्श होता है। उसी क्षण उसका वेदन हो जाता है अर्थात् वह कर्म क्षीण होकर पृथक् हो जाता है।' सूत्रकृतांग नियुक्ति ने इस मत की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि चार प्रकार की परिस्थितियों में कर्मबन्ध नहीं होता है 1. परिज्ञोपचित- केवल मन से पर्यालोचन करने से किसी प्राणी का वध नहीं होता इसलिए उससे हिंसा - जनित कर्म का चय नहीं होता । अविज्ञोपचित-अनजान में प्राणी का वध हो जाने पर भी हिंसाजनित कर्म का चय नहीं होता । 3. ईर्यापथ - चलते समय कोई जीव मर जाता है, उससे भी हिंसाजनित कर्म का चय नहीं होता, क्योंकि उसकी मारने की अभिसंधि नहीं होती । स्वप्नान्तिक-स्वप्न में जीव-वध हो जाने पर भी हिंसा - जनित कर्म का चय नहीं होता । इन चारों से मात्र कर्म का स्पर्श होता है जो सूक्ष्म तन्तु के बंधन की भांति तत्काल 3. 2. 4. 303 1. आयारो, 1/4 2. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 1 / 146, एवं सति अत्थि उट्ठाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा, पुरिसक्कारपरक्कमेइवा । Jacobi, Herman, Jaina Sutra Part II Introduction P. XVI......... The sins of mind the mind are heaviest, as the Buddha teaches......... 4. सूत्रकृतांग चूर्णि, पृ. 48-49, उच्यते, यदि सत्त्वश्च भवति सत्त्वसंज्ञा च संचिंत्य जीवितात् व्यपरोपणं प्राणातिपातः । 5. सूयगडो, 1 / 1 /52 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 जैन आगम में दर्शन छिन्न हो जाता है अथवा सूखी भीत पर गिरने वाली धूल की भांति तत्काल नीचे गिर जाता है। उसका विपाक नहीं होता।' जैन दर्शन के अनुसार वीतराग अवस्था को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की अवस्थाओं में कर्म का उपचय होता है। भले फिर वह कार्य कोरा मन से किया हो अथवा अजानकारी में काया आदि से किया हो। उसके साथ प्रमाद जुड़ा है तो कर्म का उपचय तो अवश्यंभावी है। वीतराग के भी ईयापथिकी क्रिया से कर्म का बन्ध माना गया है। वह द्विसामयिक होता है पहले समय में बंधता है दूसरे समय में भोग लिया जाता है तथा वीतराग के मात्र सातवेदनीय कर्म का ही बंध होता है। वीतराग का यह कर्मबंध एक प्रकार से अबंध जैसा ही है। कर्मसिद्धान्त जैन दर्शन का मुख्य विमर्शनीय विषय रहा है, जिसकी चर्चा हम 'कर्मवाद' नामक अध्याय में विस्तार से कर चुके हैं। प्रस्तुत प्रसंग में यह विशेष ध्यातव्य है कि सुखदु:ख एवं उनके फलभोग की व्यवस्था नियतिकृत नहीं है तथा कर्मका बंध राग-द्वेष की अवस्था में अवश्य ही होता है भले वह कर्म अजानकारी में किया हो, या मात्र मन से संकल्पित हो अथवा काया से किया हो। सृष्टि की समस्या । सृष्टि की उत्पत्तिका प्रश्न सभी दार्शनिकों की चिंता का विषय रहा है। भारतीय दार्शनिकों ने इस प्रश्न का समाधान विभिन्न प्रकारा से देने का प्रयत्न किया है। सूत्रकृतांग में पूर्वपक्ष के रूप में सृष्टि से सम्बन्धित अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं। जिनकी संक्षिस जानकारी प्रस्तुत की जा रही है। __सृष्टिवाद के विविध पक्षों का निरूपण वैदिक और श्रमण साहित्य में प्राप्त है। सूत्रकृतांग में वर्णित सृष्टि विषयक मन्तव्यों का आधार उस साहित्य में खोजा जा सकता है। अण्डकृत सृष्टि __ ऋग्वेद के दसवें मण्डल में सृष्टि की उत्पत्ति से सम्बंधित अनेक सूक्त हैं जिनमें यह प्रश्न उठाया गया है कि सृष्टि का आधार क्या है ? उपादान कारण क्या हैं ? तथा निमित्तकारण क्या हैं ? यहां द्यौ तथा पृथिवी के उत्पन्न करने वाले देव को विश्वकर्मा कहा गया है। जिसका चक्षु, मुख, बाहु और पांव सभी ओर हैं अर्थात् जो सर्वव्यापक है। विश्वकर्मा के इस 1. (क) सूत्रकृतांग नियुक्ति, गाथा 30, कम्मं चयं न गच्छति, चतुविधं भिक्खुसमयम्मि। (ख) इस संदर्भ में सूत्रकृतांग के टिप्पण (पृ. 52-54) में आचार्य महाप्रज्ञ ने विस्तार से विश्लेषण किया है। जो द्रष्टव्य है। (ग) बौद्धों के इस कर्मोपचय सिद्धान्त का विकसित रूप अभिधम्मकोश में प्राप्त है, जिसकी विस्तार से चर्चा तत्त्वार्थटीकाकार सिद्धसेन ने की है। पं. सुखलालजी ने ज्ञानबिन्दु की प्रस्तावना (पृ. 30) तथा मुनि जम्बूविजयजीने सूत्रकृतांग की प्रस्तावना (पृ. 10-12) में यह चर्चा प्रस्तुत की है। 2. ऋग्वेद 10/81/2, 4 3. वही, 10/81/3 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन 305 सर्वव्यापक रूप को लेकर ऋग्वेद का ही एक पूरा सूक्त पुरुष सूक्त के नाम से उपलब्ध होता है जहां यह कहा गया है कि एक यज्ञ में पुरुष ने अपने आपको होम दिया।' और उस पुरुष के ही विभिन्न अंगों से समस्त सृष्टि उत्पन्न हुई।' सूत्रकृतांग में उल्लेख है कि कुछ ब्राह्मण और श्रमण अंडे से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं। ऋग्वेद में कहा गया है कि एक प्राणियों का स्वामी हिरण्यगर्भ सर्वप्रथम था, जिसने द्यौ और पृथिवी को धारण किया। हिरण्यगर्भकीव्याख्या करते हुए सायणाचार्य ने उसे हिरण्यमय अंडे का गर्भभूत प्रजापति बताया है। सायण की इस व्याख्या से सूत्रकृताङ्ग का वक्तव्य अनुमोदित होता है। देव एवं ब्रह्माकृत सृष्टि __देव-उप्त एवं ब्रह्म-उप्स सृष्टि का उल्लेख भी सूत्रकृतांग में है। कुछ व्यक्ति यह मानते हैं कि यह लोक देव द्वारा उस है, कुछ का मानना है यह लोक ब्रह्मा उस हैं ' अर्थात् देव अथवा ब्रह्मा के द्वारा इसका बीज वपन किया गया है। 'उत्त' शब्द के आगम के व्याख्याकारों ने तीन अर्थ किए--उस, गुप्त और पुत्र ।' 'उत्त' शब्द का संयोजन देव एवं ब्रह्मा दोनों के साथ किया गया। फलितार्थ में इनके तीन अर्थ हो जाते हैं ।. देव अथवा ब्रह्मा के द्वारा बीज वपन किया हुआ। 2. देव अथवा ब्रह्मा के द्वारा पालित। 