SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 11
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्ररोचना जैन धर्म और दर्शन का मूल आधार अर्धमागधी आगम हैं। वही इसका सबसे पुरातन स्रोत है और उसे ही प्रमाण स्तर की मान्यता प्राप्त है क्योंकि उसमें भगवान महावीर के वचन संकलित हैं। महावीर की वाणी आप्तवचन है, इसलिए वह स्वतः प्रमाण है। महावीर की वाणी का जो संकलन आगम के रूप में हुआ वह उनके जीवन काल में नहीं हुआ, अपितु लम्बे समय तक श्रुत परम्परा के रूप में चलते रहने के बाद हुआ, इसलिए संकलन कर्ताओं ने परम्परा से जैसा सुना था वैसा कहने के लिए सम्बद्ध प्रसंग और परिवेश को भी बताया। परिणामतः आगम अपने आप में बहुत विस्तृत हो गया, उसका स्वरूप एक विश्वकोश जैसा बन गया। उसमें विविध प्रकार के विषय समाहित हो गए। माना जाता है कि आगम की संख्या जितनी थी, उसमें कुछ लुप्त भी हो गए, फिर भी जितनी आज उपलब्ध है उसकी भी संख्या कोई कम नहीं, बत्तीस है और उसका विस्तार भी इतना है कि उसके एक छोर से दूसरे छोर तक पार हो जाना अथवा समग्र का अवगाहन कर लेना कोई आसान कार्य नहीं है। उस काल में दर्शन को दर्शन मानकर और उसकी अभिव्यक्ति के लिए जैसी एक विशेष प्रकार की सुव्यवस्थित प्रणाली बाद में विकसित हुई वैसी नहीं थी, क्योंकि तब न यह उद्देश्य था और न इसका कोई प्रयोजन ही था। अपने अनुभव, विचार और प्राप्त सत्य को सहज रूप में कह देना भर था। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि वहाँ कोई दर्शन नहीं था। कोई भी सत्य विचारों के माध्यम से प्रकट होता है तो उसके पीछे एक दर्शन तो होता ही है, उसकी अभिव्यक्ति में भी दर्शन के तत्त्व अनायास ही आ जाते हैं। चूँकि दार्शनिक शैली और दार्शनिक शब्दावली में कुछ भी कहा हुआ नहीं होता, इसलिए उन्हें पकड़ पाना दुष्कर होता है। आगम का विशाल साहित्य है। वहाँ विविध प्रसंगों, सन्दर्भो और आख्यानों का समावेश है। उनमें से दर्शन के तत्त्वों को पहचान लेना और दार्शनिक चिन्तन के धरातल पर अभिव्यक्त करना अपने आपमें एक कठिन कार्य है। बाद के दार्शनिकों ने अपनी अपेक्षा के अनुसार कुछ तत्त्वों को लिया, उसका विवेचन किया और उसका विस्तार किया, पर ऐसा कभी नहीं हो सका कि आगम के समग्र दार्शनिक चिन्तन उनमें समाहित हो सके। मध्ययुग में एक प्रयोजन से - किसी को उत्तर देने के लिए अथवा किसी एक पक्ष पर उठाए गए प्रश्नों के लिए- विवेचन की अपेक्षा थी। इसलिए आगम के सभी दार्शनिक पहलुओं पर ध्यान देने की उनके समक्ष अपेक्षा ही उपस्थित नहीं हुई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy