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कर्ममीमांसा
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का उल्लेख प्राप्त होता है वह इस कर्म के उदाहरण मात्र है।' ठाणं में वर्णित अन्तराय की दो प्रकृतियों से अन्तराय कर्म के स्वरूप के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण अवगति प्राप्त होती है। ठाणं में अन्तराय कर्म के निम्नलिखित भेद प्राप्त होते हैं -
___ 1. प्रत्युत्पन्न विनाशित- इसका कार्य है वर्तमान में प्राप्त वस्तु को विनष्ट करना, उपहत करना।
2.पिधत्ते आगामि पथ-इसका कार्य है भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करना।
इसका तात्पर्य है जीवके अभ्युदय या निश्रेयस की प्राप्ति के सहायक तत्त्वों की उपलब्धि में जो अवरोध उपस्थित होता है उस अवरोध का कारण अन्तराय कर्म है। वर्तमान में दान, लाभ, भोग आदि का अन्तराय कर्म के भेदों के रूप में उल्लेख बहुतायत में प्राप्त है। इन दो भेदों की अवगति अति न्यून है। वस्तुत: विमर्श करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्तराय कर्म के ये दो प्रकार प्रधान हैं। इनके परिपार्श्व में ही अन्य प्रकारों का निरूपण सहज ही हो जाता है। कर्म की अवस्था
___ कर्म की सामान्यत: दस अवस्थाएं मानी जाती हैं- 1. बंध, 2. सत्ता, 3. उदय, 4. उदीरणा, 5. उद्वर्तन, 6. अपवर्तन, 7. संक्रमण, 8. उपशमन, 9. निधत्ति एवं 10. निकाचना।
1. जीव और कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध को बंध कहा जाता है। 2. कर्म-पुद्गलों की अनुदित अवस्था को सत्ता कहा जाता है। 3. कर्मों के विपाक काल को उदय कहा जाता है। 4. अपवर्तना के द्वारा निश्चित समय से पहले कर्मों को उदय में लाने को उदीरणा
कहा जाता है। 5. कर्मों की स्थिति एवं अनुभाव की जो वृद्धि होती है, उसे उद्वर्तना कहा जाता है। 6. कर्मों की स्थिति एवं अनुभाव की जो हानि होती है, उसे अपवर्तना कहा जाता है। 7. सजातीय कर्म प्रकृतियों के एक दूसरे में परिणमन को संक्रमण कहा जाता है। शुभ
प्रकृति का अशुभ विपाक के रूप में और अशुभ प्रकृति का शुभ प्रकृति के रूप में परिणमन इसी कारण से होता है। इसकी विस्तृत चर्चा आगे की जाएगी।
1. ठाणं 2/431 का टिप्पण, पृ. 149 2. ठाणं 2/43। अंतराइए कम्मे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पड़प्पण्णविणासिए चेव, पिहति य आगामिपहं चेव।
जैन सिद्धान्त दीपिका 4/5 बंध-उद्वर्तना-अपवर्तना-सत्ता-उदय-उदीरणा-संक्रमण-उपशम-निधत्तिनिकाचनास्तदवस्थाः।
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