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आगम साहित्य की रूपरेखा
का वर्णन है । प्रस्तुत आगम की रचना उसी के आधार पर की गई है, इसलिए इसका नाम 'सूत्रकृत' रखा गया । सूत्रकृत शब्द के अन्य व्युत्पत्तिक अर्थों की अपेक्षा यह अर्थ अधिक संगत प्रतीत होता है । ""
सूत्रकृतांग और अनुयोग
जैन परम्परा के अनुसार द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग एवं धर्मकथानुयोग में सम्पूर्ण शास्त्रों का समवतार हो जाता है। आगमों का विभक्तिकरण भी अनुयोगों में हुआ है। चूर्णि एवं टीका साहित्य में यह अवधारणा स्पष्ट रूप से उपलब्ध है । यद्यपि एक ही आगम के संदर्भ में भी चूर्णि और टीका में मतवैविध्य भी है। यथा सूत्रकृतांग को चूर्णिकार चरणानुयोग मानते हैं? जबकि टीकाकार ने इसका परिगणन द्रव्यानुयोग में किया है' चूर्णिकार के अनुसार कालिक सूत्रों का चरणकरणानुयोग में तथा दृष्टिवाद का समावेश द्रव्यानुयोग में होता है । ' आचार्य महाप्रज्ञ जी ने इन दोनों की सापेक्ष दृष्टि से मीमांसा करते हुए कहा है कि — द्वादशांगी मुख्यत: द्रव्यशास्त्र दृष्टिवाद है। शेष अंगों में द्रव्य का प्रतिपादन गौण है । द्रव्यशास्त्र में भी गौणरूप से आचार का प्रतिपादन हुआ है। चूर्णिकार ने मुख्यता की दृष्टि से प्रस्तुत आगम को
में
चार शास्त्र माना है तथा वृत्तिकार ने इसमें प्राप्त द्रव्य विषयक प्रतिपादन को मुख्य मानकर इसे द्रव्यशास्त्र कहा है । इन दोनों वर्गीकरणों में सापेक्ष दृष्टिभेद है । '
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अंगों को पूर्वों से निर्यूढ़ माना गया है। पूर्व दृष्टिवाद के अन्तर्गत है, चूर्णिकार ने दृष्टिवाद को द्रव्यानुयोग कहा है फिर द्रव्यानुयोग से चरणकरणानुयोग कैसे प्रस्तुत हो सकता है? अतः द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग यह सापेक्ष वर्गीकरण ही है । वक्ता की दृष्टि में आचार विषयक वर्णन को प्रधानता दी जाती है तब इसका अन्तर्भाव चरणकरणानुयोग में हो जाता है, यदि प्रतिपादित विषय में तत्त्व / द्रव्य मीमांसा को प्रमुखता दी जाती है तो इसको द्रव्यानुयोग कह दिया जाता है। संभव ऐसा लगता है कि प्रयोक्ता की दृष्टि के आधार पर ही इसका विभिन्न अनुयोगों में समावेश हुआ है।
सूत्रकृतांग : आकार एवं विषय वस्तु
सूत्रकृतांग के भी आचारांग की तरह दो श्रुतस्कन्ध हैं।' प्रथम श्रुतस्कन्ध भाषा की दृष्टि से प्राचीन है तथा द्वितीय अर्वाचीन है। संभव ऐसा लगता है, उत्तरवर्ती किसी आचार्य ने दूसरे 1. सूयगडो 1 भूमिका पृ. 17
2. सूयगडंगसुतं (सूत्रकृतांगचूर्णि) (संपा. मुनिपुण्यविजय, अहमदाबाद, 1975), पृ. 4 : इह चरणाणुयोगेण अधिकारो ।
3. आचारांगसूत्रं सूत्रकृतांगसूत्रंच (सूत्रकृतांगवृत्ति) (संपा. मुनि जम्बूविजय, दिल्ली, 1978), पत्र 1: तत्राचारांग चरणकरणप्राधान्येन व्याख्यातम्, अधुना अवसरायातं द्रव्यप्राधान्येन सूत्रकृताख्यं द्वितीयमंगं व्याख्यातुमारभते । 4. सूयगडंगसुत्तं, (सूत्रकृतांगचूर्णि ) पृ. 3 : कालियसुयं चरणकरणाणुयोगो... .....दिट्ठिवातो दव्वाणुजोगो त्ति । 5. सूयगडो । भूमिका पृ. 18
6.
(क) समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सूत्र 90
(ख) नंदी, सूत्र 82
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