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________________ आचार मीमांसा कि कर्म है एवं उसकी कारणभूत क्रिया है जिससे आत्मा का संसार में अनुसंचरण हो रहा है । इसलिए आचारांग में आचार के आधार के रूप में चार वादों का उल्लेख है । आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद एवं क्रियावाद' का आचार-मीमांसा के संदर्भ में मूल्यांकन करना बहुत ही महत्त्वपूर्ण होगा । आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार ये चारों वाद सम्पूर्ण आचार-शास्त्र के आधार हैं। इस अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए उन्होंने लिखा है कि सबसे पहला तत्त्व है - आत्मा, आत्मा के ज्ञात हो जाने पर यह ज्ञात हो जाता है कि लोक है। लोक का अर्थ है - पुद्गल । पुद्गल दृश्य है । लोक्यते इति लोक: जो दृष्ट होता है, वह लोक है। पुद्गल देखा जाता है, इसलिए उसे लोक कहा गया है। जो आत्मा को जान लेता है, वह पुद्गल को जान लेता है। जो आत्मवादी है, वह लोकवादी है । आत्मा भी हो और पुद्गल भी हो, किंतु यदि उनमें कोई सम्बन्ध न हो तो न आत्मा पुद्गल को प्रभावित कर सकती है और न पुद्गल आत्मा को प्रभावित कर सकता है । यदि केवल चेतन ही होता अथवा केवल पुद्गल ही होता तो परिभ्रमण का कोई हेतु ही नहीं होता किंतु कर्म नाम का तीसरा तत्त्व आत्मा एवं पुद्गल के सम्बन्ध का परिचायक है । यह कर्म ही आत्मा के संसार - परिभ्रमण का हेतु है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध है और उस सम्बन्ध का सेतु है - क्रिया । अक्रिय अवस्था में कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकत' । जैसे-जैसे कषाय क्षीण होते हैं, अक्रिया की स्थिति आने लगती है, तब आत्मा और क.. का सम्बन्ध क्षीण होने लगता है। जब चौदहवें गुणस्थान पूर्ण अक्रिया की स्थिति घ " जाती है, तब सारे सम्बन्ध नष्ट हो जाते हैं । 2 रत्नत्रय : मोक्षमार्ग 249 कर्म आत्मा के मौलिक गुणों का आच्छादन एवं घात करते हैं, फलस्वरूप आत्मविस्मृति हो जाती है और अनन्त संसार में परिभ्रमण होता रहता है। आचार-मीमांसीय तत्त्व इस विजातीय सम्बन्ध को तोड़ने का प्रयत्न करते हैं। सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र रूप रत्नत्रय के परम प्रकर्ष के द्वारा वह विजातीय सम्बन्ध समाप्त हो जाता है तथा आचार का परम शुभ रूप मोक्ष प्राप्त हो जाता है । सम्यक् दर्शन ज्ञान एवं चारित्र रूप रत्नत्रय समन्वित रूप से मोक्ष का मार्ग है । ' निश्रेयस् की प्राप्ति रत्नत्रय का अनुपालन करने से ही संभव है। जैन आचार में ज्ञान एवं चारित्र / आचरण को समान रूप से महत्त्व प्राप्त है। दोनों संयुक्त होकर ही मोक्षाराधना के हेतु बन सकते हैं। आध्यात्मिक विकास के लिए आचार का प्रथम सोपान सम्यग्दर्शन है । सम्यक् दर्शन के अभाव में ज्ञान एवं क्रिया दोनों ही फलवान् नहीं बन सकते।' अतः आध्यात्मिक आरोहण 1. आयारो, 1 / 5, से आयावई, लोगवई, कम्मावाई, किरि वाई । 2. महाप्रज्ञ, आचार्य, मनन और मूल्यांकन, (चूरू, 1983 ) पृ. 5 3. तत्त्वार्थाधिगम, सूत्र 1 / सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । 4. (अमृतकलश I) आराधना, (ले. जयाचार्य, चूरू, 1998) 8 / 4, जे समकित बिण म्हैं, चारित्र नीं किरिया रे । बार अनन्त करी, , पिण काज न सरिया रे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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