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________________ 198 जैन आगम में दर्शन फल नहीं दे सकते हैं।' कर्म जड़ होने के कारण अपना फल स्वयं नहीं दे सकते जैसे कि जड़ कुल्हाड़ी किसी चेतन व्यक्ति के द्वारा चलाए बिना स्वयं नहीं काट सकती।' ईश्वर कर्मफलाध्यक्ष है। कर्म का फल देने वाला कोई होना चाहिए। जैसे चोरी करने वाला चोर अपने आप उसका फल नहीं भुगतता। कोई न्यायाधीश होता है, दंड-नायक होता है, जो उसे दण्डित करता है, फल देता है। वैसे ही सारे जगत् को अच्छे और बुरे कर्म का फल देने वाला ईश्वर होता है। वह जीव को अपने कर्मानुसार अच्छे या बुरे फल देता रहता है। जीव में कर्मफल भोग की शक्ति जैनदर्शन कर्मवादी दर्शन है। सुख-दु:ख का फल अपने किए हुए कर्मों के द्वारा प्राप्त होता है। कर्म करने और उसका फल भोगने की शक्ति स्वयं जीव में निहित है। यह कर्मवाद है। जैन-दर्शन का मन्तव्य है कि कर्मफल के भोग के लिए किसी बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं है। कर्म जड़ हैं, वे यथोचित्त फल कैसे दे सकते हैं? यह प्रश्न है? यह ठीक है कि कर्म पुद्गल यह नहीं जानते कि अमुक आत्मा ने यह कार्य किया है, अत: उसे यह फल दिया जाए, परन्तु आत्मक्रिया के द्वारा जो शुभाशुभ कर्म-पुद्गल स्कन्ध आकृष्ट होते हैं, उनके संयोग से आत्मा की वैसी ही परिणति हो जाती है, जिससे आत्मा को उसके अनुसार फल मिल जाता है। कर्मफलदानशक्ति का निर्धारण जैनदर्शन के अनुसार कर्मबंध के समय ही कर्मफल-दान शक्ति (विपाक) का निर्धारण हो जाता है। उस फल विपाक की शक्ति के द्वारा ही जीव को कर्म का शुभाशुभ फल प्राप्त होता है। जीव कर्म करने के समय स्वतंत्र है किंतु उसके उदयकाल में परतंत्र है। जैसे कोई पुरुष वृक्ष पर चढ़ने में स्वतंत्र हैं, किंतु प्रमाद-वश नीचे गिरते समय वह परतंत्र है। कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कर्म जीव के अधीन होते हैं। ऋण देने में ऋणदाता और ऋण लौटाने में ऋण लेने वाला बलवान होता है। कर्मफल भोग के समय जीव कर्म के अधीन हो जाता है। जीव द्वारा कृत शुभाशुभ कर्म अपनी विपाक शक्ति के द्वारा ही शुभाशुभ फल से संयुक्त हो जाते हैं। 1. न्यायभाष्य (संपा. गंगनाथ झा, पूना, 1939) 4/1/21 ईश्वर, कारणं पुरुषकर्माफल्यस्य दर्शनात् 2. न्यायवार्तिक (संपा. वी.पी. द्विवेद, बनारस, 1916) 4/1/21 3. गाथा (संपा. साध्वी प्रमुखा कनकप्रभा, लाडनूं, 1993) 16/43 कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्वसा होति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्वसो तत्तो।। 4. वही, 16/44 कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माई। कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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