3. देव अथवा ब्रह्मा के द्वारा उत्पादित । जैसे कृषक बीजों का वपन कर फसल उगाता है वैसे ही देवताओं ने बीज वपन कर इस संसार का सर्जन किया है। कुछ दार्शनिकों का मन्तव्य है कि ब्रह्मा जगत् का पितामह है। जगत् सृष्टि के आदि में वह अकेला था। उसने प्रजापतियों की सृष्टि की। उन्होंने फिर क्रमश: समस्त संसार का निर्माण किया।' 1. ऋग्वेद, 10/90/6 2. वही 10, 90/12 - 14 3. सूयगडो।/1/67 माहणा समणा एगे आह अंडकडे जगे। 4. ऋग्वेद 10/121/1 5. वही, 10/121/। पर सायण भाष्य-हिरण्यगर्भ: हिरण्यमयस्याण्डस्य गर्भभूत: प्रजापतिर्हिरण्यगर्भः। 6. सूयगडो, 1/1/64......देवउत्ते अयं लोए, बंभउत्तेत्ति आवरे। 7. (क) सूत्रकृतांगचूर्णि, 41,देवउत्ते.......देवेहिं अयं लोगोकतो, उत्त इतिबीजवद्वपित: आदिसर्गे......देवगुत्तो देवै: पालित इत्यर्थः । देवपुत्तो वा देवैर्जनित इत्यर्थः । (ख) सूत्रकृतांगवृत्ति, पृ. 28, देवेनोप्तो देवोप्तः, कर्षकणेव बीजवपनं कृत्वा निष्पादितोऽयं लोक इत्यर्थ: देवैर्वा गुप्तो-रक्षितो देवगुप्तो देवपुत्तो वा। 8. सूत्रकृतांग चूर्णि,पृ. 41, एवं बंभउत्ते वि तिण्णि विकप्पा भाणितव्वा-बंभउत: बंभगुत्त: बंभपुत्त इति वा। सूत्रकृतांग वृत्ति, पृ. 28, तथाहि तेषामयमभ्युपगम:-ब्रह्मा जगत्पितामहः, स चैक एव जगदादावासीत् तेन स प्रजापतय: सृष्टा: तैश्च क्रमेणैतत्सकलं जगदिति । 9. Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 उपर्युक्त विवेचन से परिलक्षित होता है संसार की आदि में देव अथवा ब्रह्मा ने संसार का सर्जन किया, उसके बाद वह स्वत: आगे-से-आगे विस्तृत होता गया । संसार के प्रारम्भिक प्रवर्तन में उनकी सक्रिय भागीदारी रहती है। बाद में उस सक्रियता में न्यूनता आ जाती है। ईश्वरकृत सृष्टि 'ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया' - यह दर्शन जगत् की बहुप्रचलित मान्यता है। सूत्रकृतांग में भी इस मान्यता का उल्लेख हुआ है 'ईसरेण कडे लोए' ।' जीव- अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख से समन्वित यह लोक ईश्वरकृत है ।' ईश्वर सम्बन्धी उपर्युक्त अवधारणा नैयायिक दर्शन सम्बन्धी परिलक्षित होती है। नैयायिक दर्शन के अनुसार ईश्वर सृष्टि का निमित्त कारण है । उपादान कारण आत्मा एवं परमाणु है। ईश्वर उपादान कारण नहीं है। यद्यपि वेदान्त दर्शन में भी ईश्वर की अवधारणा है। सगुण ब्रह्म को ही वहां ईश्वर कहा गया है। सृष्टि मायोपहित सगुण ब्रह्म की रचना है।' वहां ईश्वर उपादान कारण है। जीव- अजीव आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है वस्तुत: ईश्वर की भी कोई स्वतन्त्र सत्ता वेदान्त में मान्य नहीं है। वास्तविक सत् तो ब्रह्म ही है । माया के कारण ही जगत् दिखाई दे रहा है। प्रकृति को माया एवं ईश्वर को मायावी कहा गया है।' नैयायिक दर्शन में ईश्वर का स्वतन्त्र अस्तित्व है जबकि वेदान्त के अनुसार ईश्वर भी भ्रमरूप है अत: उसके द्वारा कृत सृष्टि भी भ्रममात्र है । सूत्रकृतांग में वेदान्त के ईश्वर की चर्चा नहीं है । प्रधानकृत सृष्टि सांख्य दर्शन के अनुसार मूल तत्त्व दो हैं - चेतन और अचेतन । ये दोनों अनादि और स्वतन्त्र है । ' चेतन अचेतन में परस्पर अत्यन्ताभाव है। सांख्यदर्शन सत्कार्यवादी है ।' प्रधान से ही सृष्टि का विस्तार होता है, सूत्रकृतांग में सृष्टि के प्रकरण में 'प्रधानकृत' सृष्टि की अवधारणा का उल्लेख है । ' प्रधान का एक नाम प्रकृति है । वह त्रिगुणात्मिका है।' सत्त्व, रज और तमस् - ये तीन गुण हैं । सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष, अपरिणामी एवं उदासीन है ।" वह सृष्टि का निर्माण नहीं करता। उसके अनुसार सृष्टि प्रधान / प्रकृति कृत है । 1. सूयगडो, 1 / 1 /65 2. वही, 1 / 1 /65 3. अन्ययोगव्यच्छेदिका, श्लोक 6 4. वेदान्तसार, (ले. श्री सदानन्द, वाराणसी, 1990 ) पृ. 18, एतदुपहितं चैतन्यं.. 5. श्वेताश्वतर, 4 / 10, मायां तु प्रकृतिं विद्यान् मायिनं तु महेश्वरम् । 6. 7. 8. सूयगडो, 1 / 1 /65, पहाणाइ तहावरे । 9. सांख्यकारिका, 11 10. वही, 20 जैन आगम में दर्शन सांख्यकारिका, 3 वही, कारिका 9 . जगत्कारणमीश्वरः इति । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शन प्रकृति मूल है। उससे महत्-बुद्धि नामक तत्त्व उत्पन्न होता है । महत् से अहंकार, अहंकार से मन, दस इन्द्रियां (पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां) और पांच तन्मत्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध) उत्पन्न होती हैं। इन पांच तन्मात्राओं से पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं ।' रूप तन्मात्रा से अग्नि, रस से जल, गन्ध से भूमि शब्द से आकाश तथा स्पर्श तन्मात्र से वायु नामक भूत पैदा होता है।' सांख्य के अनुसार यह सृष्टि क्रम है । इन चौबीस तत्त्वों में प्रकृति किसी से उत्पन्न नहीं होती । वह अनादि है । मूल प्रकृति अविकृति होती है । महत् अहंकार और पांच तन्मात्राएं - ये सात तत्त्व प्रकृति और विकृति दोनों होते हैं। इनसे अन्य तत्त्व उत्पन्न होते हैं, इसलिए ये प्रकृति हैं और ये किसी-न-किसी अन्य तत्त्व से उत्पन्न होते हैं, इसलिए विकृति भी हैं। सोलह तत्त्व केवल विकृति हैं। पुरुष किसी को उत्पन्न नहीं करता इसलिए वह प्रकृति नहीं है वह किसी से उत्पन्न भी नहीं होता, इसलिए विकृति भी नहीं है ।' मूल प्रकृति एवं पुरुष ये दोनों अनादि तत्त्व हैं।' शेष तेईस तत्त्व प्रकृति के विकार हैं । यही प्रधानकृत सांख्य सृष्टि का स्वरूप है । सांख्य दर्शन ने चेतन एवं अचेतन दोनों तत्त्वों को स्वीकार करके भी सृष्टि का सम्पूर्ण भार अचेतन प्रकृति पर डाल दिया। पुरुष को अपना रूप दिखाने के लिए प्रकृति सृजन करती है । जैसे नर्तकी रंगस्थल स्थित पुरुषों को नृत्य दिखलाकर अपना कार्य समाप्त होने पर नृत्य से निवृत्त हो जाती है, इसी प्रकार प्रकृति भी महत्, अहंकार, तन्मात्रा, इन्द्रिय संघात, पंचभूत भाव से देव, मनुष्य, तिर्यक् योनियों में, सुख-दुःख मोहाकृति तथा शान्त, घोर, मूढावस्थायुक्त होकर अपना स्वरूप पुरुष को दिखाकर निवृत्त हो जाती है ।' पुरुष सर्वथा निर्लेप होता है । संसार, बंधन एवं मोक्ष सब प्रकृति के ही होता है।' सृष्टि निर्माण में सांख्य के अनुसार पुरुष का किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होता है । आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने आगमों में प्राप्त जैनेतर दर्शनों की विस्तृत व्याख्या तद्-तद् आगम में प्राप्त उन उन अंशों के स्पष्टीकरण के समय की है। हमने उस व्याख्या का कहीं शब्दशः और कहीं अर्थतः संग्रहण प्रस्तुत अध्याय में बहुलता से किया है प्रस्तुत ग्रन्थ के अध्येता की सुविधा के लिए प्राचीन ग्रन्थों के सन्दर्भ भी प्रस्तुत किए हैं। 