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________________ कर्ममीमांसा 205 का होता है। अशुभ और शुभ-दोनों प्रकार की भावधारा के साथ कर्म की अवस्था में परिवर्तन होता रहता है। कर्मवाद का सामान्य नियम कर्मवाद का सामान्य नियम है- सुचीर्ण कर्म का शुभ फल होता है और दुश्चीर्ण कर्म का अशुभ फल होता है। जैसा कर्म किया जाता है, वैसा ही फल भुगतना पड़ता है। यह कर्मवाद का सामान्य सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त का संक्रमण सिद्धान्त में अतिक्रमण होता है।' बंधनकाल का शुभकर्म संक्रमण के द्वारा विपाककाल में अशुभ हो जाता है तथा बंधनकाल का अशुभकर्म शुभकर्म पुद्गलों की प्रचुरता के संक्रान्त होकर विपाककाल में शुभ हो जाता है। नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य एवं देव आयुष्य कर्म की इन चार उत्तर प्रकृतियों का तथा मोह कर्म के मुख्य दो भेद-दर्शनमोह एवं चारित्रमोह का परस्पर संक्रमण नहीं होता है। भगवान् महावीर ने कर्म के सम्बन्ध में अनेक नवीन अवधारणाओं को प्रस्तुत किया है। कर्म को बदला जा सकता है। यह जैन कर्म सिद्धान्त की मौलिक उद्भावना है। आज विज्ञान जगत् में कुछ अभिनव प्रयोग हो रहे हैं। लिंग परिवर्तन की घटनाएं आम हो रही हैं। पुरुष का महिला एवं महिला का पुरुष रूप में परिवर्तन चिकित्सकीय पद्धति से हो रहा है। कर्म-सिद्धान्त की भाषा में वह नाम कर्म की प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण हुआ है। ऐसे ही क्लोनिंग, टेस्ट ट्यूब बेबी आदि से सम्बंधित प्रश्नों का समाधान कर्मवाद के आलोक में भी खोजा जा सकता है। कर्मवाद और पुरुषार्थ दर्शन जगत में कर्म एवं पुरुषार्थ की अवधारणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कुछ दार्शनिक जगत का नियामक ईश्वर को स्वीकार करते हैं। ईश्वर के जगत कर्तृत्व का सिद्धान्त उन्हें मान्य है। प्राणी की सम्पूर्ण अवस्थाएं ईश्वर नियंत्रित होती है। सुख-दुःख, स्वर्ग-नरक अवस्थाएं ईश्वर प्रेरित है। ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।। अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयो ।' जैन दर्शन में जगत कर्ता के रूप में ईश्वर का स्वीकार नहीं है किन्तु इस दर्शन ने कर्म 1. ठाणं 4/5 0 3, चउव्विहे कम्मे पण्णत्ते, तं जहा सुभे नाममेगे सुभविवागे, सुभे नाममेगे असुभविवागे, असुभे नाममेगे सुभविवागे, असुभे नाममेगे असुभविवागे। 2. जैन सिद्धान्त दीपिका 4/5 सूत्र का पाद टिप्पण - आयुषः प्रकृतीनां दर्शनमोह-चारित्रमोहयोश्च मिथः संक्रमणा न भवति। 3. स्याद्वादमंजरी, उद्धृत कारिका 6 पृ. 30. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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