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________________ 254 जैन आगम में दर्शन 2.निष्कांक्षित परमत की वांछा नहीं करना निष्कांक्षित है। कांक्षा के दो अर्थ उपलब्ध होते हैं-(1) एकान्त दृष्टि वाले दर्शनों के स्वीकार की इच्छा और' (2) धर्माचरण के द्वारा सुख समृद्धि पाने की इच्छा। सम्यक्दृष्टि कांक्षा के इन दोनों प्रकारों से दूर रहता है। 3.निर्विचिकित्सा विचिकित्सा के भी दो अर्थ मिलते हैं-(1) धर्म के फल में संदेह और' (2) जुगुप्साघृणा । सम्यग्दृष्टि इन दोनों प्रकार की विचिकित्सा से दूर रहता है। स्वामी समन्तभद्र के अनुसार स्वभावत: अपवित्र किंतु रत्नत्रयी से पवित्र शरीर में ग्लानि न करना, गुणों में प्रीति करने का नाम निर्विचिकित्सा है। आचार्यश्री तुलसी ने निर्विचिकित्सा को परिभाषित करते हुए लिखा है निव्वितिगिच्छा संदेहत्याग, निज साध्य-साधना के फल में ।' 4.अमूढदृष्टि जिसकी दृष्टि मोहित नहीं होती उसे अमूढदृष्टि कहते हैं। मूढता का अर्थ है--मोहमयी दृष्टि । स्वामी समन्तभद्र ने मूढता को तीन भागों में विभक्त किया है (1) लोक-मूढता-नदी-स्नान में धार्मिक विश्वास। (2) देव-मूढता-राग-द्वेष-वशीभूत देवों की उपासना। (3) पाषण्ड-मूढता-हिंसा प्रवृत्त साधुओं का पुरस्कार ।' आचार्य हरिभद्र के अनुसार एकांतवादी तीर्थकों की विभूति देखकर जो मोहित नहीं होता है, उसे अमूढदृष्टि कहा जाता है। 1. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, (ले. अमृतचन्द्राचार्य, अगास, वि.सं. 2 0 2 2 ) 2 4, इह जन्मनि विभवादीन्यमुत्र चक्रित्वकेशवत्वादीन् । एकांतवाददूषितपरसमयानपि च नाकांक्षेत्।। 2. तत्त्वार्थाधिगम, सूत्र 7/23 वृत्ति, इहपरलोकभोगाकांक्षणं कांक्षा। 3. प्रवचनसारोद्वार, (ले. नेमिचन्द्र सूरि, बम्बई, वि.सं. 1978) 268 पत्र 64. विचिकित्सा-मतिविभ्रम: युक्त्यागमोपपन्नेऽप्यर्थे फलं प्रति सम्मोहः। 4. वही, 2 68 पत्र 64, यद्वा विद्वज्जुगुप्सा-मलमलिना एते इत्यादि साधुजुगुप्सा। 5. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, (ले. स्वामी सम्मन्तभद्र, बम्बई, 1982) 1/13, स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जुगुप्सा गुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सा॥ आचार बोध, 14 (अमृतकलश 2) 7. रत्नकरण्डक श्रावकाचार, 1/22-24 श्रावकधर्मविधिप्रकरण, श्लोक 58-60, इड्डीओणेगविहा, विज्जाजणिया तवोमयाओ य । वेउब्वियलद्धिकया, नहगमणाई य दतॄणं ।। पूयं च असणपणाइवत्थपत्ताइएहिं विविहेहिं। परपासंडत्थाणं सक्कोलयाईणं दट्टणं । धिज्जाईयगिहीणं पासत्थाईण वापि दट्टणं। यस्सन मुज्झइ दिट्ठी अमूढदिढेि तयं बिंति॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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