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जैन आगम में दर्शन
अपरिस्पन्दात्मक वीर्य केवल जीव से सम्बद्ध होता है। जीव का परिस्पन्दात्मक वीर्य शरीर से उत्पन्न होता है। उसी के द्वारा मन, वचन और शरीर की प्रवृत्तियां सञ्चालित होती हैं।
उमास्वाति ने योग का अर्थ काय, वाक् और मन का कर्म किया है। सिद्धसेनगणी ने योग की प्रक्रिया में चार तत्त्वों का उल्लेख किया है-आत्मा, शरीर, करण और योग ।' उनकी तुलना भगवती में आगत जीवप्रवह शरीर, शरीरप्रवह वीर्य और वीर्यप्रवह योग से की जा सकती है। प्रमाद और योग जो क्रमश: मोहकर्म एवं नामकर्म स्थानीय हैं, उनसे कर्म का बंध होता है। अन्य जैन आगम तथा दर्शन के ग्रंथों में भी कर्मबंध के हेतुओं का उल्लेख हुआ है जिनका प्रस्तुत प्रसंग में विमर्श करना उचित होगा । पाठकों की सुविधा के लिए भगवई (भाष्य) में प्रदत्त प्राचीन संदर्भो का भी यहां अवतरण किया है। कर्मबन्ध का कारण : राग और द्वेष
प्रज्ञापना में कर्मबन्ध केराग और द्वेष-येदो कारण बतलाए गए हैं। राग के दो प्रकार हैं-- माया और लोभ तथा द्वेष के दो प्रकार हैं-क्रोध और मान । विस्तार में क्रोध, मान, माया एवंलोभ ये चार कर्मबंध के हेतु बनते हैं। ठाणं में भी कर्मबंध के इन चार हेतुओं का उल्लेख मिलता है। प्रज्ञापना की अवधारणा
प्रज्ञापना में भी कर्मबंध की अवधारणा पर एक महत्त्वपूर्ण विमर्श प्राप्त है। वहां पर कर्मबंध की पृष्ठभूमि का उल्लेख हुआ है, जो विशेष रूप से ध्यातव्य है। प्रज्ञापना के अनुसार ज्ञानावरण के तीव्र उदय से दर्शनावरण का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरण के तीव्र उदय से दर्शनमोह का तीव्र उदय होता है। दर्शनमोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है। मिथ्यात्व के उदय से जीव के आठ प्रकार के कर्मों का बंध होता है। भगवती में प्रमाद और 1. भगवई (खण्ड-1), पृ. 372, (भगवती वृत्ति 1/143-144) वीर्यं नाम वीर्यान्तरायकर्मक्षयक्षयोपशमसमुत्थो
जीवपरिणामविशेषः। 'सरीरप्पवहे' त्ति वीर्य द्विधा-सकरणमकरणं च। तत्रालेश्यस्य के वलिन: कृत्स्नयोर्जेयदृश्ययो: केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपयुञानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽप्रतिघो जीवपरिणामविशेष
तदकरणं तदिह नाधिक्रियते। यस्तु मनोवाक्कायकरणसाधन: सलेश्यजीव कर्तृको-जीवप्रदेशपरिस्पन्दा त्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्यं तच्च शरीरप्रवहम्। शरीरं विना तदभावादिति। 2. तत्त्वार्थसूत्र 6/1 कायवाड्मनः कर्मयोगः । 3. तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी 6/1 4. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 1/142-145
पण्णवणा 23/6 जीवे णं भंते! णाणावरणिज्ज कम्म कतिहिं ठाणेहिं बंधति? गोयमा! दोहिं ठाणेहिं, तं जहा-रागेण य दोसेण य। रागे दुविहे पण्णत्ते-तं जहा-माया य लोभे य। दोसे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा -- कोहे य माणे य। इच्चेतेहिं चउहिं ठाणेहिं वीरिओवग्गहिएहिं एवं खलु जीवे णाणावरणि कम्मं बंधति । ठाणं 4/92-94 जीवा णं चउहिं ठाणेहिं अट्ठकम्मपगडीओ चिणिंसु......। चिणंति.......चिणिस्संति, तं जहा-कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं । पण्णवणा 23/3......णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंसणावरणिज्नं कम्मं णियच्छति, दंसणावरणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दंसणमोहणिनं कम्मं णियच्छति, दंसणमोहणि जस्स कम्मस्स उदएणं मिच्छत्तं णियच्छति, मिच्छत्तेणं उदिण्णेणं गोयमा! एवं खल जीवे अट्ठ कम्मपरडीओ बंधइ।
6.
ठाण
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