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कर्ममीमांसा
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सुख माना जाता हो। अध्यात्म की दृष्टि से कर्म के उदय से प्राप्त होने वाला सब कुछ दु:ख रूप ही है। भगवती सूत्र में कर्म निर्जरा को सुख कहा है- 'जे निज्जिण्णे से सुहे'' अध्यात्म की दृष्टि से वास्तविक सुख तो कर्म की निर्जरा ही है। निर्जरा के द्वारा ही आत्मा कर्म की गुरुता से हल्की होती है। ज्ञानी व्यक्ति के लिए सब कुछ (भौतिक पदार्थ) दु:ख रूप हो है-दु:खमेव सर्वं विवेकिनः। संसार एवं अध्यात्म की दृष्टि में सुख की अवधारणा में भेद है। संसार में जिसको सुख माना जाता है वस्तुत: वह दु:ख ही है अत: दु:ख में हिस्सा नहीं बंटा सकते । इस वक्तव्य का तात्पर्य यही है कि प्राणी के कर्मजनित शुभ-अशुभ फलभोग में किसी की भी सहभागिता नहीं हो सकती। प्राणी अपने कर्मफल को न तो किसी को दे सकता है और न ही दूसरों से वह ले सकता है। कर्म का कर्तृत्व जीव का है वैसे ही कर्म का भोक्तृत्व भी जीव का ही है। अन्य का संविभाग इसमें नहीं है। आश्रव : कर्म आकर्षण का हेतु
क्रियात्मक शक्ति-जनित कम्पन के द्वारा आत्मा और कर्म-परमाणुओं का संयोग होता है। इस प्रक्रिया को आश्रव कहा जाता है। आत्मा के साथ संयुक्त कर्मयोग्य परमाणु कर्म रूप में परिवर्तित होते हैं। इस प्रक्रिया को बंध कहा जाता है। बंध : आश्रव एवं निर्जरा का मध्यवर्ती
बंध आशव और निर्जरा के मध्य की स्थिति है। आश्रव के द्वारा बाहरी पौद्गलिक धाराएं शरीर में आती हैं। निर्जरा के द्वारा वे फिर शरीर से बाहर चली जाती हैं। जीव और कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों के सम्बन्ध को जैन कर्म सिद्धान्त की परिभाषा में बंध कहा जाता है। बंध के प्रकार
बंध के चार प्रकार निर्दिष्ट हैं- 1. प्रकृति, 2. स्थिति, 3. अनुभाग एवं 4. प्रदेश ।'
1. प्रकृति बंध - स्थिति, रस और प्रदेश बन्ध के समुदाय को प्रकृतिबंध कहा जाता है।' इस परिभाषा के अनुसार शेष तीनों बंधों के समुदाय का नाम ही प्रकृतिबंध है। प्रकृति का अर्थ है अंश या भेद । ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकृतियों का जो बंध होता है, उसे प्रकृतिबंध कहा जाता है अथवा प्रकृति का एक अर्थ स्वभाव भी है। पृथक्-पृथक् कर्मों में जो ज्ञान आदि को आवृत्त करने का स्वभाव है, वह प्रकृति बंध है।'
1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 7/160 2. पातञ्जलयोगसूत्र 2/15 3. महाप्रज्ञ, आचार्य, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ. 309 4. ठाणं 4/290, चउविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहां-पगति बंधे, ठिति बंधे, अणुभावबंधे, पदेस बंधे। 5. पञ्चसंग्रह, गाथा 432
स्थानांगवृत्ति, पत्र 220 कर्मण: प्रकृतयः- अंशा भेदा ज्ञानावरणीयादयोऽष्टौ, तासां प्रकृतेर्वा अविशेषितस्य कर्मणो बन्ध: प्रकृतिबन्धः।
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