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________________ जैन आगम में दर्शन श्रुतस्कन्ध की सूत्रकृतांग के साथ बाद में संयोजना की है। प्रथम श्रुतस्कन्ध के सोलह और द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात अध्ययन हैं। इसकी पद संख्या 36 हजार बतलाई गई है। धवला में भी इसकी पद संख्या यही निर्दिष्ट है, किंतु वर्तमान में उपलब्ध सूत्रकृतांग का पद परिमाण इतना नहीं है। आचारांग की तरह ही कालक्रम में इसका विच्छेद होता रहा है किंतु प्रस्तुत आगम सर्वथा विच्छिन्न नहीं हुआ है। यह वक्तव्य असंदिग्ध है। धवला और जय धवला में भी इसके दो श्रुतस्कन्ध होने का उल्लेख नहीं है और अध्ययनों की संख्या का भी उल्लेख नहीं है ।' धवला एवं जय धवला के उल्लेख से भी प्रतीत होता है कि प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध होने की परम्परा अर्वाचीन है। 4 2 इस आगम में मुख्य रूप से स्व-समय एवं पर समय का सूचन है । पर समय के संदर्भ में स्व-समय के अभ्यास से पाठक की दृष्टि परिमार्जित होती है। नवदीक्षित शिष्यों के दृष्टि परिमार्जन हेतु इस आगम में पर समय के विवेक साथ स्व- समय का निरूपण किया है।' नंदी में स्व- समय की स्थापना का उल्लेख है । " अंग-सहित्य में आचार - निरूपण विभिन्न संदर्भों में किया गया है। आचारांग प्रथम अंग है। उसमें वह अध्यात्म के संदर्भ में किया गया है। प्रस्तुत आगम में वह दार्शनिक मीमांसा के संदर्भ में किया गया है। सूत्रकृतांग में प्रतिपादित दार्शनिक तथ्य जैसा कि इस ग्रन्थ की नाम विवेचना के प्रसंग में उल्लेख किया गया है कि इसमें स्वसमय एवं पर- समय की सूचना दी जाएगी। इसी वक्तव्य के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत आगम में विभिन्न मतवादों का वर्णन है। क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद एवं विनयवाद इन चार वादों का वर्णन है तथा पंचभूतवाद, एकात्मवाद, तज्जीवतच्छरीरवाद, नियतिवाद आदि तत्कालीन अनेक दार्शनिक अवधारणाओं का पूर्वपक्ष के रूप में उल्लेख प्रस्तुत आगम में है । ' इन अवधारणाओं के आलोक में जैन मन्तव्य को भी स्पष्टता से समझा जा सकता है। प्रस्तुत आगम के प्रथम अध्ययन के प्रथम श्लोक में ही ज्ञान एवं आचार दोनों का समन्वय हुआ है। 'बुज्झेज्ज तिउट्टेज्जा' इस श्लोकांश में यही सत्य प्रतिपादित है। जैन दर्शन को ज्ञानवादी भी नहीं है और कोरा आचारवादी भी नहीं है। वह बंधन मुक्ति के लिए ज्ञान एवं आचार दोनों को अनिवार्य मानता है । यह तथ्य प्रस्तुत आगम में प्रतिपादित है । प्रस्तुत श्लोक में मोक्षमार्ग का प्रतिपादन हो गया है । " 1. (क) षट्खण्डागम, धवला, भाग 1, पृ. 99 (ख) कसायपाहुड, जयधवला, भाग । पृ. 1 2 2 2. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सूत्र 90 3. नंदी, सूत्र 82 4. सूयगडो, (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूँ, 1984) 1/1/7-71, 1 / 12 वां अध्ययन 5. वही, 1/1/1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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