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________________ कर्ममीमांसा 195 योग को कर्मबंध का हेतु माना है। प्रज्ञापना में मिथ्यात्व का उल्लेख हुआ जो मोहकर्म का ही भेद है तथा भगवती आगत प्रमाद भी मोहकर्म का ही भेद है। प्रज्ञापना में योग का बंध हेतु के रूप में उल्लेख नहीं हुआ किंतु एक महत्त्वपूर्ण तथ्य का उल्लेख प्रज्ञापना में है कि ज्ञानावरण, दर्शनावरण के उदय से दर्शन मोह का उदय और उससे कर्म का बंध होता है, मिथ्यात्व तो दर्शन मोह का ही भेद है। प्रस्तुत प्रसंग पर विचार करने से ज्ञात होता है कि सूत्रकार अज्ञान एवं मिथ्यात्व को कर्मबंध का हेतु कह रहे हैं। प्रस्तुत सूत्र में कर्मबंध के हेतुओं की एक श्रृंखला प्राप्त हो रही है। यदि शृंखला न रहे तो कर्मबंध नहीं हो सकता। चार घाती कर्मों में अन्तराय को छोड़कर शेष तीन कर्मबंध के हेतु बन रहे हैं। कर्म बंध का प्रत्यक्ष कारण तो कषाय ही है किंतु उस कषाय का सहयोगी अज्ञान है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि अज्ञान एवं कषाय-ये दो कर्मबंध के हेतु हैं। आगमोत्तर साहित्य : कर्मबंध के हेतु आगम उत्तरवर्ती साहित्य में कर्मबन्ध के पांच कारण बतलाए गए हैं। सबसे पहले कर्मबंध के मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय एवं योग-इन पांच हेतुओं का प्रयोग आचार्य उमास्वाति ने किया है। उत्तरवर्ती ग्रंथकार उनका अनुगमन करते रहे हैं। किंतु कर्मशास्त्र में कर्म बंध के चार कारण बतलाए गए हैं, उनमें प्रमाद का उल्लेख नहीं हुआ है। ठाणं में प्रमाद को दु:ख का हेतु कहा गया है। कर्म दु:ख रूप ही होते हैं। जहां कर्मबंध में प्रमाद को मुख्यता दी गई वहां पर प्रमाद का उल्लेख पृथक् रूप से कर दिया गया। जहां ऐसा नहीं किया गया वहां प्रमाद का पृथक् रूप से उल्लेख नहीं किया गया। सामान्यत: आठ कर्मों में मोहनीय एवं नामकर्म को कर्मबंध का हेतु माना जाता है किंतु प्रज्ञापना में ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्म को भी कर्मबंध के हेतु के रूप में उल्लिखित किया है। कर्मबंध के आभ्यन्तर एवं बाह्य हेतु अविरति, प्रमाद, कषाय आदि ये कर्मबंध के आभ्यन्तर हेतु हैं। प्रत्यक्ष ग्राह्य नहीं हैं। कर्मबंध के बाह्य हेतु मन, वचन, काया की प्रवृत्ति है जो प्रत्यक्ष ग्राह्य है। आभ्यन्तर कारण पृष्ठभूमि में है। बाह्यकारण स्पष्ट है अत: सामान्यत: व्यक्ति यही समझता है कि मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति से ही कर्म का बंध होता है। प्रश्न होता है कि पाप कर्म का बंध उसी के होना चाहिए जिसके मन, वचन और काया स्पष्ट हैं अर्थात् जो मन से चिंतन कर सकता है, 1. तत्त्वार्थसूत्र 8/1 मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः 2. प चसंग्रह (स्पा, हीरालाल जैन, काशी, वि.सं. 2017) (दिगम्बर) चतुर्थ अधिकार (शतक) गा.77 पृ.105 मिच्छासंजम हूंति हु कसाय जोगा य बंधहेउ ते । पंचदुवालसभेया कमेण पणुवीस पण्णरसं ।।। 3. ठाणं 3/3 3 6 ...भंते। दुक्खे केण कडे, जीवेण कडे पमादेणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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