________________
46
जैन आगम में दर्शन
__ भगवान् महावीर की उपस्थिति में तथा उनकी उत्तरवर्ती परम्परा में भी वैचारिक भिन्नता प्रकट करने वाले कुछ व्यक्ति हुए हैं। उन्हें निह्नव कहा गया है। जमालि आदि सात निहवों का उल्लेख प्रस्तुत सूत्र में है।' गोदासगण आदि भगवान् महावीर के नौ गणों का उल्लेख भी इसमें है। ये गण महावीर के उत्तरकालीन हैं। रचनाकार एवं रचनाकाल
स्थानांग भी गणधर विरचित एवं वर्तमान में देवर्धिगणी की वाचना में संकलित ग्रन्थ के रूप में उपलब्ध है। वर्तमान में उपलब्ध इस ग्रन्थ की विषय वस्तु का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि इसमें भगवान् महावीर के निर्वाण के 400-500 वर्षबाद घटित होने वाली घटनाओं का संकलन भी है। अत: इस तथ्य के आलोक में इसका रचनाकाल ईसा की चौथी शताब्दी माना जा सकता है।
स्थानांग में जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ., अश्वमित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्ठामाहिल इन सात निह्नवों का उल्लेख है। इनमें से प्रथम दो के अतिरिक्त सब निह्नवों की उत्पत्ति भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद तीसरी शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी तक के समय में हुई है। गोदासगण आदि नौगणों का उल्लेख हैं। वे गण भी भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग दो सौ वर्ष बाद के हैं, उनमें से कुछ तो महावीर-निर्वाण के पांच सौ वर्ष बाद तक के भी हो सकते हैं। अतएव यह मानना अधिक उपयुक्त है कि इस सूत्र की अन्तिम योजना वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में होने वाले किसी गीतार्थ पुरुष ने अपने समय तक की घटनाओं को पूर्व परम्परा से चली आने वाली घटनाओं के साथ मिलाकर की है। यदि ऐसा न माना जाए तो यह मानना होगा कि भगवान् महावीर के बाद घटित होने वाली उक्त घटनाओं का समावेश प्रस्तुत सूत्र में किसी गीतार्थ स्थविर के द्वारा बाद में हुआ है। दार्शनिक तथ्यों का प्रतिपादन
प्रस्तुत सूत्र में जैन दर्शन के अनेक दार्शनिक तथ्यों का प्रतिपादन हुआ है।
जैन दर्शन द्वैतवादी है। इस अवधारणाकी सम्पुष्टि ठाणं में आगतजीवच्चेव अजीवच्चेव 2/1 सूत्र से हो जाती है। जैन दर्शन के अनुसार जीव और अजीव दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व है। चेतन और अचेतन का परस्पर अत्यन्ताभाव है। इस दृष्टि से द्वैतवाद की अवधारणा समीचीन है।
जैन तत्त्ववाद के अनुसार आत्मा अनन्त हैं। संग्रहनय अनंत का एकत्व में समाहार करता है, अत: संग्रह नय से आत्मा एक है। एगे आया '1/2' । जैन आगमों में आत्मा की एकता और अनेकता दोनों प्रतिपादित हैं। उपनिषद् के एकात्मवाद और सांख्य के अनेकात्मवाद दोनों की 1. ठाणं., 7/140 2. वही.9/29
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org