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तत्त्वमीमांसा
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यह किस तत्त्व से निर्मित है ? मूल तत्त्व को जानने की आकांक्षा पौर्वात्य एवं पाश्चात्य दोनों ही क्षेत्र के दार्शनिकों में समान रूप से चिन्ता का विषय रही है, उस चिंतना के फलस्वरूप सृष्टि के मूल तत्त्व के सम्बन्ध में नाना मतवाद प्रचलित एवं प्रतिपादित हुए हैं। वेदों में जगत् के मूल कारण की खोज
ऋग्वेद का दीर्घतमा ऋषिजगत् के मूल कारण का अन्वेषण करता है। उसकी प्रारम्भिक अवस्था मात्र प्रश्नायित दृष्टि से युक्त है।' प्रश्न का समाधान उसे उपलब्ध नहीं होता है तो वह कहता है --मैं तो नहीं जानता। फिर भी वह अपनी अन्वेषण की वृत्ति का त्याग नहीं करता है और अन्त में कह देता है कि “एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति'। सत् तो एक ही है किन्तु प्रबुद्धजन उसका वर्णन अनेक प्रकार से करते हैं। पण्डित दलसुख मालवणिया ने दीर्घतमा के इस विचार की तुलना अनेकान्त से करते हुए कहा है कि “दीर्घतमा के इस उद्गार में ही मनुष्य- स्वभाव की उस विशेषता का हमें स्पष्ट दर्शन होता है, जिसे हम समन्वयशीलता कहते हैं। इसी समन्वयशीलता का शास्त्रीय रूप जैनदर्शन-सम्मत स्याद्वाद या अनेकान्तवाद है।
इसी प्रकार नासदीय सूक्त का ऋषि भी जगत् के उपादान कारण को खोज रहा है। ऋषि कह रहा है उस समय न असत् था न सत्। वह सत्-असत् दोनों का ही निषेध करता है किंतु प्रतीत होता है कि वह परम तत्त्व को अभिव्यक्त करने में शब्द-शक्ति को असमर्थ पाता है। सत्य के अनेकान्तात्मक स्वरूप को शब्द एक साथ प्रकट नहीं कर सकता है तब ऋषि निषेध की भाषा बोलता है। महावीर इस तथ्य को विधेयात्मक भाषा में प्रस्तुत कर सत्-असत् दोनों की ही आपेक्षिक सत्ता स्वीकार करते हैं। भगवान् महावीर के दर्शन के अनुसार अस्तित्व सप्रतिपक्ष होता है। केवल सत् अथवा केवल असत् नाम की कोई वस्तु ही नहीं है। वस्तु का स्वरूप सदसदात्मक है। स्थानांग के वर्णन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।' उपनिषद् में विश्वकारणता
विश्व के कारण की जिज्ञासा में से अनेक विरोधी मतवाद उत्पन्न हुए, जिनका निर्देश उपनिषदों में हुआ है। विश्व का मूल कारण क्या है? वह सत् है या असत्? सत् है तो पुरुष है
1. ऋग्वेद, 1/16 4/4 (नई दिल्ली, 2000) 2. वही, 1/16 4 /37 3. वही, 1/16 4/46 4. मालवणिया दलसुन, आगम युग का जैन दर्शन पृ. 39
ऋग्वेद, 10/129, (दिल्ली, 2000) नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं
अंगसुत्ताणि भाग 2 (भगवई)7/58,59 7. ठाणं, 2 1
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