1. सांख्यकारिका, 22, प्रकृतेर्महान्, ततोऽहङ्कारः तस्माद्गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात् पंचभ्यः पंचभूतानि ॥ 2. षड्दर्शनसमुच्चय, श्लोक 40, रूपात्तेजो रसादापो गन्धाद् भूमि: स्वरान्नभः । स्पर्शाद्वायुस्तथैवं च पंचभ्यो भूतपंचकम् ॥ 3. सांख्यकारिका, श्लोक 3, मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः । । 4. गीता, 13 / 19, प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि । 5. सांख्यकारिका, श्लोक 59, 6. 307 रंगस्य दर्शयित्वा निवर्तते नर्तकी यथा नृत्यात् । पुरुषस्य तथाऽऽत्मानं प्रकाश्य विनिवर्तते प्रकृतिः ॥ वही, श्लोक 62, तस्मान्न बध्यते नापि मुच्यते नापि संसरति कश्चित् । संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 जैन आगम में दर्शन विभिन्न वादों का नयवाद में समाहार जितने वचन के प्रकार हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने नयवाद हैं, उतने ही परसमय हैं जावइया वयणवहा, तावइया चेव होंति णयवाया। जावइया णयवाया, तावइया चेव परसमया॥' आचार्य सिद्धसेन का यह वक्तव्य दार्शनिक विचारधाराओं की अनेकता की सूचना दे रहा है। वैचारिक विभिन्नता मानव मस्तिष्क की स्वाभाविक विशेषता है। भगवान् महावीर के समय में विभिन्न मतवाद प्रचलित थे। इसका अवबोध तत्कालीन जैन एवं जैनेतर साहित्य के अवलोकनसे प्राप्त हो जाता है। प्रस्तुत अध्याय में हमने जैन आगम साहित्य में उपलब्ध विभिन्न दार्शनिक मतवादों का संक्षिप्त विमर्श प्रस्तुत किया है। जैनदर्शन सृष्टि के सम्बन्ध में द्वैतवादी है। वह चेतन-अचेतन की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। चेतन एवं अचेतन तत्त्व की पारस्परिक अन्तक्रिया से सृष्टि की उत्पत्ति उसे मान्य है। जगत् वैविध्य की व्याख्या भी वह काल, स्वभाव, नियति आदि किसी एक तत्त्व के आधार पर नहीं करता। उसके मन्तव्य के अनुसार इन सभी तत्त्वों का आपेक्षिक योगरहता है। किसी एक को वरीयता/ गरीयता प्रदान नहीं की जा सकती। सूत्रकृतांग में विभिन्न मतवादों का उल्लेख हुआ है एवं उनको समीचीन नहीं माना गया है। यद्यपि स्पष्ट रूप से वहां पर यह भी व्याख्यात नहीं हुआ है कि तद्विषयक जैन मन्तव्य क्या है ? किंतु उपर्युक्त मान्यताओं को पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित करने से जैन मन्तव्य स्वत: फलित हो जाता है। 000 1. सन्मतितर्कप्रकरण, 3/47 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ सूची __ग्रन्थ सूची मूलस्रोत क्रम ग्रंथ का नाम लेखक, सम्पादक संस्करण प्रकाशक वि.सं. 2031 जैन विश्व भारती, लाडनूं वि.सं. 2031 जैन विश्व भारती, लाडनूं 1. अंगसुत्ताणि (2) भगवई वा.प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल 2. अंगसुत्ताणि (3) अंतगडदसाओ वा.प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल 3. अणुओगदाराई संपादक आचार्य महाप्रज्ञ 4. अनुयोगद्वारचूर्णि जिनदासगणि महत्तर 1996 1928 जैन विश्व भारती, लाडनूं श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) श्री केशरबाई ज्ञानमंदिर, पाटण आदर्श साहित्य संघ, चूरू 5. अनुयोगद्वारमलधारीयावृत्ति मलधारी हेमचन्द्र 1939 6. अन्ययोगव्यवच्छेदिका संकलन-सा. जिनप्रभा/विमलप्रज्ञा 1998 (अमृत कलश-II) 7. अभिधम्मपटिके कथावत्थुपालि भिक्खु जगदीसकस्सपो 1961 8. अभिधम्मपिटके धम्मसंगणिपालि भिक्खु जगदीसकस्सपो 1960 पालि प्रकाशन मण्डल, नालन्दा पालि प्रकाशन मण्डल, नालन्दा 309 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ग्रंथ का नाम 9. अभिधर्मकोश लेखक, सम्पादक आचार्य वसुबन्ध अनु. नरेन्द्रदेव 310 10. अभिधर्मकोश भाग-2 आचार्य वसुबन्धु संपा. आचार्य नरेन्द्रदेव संपा. श्री पं. ब्रह्मदत्तजिज्ञासु जिनदासगणि 11. अष्टाध्यायी सूत्रपाठ 12. आचारांगचूर्णि संस्करण प्रकाशक 1958 हिन्दुस्तानी एकेडमी उत्तरप्रदेश, इलाहाबाद 1973 हिन्दुस्तानी एकेडमी उत्तरप्रदेश, इलाहाबाद 1989 श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट प्रेस, बहालगढ़ वि. सं. 1998 ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रत्नपुर (मालवा) 1928 आगमोदय समिति, बम्बई 1994 जैन विश्वभारती संस्थान (मा.वि.) लाडनूं 1978 मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलाजिक ट्रस्ट दिल्ली वीर. नि. सं. 2501 श्री गणेशवर्णी दिगम्बर, जैन संस्थान नरिया, वाराणसी वि. सं. 2031 जैन विश्वभारती, लाडनूं 13. आचारांगनियुक्ति आचार्य भद्रबाहु 14. आचारांगभाष्य आचार्य महाप्रज्ञ 15. आचारांग सूत्र सूत्रकृतांगसूत्रं च संपा. मुनि जम्बूविजय 16. आप्त-मीमांसा संपा. प्रो. उदयचन्द जैन 17. आयारो वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल जैन आगम में दर्शन 18. आवश्यक (नवसुत्ताणि) 1987 जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ग्रंथ का नाम 19. आवश्यकचूर्णि (पूर्वभाग) 20. आवश्यक नियुक्ति टीका भाग- 1 श्रीहरिभद्रसूरि 21. इन्द्रियवादी की चौपाई ( भिक्षुग्रन्थरत्नाकर - 1) 22. ईशादि नौ उपनिषद् 23. उत्तरज्झयणाणि- 1 24. उत्तराध्ययन बृहदवृत्ति 25. उपासकदशा (अंगसुत्ताणि भाग - 3 ) लेखक, सम्पादक श्री जिनदासगणि 26. उवंगसुत्ताणि खण्ड- 4 (जीवाजीवाभिगमे) संपा. आचार्य तुलसी हरिकृष्णदास गोयन्दका वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. विवे. युवाचार्य महाप्रज्ञ शान्त्याचार्य वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ सस्करण 1928 वि.