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कर्ममीमांसा
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___ जीव जिस प्रकार आहार, शरीर आदि के प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है और उनको तद्रूप में परिणत करता है ठीक वैसे ही जीव कर्म प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करता है तथा वे पुद्गल कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं। पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन जीव द्वारा ही होता है अत: कर्म चैतन्यकृत है। अचैतन्यकृत नहीं है।' निश्चय एवं व्यवहारनय से कर्म का कर्ता
जैन-परम्परा के कुछ आचार्यों ने कर्म के कर्तृत्व के सम्बन्ध में निश्चय एवं व्यवहार नय से विमर्श किया है। शुद्ध निश्चय नय के अनुसार आत्मा द्रव्य कर्मों की कर्ता नहीं हो सकती क्योंकि द्रव्य कर्म पौद्गलिक हैं। उन पौद्गलिक कर्मों का कर्ता चेतन आत्मा नहीं हो सकती। प्रत्येक द्रव्य स्वभाव का कर्ता होता है, परभाव का कर्तृत्व उसमें नहीं है। आत्मा अपने स्वभाव के अनुरूप कर्म करती हुई अपने चेतन परिणामों की ही कर्ता है। पौद्गलिक कर्मों की वह कर्ता नहीं है। कर्म ही कर्म का कर्ता है। यह कुन्दकुन्द की शुद्ध निश्चयनय की दृष्टि है।
संसारी अवस्था में आत्मा कर्म से मुक्त नहीं है। अत: व्यवहार नय की दृष्टि से आत्मा पौद्गलिक कर्म की कर्ता है। अशुद्ध निश्चय नय के अनुसार आत्मा राग-द्वेष आदि चेतन कर्म-समूह की कर्ता है और शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा अपने शुद्ध ज्ञान आदि भावों की कर्ता है।
जैनदर्शन के अनुसार अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन आदि आत्मा के स्वाभाविक गुण हैं। शुद्ध निश्चय नय की दृष्टि से आत्मा केवल इन गुणों की ही कर्ता है। कर्म-पुद्गल के साथ उसका किसी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं हो सकता। कर्म की कर्ता आत्मा नहीं है क्योंकि कर्म परभाव है। कर्म ही कर्म के कर्ता हैं। आचार्य कुन्दकुन्द की विचारधारा का सांख्यदर्शन के साथ आंशिक साम्य परिलक्षित हो रहा है। सांख्यदर्शन के अनुसार भी जड़ प्रकृति ही कर्म की कर्ता है। चेतन पुरुष का उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। कर्मोपचय प्रयत्नजन्य
पुद्गलों का उपचय स्वभाव एवं प्रयत्न दोनों ही प्रकार से होता है किंतु कर्म का उपचय प्रयत्न कृत ही होता है स्वत नहीं हो सकता। जीव के मन, वचन एवं काया की प्रवृत्ति रूप प्रयत्न होता है उससे ही कर्म पुद्गलों का आकर्षण होता है। मन, वचन एवं काया के भेद से
अंगसुत्ताणि :, (भगवई) 16/42 गोयमा! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा........। दुट्ठाणेसु दुसेज्जासु, दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा।
समयसार, गाथा 82 3. द्रव्यसंग्रह गाथा 8 पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु निच्छयदो।
चेदण-कम्माणादा, सुद्धनया सुद्ध-भावाणं ।। 4. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 6/25 जीवाणं कम्मोवचए.......पयोगसा, नो वीससा।
2.
समय
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