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________________ जैन आगम में दर्शन को स्वीकार किया है। वैयक्तिक विविधताओं का हेतु कर्म को स्वीकार किया है। वैयक्तिक विविधताओं का हेतु कर्म है। यहां पर भी एक प्रश्न उपस्थित होता है कि कर्म ही यदि सभी वस्तुओं का नियामक है तो ईश्वर और कर्म में अन्तर क्या रहा । ईश्वरवादियों के यहां ईश्वर सर्वेसर्वा है वहीं कर्मवादियों के यहां कर्म सर्वेसर्वा है। नाम मात्र का ही अन्तर रहा। इस संदर्भ में यह मननीय है कि जैन दर्शन कर्म की शक्ति को असीम नहीं मानता कर्म भी सापेक्ष शक्ति सम्पन्न ही है। भगवान महावीर ने पुरुषार्थवाद का प्रतिपादन किया है। कर्म पुरुषार्थकृत है किन्तु पुरुषार्थ कर्मकृत नहीं है। जीव अपने उत्थान आदि के द्वारा जैसे कर्मो को बांधता है वैसे ही उनको तोड़ भी सकता है। भगवान महावीर के दर्शन में पुरुषार्थ एवं कर्मवाद का समन्वय है। उनकी अपनी-अपनी सीमा है । प्रयत्न के द्वारा कृत कर्मों को बदला जा सकता है। उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणा एवं संक्रमण ये पुरुषार्थ द्वारा कर्म परिवर्तन के स्पष्ट निदर्शन हैं। जीव अपने विशेष पुरुषार्थ के द्वारा प्रकृति, स्थिति अनुभाव एवं प्रदेश इन चारों में परिवर्तन कर सकता है । किन्तु पुरुषार्थ के द्वारा निकाचित कर्मों को नहीं तोड़ा जा सकता । उनका भोग अवश्यंभावी है । पुरुषार्थ एवं कर्मवाद परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं किन्तु अनेकान्त दृष्टि से उनके कार्यक्षेत्र की सीमा का बोध होने से दोनों की एक साथ स्वीकृति तर्कगम्य है । पुरुषार्थ और कर्म सापेक्ष हैं । उदीरणा 206 बन्ध की प्रक्रिया से कर्म आत्मा से संलग्न होते हैं। कर्म बंधते ही अपना फल देना प्रारम्भ नहीं करते। एक निश्चित समयावधि बाद वे कर्म फलदान के योग्य बनते हैं। वह समय सीमा पूर्ण होते ही वे उदय में आ जाते हैं। यह कर्म के उदय की स्वाभाविक प्रक्रिया है। इसमें न पुरुषार्थ की आवश्यकता नहीं होती है किन्तु उदीरणा में समय से पूर्व कर्म को उदय में लाया जाता है अतः उदीरणा के लिए विशेष पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। निश्चित समय से पहले कर्मों का उदय होता है, उसे उदीरणा कहते हैं । उदीरणा कर्म के आठ करणों में पांचवा करण है।' इसमें अपवर्तना की अपेक्षा रहती है। कर्म दो प्रकार से उदय में आ सकते हैं । ( 1 ) एक तो स्वाभाविक रूप से । (2) उदीरणा के द्वारा कर्म का उदय । पञ्चसंग्रह में सहज उदय को संप्राप्ति उदय एवं उदीरणा उदय को असंप्राप्ति उदय कहा गया है।' अयथाकाल विपाक को तत्त्वार्थवार्तिक में उदीरणा उदय कहा है।' उदीरणा सब कर्मों की नहीं हो सकती। उसी कर्म की उदीरणा होती है, जो उदीरणा योग्य बन जाता है। उपशम, निधत्ति और निकाचना ये तीन अवस्थाएं उदीरणा के अयोग्य हैं ।' साधना के क्षेत्र में उदीरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। 1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 12/22-25 2. कर्मप्रकृति, गाथा 2 बंधणसंकमणुव्वट्टणा य अववट्टणा उदीरणया । उवसामणा निहत्ती निकायणा चत्ति करणाई || 3. पञ्चसंग्रह (श्वे. ) गाथा 253 संपत्तिए य उदये पओगओ दिस्सई उईरणा सा । 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक (ले. आचार्य अकलंक, दिल्ली, 1993) II 9 / 36 / 9 अयथाकाल - विपाक उदीरणोदयः । 5. कर्म प्रकृति (ले. शिवशर्म सूरि, बीकानेर, 1982) गाथा 2 की टीका पृ. 48-49 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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