सं. 2038 1960 वि. सं. 2014 1993 1973 1974 1987 प्रकाशक श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम श्री भेरुलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट चंदनबाला एपार्टमेन्ट्स, आर. आर. ठक्कर मार्ग, मुम्बई - 400006 जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, कलकत्ता घनश्यामदास जालान, गीता प्रेस, गोरखपुर जैन विश्वभारती संस्थान (मा.वि.) लाडनूं देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भाण्डागार संस्था, बम्बई जैन विश्व भारती, लाडनूं जैन विश्व भारती, लाडनूं ग्रन्थ सूची 311 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ग्रंथ का नाम 27. एकादशोपनिषद् 28. ऐतरेयोपनिषद् 29. ऋग्वेद (प्रथम मण्डल) 30. ऋग्वेद (9-10 मण्डल) 31. कर्म प्रकृति (श्रीमद् शिवशर्मसूरि विरचित) 32. कसायपाहुड 33. काठकोपनिषद् 34. केनोपनिषद् 35. गाथा लेखक, सम्पादक विद्यामार्तण्ड डॉ. सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार महर्षि दयानन्द सरस्वती महर्षि दयानन्द सरस्वती तत्त्वावधान आचार्य श्री नानेश संपा. देवकुमार जैन संपा. पं. फूलचन्द्र पं. महेन्द्र कुमार, पं. कैलाशचन्द वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा सस्करण 1988 वि. सं. 2025 2000 2000 1982 1944/1974 1977 वि.सं. 2026 1993 प्रकाशक विजयकृष्ण लखनपाल, डब्ल्यू-77 ए, ग्रेटर कैलाश, नई दिल्ली - 48 गीता प्रेस, गोरखपुर सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा महर्षिदयानन्द भवन रामलीला मैदान, नई दिल्ली सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा महर्षि दयानन्द भवन, रामलीला मैदान, नई दिल्ली - 02 श्री गणेशस्मृति ग्रन्थमाला, बीकानेर भा. द. जैनसंघ चौरासी, मथुरा आनन्दाश्रम संस्था, पुणे गीता प्रेस, गोरखपुर जैन विश्वभारती संस्थान (मा.वि.), लाडनूं 312 जैन आगम में दर्शन Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण ग्रन्थ सूची क्रम ग्रंथ का नाम 36. गोम्मटसार - 2 (कर्मकाण्ड) 37. छान्दोग्योपनिषद् 38. जैन सिद्धान्द दीपिका 39. ठाणं 1981 वि. सं. 20 2 3 लेखक, सम्पादक श्रीमन्नेमिचन्द्र, सिद्धान्तचक्रवर्ति भाष्यकार-शंकराचार्य आचार्य तुलसी वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. विवे. मुनि नथमल संपा. प्रो. सागरमल जैन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली गीता प्रेस, गोरखपुर आदर्श साहित्य संघ, चूरू जैन विश्व भारती, लाडनूं 1995 1976 40. तंदुलवेयालियपइण्णयं 1991 आगम अहिंसा समता एवं प्राकृत संस्थान उदयपुर (राजस्थान) भारतीयज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली 41. तत्त्वार्थवार्तिकम् (प्रथम भाग) भट्ट अकलंक 1993 संपा. प्रो. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य 42. तत्त्वार्थवार्तिकम् (द्वितीय भाग) भट्ट अकलंकदेव 1993 संपा. प्रो. महेन्द्र कुमार जैन 43. तत्त्वार्थधिगम सूत्रम् सिद्धसेनगणी वि. सं. 1986 (तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका) 44. तत्त्वोपप्लवसिंह जयराशिभट्ट प्रधान संपा. 1987 स्वामी द्वारिकादासशास्त्री 45. तर्कभाषा श्री केशवमिश्र डॉ. गजाननशास्त्री 1990 मुसलगांवकर देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड, बम्बई बौद्ध भारती, वाराणसी चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी 313 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण प्रकाशक क्रम ग्रंथ का नाम 46. तर्कसंग्रह लेखक, सम्पादक आचार्य केदारनाथ त्रिपाठी 314 1985 47. दशवैकालिकनियुक्ति 4 8. दशवैकालिकवृत्ति आचार्य भद्रबाहु आचार्य हरिभद्रसूरि 1973 वि. सं. 1918 प्राय मोतीलाल बनारसीदास दिल्ली, वाराणी, पटना, मद्रास प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, अहमदाबाद देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार भण्डारगार संस्था, बम्बई प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी आचार्य भद्रबाहु 1973 49. दसकालियसुत्तं नियुक्ति चूर्णि सहित 50. दसवेआलियं 1974 1974 जैन विश्वभारती, लाडनूं 1958 51. दीघनिकायपालि (सीलक्खन्धवग्गो) 52. द्रव्य संग्रह 5 3. द्रव्यानुयोगतर्कणा वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. विवे. मुनि नथमल प्रधान संशोधक भिक्षु जगदीशकाश्यप श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती श्रीमद् भोजकवि वी. सं. 2 4 75 1977 पालि प्रकाशन बोर्ड, बिहार सरकार नालन्दा (बिहार) भा.दि.जैन संघ, मथुरा श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास विजयलावण्य सूरीश्वर ज्ञानमन्दिर, बोटाद (सौराष्ट्र) जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं 1977 54. द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका (किरणावली विवृत्तियुक्ता) 55. नंदी सिद्धसेन दिवाकर संपा. विजयसुशील सूरि वा. प्र. गणाधिपति तुलसी संपा. विवे. आचार्य महाप्रज्ञ जैन आगम में दर्शन 1997 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण प्रकाशक क्रम ग्रंथ का नाम 5 6. नंदी-अणुओगदाराई 57. नंदीचूर्णि ग्रन्थ सूची 1968 1966 प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस लेखक, सम्पादक मुनि पुण्यविजय श्री जिनदासगणि संपा. मुनि श्री पुण्यविजयजी आचार्य मलयगिरि आचार्य हरिभद्र माइल्लधवल संपा. अनु. