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जैन आगम में दर्शन
बिना कर्तृत्व के प्रकृति का अस्तित्व ही नहीं है। संसार के सारे कार्य प्रकृति ही कर रही है। गीता में स्पष्ट कहा गया है कि गुणों के माध्यम से प्रकृति सम्पूर्ण कार्यों को करती है। अहंकार से विमूढ व्यक्ति यह सोचता है कि मैं इन कार्यों का कर्ता हूं।' सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष में मात्र साक्षि-भाव है। उसमें कर्तृत्व नहीं है। अत: इस दर्शन के अनुसार प्रकृति जो अचेतन है वही कर्म की कर्ता है। तात्पर्यार्थ कर्म ही कर्म का कर्ता है। नियति : कर्म की कर्ता
आजीवक सम्प्रदाय नियतिवादी है। वह कर्मबन्ध को नियति से जुड़ा हुआ मानता है। उसके अनुसार कर्मबन्ध आदि सभी क्षेत्रों में पुरुषार्थ अकिञ्चित्कर होता है। नियतिवाद के अनुसार जीवके कर्मबन्ध पुरुषार्थ द्वारा नहीं होते। उत्थान, कर्म, बल, वीर्य आदि का कर्मबन्ध में कोई स्थान नहीं है। जो कुछ भी शुभ-अशुभ की प्राप्ति होती है वह नियति के बल से ही प्राप्त होता है। कर्मचैतन्यकृत
जैन आगमसीहत्य में कर्मको चैतन्यकृत माना गया है। भगवान् महावीर पुरुषार्थवाद के प्रतिपादक रहे हैं। महावीर के दर्शन के अनुसार जीव अपने पराक्रम से कर्म का बन्ध करता है। कर्मबन्ध नियति से जुड़ा हुआ नहीं है। जीव अपने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम से कर्म का बन्ध करता है। प्राणी अपनी ही प्रवृत्ति से कर्म का संचय करता है और उनका भोग करता है। कर्मबन्ध के लिए जीव स्वयं उत्तरदायी है। जीवकृत शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक शुभाशुभ प्रवृत्ति के द्वारा ही आकृष्ट कर्म वर्गणा के अनन्त प्रदेशी पुद्गल स्कन्ध आत्मा से चिपक कर कर्म संज्ञा को प्राप्त होते हैं।'
जैनदर्शन सांख्य की तरह प्रकृति से कर्मबन्ध नहीं मानता। प्रकृति अचेतन होती है। अचेतन में स्वयं का कर्तृत्व नहीं होता। अत: वह कर्मबन्ध नहीं कर सकती। जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते।'
1. गीता 3/27 प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।। 2. भगवई (खण्ड-1), पृ. 372, यथा गोशालकमते नास्ति जीवानामुत्थानादि पुरुषार्थासाधकत्वात्, नियतित
एवं पुरुषार्थसिद्धेः, यदाह - प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थ, सोऽवश्यं भवति नृणां शुभोऽशुभो वा। भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ।। अंगुसत्ताणि 2, (भगवई) 1/146 एवं सति अत्थेि उटाणेइ वा, कम्मेइ वा, बलेइ वा, वीरिएइ वा,
पुरिसक्कार परक्कमेइ वा। 4. जैन सिद्धान्त दीपिका 4/1 आत्मप्रवृत्त्याकृष्टास्तत्प्रायोग्यपुद्गला: कर्म 5. अंगसुत्ताणि 2, (भगवई) 16/41 जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कामा कन्जंति।
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