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जैन आगम में दर्शन
2. स्थितिबंध - जीवगृहीत कर्म-पुद्गलों की जीव के साथ रहने की काल मर्यादा को स्थिति बंध कहा गया है।
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3. अनुभाव बंध - कर्म पुद्गलों की फल देने की शक्ति को अनुभाव बंध कहा जाता है ।
4. प्रदेशबंध - कार्मण वर्गणा के पुद्गल स्कन्धों का जीव के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसे प्रदेशबंध कहा जाता है।
मोदक का उदाहरण
प्राचीन आचार्यों ने इन बंधों का स्वरूप मोदक के दृष्टांत से समझाया है। विभिन्न वस्तुओं से निष्पन्न होने वाले कोई मोदक वातहर, कोई कफहर या पित्तहर होते हैं। इसी प्रकार कोई कर्म ज्ञान आवृत्त करता है, कोई व्यामोह उत्पन्न करता है और कोई सुख-दुःख उत्पन्न करता है । यह प्रकृति बंध है ।
कोई मोदक दो दिन तक विकृत नहीं होता, कोई चार दिन तक विकृत नहीं होता । इसी प्रकार कुछ कर्म आत्मा के साथ थोड़े समय तक रहते हैं, कुछ दीर्घकाल तक रहते हैं। यह स्थितिबंध है ।
कोई मोदक अधिक मधुर होता है, कोई कम मधुर होता है। इसी प्रकार कोई कर्म तीव्र रसवाला होता है, कोई मंद रस वाला होता है। यह अनुभावबंध है ।
कोई मोदक छटांक - भर का होता है, कोई पाव का। इसी प्रकार कोई कर्म अल्प परमाणु समुदाय वाला होता है, कोई अधिक परमाणु समुदाय वाला होता है यह प्रदेश बंध है । प्रकृति बंध के भेद
कर्म के ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र एवं अन्तराय-ये आठ भेद हैं।' ये आठों तथा इनके उत्तर भेद सारे प्रकृति बंध के भेद हैं।
सामान्यत: ज्ञानावरणीय कर्म की पांच, दर्शनावरणीय की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठावीस, आयुष्य की चार, नाम की दो, गोत्र की दो तथा अन्तराय की पांच उत्तर प्रकृतियों का उल्लेख प्राप्त होता है । स्थानांग में इन आठों ही कर्मों की दो-दो प्रकृत्तियों का ही उल्लेख है ।
अन्तराय कर्म के दो भेद
स्थानांग में अन्तराय कर्म की जिन दो प्रकृतियों का उल्लेख हुआ है उससे इस कर्म की व्यापकता का अवबोध होता है । अन्तराय कर्म की दानान्तराय आदि जो पांच प्रकृतियों
1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8/477
2.
ठाणं 2/424431
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