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री कुन्दकुन्दाचार्य 58. नंदी (मलगिरिया) टीका 59. नंदी टीका 1917 1966 आगमोदय समिति, सूरत प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, बनारस भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली 60. नयचक्र 1971 61. नियमसार 1984 साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट ए-4, बापूनगर जयपुर जैन विश्वभारती, लाडनूं 62. नियुक्तिपंचक 1999 6 3. निशीथ सूत्रम् तृतीय विभागः 1982 प्र. संपा. आचार्य महाप्रज्ञ संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा उपा. कवि श्री अमरमुनि मुनि श्री कन्हैयालाल कमल आचार्य उदयवीर शास्त्री संपा. गंगनाथ झा भारतीय विद्या प्रकाशन यू. बी. जवाहरनगर, बैंग्लो रोड़, दिल्ली गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली - 06 पूना ओरियण्टल सीरिज, 58 1991 64. न्यायदर्शनम् 65. न्यायभाष्य (वात्स्यायन) 1939 315 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक, सम्पादक संस्करण प्रकाशक 316 क्रम ग्रंथ का नाम 6 6. न्यायमञ्जरी वॉल्यूम-1 (प्रथम संपुट) 67. न्यायवार्तिक जयन्त भट्ट 1970 प्राच्यविद्यासंशोधनालयः मैसूरविश्वविद्यानिलय, मैसूर 1916 बनारस संपा. वी. पी. द्विवेद एवं एल. एस. द्रविड़ गौतम संपा. हीरालाल जैन कुन्दकुन्दाचार्य 6 8. न्यायसूत्र 69. पञ्चसंग्रह (दिगम्बर) 70. पञ्चास्तिकायः 1976 वि. सं. 2017 1986 बौद्ध भारती, वाराणसी भारतीय ज्ञानपीठ, काशी श्रीपरमश्रुत प्रभावक मंडल श्रीमद् राजचन्द्र, आश्रम, अगास आदर्श साहित्य संघ, चूरू आचार्य अमितगति 1998 71. परमात्मद्वात्रिंशिका (अमृत कलश-1) 72. पातञ्जलयोगदर्शनम् 73. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय 74. प्रज्ञापनावृत्ति 75. प्रभावक चरित श्रीमत् स्वामी हरिहरानन्द आरण्य 1991 श्री अमृतचन्द्राचार्य वि. सं. 20 22 श्रीमन्मलयगिर्याचार्य 1918 श्री प्रभाचन्द्राचार्य 1940 मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास आगमोदय समिति, मेहसाणा, गुजरात सिंघी जैन ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, कलकत्ता दीपचन्द बांठिया, उज्जैन (मालवा) जैन आगम में दर्शन 76. प्रमाणनयतत्त्वालोक वादिदेव सूरि वि. सं. 1989 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण वि.सं. 1995 ग्रन्थ सूची क्रम ग्रंथ का नाम 77. प्रमाण-मीमांसा 78. प्रवचन सार 79. प्रवचनसार सप्तदशांगी टीका लेखक, सम्पादक संपा. पं. सुखलाल संघवी कुन्दकुन्द आचार्य कुन्दकुन्द 1955 1979 80. प्रवचनसारोद्धार नेमिचन्द्र सूरि वि. सं. 1978 1988 81. प्रश्नोत्तरतत्त्वबोध 82. प्रशमरतिप्रकरण 8 3. प्राकृत व्याकरण (प्रथम खण्ड) जयाचार्य श्रीमद् उमास्वाति आचार्य हेमचन्द्र प्रकाशक । सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद बम्बई खेमचन्द्र जैन सर्राफ मंत्री श्री सहजानन्द शास्त्रीमाला, 185, रणजीतपुरी, सदर, मेरठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था, बम्बई जैन विश्वभारती, लाडनूं श्री परमश्रुतप्रभावक मण्डल, अगास आचार्यश्री आत्माराम जैन, मॉडल स्कूल, 29 डी, कमलानगर, देहली-7 आत्मानन्द जैन सभा भावनगर श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास गीता प्रेस, गोरखपुर गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली- 6 1950 1974 1933 84. बृहत्कल्पसूत्र (पीठिका) 85. बृहद्र्व्य संग्रह संपा. मुनि पुण्य विजयजी श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्ती वि. सं. 2045 8 6. बृहदारण्यकोपनिषद् 87. ब्रह्मसूत्र 317 उदयवीर शास्त्री 1991 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक 318 जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं (राज.) जैन विश्वभारती, लाडनूं क्रम ग्रंथ का नाम लेखक, सम्पादक संस्करण 8 8. भगवई विआहपण्णत्ती (खण्ड-1) वा. प्र. गणाधिपति तुलसी 1994 संपा. भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ 89. भगवई विआहपण्णत्ती (खण्ड-2) वा. प्र. आचार्य तुलसी 2000 संपा. आचार्य महाप्रज्ञ 90. भगवती जोड ले. जयाचार्य, प्रवा. आचार्य तुलसी 1981 संपा. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा 91. भगवतीवृत्ति अभयदेव सूरि वि. सं. 2049 92. भिक्षुन्याय कर्णिका आचार्य तुलसी 1970 93. मज्झिमनिकायपालि प्र. संपा. भिक्खु जगदीसकस्सपो 1958 जैन विश्वभारती, लाडनूं 94. मनुस्मृतिः संपा. ज.ह. दवे 1972 श्री जिनशासन आराधना ट्रस्ट, मुम्बई आदर्श साहित्य संघ, चूरू पाली पब्लिकेशन बोर्ड, (बिहार सरकार) नालन्दा भारतीय विद्या भवनम् चौपाटी मार्ग, मुम्बई - 07 स्वाध्यायमण्डल, भारत मुद्रणालय पारडी जिला-बलसाड, गुजरात गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली-6 1979 95. महाभारत शान्ति पर्व (पहिला भाग) संपा. डॉ. पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर 96. मीमांसादर्शनम् जैन आगम में दर्शन आचार्य उदयवीरशास्त्री ___ 1991 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ग्रंथ का नाम लेखक, सम्पादक संस्करण प्रकाशक । ग्रन्थ सूची 1965 97. मूलाराधना 98. योगशास्त्रम् 99. रत्नकरण्डक श्रावकाचार शिवार्य श्री हेमचन्द्राचार्य स्वामी समन्तभद्र 1926 सोलापुर श्री जैन धर्मप्रसारकसभा, भावनगर माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला समिति, 1982 बम्बई 1987 जैन विश्वभारती, लाडनूं 100.रायपसेणइयं (उवंगसुत्ताणि-4) वा.प्र. आचार्य तुलसी खण्ड-1 संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ 101. वसुनन्दि श्रावकाचार आचार्य वसुनन्दि 10 2. विशेषावश्यकभाष्य (प्रथम भाग) जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण 1952 वि. सं. 2039 वीर सं. 24 89 103.