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________________ 48 जैन आगम में दर्शन फलविपाक वाले पचपन अध्ययन प्रतिपादित कर मुक्त हो गए।' ऐसे और भी अनेक तथ्य प्रस्तुत आगम में प्रतिपादित हैं। रचनाकार एवं रचनाकाल स्थानांग जैसा ही है अत: अलग से विमर्श की आवश्यकता नहीं है। स्थानांग एवं समवायांग का महत्त्व स्थानांग एवं समवायांग का विविध-विषय सूचकता की दृष्टि से बड़ा महत्त्व रहा है। ठाणं एवं समवायांग के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए व्यवहार सूत्र में कहा गया है कि स्थानांग एवं समवायांग सूत्र के धारक व्यक्ति ही आचार्य, उपाध्याय, गणावच्छेदक आदि होने चाहिए।' व्याख्याप्रज्ञप्ति आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने भगवई खण्ड-1 की भूमिका में भगवती की विभिन्न सन्दर्भो में विस्तार से चर्चा की है। हमने उसमें से यथा प्रसंग कतिपय तथ्यों का संचयन इसमें किया है। द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम 'विआहपण्णत्ती' है। इसका संस्कृत रूपान्तरण 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' है। प्रश्नोत्तर की शैली में लिखा जाने वाला ग्रन्थ व्याख्याप्रज्ञप्ति कहलाता है। व्याख्या का अर्थ है विवेचन करना और प्रज्ञप्ति का अर्थ है समझाना। जिसमें विवेचनपूर्वक तत्त्वसमझाया जाता है उसेव्याख्याप्रज्ञप्ति कहा जाता है।समवायांग और नंदी में व्याख्याप्रज्ञप्ति और व्याख्या-ये दोनों नाम मिलते हैं। व्याख्या, व्याख्याप्रज्ञप्ति का ही संक्षिप्त रूप है। प्रस्तुत आगम का दूसरा नाम 'भगवती' है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र की अपनी विशिष्टता थी, इसलिए भगवती इसका एक विशेषण था। समवायांग में वियाहपण्णत्ती के साथ भगवती विशेषण रूप में प्रयुक्त है। आगे चलकर यह विशेषण ही नाम बन गया। इस सहस्राब्दी में व्याख्याप्रज्ञप्ति की अपेक्षा 'भगवती' नाम अधिक प्रचलित है। 'कसायपाहुड' में परिकर्म के पांच अधिकार बतलाए हैं - चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति। श्वेताम्बर साहित्य में व्याख्याप्रज्ञप्ति का उल्लेख केवल द्वादशांगी के पांचवें अंग के रूप में ही मिलता है। यदि द्वादशांगी के ग्यारह अंगों को बारहवें अंग दृष्टिवाद से उद्धृत माना जाए तो दिगम्बर साहित्य के आधार पर व्याख्याप्रज्ञप्ति को परिकर्म के पांचवें अधिकार 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' से उद्धृत माना जा सकता है। इन दोनों की विषय-वस्तु भी समान है। व्याख्याप्रज्ञप्ति नाम का परिकर्म रूपी अरूपी, जीव-अजीव, भव्य-अभव्य के प्रमाण और लक्षण, मुक्त जीवों तथा अन्य वस्तुओं का वर्णन करता है। तत्त्वार्थराजवार्तिक, नंदी और समवायांग में भी व्याख्याप्रज्ञप्ति के विषय का उल्लेख मिलता है, वह भी जीव-अजीव आदि द्रव्यों के वर्णन की सूचना देता है।' 1. समवाओ, भूमिका पृ. 18 2. व्यवहारसूत्र, उद्देशक 3/7...ठाण-समवायधरेकप्पइ आयरियत्ताएउवज्झायत्ताए, पवत्तिताएथेरसाफ,गणित्ताए गणावच्छेइयत्ताए उद्दिसित्तए । 3. भगवई, (खण्ड ।) भूमिका, पृ. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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