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जैन आगम में दर्शन
8. मोहकर्मको उदय, उदीरणा, निधत्ति और निकाचना के अयोग्य करने को उपशमन
कहा जाता है। 9. उद्वर्तना एवं अपवर्तना के सिवाय शेष छह करणों के अयोग्य अवस्था को निधत्ति
कहते हैं। 10. जिस कर्म का उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरण, संक्रमण और निधत्तन न हो सके उसे
निकाचित कहा जाता है। कर्म का परिवर्तन
कर्म की इन दस अवस्थाओं के माध्यम से कर्म परिवर्तन का सिद्धान्त स्पष्ट हो रहा है। भगवान महावीर के दर्शन में कर्म को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है किन्तु वह सर्वेसर्वा नहीं है। विशिष्ट पुरुषार्थ के द्वारा उसमें भी परिवर्तन संभव है। यह जैन दर्शन की विशिष्ट स्वीकृति है। जीव अपनी स्वाभाविक पारिणामिक भाव की शक्ति के द्वारा अपने शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति की ओर गतिशील रहता है।
जीव द्वारा कृत क्रिया से बंधे हुए कर्मों का जीव की ही विशिष्ट क्रिया के द्वारा उनमें परिवर्तन संभव है। जैन दर्शन में कर्म परिवर्तन का महत्वपूर्ण स्थान हैं। कर्म की दस अवस्थाओं में एक का नाम है-संक्रमण । प्रकृति, स्थिति, अनुभाग एवं प्रदेशबंध के इन चारों ही प्रकारों का संक्रमण संभव है। अशुभ का उदय शुभ में एवं शुभ का उदय अशुभ में परिणत हो सकता ह। जैसे कोई व्यक्ति साता वेदनीय का भोग कर रहा है, उस समय अशुभ कर्म की प्रबलता हो जाए तो साता वेदनीय असाता में संक्रान्त हो जाता है। भगवती में प्राप्त संवृत्त एवं असंवृत्त अनगार का प्रसंग संक्रमण के सम्बन्ध में विशेष मननीय है। असंवृत्त-संवृत्त अनगार का उदाहरण
असंवृत्त अनगार आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की शिथिल बन्धनबद्ध प्रकृतियों को गाढ बन्धन बद्ध करता है। अल्पकालिक स्थिति वाली प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली करता है, मन्द अनुभाव वाली प्रकृतियों को तीव्र अनुभाव वाली करता है, अल्पप्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश परिमाण वाली करता है। संवृत्त अनगार के इससे विपरीत होता है अर्थात् गाढ़ बंधन शिथिल, दीर्घकाल का अल्पकाल तीव्ररस का मंद रस बहुप्रदेश परिमाण अल्पप्रदेश परिमाण हो जाता है। इसी प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ एवं पांच इन्द्रियों के वशीभूत होकर जीव सात कर्म प्रकृतियों के शिथिल बंध को सघन ह्रस्वकाल स्थिति को दीर्घकाल, मंदानुभाव को तीव्र विपाक एवं अल्पप्रदेशाग्र को बहुप्रदेशाग्र करता है। कर्म-परिवर्तन प्रकृति, स्थिति, अनुभाव एवं प्रदेश कर्म की इन चार अवस्थाओं 1. भगवई (खण्ड-1) (भगवतीवृत्ति 1/2 4) यथा कस्यचित् सवेधमनुभवतोऽशुभकर्मपरिणतिरेवंविधा जाता
येन यदेव सद्वेद्यमसद्वेद्यतया संक्रामतीति । 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/45, 47 3. वही, 12/22-25
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