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आचार मीमांसा
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7. सम्यक् स्मृति और 8. सम्यक् समाधि ।'
जैन दर्शन में वर्णित मोक्ष-मार्ग के तीन घटक तत्त्वों से इनकी काफी समानता परिलक्षित हो रही है। जैन एवं बौद्ध दोनों ही परम्परा में सम्यक् दर्शन/सम्यक् दृष्टि मोक्ष मार्ग के प्रथम घटक तत्त्व के रूप में स्वीकृत हैं। सम्यक् संकल्प की समानता सम्यक् ज्ञान के साथ है। सम्यक् चारित्र में बौद्ध वर्णित अन्य छह अंगों का समावेश हो जाता है। बौद्ध दर्शन में चारित्र के अंगों का विस्तार कर दिया, यदि हम आचार के अंगों का विस्तार करें तो छह से भी अधिक उसके प्रकार हो सकते हैं अत: जैन मोक्ष मार्ग के घटक तत्त्व के रूप में सम्यक् चारित्र का ही उल्लेख किया गया है। उसके उपभेदों का उल्लेख नहीं किया, जैसा कि बौद्ध दर्शन में किया गया है। आचार के भेद
आचार आसेवनात्मक होता है। सामान्यत: आचार का सम्बन्ध चारित्र के साथ ही जोड़ा जाता है। किंतु जैन परम्परा में आचार की अवधारणापर व्यापक विचार हुआ है। उसका सम्बन्ध कोरे चारित्र के साथ ही नहीं है किंतु ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप एवं वीर्य - इन सबके साथ है। जैन परम्परा के अनुसार आचार पांच प्रकार का है-1. ज्ञानाचार 2. दर्शनाचार 3. चारित्राचार 4. तप आचार 5. वीर्याचार ।' ज्ञानाचार
आचार अभ्यासात्मक होता है। उसका आसेवन किया जाता है। मनुष्य का क्रियात्मक पक्ष ही आचार है। ज्ञानाचार का तात्पर्य श्रुतज्ञान विषयक आचरण है। यद्यपि मति आदि पांच ज्ञान हैं किंतु व्यवहारात्मक ज्ञान केवल श्रुतज्ञान ही है। मति, अवधि, मन:पर्यवएवं केवलज्ञान ये चार ज्ञान असंव्यवहार्य है। हमारा सारा व्यवहार श्रुतज्ञान के आधार पर ही चलता है। श्रुतज्ञान के अतिरिक्त शेष ज्ञान शब्दातीत हैं, अत: वे अपने स्वरूप का विश्लेषण करने में असमर्थ हैं। असमर्थता के कारण ही अनुयोगद्वार में इनको स्थाप्य कहा है। चूर्णिकार एवं टीकाकार के अनुसार स्थाप्य का अर्थ असंव्यवहार्य है। जिसका दूसरों के लिए उपयोग हो सके वह व्यवहार्य होता है। श्रुतज्ञान शब्दात्मक है इसलिए वह संव्यवहार्य और लोकोपकारक है। श्रुतज्ञान का आदान-प्रदान हो सकता है अत: ज्ञानाचार श्रुतज्ञान से ही सम्बन्धित है।
ज्ञानाचार के आठ प्रकार हैं:1. संयुत्तनिकाय (संपा. भिक्षु जगदीश काश्यप, नालन्दा, 1959) (2-3 निदानवग्गो खन्धवग्गो च) 14/28
पृ. 142 2. ठाणं,5/147,पंचविहे आयारे पण्णत्ते, तं जहा-णाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे। 3. अणुओगदाराई, सूत्र ? 4. (क) अनुयोगद्वार चूर्णि, पृ. 2, 'ठप्पाइं' ति असंववहारियाई ति वुत्तं भवति।
(ख) अनुयोगद्वार मलधारीयावृत्ति, पत्र 3, 'ठप्पाई ति स्थाप्यानि-असंव्यवहार्यानि। 5. दशवैकालिकनियुक्ति, गा. 88, काले विणये बहुमाणे उवहाणे तहा अनिण्हवणे।
वंजण-अत्थ तदुभए अट्ठविहो नाणमायारो।।
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