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________________ 196 जैन आगम में दर्शन वचन से बोल सकता है और शरीर से संकल्पपूर्वक प्रवृत्ति कर सकता है। जो प्राणी मन से कुशल या अकुशल का चिन्तन नहीं करता, वाणी से कुछ नहीं बोलता और काया से स्थाणु की तरह निश्चेष्ट रहता है, उसके कर्मबंध कैसे होगा? यदि उसके भी कर्मबंध माना जाए तो मुक्त आत्माओं के भी कर्मबंध होने का प्रसंग आ जाएगा। एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय जीवों के कर्मबंध का प्रसंग ही नहीं आता क्योंकि उनमें घात करने का मन, वचन और काया नहीं है। कर्मबंध का हेतु है-योग-प्रवृत्ति । योग तीन हैं-मन, वचन और काया। जो जीव इनके द्वारा प्रवृत्त नहीं हैं, उनके कर्मबंध कैसे होगा? जैनदर्शन इस प्रश्न को समाहित करते हुए कहता है कि कर्मबंध का मूल कारण व्यक्त या अव्यक्त मन, वचन, काया नहीं है उसका मूल कारण हैअप्रत्याख्यान- अविरति । एकेन्द्रिय आदि जीव भी अठारह पापों से अनिवृत्त हैं, उनके पांच आश्रव द्वार खुले हैं। उनके प्रवृत्तिरूप कर्मबंध न भी हो पर अनिवृत्तिरूप कर्मबंध तो होगा ही। एकेन्द्रिय आदि अमनस्क या समनस्क जीवों में प्रत्याख्यानात्मक अवधकचित्त उत्पन्न ही नहीं होता। वैसा अवधकचित्त उत्पन्न न होने के कारण वे अविरत है। जो अविरत हैं उनके कर्मबंध होगा। उनका चित्त निरन्तर अठारह पापों के प्रति अव्यक्तरूप से संलग्न रहता है, इसलिए उनके कर्मबंध होता है। स्वप्न एवं जागरण में कर्म का बंध बौद्ध आदि दार्शनिक मानते हैं कि स्वप्न के मध्य होने वाली कुशल-अकुशल क्रियाओं से कर्म का चय नहीं होता क्योंकि उस अवस्था में प्राणी अव्यक्त विज्ञान वाला होता है। उस क्रिया के निष्पादन में न उसका चित्त है और न उसका अध्यवसाय है। जैन कहते हैं कि प्रत्येक प्राणी में सोते-जागते अविरति का प्रवाह निरन्तर चालू रहता है। अविरति आश्रव है। उससे निरन्तर कर्मबंध होता रहता है। स्वप्न में भी व्यक्ति को अवरिति नहीं छोड़ती। इसलिए व्यक्ति उस अव्यक्त अवस्था में भी कर्म का चय करता है। जो व्यक्ति हिंसा आदि का प्रत्याख्यान नहीं करता, वह निरन्तर अठारह पापों में प्रवृत्त होता रहता है। एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनमें भी पांच आश्रवों की विद्यमानता है वे अठारह पापों से अनिवृत्त हैं, इसलिए स्वप्न आदि की अवस्था में भी वे कर्मों के बंधक होते हैं।' कर्मबंध का हेतु अविरति जो पापकर्म का प्रत्याख्यान कर देता है उसके पापकर्म का बंध नहीं होता। जिनके विरति नहीं होती उनके अशुभ योग की प्रवृत्ति नहीं होने पर भी विरति के अभाव के कारण उन जीवों में पाप कर्मों के निष्पादन की योग्यता है, इसलिए उनके कर्मबन्ध होता है। व्यावहारिक दृष्टि के अनुसार मन, वचन और काया की दुष्प्रवृत्ति के बिना पाप कर्म का बंध नहीं माना जाता 1. सूयगडो 2/4 का आमुख 2. वही, पृ. 286 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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