SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम साहित्य की रूपरेखा 43 आत्मा कर्मों के कारण संसार में परिभ्रमण करती है। संसार परिभ्रमण का हेतु कर्म है तथा कर्मबंध के मुरत्र्य हेतु आरम्भ और परिग्रह है। परिग्रह के लिए आरम्भ किया जाता है। हिंसा परिणाम है, कार्य है। परिग्रह कारण है। इस तथ्य का प्रतिपादन भी प्रस्तुत आगम में है। __ भगवान् महावीर की स्तुति में प्रयुक्त विशेषणों से जैन दर्शनमान्य 'सर्वज्ञता' की अवधारणा की प्रस्तुति भी इस आगम में हुई है। अणंतणाणी, अणंतचक्खु आदि विशेषण इस स्वीकृति की ओर इंगित करते हैं।' अन्य जैन दार्शनिक मान्यताओं का भी इसमें उल्लेख है, जिनका उल्लेख आगे प्रबन्ध में विस्तार से किया जाएगा। सूत्रकृतांग की सामयिकता प्रस्तुत सूत्र में शाश्वत सत्यों का प्रतिपादन हुआ है। देश, काल, परिस्थिति के अनुसार समस्याओं के आकार-प्रकार में अन्तर आ जाता है किन्तु मूलभूत कारण वे ही रहते हैं। आज के मनोवैज्ञानिक मनुष्य की मनोवृत्ति में ही समस्याओं के बीजों का अवस्थान मानते हैं। मनुष्य की मौलिक मनोवृत्ति सदैव एक जैसी रहती है। उसके प्रकटीकरण के प्रकारों में भेद हो जाता है। साम्प्रदायिक अभिनिवेश पारस्परिक वैमनस्य को वृद्धिंगत करता है। वर्तमान में साम्प्रदायिक अभिनिवेश सम्पूर्ण विश्व के सामने एक भयावह चुनौती है। इसके कारण भय, हिंसा, आतंक का माहौल बना हुआ है। सूत्रकृतांग के काल में भी इस भाव के दर्शन होते हैं। जिस पर सूत्रकृतांग प्रहार कर रहा है। सयं सयं पसंसंता, गरहंता परं वयं। जे उतत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया।।' "अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मतों की निंदा करते हुए जो गर्व से उछलते हैं वे संसार को बढ़ाते हैं।" 'मेरा सिद्धान्त ही सही है, दूसरा सिद्धान्त सही नहीं है' -- इसी आग्रह ने संघर्ष को जन्म दिया है। अनेकान्तदृष्टि वाला दूसरों के सिद्धान्त के विरोध में या प्रतिपक्ष में खड़ा नहीं होता, किंतु सत्य को सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करता है। प्रस्तुत श्लोक को अनेकान्त दृष्टि की पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है। अनेकान्त परक चिंतन समस्याओं का समाधायक होता है। वार्तमानिक साम्प्रदायिक अभिनिवेश की समस्या का निराकरण भी इस दृष्टि के आलोक में किया जा सकता है। रचनाशैली सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध पद्यशैली में लिखित है। सोलहवां गद्यशैली में लिखा हुआ प्रतीत होता है किंतु वह भी पद्यात्मक है। नियुक्तिकार ने गाथा शब्द की मीमांसा करते हुए 1. सूयगडो, (संपा. युवाचार्य महाप्रज्ञ, लाडनूं, 1984), 1/6/3, 5, 25 आदि 2. वही, 1/1/50 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy