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________________ आचार मीमांसा 253 ज्ञान के चौदह अतिचारों में से प्रथम आठ का सम्बन्ध तो मुख्यतया पाठ के उच्चारण से है। प्राचीन काल में सम्पूर्ण ज्ञान स्मृति में ही सुरक्षित होता था। वैसी स्थिति में उस ज्ञान की सुरक्षा अमुक प्रकार के उच्चारण के दोषों से बचने से ही संभव थी अत: चौदह में से आठ अतिचार मात्र पाठ के उच्चारण से सम्बन्धित स्वीकृत किए गए। नवां अतिचार ज्ञान के दाता से तथा दसवां ज्ञान के गृहीता से जुड़ा हुआ है। ग्यारहवां एवं बारहवां काल से तथा तेरहवां, चौदहवां ज्ञान प्राप्ति की बाह्य स्थितियों से जुड़ा हुआ है। ज्ञान के जिन आठ आचारों का उल्लेख हुआ है उनमें से 'काल' के अतिचार का ग्रहण तो इन चौदह अतिचारों में हुआ है किंतु अन्य का सीधा उल्लेख नहीं है, फिर भी इतना तो स्पष्ट ही है कि जिन ज्ञान के आचारों का उल्लेख हुआ है उनके विपरीत आचरण करने का समावेशज्ञान के अतिचारों में हो जाएगा। भले इसके लिए ज्ञान के अतिचारों की संख्या में वृद्धि करनी पड़े। दर्शनाचार सम्यक्त्व विषयक आचरण को दर्शनाचार कहा जाता है। सम्यक् दर्शन का अर्थ हैसत्य की आस्था, सत्य की रुचि। सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता है- (1) नैश्चयिक और (2) व्यावहारिक। नैश्चयिक सम्यक् दर्शन का सम्बन्ध केवल आत्मा की आन्तरिक शुद्धि या सत्य की आस्था से होता है। व्यावहारिक सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध संघ, गणया सम्प्रदाय से भी होता है।' दर्शनाचार के भी आठ प्रकार हैं: 1. नि:शंकित 2. निष्कांक्षित 3. निर्विचिकित्सा 4. अमूढदृष्टि 5. उपबृंहण 6. स्थिरीकरण ?. वात्सल्य और 8. प्रभावना। 1.नि:शंकित नि:शंकिता दर्शनाचार का प्रथम भेद है। शंका का अर्थ संदेह एवं भय दोनों ही होता है। शान्त्याचार्य, हरिभद्र आदि ने शंका का अर्थ 'संदेह' किया है।' कुन्दकुन्दाचार्य ने इसका अर्थ भय किया है। इस संदर्भ में नि:शंकित के दो अर्थ फलित होते हैं-(1) जिनभाषित तत्त्वों में संदेह रहितता अर्थात् निश्शंकता। (2) भयमुक्तता। सम्यग्दृष्टि को अदेग्ध और अभय होना ही चाहिए। 1. उत्तरज्झर आणि 2, 31 टिप्पण, पृ. 159 2. वही, 2, 28/31 निस्संकिय निक्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठीय। उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ॥ 3. (क) उत्तराध्ययन, बृहद् वृत्ति, पत्र 5 6 7, शङ्कनं शङ्कितं-देशसर्वशंकात्मकं तस्याभावो नि:शंकितम्। (ख) श्रावकधर्मप्रकरण वृत्ति, पत्र 20, भगवदर्हत्प्रणीतेषु धर्माधर्मकाशादिष्वत्यन्तगहनेषु मतिमान्द्यादिभ्योऽनवधार्यमाणेषु संशय इत्यर्थः । 4. समयसार, गाथा 2 2 8, सम्मदिट्ठी जीवा णिस्संका होति णिब्भया तेण। सत्तभयविप्पमुक्का जम्हातम्हा हु णिस्संका।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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