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________________ 44 जैन आगम में दर्शन कुछ विकल्प प्रस्तुत किए हैं। उनमें लिखा है कि प्रस्तुत अध्ययन गेय है, वह गाथाछंद या सामुद्रछंद में लिखित है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का 1 5वां यमकीय अध्ययन यमक अलंकार में निबद्ध है। यह आगम ग्रन्थों की काव्यात्मक शैली का विरल उदाहरण है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध का बड़ा भाग गद्यशैली तथा विस्तृत शैली में लिखित है। इसमें रूपक और दृष्टान्तों का भी समीचीन प्रयोग हुआ है। प्रथम अध्ययन में पुण्डरीक का रूपक बहुत ही सुन्दर है। इसमें संवाद और प्रश्नोत्तरी शैली का भी प्रयोग है। संवादशैली का उदाहरण दूसरे अध्ययन में मिलता है। रचनाकार और रचनाकाल जैन परम्परा के अनुसार द्वादशांगी के रचनाकार गणधर माने जाते हैं। इस मान्यता के अनुसार सूत्रकृतांग गणधरों की रचना है । भगवान महावीर के निर्वाण के एक हजार वर्ष तक आगम श्रुति परम्परा से प्रचलित रहे। उसके बाद देवर्धिगणी ने इनको लिपिबद्ध किया अतः प्रस्तुत आगमों को एक अपेक्षा से देवर्धिगणी का कह सकते हैं। सूत्रकृतांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम का परिशिष्ट रूप है और बाद में जोड़ा गया है। इस ग्रन्थ का आचार-मीमांसा एवं तत्त्व-मीमांसा दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वूपर्ण स्थान है। स्थानांग अंग साहित्य के संख्या क्रम में तीसरे स्थान में आगत स्थानांग सूत्र जैनधर्म-दर्शन की अवधारणाओं का निरूपक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस आगम में तत्त्व का प्रतिपादन संख्या में हुआ है। इस ग्रन्थ का सम्पूर्ण प्रतिपाद्य एक से दस तक की संख्या में निबद्ध है। इस आगम के दस विभाग है, इनको स्थान कहा जाता है। टीकाकार ने इनको अध्ययन की अभिधा से भी अभिहित किया है। प्रथम विभाग में एक की संख्या से कथित विषयों का समावेश है, इसी प्रकार क्रमशः दस तक की संख्या में विभिन्न विषयों का गुम्फन हुआ है। बौद्धों के अंगुत्तरनिकाय सूत्र की तरह ही इसमें संख्या के आधार पर विषय का वर्णन हुआ है। अंग साहित्य मुख्य रूप से साधक के साधना मार्ग का निरूपण विधेयात्मक अथवा निषेधात्मकवचनों में करता है किंतुस्थानांगमें ऐसे वचनों का अभाव है।स्थानांगएवंसमवायांग के अध्ययन से प्रतीत होता है कि ये संग्रहात्मक कोश के रूप में निर्मित किए गए हैं। अन्य अंगों की अपेक्षा इनके नाम एवं विषय भिन्न प्रकार के हैं। 1. सूयगडो-1 भूमिका पृ. 26 - 2 7 | 2. Winternitz, Maurice, History of Indian Literature P. 421, This Anga, 100, consists of two books, the second of which is probablyonlyan appendix, added later; to the old Anga which we have in the first book. 3. स्थानांगसूत्रं समवायांगसूत्रं च (स्थानांगवृत्ति) पत्र 3 : तत्र च दशाध्ययनानि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001983
Book TitleJain Agam me Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMangalpragyashreeji Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Agam
File Size21 MB
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