विशेषावश्यकभाष्य (द्वितीय भाग) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण 10 4. विसुद्धिमग्गो (पठमो भागो) संपा. डॉ. खेतधम्मो 1969 भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, बनारस-4 दिव्य दर्शन ट्रस्ट-6 8, गुलालवाडी, बीजे माले, मुम्बई- 400 004 दिव्यदर्शन कार्यालय, अहमदाबाद वाराणसेय संस्कृत, विश्वविद्यालय, वाराणसी चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी-221 001 श्री स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती, गाजियाबाद (मेरठ), उत्तरप्रदेश 105.वेदान्तसार श्री सदानन्द 1990 10 6. वैशेषिकदर्शनम् संपा. उदयवीर शास्त्री 1972 319 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण प्रकाशक 320 107.व्यवहारभाष्य 1996 जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं 1978 क्रम ग्रंथ का नाम लेखक, सम्पादक प्रधान संपा. आचार्य महाप्रज्ञ संपा. समणी कुसुमप्रज्ञा 10 8.श्लोक वार्तिक द्वारिकादास शास्त्री 109. श्रावकधर्म विधि प्रकरण । वृत्तिकार श्रीमान् देव सूरि 1 10. श्री भाष्यम् (द्वितीय भाग) हिन्दी टीकाकार ललित कृष्ण गोस्वामी 111. श्रीमदावश्यकसूत्रं (पूर्वभाग) आचार्य भद्रबाहु (नियुक्तिचूर्णियुत) 112. श्रीमदावश्यकसूत्रं (उतर भागः) आचार्य भद्रबाहु 1924 तारा पब्लिकेशन्स, वाराणसी श्री जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली 2000 1928 1929 11 3. श्रीमद् भगवद्गीता 114. श्री व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्रम् 1-3 अभयदेवसूरि वि. सं. 20 50 वि. सं. 20 49 श्री जैन बन्धुमुद्रणालयाधिपः श्रेष्ठी जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा, इन्दौर श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम गीता प्रेस, गोरखपुर श्री जिनशासन आराधना, ट्रस्ट दुकान नं. 5-6-7-82, बद्रीकेश्वर सोसायटी मरीन ड्राइव, इ, रोड मुम्बई सूर्य पुरीयश्री जैनानंद मुद्रणालय व्यापारयिता शा. मोहनलाल मगनलाल बदाम 115. श्री सूत्रकृतांगचूर्णि जिनदासगणि 1941 जैन आगम में दर्शन Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्करण प्रकाशक ग्रन्थ सूची वि. सं. 2027 1973 क्रम ग्रंथ का नाम लेखक, सम्पादक 116. श्वेताश्वतरोपनिषद् भाष्यकार-शंकराचार्य 11 7. षट-खण्डागम जीवस्थान स्व. डॉ. हीरालाल जैन सत्प्ररूपणा - 1, पुस्तक- स्व. डॉ. ए. एन. उपाध्ये 118. षट्खण्डागमः (धवला-पुष्प-1) डॉ. हीरालाल जैन 119. षड्दर्शन समुच्चय डॉ. महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य 12 0. सन्मति प्रकरण अनु. पं. सुखलाल संघवी पं. बेचरदास दोशी 1 2 1. सभाष्यतत्त्वार्थधिगमसूत्र पं. खूबचन्द्र 122. समयसार आचार्य कुन्दकुन्द 2000 1997 1932 गीता प्रेस, गोरखपुर जैन संस्कृति संरक्षक संघ संतोष भुवन फलटण गल्ली सोलापुर (महाराष्ट्र) जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली श्री पूंजीभाई जैन ग्रंथमाला कार्यालय अहमदाबाद श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट सोनगढ़ (सौराष्ट्र) जैन विश्वभारती, लाडनूं 1932 1982 123.समयसार अनु. पं. परमेष्ठीदास 1964 124. समवाओ 1984 125. सर्वार्थसिद्धि वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. विवे. युवाचार्य महाप्रज्ञ संपा. सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द शास्त्री भिक्खु जगदीशकस्सपो 1999 भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली 321 1 2 6. सुत्तपिटके संयुत्तनिकायपालि 1959 पालि प्रकाशन मण्डल, नालंदा Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम ग्रंथ का नाम लेखक, सम्पादक संस्करण प्रकाशक 322 2001 127. सुश्रुतसंहिता 1 2 8. सूयगडगसुत्तं आचार्य अनन्तराम शर्मा मुनि जम्बूविजय 1978 चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, 400 036 जैन विश्वभारती, लाडनूं (राजस्थान) 1 29. सूयगडो-1 1984 130.सूयगडो-2 वा. प्र. आचार्य तुलसी संपा. विवे. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा.प्र. आचार्य तुलसी संपा. विवे. युवाचार्य महाप्रज्ञ संपा. मुनि जम्बूविजय 1986 131. स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रं च 1985 अनेकान्त शोधपीठ जैन विश्वभारती, लाडनूं मोतीलाल बनारसीदास इण्डोलॉजिक ट्रस्ट, दिल्ली श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास 132. स्याद्वादमञ्जरी श्री मल्लिषेण सूरि 1979 सहायक ग्रन्थ (अ-हिन्दी) ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक क्रम लेखक 1. अवस्थी नरेन्द्र 1997 वैदिक अध्ययन केन्द्र, जोधपुर शाश्वत (आचार्य दयानन्द भार्गव अभिनन्दन ग्रंथ) जैन आगम में दर्शन 2. जयाचार्य आराधना (अमृतकलश-1) 1998 आदर्श साहित्य संघ, चूरू Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ का नाम प्रकाशक क्रम लेखक 3. जैन कपूरचन्द्र संस्करण 1991 ग्रन्थ सूची प्राकृत एवं जैन विद्याकोश संदर्भ 4. जैन जगदीशचन्द्र 5. जैन सागरमल 6. जैन हरीन्द्रभूषण श्री कैलाशचन्द्र जैन स्मृति न्यास, खतौली चौखम्भा विद्याभवन, वाराणसी पार्श्वनाथ विद्यापीठ सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा-2 प्राकृत साहित्य का इतिहास वि. सं. 