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आगम साहित्य की रूपरेखा
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स्थानांग की रचना का उद्देश्य
स्थानांग में एक ही प्रमेय के संख्या के आधार पर अनेक विकल्प किए गए हैं। यथाप्रत्येक शरीर की दृष्टि से जीव एक है।' संसारी और मुक्त की अपेक्षा जीव दो प्रकार के हैं।' इस प्रकार अलग-अलग स्थानों में उनकी संख्या के अनुसार जीव तत्त्व का विवेचन कर दिया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में संख्यात्मक दृष्टिकोण से तत्त्व का प्रतिपादन किया गया है। इन अंगों की विषय निरूपण की शैली से ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि जब सारे अंगों का निर्माण हो गया, तब उनके स्मृति अथवा धारणा की सरलता की दृष्टि से या विषयों की खोज की सुगमता की दृष्टि से स्थानांग का इस प्रकार से निर्माण किया गया तथा इसे विशेष प्रतिष्ठा देने के लिए इसका समावेश अंग साहित्य में कर लिया, ऐसा पं. बेचरदास जी दोशी का अभिमत है।' स्थानांगः आकार एवं विषय वस्तु
स्थानांग बृहद् आकार वाला ग्रन्थ है। इसके दस स्थान हैं। तथा दस अध्ययनों में दूसरा, तीसरा, चौथा एवं पांचवां ये चार अध्ययन उद्देशकों में भी विभक्त हैं। अन्य अध्ययन उद्देशकों में विभक्त नहीं हैं। दूसरे, तीसरे एवं चौथे के चार-चार एवं पांचवें के तीन उद्देशक हैं।
ठाणं का एक श्रुतस्कन्ध, इक्कीस उद्देशनकाल, इक्कीस समुद्देशनकाल हैं। पदप्रमाण से इसके बहत्तर हजार पद हैं। वर्तमान में इस ग्रन्थ में 1 6 5 4 4 8 अक्षर हैं जिनका अनुष्टुप् श्लोक परिमाण 51 70 होता है।
आचार्यश्री महाप्रज्ञ जी ने इसकी विषय वस्तु के सन्दर्भ में लिखा है कि प्रस्तुत सूत्र में संख्या के आधार पर विषय संकलित है, अत: यह नाना विषय वाला है। इसमें एक विषय का सम्बन्ध दूसरे विषय से नहीं खोजा जा सकता। द्रव्य, इतिहास, गणित, भूगोल, खगोल, आचार, ज्ञान, मनोविज्ञान, संगीत आदि अनेक विषय बिना किसी क्रम के इस ग्रन्थ में उपलब्ध हैं। अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का भी आकलन प्रस्तुत आगम में है। भगवान् महावीर के समय में श्रमणों के अनेक संघ विद्यमान थे। उनमें आजीवकों का संघ बहुत शक्तिशाली था। वर्तमान में उसकी परम्परा विच्छिन्न हो चुकी है। उसका साहित्य भी लुप्त हो गया है। जैन साहित्य में उस परम्परा के विषय में कुछ जानकारी मिलती है। प्रस्तुत सूत्र में भी आजीवकों की तपस्या के विषय में एक उल्लेख मिलता है। इस आगम में ज्ञान-मीमांसा का भी लम्बा प्रकरण उपलब्ध है। पुद्गल के सम्बन्ध में भी विस्तृत जानकारी इस ग्रन्थ में है। प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर के समकालीन और उत्तरकालीन-दोनों प्रकार के तथ्य संकलित हैं।"
1. ठाणं (संपा. मुनि नथमल, लाडनूं, 1976) 1/17, एगे जीवे पाडिक्कएणं। 2. वही, 2/409, दुविहा सव्वजीवा पण्णत्ता, तंजहा- सिद्धा चेव, असिद्धा चेव। 3. दोसी, बेचरदास, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, (वाराणसी, 1989) भाग ।, पृ. 213 4. नंदी, सूत्र 83 5. ठाणं 10 वां अध्ययन, पृ. 950 6. स्थानांग भूमिका पृ. 16-17
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