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प्रयोग तीन प्रकार का माना जाता है । पञ्चेन्द्रिय प्राणी के कर्मबंध मन, वचन एवं काया इन तीनों के प्रयोग से ही होता है । द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों के मन नहीं होता अत: उनके कर्मोपचय काया एवं वचन के प्रयोग से होता है। एकेन्द्रिय जीवों के काययोग ही होता है अत: उनके कर्मोपचय मात्र शरीर निमित्तक ही होता है।' कर्मबन्ध तीनों ही योगों से होता है । महावीर ने मन, वचन एवं काया - इन तीनों से ही कर्मबंध माना है। ये तीनों करण रूप हैं। चेतन रूप कर्ता इन करणों का प्रयोग करके कर्म का बन्ध करता है अतः यह स्पष्ट ही है कि कर्म अचैतन्यकृत नहीं है किंतु चैतन्यकृत ही है ।
दुःख का स्पर्श किसको ?
गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- - भंते! क्या दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है अथवा अदुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है? जिज्ञासा को समाहित करते हुए भगवान महावीर ने कहा - दुःखी ही दुःख से स्पृष्ट होते हैं।' कर्म मुक्त जीव के कर्म का बंध नहीं होता । पूवकर्म से बंधा हुआ जीव ही नए कर्मों का बंध करता है।' नए बंधन का हेतु पूर्व बंधन न हो तो मुक्त जीव के भी कर्म बंधे बिना कैसे रह सकते हैं ? अतः बंधा हुआ ही बंधता है । संसारावस्था में आत्मा सकर्मा होती है। सकर्मा आत्मा के निरन्तर कर्म का बंध होता रहता है। शुद्ध आत्मा, मुक्तआत्मा दुःख से स्पृष्ट नहीं हो सकती । अभयदेवसूरि ने दुःख को कर्म कहा है । ' कर्म दुःख के निमित्त बनते हैं अतः वे दुःख ही हैं। जो कर्मों से युक्त होता है वह दुःखी है तथा दुःखी ही दुःख को / कर्म को आकर्षित करते हैं ।
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जैन आगम में दर्शन
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कर्मबंध का हेतु
जैसा कि पहले कहा गया है दार्शनिक जगत् में 'कार्य कारणवाद' का सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। दर्शन के अनेक सिद्धान्त कार्यकारण की श्रृंखला से सम्पृक्त हैं। कर्मवाद जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है । वह कार्यकारण की परम्परा में निबद्ध है। कर्म का बंध होता है तो उसका कोई कारण अवश्य होना चाहिए। कर्म का बंध कार्य है उसके कारण क्या हैं ? कर्मबंध के कारणों के सम्बन्ध में जैनदर्शन में प्रभूत विचार हुआ है क्योंकि कर्मबन्ध के हेतुओं को जानकर ही कर्मबन्ध से बचा जा सकता है।
कर्मबन्ध का कारण: प्रमाद एवं योग
भगवती में कांक्षा - मोहनीय कर्मबंध के प्रसंग में प्रमाद एवं योग को कर्मबंध का हेतु गया है । 'कर्मबंध का मूल उपादान कारण प्रमाद है तथा उसका सहकारी कारण योग
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1. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 6 / 26 जीवाणं कम्मोवचए. .पयोगसा, नो वीससा । 2. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 7 / 16 दुक्खी दुक्खेणं फुड़े नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ।
3. पण्णवणा 23/1/292
4.
भगवई (खण्ड-2), पृष्ठ 489 (7/16) दु:खं कर्म तद्वान् जीवो दुःखी
5. अंगसुत्ताणि 2 ( भगवई) 1 / 141
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