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कर्ममीमांसा
है । प्रमाद के साथ प्रयुक्त प्रत्यय शब्द से तथा योग के साथ प्रयुक्त निमित्त शब्द से इस तथ्य की अवगति प्राप्त होती है। किसी भी कार्य के निष्पादन में उपादान कारण एवं निमित्त / सहकारी कारण की आवश्यकता होती है कर्मबंध रूप कार्य के लिए भी इन दोनों कारणों की आवश्यकता । सूत्रकार ने स्वयं ही इन दोनों कारणों का स्पष्ट उल्लेख कर दिया है ।
प्रमाद के प्रकार
भगवई भाष्य में आचार्यश्री महाप्रज्ञजी ने प्रमाद एवं योग पर विशेष विमर्श प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि- “प्रमाद का एक अर्थ मद्य आदि किया जाता है।' ठाण में प्रमाद के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं - मद्य, निद्रा, विषय, कषाय, द्यूत और प्रतिलेखन । वृत्तिकार ने वैकल्पिक रूप में प्रमाद के अन्तर्गत मिथ्यात्व, अविरति और कषाय का निर्देश किया है । ' तत्त्वार्थवार्तिक
प्रमाद के पन्द्रह प्रकारों का उल्लेख प्राप्त होता है ।' कर्मबंध के हेतु के प्रसंग में प्रमाद एवं योग इन दोनों का स्वतंत्र उल्लेख है अतः इन दोनों की सीमा भी स्वतंत्र होनी चाहिए। इस सीमा की दृष्टि से विचार करने पर यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि कर्मबन्ध की प्रक्रिया में मुख्यतः कर्मबन्ध के भूत बनते हैं - मोहकर्म और नामकर्म । प्रमाद मोहकर्म की सूचना देने वाला पद है और योग नामकर्म का सूचक पद है।'
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योग का अर्थ
श्रीमद् जयाचार्य ने धर्मसी मुनि का मत उद्धृत किया है। धर्मसी मुनि ने 'योग' का अर्थ अशुभ योग किया है। किंतु कर्मबंध के हेतुभूत प्रमाद और योग के सम्बन्ध में विचार करने पर यह अर्थ विमर्शनीय लगता है । यदि योग को अशुभ मान लिया जाये तो फिर प्रमाद का अर्थ क्या होगा ? यहां प्रमाद स्वयं सावद्ययोग रूप है। फिर प्रमाद और योग में कोई भेदरेखा नहीं खींची जा सकती, इसलिए प्रमाद का अर्थ मोहनीय कर्म के उदय से होने वाली मूर्च्छा अथवा अशुभ व्यापार और योग का अर्थ नामकर्म के उदय से होने वाली शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति है । ' प्राणी की सारी प्रवृत्तियां जीव और शरीर दोनों के संयोग से होती है। शरीर का निर्माण जीव के द्वारा होता है ।" वीर्य दो प्रकार का होता है क्रियात्मक और अक्रियात्मक | जीव का
1. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 1 / 141 कहण्णं भंते! जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं बंधति ?
गोयमा ! पमादपच्चया, जोगनिमित्तं च ।
2. भगवई (खण्ड-1) पृ. 81-82 (1/141) प्रमादश्च मद्यादिः ।
3. ठाणं 6 / 44 छव्विहे पमाए पण्णत्ते, तं जहा- मज्जपमाए, णिद्दपमाए, विसयपमाए, कसायपमाए, जूतपमाए, पडिलेहणापमाए
4.
भगवई (खण्ड-1 ) ( 1/141) अथवा प्रमादग्रहणेन मिथ्यात्वाविरिति कषायलक्षणं बन्धहेतुत्रयं गृहीतम् । 5. तत्त्वार्थवार्तिक 7 / 13 / 3 पञ्चदशप्रमादपरिणतो वा ।
6. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 8 / 420-433
7.
भगवई (खण्ड- 1) 1/140-146 पृ. 81
8. भगवती जोड़ 1 / 12/24
9.
भगवई (खण्ड- 1) 1 / 141 का टिप्पण, पृ. 81
10. वही, पृ. 372 ( भगवती वृत्ति 1 / 145 ) इह यद्यपि शरीरस्य कर्मापि कारणं न केवलं एव जीवस्तथाऽपि कर्मणो जीवकृतत्वेन जीवप्राधान्यात् जीवप्रवहं शरीरमित्युक्तम्
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