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________________ कर्ममीमांसा 197 किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से पापकर्म के बंध का एक कारण अविरति है। उससे निरन्तर बंध होता रहता है। दुष्प्रवृत्ति उसकी अभिव्यक्ति मात्र है। वह कभी-कभी होती है, निरन्तर नहीं होती। इसलिए साधक को अविरतिचित्त को बदलने की दिशा में उपक्रम करना चाहिए। उसके बदलने पर दुष्प्रवृत्ति सहज निरुद्ध होने लग जाती है।' जितना निरोध होगा उतना ही कर्मों का आगमन रुक जाएगा। कारण की मन्दता में कार्यमन्दताभी अवश्यंभावी है। आश्रव की अल्पता एवं क्रमश: क्षीणता ही कर्मनिरोध का प्रधान हेतु है। बन्ध की प्रक्रिया जीव कर्म का बंध प्रमाद और योग के द्वारा करता है। कर्मबन्ध में प्रमाद को उपादान एवं योग को निमित्त कारण माना गया है। इस प्रसंग में प्रश्नों की एक महत्त्वपूर्ण श्रृंखला भगवती में उपस्थित की गई है। प्रमाद का जनक योग, योग का जनक वीर्य, वीर्य का जनक शरीर एवं शरीर का जनक जीव को माना गया। इस प्रसंग से जीव और शरीर के परस्पर सम्बन्ध की प्रक्रिया का बोध करवाया गया है। "शरीर और मन के सम्बन्ध की समस्या दार्शनिक जगत् में एक गुत्थी बनी हुई है। इस प्रकरण से इसका सहज समाधान हो जाता है। मन का संचालन शरीर-जनित वीर्य से होता है। वीर्य के बिना मन गतिशील नहीं होता और वीर्य की उत्पत्ति शरीर के बिना नहीं हो सकती है। वीर्य मन का संचालक है तथा उसका उत्पत्ति स्रोत शरीर है अत: वीर्य के माध्यम से शरीर और मन का सम्बन्ध हो जाता है। इस प्रक्रिया से शरीर और मन के सम्बन्ध को सहज ही समझा जा सकता है। योग (मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति) मोहकर्म के उदय से जुड़कर प्रमाद बन जाता है। इसलिए प्रमाद का उत्पत्ति स्रोत योग को माना गया है। शक्ति के बिना प्रवृत्ति नहीं हो सकती अत: योग का संचालक वीर्य है। वीर्य शक्ति रूप है, उसका कोई आधार स्थल, उत्पत्ति-स्थल होना चाहिए। शरीर वीर्य का उत्पत्ति स्थल है। शरीर स्वरूपत: अचेतन है, अत: उसमें वीर्यजनकत्व रूप स्वाभाविक शक्ति नहीं है। वह शक्ति उसे जीव के सम्बन्ध से प्राप्त होती है। अत: इस समूची प्रक्रिया में जीव का प्राधान्य है।'' इससे स्पष्ट हो जाता है कि कर्म का कर्ता जीव है। कर्मफलभोग दार्शनिक क्षेत्र में कर्म वेदन के विषय में तीन धारणाएं प्रचलित हैं-अज्ञेयवाद, ईश्वराधीन और कर्मवाद। कुछ दार्शनिक मानते हैं कि सुख-दु:ख के फल भोग का हेतु अज्ञात है, यह अज्ञेयवाद है। न्यायदर्शन के अनुसार ईश्वर की सहायता के बिना जीव को कर्म अपना 1. सूयगडो 2/4 का अमुख पृ. 274 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/141.......पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च । 3. वही, 1/14:2-145.......पमादे किं पवहे! जोगपवहे। जोए किं पवहे? वीरियप्पवहे। वीरिए किं पवहे? सरीरप्पवहे। परीर किंपवहे ? जीवप्पवहे। 4. भगवई (खण्ड-1) पृ. 82 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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