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________________ जैन आगम में दर्शन या पुरुषतर-जल, वायु, अग्नि, आकाश आदि में से कोई एक? इन प्रश्नों का उत्तर उपनिषदों के ऋषियों ने अपनी-अपनी प्रतिभा शक्ति के अनुरूप दिया है।' उपनिषद् साहित्य ने विश्व कारणता के सम्बन्ध में नाना मतवादों की सृष्टि खड़ी कर दी है। उपनिषद् में जल, आकाश, सत्, असत आदि तत्त्वों से सृष्टि की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रतिपादित हुआ है। तैत्तिरयोपनिषद् के अनुसार ब्रह्म ही इस जगत का कारण है। उससे ही समस्त वस्तुएं पैदा हुई हैं। उसके कारण ही उत्पन्न वस्तुएं स्थित रहती है और बाद में उसमें ही विलीन हो जाती है। एक ही उपनिषद् में सृष्टि सम्बन्धी मत वैविध्य भी उपलब्ध है। इसी उपनिषद् में असत् से सत् की उत्पत्ति भी स्वीकार की गई है। असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त बृहदारण्यक एवं छान्दोग्योपनिषद में भी प्रतिपादित है। छान्दोग्य में जहां एक ऋषि असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त प्रस्थापित करता है, वहीं दूसरा उसका निराकरण करके सत् से सृष्टि की उत्पति स्वीकार करता है। बृहदारण्यक में जहां असत से सत् उत्पत्ति का सिद्धान्त वर्णित है, वहीं अन्यत्र एक ऋषि नेजल को जगत कामूलस्रोत माना है। छान्दोग्य उपनिषद् में एकत्र आकाश को मूल तत्त्व माना गया है। प्रवाहण जैवलि से जब सृष्टि के मूल तत्त्व सम्बन्धी जिज्ञासा की गई तो उन्होंने ने कहा समस्त वस्तु आकाश से ही प्रादुर्भूत होती हैं एवं अन्त में उसी में विलीन हो जाती है। उपर्युक्त अवधारणाओं से स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है कि एक उपनिषद् में भी अनेक ऋषियों के विचारों का संकलन है इसलिए ही उनमें एक ही सिद्धान्त के सन्दर्भ में विभिन्न दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी ने उपनिषद् में प्राप्त सृष्टि सम्बन्धी विचारों को चार भागों में निम्न प्रकार से विभक्त किया है - 1. रानाडे, रामचन्द्र दतात्रेय, उपनिषद् दर्शन का रचनात्मक सर्वेक्षण, (जयपुर, 1989) पृ. 54 - 73 2. तैत्तिरीय उपनिषद् (संपा. हरिकृष्ण गोयन्दका, गोरखपुर, वि.सं. 2014)3/1/1,तं होवाच । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति। यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्मेति। 3. वही. 2/7.असद्वा इदमग आसीत। ततो वै सदजायत। 4. (क) बृहदारण्यकोपनिषद् , 1/2/1, नैवेह किंचनाग्र आसीत् मृत्युनैवेदम् आवृतम् आसीत । (ख) छान्दोग्योपनिषद् , 3/19/1, असदेवेदमग्र आसीत् तत्सदासीत्। 5. वही, 6/2/2, कुतस्तु खलु सौम्येवं स्यादिति होवाच कथमसत: संजायेतेति सत्त्वेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्। 6. बृहदारण्यकोपनिषद्, 1/2/1, सोऽर्चन्नचरत् तस्यार्चत आपोऽजायन्त अर्चत वै मे कमभूदिति, तदेवार्कस्यार्कत्वम्......आपो वा अर्कः....सा पृथिव्य अभवत् । 7. छान्दोग्यउपनिषद्, 1/8/8,1/9/1, तं ह प्रवाहणो जैवलिरुवाच.......अस्य लोकस्य का गतिरित्याकाश इति होवाच सर्वाणि ह वा इमानि भूतान्याकाशादेव समुत्पद्यन्त, आकाशं प्रत्यस्तम यन्न्याकाशो ह्येवैभ्यो ज्यायानाकाश: परायणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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