1985 सागर जैन विद्याभारती, भाग-2 1995 जैन अंग शास्त्र के अनुसार मानव- 1974 व्यक्तित्व का विकास डॉ. सागरमल जैन अभिनंदन ग्रंथ 1998 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-1 7. डॉ. श्रीप्रकाश पाण्डेय 8. दोशी बेचरदास 9. द्विवेदी कपिलदेव आचार शिक्षा 1984 10. नरेन्द्र देव आचार्य बौद्ध धर्म-दर्शन 1994 पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 1989 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी विश्वभारती अनुसंधान परिषद् शांतिनिकेतन, ज्ञानपुर, वाराणसी मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्राइवेट लिमिटेड, दिल्ली आदर्श साहित्य संघ, चुरू आदर्श साहित्य संघ, चूरू जैन विद्या अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर 1998 11. मंगलप्रज्ञा समणी 12. मंगलप्रज्ञा समणी आर्हती दृष्टि व्रात्य दर्शन जैन न्याय का विकास 2000 13. महाप्रज्ञ आचार्य 1977 323 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम लेखक ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक 324 14. महाप्रज्ञ आचार्य 1995 1997 15. महाप्रज्ञ आचार्य 16. महाप्रज्ञ आचार्य 1999 17. महाप्रज्ञ आचार्य जैन दर्शन मनन और मीमांसा कर्मवाद जैन दर्शन और अनेकान्त मनन और मूल्यांकन अस्तित्व और अहिंसा आत्म मीमांसा जैन दर्शन का आदिकाल 1983 1990 18. महाप्रज्ञ आचार्य 19. मालवणिया दलसुख 20. मालवणिया दलसुख 1953 1980 आदर्श साहित्य संघ, चूरू आदर्श साहित्य संघ, चूरू आदर्श साहित्य संघ, चूरू आदर्श साहित्य संघ, चूरू जैन विश्वभारती, लाडनूं जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, बनारस लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद-09 प्राकृतभारती अकादमी जयपुर एवं श्री जैन श्वेताम्बर नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर राजस्थान केसरी अध्यात्मयोगी श्री पुष्कर, मुनि अभिनंदन ग्रंथ प्रकाशन समिति, बम्बई, उदयपुर पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी-5 21. मालवणिया दलसुख आगमयुग का जैन दर्शन 1990 22. मुनि देवेन्द्र आचार्य श्री पुष्कर मुनि अभिनंदन ग्रंथ 1979 23. मेहता मोहनलाल जैन जगदीशचन्द्र जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-2 (अंगबाह्य) जैन आगम में दर्शन Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम लेखक ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक ग्रन्थ सूची 24. रानाडे दत्तात्रेय, रामचन्द्र उपनिषद् दर्शन का रचनात्मक सर्वेक्षण 1999 25. श्रुतयशा साध्वी 26. शुक्ल, जे. पी. 27. संघवी सुखलाल ज्ञान मीमांसा आधुनिक पाश्चात्य दर्शन दर्शन और चिंतन खण्ड-1-2 1997 1957 1989 राजस्थान हिन्दी ग्रंथ, अकादमी, जयपुर (राजस्थान) जैन विश्वभारती, लाडनूं मध्यप्रदेश हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल पं. सुखलाल जी सन्मान समिति गुजरात विद्यासभा, अहमदाबाद-1 ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद किताब महल, 2 2 -ए, सरोजनी नायडू मार्ग, इलाहाबाद- 01 जैन विश्व भारती, लाडनूं 1960 2 8. संघवी सुखलाल 29. सांकृत्यायन राहुल भारतीय तत्त्वविद्या दर्शन दिग्दर्शन 1998 30. सिंह रामजी जैन दर्शन चिन्तन-अनुचिन्तन 1993 सहायक ग्रन्थ (बी-अंग्रेजी) 1. Bhargava Dayanand Jaina Ethics 1968 2. Bhaskar Bhagchandra Jain 3. Bhatttacharya Hari satya Jainism in Buddhist Literatuere 1972 Reals in the Jaina Metaphysics 1966 Motilal Banarsidass Delhi, Varanasi Patna Alok Prakashan, Nagpur The seth santi das Khetsy Charitable Trust Bombay 325 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक 326 क्रम लेखक ग्रन्थ का नाम संस्करण 4. Bhattacharya Narendra Nath Jaina Philosophy Historical Outline 1976 5. Charpentier Jarl The Uttaradhyayanasutra 1980 6. Deleu Jozef Viyahapannatti 1970 7. Deo, S. B. 8. Gambhirananda Swami History of Jain Monachism Chandogya Upanisad 1956 1992 Munshiram Manoharlal Publishers, Pvt. Ltd. Delhi Ajay Book Service 704, chandni Mahal, Darya Ganj, New Delhi-2 De Tempel Tempelhof 37, Brugge (Belgie) Deccan College, Poona Advaita Ashram Publication Department 5 Dahi Entally road Calcutta 700014 The Trustees, Bai vijibai Jivanlal Pannalal charity fund. Bombay John Murray Albemarle street W. Bantam Books, New-York 9. Glasenapp Helmuth The Doctrine of Karman in Jain Philosophy 1942 10. Gomperz Theoder 11. Hawking Stephen 12. Jacobi Hermann 1964 1990 The Greek Thinkers Vol.1 A Brief History of Time History of Time Jaina Sutras Part II (The Secred book of East) Jaina Sutras 1980 i3. Jacobi Hermann 1990 Motilal Banarsidars Delhi Atlantic Publishers & Distributors Delhi Vir sewa Mandir 21 Daryaganj New Delhi 2 14. Jain Babu chhote lal जैन आगम में दर्शन 1982 Jaina Bibliography Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ का नाम संस्करण प्रकाशक क्रम लेखक 15. Jain Champat Raj ग्रन्थ सूची Fundamentals of Jainism 1974 16. Jain Jagdischandra 17. Jaini Padmanabh S. 18. Jayatilleke K. N. 19. Jha Nirmala 20. Kapadia Hiralal Rasikdas Life in Ancient India as 1984 Depicted in Jaina Canon and Commentaries The Jaina Path of Purification 1990 Early Buddhist Theory of 1963 Knowledge Law of Karma 1985 A History of the canonical 1941 literature of the Jains The Jain Philosophy of 1978 Non-absolutism Illuminator of Jaina Tenets (Ganadhipati Tulsi) 1995 Indian Philosophy 1977 Veer Nirvan Bharti, Meerut Munshiram Manoharlal Publishers Pvt. Ltd. Delhi Motilal Banarsidass, Delhi London George Allen & Unwin Ltd. Ruskin house Museum strat Capital Publishing house, Delhi 6 Hiralal Rasikdas Kapadia Sankdi Shere, Gopipura, Surat Motilal Banarsidass Delhi Varanasi, Patna Anekanta sodhpeetha Jain Vishva Bharati Lodon: George Alen & Unwin Ltd. New York: Humanities press Inc Sohanlal Jaindharma Prachark samiti Amritsar Gauranga Gopal Sengupta Punthi pustak Calcutta 21. Mookerjee Satakari 