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________________ 200 ही भोग करता है । परकृत एवं उभयकृत कर्म का वेदन नहीं किया जा सकता ।' व्यक्ति मोह के वशीभूत होकर स्वयं के लिए, ज्ञातिजनों के लिए, अपनों के लिए विभिन्न प्रकार के दुष्कर्म करता है किंतु उस कटु कर्म के फल भोग के समय मित्र, बन्धु-बांधव उसका साथ नहीं निभाते हैं। उत्तराध्ययन में इस तथ्य की स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है - " ज्ञाति, मित्र, पुत्र और बांधव व्यक्ति का दु:ख नहीं बंटा सकते। वह स्वयं अकेला दुःख का अनुभव करता है क्योंकि कर्ता का अनुगमन करता है। " " संसारी प्राणी अपने बन्धुजनों के लिए जो सामुदायिक कर्म करता है, उस कर्म के फलभोग के समय वे बन्धुजन बन्धुता नहीं दिखाते उसका भाग नहीं बंटाते हैं । " जैन परम्परा में 'श्राद्ध' आदि परम्परा मान्य नहीं है । श्राद्धकाल में प्रदत्त भोजन पितरों के पास पहुंचता है - इस मान्यता को जैन अस्वीकार करता है । यद्यपि जैन परम्परा में भी यह माना जाता है कि संयमी व्यक्ति को दान से व्यक्ति के निर्जरा तथा साथ में पुण्य कर्म का बंध होता है किंतु साधु के पुण्य कर्म का फल उसे प्राप्त हो जाता है, यह जैन को मान्य नहीं है । जैनदर्शन का यह सुनिश्चित मन्तव्य है कि प्राणी के मंगल अमंगल, सुख-दुःख, लाभ-हानि आदि सारी परिस्थितियां स्वयंकृत कर्म के कारण हैं। आत्मा ने पूर्व में जैसे कर्म किए हैं उसी के अनुसार शुभ-अशुभ फल प्राप्त होता । यदि दूसरे के दिए हुए कर्म से सुखदु:ख आदि की प्राप्ति हो तो स्वकृत कर्म निरर्थक हो जाते हैं। अपने किए हुए कर्म के अतिरिक्त आत्मा को कोई कुछ नहीं दे सकता । ' जैन आगम में दर्शन सुख का संविभाग भी अमान्य जैन परम्परा के साहित्य में स्थान-स्थान पर यह उल्लेख प्राप्त है कि जीव के दुःख को कोई नहीं बंटा सकता । सुख को बंटा सकता है या नहीं ? इस सम्बन्ध में कोई वक्तव्य प्राप्त नहीं है? क्या इस स्थिति में ऐसा माना जा सकता है कि पाप कर्म के फलभोग में तो संविभाग नहीं होता किंतु पुण्यकर्म के फल में संविभाग हो सकता है, जैसा कि बौद्ध परम्परा मानती है कि पुण्य की परिणामना हो सकती है। इस जिज्ञासा के संदर्भ में यह वक्तव्य है कि कर्म के फल जो कुछ भी प्राप्त होता है वह सारा दुःख रूप ही है भले ही लौकिक दृष्टि पुण्य के भोग को 1. अंगसुत्ताणि 2, ( भगवई ) 17 / 61 गोयमा । अत्तकडं दुक्खं वेदेंति, 2. उत्तरज्झयणाणि 13 / 23 4. 3. वही, 4/ 4 संसारमावन्न परस्स अट्ठा, साहारणं जं च करेइ कम्मं । कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उवेंति ॥ (अमृतकलश 1) परमात्मा द्वात्रिंशिका (ले. अमितगति, चूरू, 1998) 30-31 स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा । निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्याऽपि ददाति किंचन । Jain Education International नो परकडं दुक्खं वेदेति, नो तदुभयकडे दुक्खं वेदेंति । न तस्स दुक्खं विभयंति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । एक्को सयं पच्चणुहोई दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्म || For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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