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कर्ममीमांसा
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कालोदाई अणगार की जिज्ञासा
कालोदाई अनगार के द्वारा पापफलविपाक एवं कल्याणफलविपाक सम्बन्धी प्रश्न के समाधान से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है- "कालोदायी अनगार ने पूछा-भंते! जीवों के पापकर्म पाप का फल विपाक कैसे देते हैं ?'' कालोदायी को समाहित करते हुए भगवान् महावीर ने कहा- “कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मिट्टी की हांडी में पकाया हुआ मनोज्ञ, अठारह प्रकार के व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन करता है। वह भोजन प्रारम्भ में अच्छा लगता है। उसके पश्चात् अपने अन्तर्निहित नियम से परिणत होता है, तब उसके रूप, वर्ण, गंध आदि विकृत बन जाते हैं और वह दु:खद होता है, सुख देने वाला नहीं होता।
कालोदायी ! इसी प्रकार प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक अठारह ही पाप प्रवृत्तिकाल में अच्छे लगते हैं पर जब वे अपने अन्तर्निहित नियम से विपरिणत होते हैं, तब उनके रूप, वर्ण, गंध आदि विकृत बन जाते हैं। वह दु:खद होता है, सुख देने वाला नहीं। कालोदायी! इस प्रकार जीवों के पापकर्म पाप फलविपाक देते हैं।
जीवों के कल्याण कर्म कल्याण फल विपाक देने वाले होते हैं। उनकी भी यही प्रक्रिया है। कर्मफलदान के नियम
शुभ, अशुभ कर्म का तदनुसार फल उनमें अन्तर्निहित कर्म फलदान के नियम से ही प्राप्त हो जाता है। उसके लिए कर्म फलाध्यक्ष के रूप में ईश्वर की स्वीकृति आवश्यक नहीं है। कर्म के कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व में जीव स्वयं उत्तरदायी है। कर्म के फल वेदन की एक स्वयंकृत व्यवस्था है। कर्मबंध के समय उसकी स्थिति और फल देने की क्षमता का निर्धारण हो जाता है। जैसे ही स्थिति का परिपाक होता है, वैसे ही कर्म विपाकाभिमुखी होकर उदय में आ जाता है। जिस कर्म का उदय होता है उसी का वेदन होता है। जिसका उदय नहीं होता, उसका वेदन भी नहीं होता है। जीव के सत्ता रूप में तो अनन्त कर्म परमाणु चिपके हुए हैं किंतु उन सबका एक साथ फल भोग नहीं होता जो कर्मपरमाणु फल देने के योग्य बन गए हैं वे ही उदय में आकर अपना फल देते हैं, अन्य नहीं देते। यह कर्मफलयोग की व्यवस्था है। कर्मफल में असंविभाग
जैन-परम्परा के अनुसार जीव स्वकृत कर्म का ही भोग करता है। किसी की भी कर्मफलभोग में सहभागिता नहीं हो सकती। शुभ-अशुभ किसी भी प्रकार के कर्म का हस्तान्तरण नहीं किया जा सकता। जो कर्म को करता है वही उसके फल का भोग करता है। यह जैन-परम्परा का सर्वमान्य सिद्धान्त है। भगवान् महावीर ने कहा जीव स्वकृत दु:खों का
1. अंगपुत्ताणि 2, (भगवई) 7/224 2. वही, 7.226
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