22. Mookerjee Satakari 23. Radhakrishnan 24. Sen Madhur 1975 A Cultural study of the Nisitha curni Indology and its Eminent 25. Savants Western 1996 327 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम लेखक ग्रन्थ का नाम सस्करण प्रकाशक 328 26. Schubring, Walther 27. Sen handra 1978 1931 The Doctrine of the Jainas Schools and Sects in Jaina Literature Jaina Epistemology 28. Shastri Dr. Indra Chandra 1990 29. Sikdar J.C. Studies in the Bhgawatisutra 1964 30. Sikdar J.C. 1987 Concept of matter in Jaina Philosophy Jaina Theory of Reality 31. Sikdar Dr. J. C. 1991 Motilal Banarsidass, Delhi Visva Bharati Book-Shop 210 Cornwallis Street, Calcutta Parshavanath Vidyasram Shodhsamsathan, Varansi-05 Research instiute of Parakrit, - Jainology & Ahimsa, Muzaffarpur Parshavanath Vidyasram Shodhsamsathan, Varansi-05 Parshavanath Vidyasram Shodhsamsathan, Varansi-05 Lalchand Hirachand Doshi Jaina Samskriti Samrakshaka Sangha Sholapur Jain Cultural Research Society Banaras-6 Max Mulier Bhavan New Delhi Motilal Banarsidass, Delhi 32. Sogani K,C. Ethical Doctrines in Jainism 1967 33. Tatia N.M. Studies in Jaina Philosophy 1951 34. Weishe Agnes stache German indologists 1990 जैन आगम में दर्शन 35. Winternitz Maurice History of Indian Literature-Vol-II 1993 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ सूची प्रकाशक कोश क्रम ग्रंथ का नाम लेखक, सम्पादक संस्करण !. अभिधानचिन्तामणि श्री हेमचन्द्रचार्य 1996 2. अभिधानराजेन्द्र भाग-2 विजयराजेन्द्रसूरि 1985 3. आगम शब्दकोश वा. प्र. आचार्य तुलसी 1980 (अंगसुत्ताणि शब्दसूची) संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ 4. आप्टे संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी वी.एस. आप्टे 1924 5. उपनिषद्वाक्यमहाकोषः श्री गजानन शम्भु साधले 1990 6. जैनन्द्र सिद्धान्तकोश क्षु. जिनेन्द्रवर्णी 1986 7. वाचस्पत्यम् (प्रथमो भाग) श्री तारानाथ तर्कवाचस्पति भट्टाचार्य 1969 चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी लोगोज प्रेस, नई दिल्ली जैन विश्वभारती, लाडनूं 1967 8. शब्दकल्पद्रुम -1 9. श्रीभिक्षुआगमविषय कोश-1 1996 राजा राधाकान्तदेव संपा. साध्वी विमलप्रज्ञा साध्वी सिद्धप्रज्ञा James Hastings गोपाल नारायण एण्ड कम्पनी, बाम्बे चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन चौखम्भा संस्कृत सीरिज ऑफिस, वाराणसी - 01 वाराणसी जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं Edinburgh: T.&T. Clark, 38 Gaorge Street New york: Charles scibner's sons, 597 Fifth Avenue Encyclopaedia Britannica Inc. Publishing Group, Chicago 10. Encyclopaedia of Religion and ethics Vol-Viji 1974 11. The New Encyclopaedia Britannica Vol.6 Peter B. Norton Joseph J. Esposit 1994 329 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समणी मंगलप्रज्ञा शिष्या : युगप्रधान आचार्य महाप्रज्ञ जन्म : 5 अप्रेल 1962 मोमासर (राज.) दीक्षा : परमश्रद्धेय आचार्य श्री तुलसी के कर-कमलों से 24 अप्रेल 1984 मोमासर शिक्षा : एम. ए. (जैन दर्शन एवं पी. एच. डी. प्रकाशन : 1 आर्हती दृष्टि 2 व्रात्य दर्शन 3 अनेक शोध प्रबन्ध एव अन्य निबन्ध दायित्व: समणी नियोजिका (सन 1995-1998) संयोजक - भिक्षु चेतना वर्ष सह-प्रभारी-विदेश विभाग सदस्य - प्रबन्ध, मण्डल, जैन विश्वभारती संस्थान, (डीम्ड युनिवर्सिटी) लाडनूं (राज.) सदस्य - विद्या परिषद्, जैन विश्वभारती संस्थान,लाडनूं निदेशक - महादेवलाल सरावगी अनेकान्त शोधपीठ अध्यापन स्थल : 1. ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं 2. जैन विश्व भारती, लाडनूं 3. जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं (डीम्ड युनिवर्सिटी) लाडनूं 4. आचार्य तुलसी अमृत महाविद्यालय, गंगापुर शिविर संचालन : प्रेक्षाध्यान, जीवन विज्ञान, जैन तत्त्वज्ञान, संस्कार निर्माण, व्यक्तित्व विकास कार्यशाला आदि। यात्रा : (भारत) राजस्थान, हरियाण, पंजाब, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडू, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, बंगाल, बिहार, जम्मू विदेश यात्रा : अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, होलैंड, जर्मनी, आस्ट्रिया, स्वीडन, माल्टा, इटली, स्विट्जरलैंड, हांगकांग, बैंकांग, सिंगापुर, मलेशिया, इंडोनेशिया, जापान, चाइना, नेपाल / Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवारकोडकरायाटवादावाचा लरकोदवानशिकपिलासी जीवाशप्रयकाकपालापन प्रीया कटनीवनपोलासबन्दनापलनातेदने नि उपनिवउलेट्समानइulsarams नामल. पाखीवदनकऊऊमरस टास्नरो-पनवघोबासकमयोनरवटा सयगडो द्वितीय खण्ड बनियाद ख्या :पुर मन विष जि मकरण वदति नदि ताततकि अंगसत्ताणि भगवाई (खण्ड ओबाइयं रायपसेणियं जीवाजीवाभिगमे मारनाम्खनश्कान कोकरुषमएकमना वातमाटममयम पाम्पनेचितामलिताना मायावतोश्यका अनसतशमला असोजसमकसनविक्रमादनालका लाभानमधमूलतेदावीतंय नापतिर्मनकषानमन नकारनाताराने नागपातयतिषमादावर पापवरकरिगवाटा नादलीनरुपचितारनपत अपामानश्चर्मनाविपकविलं इवानकारी बनतेपमादीमकलकर नारे चितारनंदिकरतिका वामपडामघमत बिहानरपतवाविवश्कल कादनउषमतेत्रत किवादिन नवनपोन्मूल्पकल्पडम चितारत्रमयास्यवस्वशीर्वतेतेङमा साभारतबजेटसी जिकमनुष्यपुष्पश्करीपायन शर्मसंयोगतपतलोमीन जाददाश्मोलोगविषयनीतिजाधाराषुतानकादीमा मनयतंचंपरिक्षत्यसपथमाधावतितोगावाय आचार्य सुल गणाधिपति तुलसी आचार्य महाप्रश कारण विज्जा च जैन विश्व भारती, लाडनू (राज.) la Lalication international www.jainelibrariorgi