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________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 49 व्याख्या प्रज्ञप्ति : आकार एवं विषय वस्तु “समवायांग एवं नंदीसूत्र के अनुसार प्रस्तुत आगम के सौ से अधिक अध्ययन, दस हजार उद्देशक और दस हजार समुद्देशक हैं। इसका वर्तमान आकार उक्त विवरण से भिन्न है। वर्तमान में इसके एक सौ अड़तीस शत या शतक और उन्नीस सौ पच्चीस उद्देशक मिलते हैं। प्रथम बत्तीस शतक स्वतंत्र हैं। तैंतीस से उनचालीस तक के सात शतक बारह-बारह शतकों के समवाय हैं। चालीसवां शतक इक्कीस शतकों का समवाय है। इकतालीसवां शतक स्वतंत्र है। कुल मिलाकर एक सौ अड़तीस शतक होते हैं। उनमें इकतालीस मुख्य और शेष अवान्तर शतक हैं। प्रस्तुत आगम के अध्ययन को शत या शतक कहा गया है। समवायांग और नंदी में व्याख्याप्रज्ञप्ति के विवरण में अध्ययन शब्द का प्रयोग एवं मूल आगम में शत शब्द का प्रयोग है, इसलिए शत और अध्ययन को पर्यायवाची माना गया है। शत का अर्थ सौ होता है। जिसमें सौ श्लोक या प्रश्न हो उसे शतक कहा जाता है। भगवती के वर्तमान रूप में इस अर्थ की कोई सार्थकता दृष्ट नहीं है। प्रस्तुत आगम के दो संस्करण मिलते हैं। एक संक्षिप्त और दूसरा विस्तृत संस्करण। विस्तृत संस्करण का ग्रन्थमान सवा लाख श्लोक प्रमाण है, इसलिए उसे सवालक्खी भगवती कहा जाता है। इन दोनों संस्करणों में कोई मौलिक भेद नहीं है। लघु संस्करण में जो समर्पण सूत्र है-पूरा विवरण देखने के लिए किसी दूसरे आगम को देखने की सूचना दी गई है। विस्तृत संस्करण में उनको पूरा लिख दिया गया है।" प्रस्तुत ग्रन्थ एक आकर ग्रन्थ है। इसमें अनेक विषयों की चर्चा उपलब्ध है। गणित, इतिहास, भूगोल, खगोल, तत्त्वविद्या आदि अनेक विषयों का विस्तार से वर्णन इसमें है। "प्रस्तुत आगम के विषय के सम्बन्ध में अनेक सूचनाएं मिलती हैं। समवायांग में बताया गया है कि अनेक देवों, राजाओं और राजर्षियों ने भगवान् से विविध प्रकार के प्रश्न पूछे और भगवान् ने विस्तार से उनका उत्तर दिया। इसमें स्वसमय, परसमय, जीव, अजीव, लोक और अलोक व्याख्यात हैं। नंदी में भी यही विषय-वस्तु व्याख्यात है। किंतु उसमें समवायांग की भांति प्रश्नकर्ताओं का उल्लेख नहीं है।' भगवती के प्रतिपाद्य विषय का आकलन करना जटिल कार्य है। आचार्य महाप्रज्ञ प्रस्तुत आगम की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए इसके विषय आकलन की दुरूहता को प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं __ “वर्तमान ज्ञान की अनेक शाखाओं ने अनेक नये रहस्यों का उद्घाटन किया है। हम प्रस्तुत आगम की गहराइयों में जाते हैं तो हमें प्रतीत होता है कि इन रहस्यों का उद्घाटन अतीत में भी 1.भगवई, (खण्ड।) भूमिका, पृ. 21-23 2. वही, पृ. 16 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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