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जैन आगम में दर्शन
1. काल-स्वाध्याय आदि का जो काल निर्दिष्ट हो उसको उसी काल में करना। 2. विनय-ज्ञानप्राप्ति के प्रयत्न में विनम्र रहना। 3. बहुमान-ज्ञान के प्रति आन्तरिक अनुराग। 4. उपधान-श्रुतवाचन के समय किया जाने वाला तप। 5. अनिलहवन-अपने वाचनाचार्य का गोपन न करना। 6. व्यंजन-सूत्र का वाचन करना। 7. अर्थ-अर्थबोध करना।
8. सूत्रार्थ सूत्र और अर्थ का बोध करना।' ज्ञान के अतिचार
आचार का उल्लंघन अतिचार होता है और 'अतिचार' का वर्जन आचार |जो अनुष्ठान जिस विधि से करना होता है उसका अन्यथा प्रकार से करना अथवा न करना उस अनुष्ठान का अतिचार होता है। ज्ञान आदि पंचाचारों के भी अतिचार का वर्णन जैन साहित्य में उपलब्ध है। आवश्यक में ज्ञान के चौदह अतिचारों का उल्लेख है -
1. व्याविद्ध-आगम पाठ को आगे-पीछे करना। 2. व्यत्यानेडित-मूल पाठ में अन्य पाठ का मिश्रण करना। 3. हीनाक्षर-अक्षरों को न्यून कर उच्चारण करना। 4. अत्यक्षर-अक्षरों को अधिक कर उच्चारण करना। 5. पदहीन-पदों को कम कर उच्चारण करना। 6. विनयहीन-विराम-रहित उच्चारण करना। 7. घोषहीन-उदात्त आदि घोष रहित उच्चारण करना। 8. योगहीन-सम्बन्ध रहित उच्चारण करना। 9. सुष्ठदत्त-योग्यता से अधिक ज्ञान देना। 10. दुष्ठु-प्रतीच्छित-ज्ञान को सम्यक् भाव से ग्रहण न करना। 11. अकाल में स्वाध्याय करना। 12. स्वाध्यायकाल में स्वाध्याय न करना। 13. अस्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय करना। 14. स्वाध्याय की स्थिति में स्वाध्याय न करना।
1. निशीथभाष्य, गा. 9-20 2. आवश्यक (नवसुत्ताणि) 4/8, .......वाइद्धं वच्चामेलियं, हीणक्खरं.......
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