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जैन आगम में दर्शन
के लिए सम्यक् दर्शन का होना प्राथमिक अनिवार्यता है । सम्यक्दर्शन की प्राप्ति के साथ ही ज्ञान स्वत: ही सम्यक् बन जाता है। उसके लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती । समीचीन ज्ञान की पूर्णता चारित्र से प्राप्त होती है। ज्ञान की समग्रता साधना के बिना संभव नहीं है । इसलिए मुक्ति का अनन्तर कारण चारित्र / आचार ही है। दर्शन एवं ज्ञान को क्रम की दृष्टि से परम्पर कारण कहा जा सकता है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में मोक्षमार्ग के निरूपण प्रसंग में इनका जो क्रम रखा है उससे इनकी परम्पर एवं अनन्तर कारणता का बोध हो जाता है ।
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ज्ञान, दर्शन और चारित्र का त्रिवेणी संगम प्राणिमात्र में होता है, पर उससे साध्य सिद्ध नहीं होता। ये तीनों यथार्थ और अयथार्थ- दोनों प्रकार के होते हैं। श्रेयस् की साधना यथार्थ दर्शन, ज्ञान और चारित्र से होती है । साधना की दृष्टि से सम्यक् दर्शन का स्थान पहला है, सम्यक् ज्ञान का दूसरा और सम्यक् चारित्र का तीसरा । दर्शन के बिना ज्ञान, ज्ञान के बिना चारित्र, चारित्र के बिना कर्म-मोक्ष और कर्म-मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं हो सकता।' जब ये तीनों पूर्ण होते हैं तब साध्य सध जाता है। आत्मा कर्म मुक्त हो परमात्मा बन जाती है। जैन दर्शन भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग - इन तीनों को संयुक्त रूप में मोक्ष का मार्ग मानता है । सम्यक् दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र को क्रमश: भक्तियोग, ज्ञानयोग एवं कर्मयोग कहा जा सकता है । उत्तराध्ययन में मोक्ष मार्ग के रूप में तप का भी उल्लेख हुआ है । ' तप का अन्तर्भाव चारित्र में ही हो जाता है।
त्रिरत्न एवं अष्टांग मार्ग
बौद्ध दर्शन में वर्णित निर्वाण प्राप्ति के अष्टांग मार्ग की तुलना जैन सम्भत त्रिरत्न से की जा सकती है। बौद्ध दर्शन ने अष्टअंग युक्त निर्वाण मार्ग का उल्लेख किया है जिसे अष्टांगिक मार्ग कहा जाता है। वे आठ अंग निम्न हैं
1. सम्यक् दृष्टि 2. सम्यक् संकल्प
3. सम्यक् वचन
4. सम्यक् कर्मान्त
5. सम्यक् आजीव
6. सम्यक् व्यायाम
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1. उत्तरज्झयणाणि, 28 / 30, नादंसणिस्स नाणं नाणेण विणा न हुन्ति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥
2. वही, 28 / 2, नाणं च दंसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा ।
एस मग्गो त्ति पण्णत्तो जिणेहिं वरदंसिहिं ।
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